स्थायित्व हेतु सम्मान दांव पर लगाती‘पिछले पन्ने की औरतें’ डॉ.विजय शिंदे विविधताओं से संपन्न देश-भारत। विविध भाषा, धर्म, संस्कृति,आचार, वि...
स्थायित्व हेतु सम्मान दांव पर लगाती‘पिछले पन्ने की औरतें’
डॉ.विजय शिंदे
विविधताओं से संपन्न देश-भारत। विविध भाषा, धर्म, संस्कृति,आचार, विचार, परंपराएं....और बहुत कुछ। वैविधपूर्ण। वैसे ही विभिन्न आर्थिक स्थितियों के चलते असमानताएं और इन असमानताओं के चलते अपराध जगत् का वैविध्यपूर्ण होना। सीधे-सीधे अपराध, जो कानूनी तौर पर अपराध ठहराए जा सकते हैं और ऐसे कई निषिद्ध कार्य है जो सांस्कृतिक विविधता के साथ जुड़कर अपराध लगते नहीं परंतु मानवियता के नाते विचार करें तो घोरतम् अपराध लगेंगे। देश के भीतर कितनी जातियां हैं जिन्होंने आजादी का रस अभी तक चखा नहीं और भारतीय होने के नाते भारतीयत्व क्या है जाना नहीं। वह आज भी अपनी आदिम अवस्था में पौराणिक रीति-रिवाज एवं परंपराओं के साथ चिपके हैं; जहां से वे निकलना नहीं चाहते, सामाजिक स्थितियां उन्हें निकलने नहीं देती। जो परिवर्तन की धारा में कुदते हैं वे स्पर्धात्मक युग में पिछड़ जाते हैं और अपाहिज होकर परंपरागत निषिद्ध कार्य करने के लिए मजबूर होते हैं। ऐसे ही कानूनी तौर पर निषिद्ध कार्य करनेवाले परंतु जातिगत परंपरा के नाते सही परंपरा का निर्वाह करनेवाले‘बेडिया’जाति की स्थितियां है। मध्यप्रदेश में जन्मी शरद सिंह हिंदी के आधुनिक कथा साहित्य का सितारा हैं। उनके लेखन में जबरदस्त क्षमता है और अनछुए विषयों को उजागर करने की तड़प है।‘पिछले पन्ने की औरतें’उप न्यास हिंदी साहित्य के भविष्य को नया आयाम देगा। ऐसा नहीं ऐसे उपन्यास पहले लिखे नहीं गए; लिखे गए परंतु उनमें एक कथात्मकता रहा करती थी जो कल्पना का आधार लेकर पाठकों को मनोरंजनात्मक तुष्टि दे सकती थी। शरद सिंह द्वारा लिखित‘पिछले पन्ने की औरतें’चिंतनात्मक-समीक्षात्मक-समाजशास्त्रीय-खोजपरख उपन्यास है जिसे पढ़कर पाठकों का मुंह खुला का खुला रह जाता है। आज भी भारत में ऐसी जनजातियां हैं जो अस्तित्व के लिए झगड़ रही है, जिनकी वास्तविकता प्रगति की ओर ताकतवर कदम उठा रहे भारत देश के चेहरे पर काला धब्बा लगा देती है। लगभग तीन दर्जन बेड़नियों का चित्रण एवं उल्लेख करते-करते शरद सिंह ने बेड़नियों के सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियों पर प्रकाश डाला और अपने देश में औरतों की दशा (औकात!) को भी उजागर किया है। रामायण-महाभारत तथा ऐत्यासिक स्त्री पात्रों का समीक्षात्मक मूल्यांकन भी किया है और कहा उन्हें भी बेड़नियों जैसा इस्तमाल कर फेंक दिया गया। बेड़नियों के जीवन पर प्रकाश डालते-डालते लेखिका कहती है, औरत बरसात के पानी जैसी है, उसे न जमीन चुनने का अधिकार होता है न अपनी प्यास बुझाने का।(पृ.100) औरत बस पान की तरह है, जिसे जब चाहा मुंह में डालकर चबाया,स्वाद लिया और जब चाहा थूक दिया।(पृ.110) एक आम स्त्री की दशा बाडे में बांधकर रखी जानेवाली गाय के समान है होती जिसे यदि किसी दिन घूमने-फिरने के लिए बाडे से बाहर जाने दिया जाए तो कोई भी व्यक्ति सहजता से उसके गले में अपनी रस्सी डालकर घर ले जा सकता है। ....वह अपनी अनिच्छा के मामूली प्रदर्शन के बाद रस्सी की दिशा में खिंचती चली जाती है, क्योंकि उसे रस्सी का सबल एवं प्रबल प्रतिरोध सीखने का कभी अवसर ही नहीं दिया गया।(पृ.165) शरद जी की यह टिप्पणियां झकझोर देती हैं, सोचने को मजबूर कर देती हैं कि न केवल भारत संपूर्ण दुनिया औरत एवं पुरुष के होने से परिपूर्ण बनी है तो फिर औरतों को पिछले पन्नों में क्यों दबाया जाता है? उनकी अस्मिता-अधिकारों क्यों नकारा जाता है? और औरतें भी यह सबकुछ क्यों सहन करती है? वह मुक-बधिर-अंधी-अपाहिज है? उन्हें हाशिए पर छोडे जाने की स्थितियों का पता नहीं?
महादेवी वर्मा ने औरतों के दुखों को बदरी मानकर वर्णित किया। खैर औरतों के दुःखों को मिटाने के लिए ईश्वर तो अवतरित होंगे नहीं? महाभारत में कृष्ण का द्रौपदी की लाज बचाने के लिए अवतरित होना चाहे काल्पनिक हो या वास्तविक, वर्तमान में कोई कृष्ण अवतरित नहीं होगा। हां कोई पुरुष अवतरित हो भी गया तो दलाली जरुर करेगा....! महादेवी ने लिखा तो था-
"मैं निरभरी दुःख की बदली !
× × × ×
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना।
परिचय इतना इतिहास यहीं,
उमडी कल थी मिट आज चली !"
"ठीक है बदली,....बदली है और उसका विस्तृत नभ में कोई कायम कोना रहेगा भी नहीं। उसका मिटना स्वीकारा जाएगा परंतु बदली को औरत से जोडकर उसका अधिकार छिनना और उसे मिटने के लिए मजबूर करना अन्याकारक है। खुद औरत भी ध्यान रखें, अब अफ़सोस करने का वक्त गुजर चुका, अस्मिता-अस्तित्व और अधिकार की लडाई खुद लडनी पडेगी। अफ़सोस से निरंतर शोषण होता रहेगा। औरतें सामाजिक संस्थाओं में उपस्थित तो हैं परंतु उनको संवेदनात्मक अनुभूति नहीं। उन्हें समाज के पिछले पन्नों में फेंका जाता है। ऐसे ही पिछले पन्नों में दबी औरतों के वास्तविक पिडाओं का रेखांकन शरद सिंह ने किया है।
1.वर्तमान स्थिति -
‘पिछले पन्ने की औरतें’उपन्यास में शरद सिंह ने मध्यप्रदेश में स्थित पथरिया, लिधोरा, लुहारी हबला, फतेहपुर, बिजावर, देवेंद्रनगर.... जैसे कुछ गांवों का जिक्र किया है जहां बेडिया समाज रहता है। इन परिवारों के आय का मूल स्रोत उस परिवार की औरत होती है जिसे बाकायदा बेड़नी बनाया जाता है, उस एक बेड़नी पर दस-बीस जनों का परिवार निर्भर रहता है। हजार भर की आबादी वाले बेडिया गांव में लगभग पचास के आसपास बेड़नियां रहती है; जो नृत्य और शरीर विक्रय कर अपने सारे कुनबे-परिवार का पालनपोषण करती है। इनकी सामाजिक स्थिति का वर्णन करते लेखिका संपूर्ण नारी जाति की स्थिति पर सावधानी से प्रकाश डालती है। सावधानी से इसीलिए कि यह समाज औरत-पुरुष से बना है, वह एक दूसरे के दुश्मन नहीं, दोस्त है। एक नाजुक रिश्ता इन दोनों में है जो एक दूसरे के अस्तित्व के लिए पुरक है लेखिका लिखती है,"मैं पुरुषों की विरोधी नहीं हूं, किंतु उस विचारधारा की विरोधी हूं जिसके अंतर्गत स्त्री को मात्र उपभोग की वस्तु के रूप में देखा जाता है।"(पृ.7) पुरूष भीड़ में भी और सुनसान जगह पर भी स्त्री को दबोचकर अत्याचार करने की मानसिकता रखता है। कोई चिकोटी काटता है तो कोई पुरुषांगों के भद्दे स्पर्श से अपमानित करता है या कोई उसे प्रत्यक्ष भोगने की स्थिति में नहीं पाता तो शब्दों और आंखों से भोगना शुरू करता है। "क्या स्त्री-पुरुष के संबंधों का अंतिम सत्य संभोग ही होता है? लेकिन अधिकांश भारतीय स्त्री-पुरुष एक-दूसरे को समान रूप से भोगते ही कहां है? पुरुष भोगता है और स्त्री भोग्या बनी रहती है।"( पृ.12) लेखिका द्वारा इसे लिखना भारतीय औरतों की वर्तमान स्थिति को बेपरदा करता है।
बेडिया समाज में कोई स्त्री जानबूझकर शरीर विक्रय नहीं करती, न ही रखैल बनना चाहती है और न ही नृत्य करना चाहती है। इनकी पिछडी स्थिति, अशिक्षा, आर्थिक विपन्नता एवं परंपराएं इन्हें इस ओर लेकर जाती है जो सहजता से होता है। परंपरा से ऐसे ही हो रहा है इसीलिए इसमें उन्हें कुछ गलत भी नहीं लगता। जिन ठाकुरों, जमिनदारों, पैसे वालों एवं ताकतवरों.... की वे रखैल होती हैं वह बेड़नियों को औरत का दर्जा तो देता है पर दूसरी पत्नी का नहीं, चाहे वह औरत कितनी भी ईमानदारी से उससे जुडी हो। उसे हमेशा अपमानित कर पिछले पन्नों में दबाने के लिए तत्पर होता है। अपनी जांघों की ओर इशार कर बडे बेशर्मी से, भद्देपन से कहेगा कि‘हम और हमारा ये तो तुम्हें ही ठकुराइन मानते हैं।(पृ.28) देश की आजादी को सालों गुजर चुके परंतु बेड़नियों की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया उनका नृत्य और रखैल बनाए जाना धनिकों के लिए गौरव की बात होती है। गांव की कोठियां, मत्रियों के बंगलों पर नाच के लिए बेड़नियों को आमंत्रित किया जाता है। वहीं पर उनका चुनाव शरीर भोग के लिए होता है। वेश्या, गणिका, नगरवधु, बेड़नी, राजनर्तकी, देवदासी, मुरली, लोकनाट्य तमाशों में काम करती औरतें, लावनी अदाकार, बारियों में नृत्य करती औरतें, बार बालाएं, आयटम गर्ल्स....और रंगिन चष्में चढाकर लाईट,कट एवं ओके की चकाचौंध में फंसी औरतों को चटखारे के साथ चर्चाओं में लाया जाता है और मेजों पर, पलंगों पर सजाया जाता है। हाथी-घोडों के समान बेड़नियों को जानवर मानकर पाला जाना वर्तमान वास्तव है। समाज के भीतर मौजुद खूबसूरत स्त्री के के चेहरे की मुस्कराहट लपकने-लिलने के लिए पुरुषों का झूंड़ तैयार रहता है यह अच्छी स्थिति नहीं है। आज जो औरतें लीड कर रही है वह अपवाद स्वरूप है, उन्हें सलाम तो करना ही पडेगा। परंतु बहुसंख्य औरतों का मूलाधार पुरुष है जो उन्हें भीख स्वरूप नेतृत्व देता है जो अच्छा नहीं माना जाएगा। "समाज में स्त्री की स्थिति अब पहले से अधिक जटिल है। एक ओर स्त्री को अपेक्षित रखा जाता है तो दूसरी ओर उपेक्षित बनाकर रखा जाता है। सत्ता, समाज, संपत्ति पर उसका अधिकार है भी, और नहीं भी। न्याय की पोथियों में ये तीनों अधिकार स्त्री के नाम लिखे गए हैं, लेकिन यथार्थ पोथियों के बाहर पाया जाता है।.... न्याय दिलाने वाले से लेकर उसे एक ग्लास पानी पिलाने वाले भी दया और सहानुभूति के नाम पर लार टपकाने से नहीं चूकते है।"(पृ.261)
2.सरकारी भूमिका -
भारत एक आजाद देश है और यहां लोगों से चुनी सरकार काम करती है। अर्थात् सरकार द्वारा लोकहित में कार्य किया जाना अपेक्षित है परंतु ऐसा होता है या नहीं? पूछा जाए तो उत्तर स्वरूप कुछ आवाजें‘हां’में तो कुछ ‘ना’में उठेगी और कुछ ‘चुप्पी’साधे बैठेगी।‘हां’वाली सरकार समर्थक, ‘ना’वाली सरकार विरोधक और‘चुप्पी’वाली सरकार को न जानने वाली, आजादी से कोसों दूर वाली मानी जाएगी। बेडिया समाज‘चुप्पी’का हकदार है पर धीरे-धीरे उनमें भी सरकार के विरोध में नाराजगी का स्वर उठ रहा है। उसका कारण है उनके घरों में पहुंचा टी.वी. और टी.वी. के विभिन्न चैनल्स, खबरें। थोडे-बहुत चेतनाएं पा रहे हैं वे सालों-साल की अकर्मण्यता से उठने का नाम नहीं ले रहे हैं। उन्हें लगता है सरकार हमारे घरों में नोटों की गड्डियां फिकवाएं या अनाज की बोरियां डाले। खुद योजनाओं का लाभ लेकर हाथ-पैर चलाने की मानसिकता नहीं। इसमें जितना दोष बेडियों का उतना सरकार का भी है क्योंकि जितनी गंभीरता से इनकी स्थितियों पर सोचना चाहिए उतना सोचा नहीं जाता, कारण हजार-पांच सौ के मतदाताओं से उनके लिए कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता बेडिया समाज को पिछडी अनुसूची में समाविष्ट किया गया परंतु इससे भी उनकी सामाजिक स्थितियों में अंतर नहीं आया। लेखिका लिखती है,"शायद यह अंतर बहुत बारीक था, अंतर के पाए जाने का भ्रम था जो किसी छलावे की तरह कभी आभासित होता तो कभी ऐसे अदृश्य हो जाता जैसे हो ही नहीं, क्योंकि मैंने पाया कि बेड़नियां तो अभी भी नाच रही है – वर्तमान सांमतों के सामने ! वे अभी भी परोस रही है अपनी देह को किसी‘बुके की मेज’पर व्यंजन की तरह।(पृ.64)" सरकार उदासिन, सरकारी योजनाओं का लाभ इन तक नहीं पहुंचना, इनके नाम से अलॉट की गई राशियां एवं सहुलतें बीच में ही गुम हो जाती है, अतः आर्थिक तंगी और विपन्नता से परेशान बेड़नियां जो परंपरा से दायित्व निभा रही है आगे आती है और परिवार का पोषणकर्ता बनती है; कुलमिलाकर बेडिया समाज की औरतें स्थायित्व पाने के लिए अपने स्त्रीत्व के सम्मान एवं अधिकार को दांव पर लगाती है और परिवार एवं साथियों के आर्थिक सुरक्षा का जिम्मा उठाती है। खूबसूरत और राई नृत्य में निपुण कुछ बेड़नियां शासकीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों में प्रतिनिधित्व के नाते रूस, अमरिका, जापान आदि देशों की यात्रा भी कर चुकी है परंतु वापसी पर वहीं विपन्नता एवं संघर्ष जारी रहता है। इनके गांवों में स्कूलों की स्थिति दयनीय है, न इमारत, न अध्यापक। बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे, जाए तो पढाए कौन, बैठे कहां? हजारों सवाल। और अंतिम सवाल पढ़-लिखकर स्पर्धात्मक युग में दौडे कब तक? ऐसी स्थिति में बच्चों को स्कूलों में बिना भेजे पुश्तैनी धंधों से जोडा जाए तो किसे दोष दें?
सामाजिक कार्य करने वाली संस्थाएं सरकार के साथ मिल कर कई योजनाओं को गावों में चलाती हैं जिसके चलते बेडियों की स्थिति बदले। परंतु बेडियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं में संदेह-असंमजस है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं। बीच में खाई है, जुडाव नहीं।"यह दरार इस बात की है कि न जाने कितने लोगों ने, समाजसेवी और उद्धारकर्ता के रूप में इन बेडियों से छल किया है.... न जाने कितने लोग इनकी लड़कियों को बहला-फुसलाकर दूसरे शहरों में ले जाकर बेच देते हैं।"(पृ.218) इसीलिए शासन की ओर से बेडियों के उद्धार के लिए चलाई जा रही‘जाबाली योजना’जैसी तमाम योजनाएं विफल हो गई। सामाजिक महिला कार्यकर्ताओं के लिए बेड़नियों के मुंह से‘वे अपना बदन बना रही है’जैसी अविस्वासभरी’टिप्पणी इन्हीं संदेहास्पद स्थिति के कारण निकलती है।
3.आत्मविश्वास की कमी, परंपरा एवं सामाजिक दबाव -
बाहरी समाज में जैसे स्त्री-पुरुष वैसे ही बेडियां समाज में स्त्री-पुरुष है परंतु दोनों की मानसिकता में बडा अंतर है। सामाजिक स्थितियां, दबाव ,परंपराएं और आत्मविश्वास की कमी, इन पुरुषों और औरतों को दयनिय स्थिति से उभरने नहीं देते। बेडियां जाति का पुरुष पूर्णतः अकर्मण्य है वह अपनी बीवी, बहन, मां, बेटी से कमाया खाना खाएगा, केवल खाएगा नहीं अपितु शराब एवं अन्य गतिविधियों में उसकी कमाई रकम को उडाएगा। उसका मन कभी भी मेहनत और स्वाभिमान की जिंदगी नहीं चाहता। उसके परोपजीवि अस्तित्व को ढोते-ढोते औरतें थक जाती है पर कभी भी दायित्व से पलायन नहीं करती। बेड़नियां ठाकुर, जमींदार एवं धनिकों से परिवार के पालन-पोषण के लिए धन तो पाती ही है साथ ही जमीनें भी पाती है। लेकिन बेडिया पुरुष और न औरत अपनी खेती में पसिना बहाकर ईमान की रोटी खाना चाहते हैं। केवल औरत का शरीर बेचकर आराम से पैसा कमाने की आदत उनको सुख भोगी बनाती है मेहनत-मशक्कत कर दस-बीस रुपए कमाने की अपेक्षा थोडे समय में हजारों रुपए कमाने का शॉर्टकट पुरुष व औरतें चुनती है जो उने आत्मविश्वास की कमी को दिखाता है।
बेडिया समाज में सालों से देह विक्रय ,चोरी एवं नृत्य से जीवनयापन की परंपरा है, उसे छोड़ कर नवीन जीवन शैली अपनाने की उसकी इच्छा नहीं है। यह जनजाति अपराधी प्रवृत्ति की है और अपराध पैसौं के लिए किया जाता है। जहां पर इन्हें पैसा उपलब्ध होता है वहां अपराध और जीवन की सुरक्षा भी मिलती है; अतः बेड़नियां ताकतवर-धनिकों की रखैल बन कर रहना पसंद करती है। वैसे उनके रीति-रिवाज में विधिवत‘सिर ढकने’की प्रक्रिया कर बाकायदा रखैल बनने की इजाजत भी दी जाती है। परंपरा, आर्थिक दबाव एवं सामाजिक दबाओं के चलते वह देह व्यापार करती है। बेड़नियों ने पाया कि "उनके अपने समुदाय के पुरुष न तो उनका सहारा बन पाते हैं और न उन्हें सुरक्षित जीवन दे पाते हैं तो उन्होंने पूंजिपतियों की संपत्ति के रूप में जीना स्वीकार किया। वे जानती थी कि एक धनवान अपने धन की रक्षा हर हाल में करता है। उन्हें यह सौदा महंगा नहीं लगा क्योंकि उन्हें बदले में रहने के लिए एक निश्चित स्थान, जीवनयापन के लिए आर्थिक स्रोत और सुरक्षा के लिए एक संरक्षक मिल रहा था।"(पृ.139.) इन सारी स्थितियों के बावजूद बेड़नियां संसार और धनिकों को लूटने की मंशा नहीं रखती। देह व्यापार उन पर थोपा गया है, जिससे बाहर निकलना उनके लिए बहुत मुश्किल है।
4.बाजारवाद -
आधुनिक युग में खरीद-फरोख जोर-शोर से शुरू है। लोग अपनी संस्कृति, देश, सभ्यता, आत्मा.... को बेचने पर उतारू है। पैसों की ताकत बढ़ती जा रही है और उसके लिए कोई कुछ भी करने के लिए तत्पर है। अर्थात् बाजारवादी प्रवृत्ति हर कहीं देखी जाएगी। बेडिया समाज को भी अपने पेट को पालने के लिए और कुछ भौतिक सुविधाओं को जुटाने के लिए पैसों की जरूरत होती है। उनके पास न जमीन-जायदाद, न नौकरी, न शिक्षा, न सत्ता.... पैसा पाए तो कैसै पाए? पैसा पाने के इनके जरिए अपराध की परिधि में आते हैं पर इन्होंने इसे परंपरा मान किया, कर रहे हैं। नृत्य, शरीर विक्रय, चोरी और कभी-कभार झूठी गवाहियां इनके आय का स्रोत हैं। इसमें भी प्रथम तीन ही इनकी पैसों की नैया को पार लगा सकते हैं। नृत्य के पश्चात् देह विक्रय और चोरी पकडी जाए तो देह परोसकर छुटकारा पाना इनकी तकनिक है। बात घुम-फिरकर शरीर विक्रय तक पहुंचती है। हर बेड़नी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष इस धंधे में लिप्त है और पैसा कमाना चाह रही है। धनिक पैसा फेंक इन पर यौनत्याचार करते हैं तथा अनैसर्गिक यौन संबंध रखते हैं। योनी मैथुन, गुदा मैथुन, मुख मैथुन करने की इजाज़त देती बेड़नियां नरम बिस्तर से लेकर चलती गाडियों में भी यौनत्याचार सहन करती है; केवल पैसों के लिए। इन संबंधों से जो बच्चे जन्मते हैं उनके बाप नहीं होते, जो असली बाप है वह इन्हें अपने बच्चे नहीं मानता। यहां तक असली बाप का बेड़नियों को पता भी नहीं होता। उनका कहना है, "का जाने.... पतो नईं! बाकी जब हमने अपने मोडा खों नांव सकूल में लिखाओ रहो सो उसे मोडा को बाप को नांव सोई लिखाने परो....सो हमने ऊ को नांव रुपैया लिखा दयो....।"(पृ.155) बच्चों के बाप का नाम रुपैया और पैसा कितनी बडी विड़बना है आजाद भारत देश के आजाद देसवासियों की।
बाजारवादी संस्कृति में हमेशा व्यवसायी व्यक्ति लाभ में रहता है परंतु यहां व्यावसायिक विरोधाभास दिखाई देगा। "अन्य व्यवसाय में विक्रेता प्रथम दर्जे में तथा ग्राहक दोयम दर्जे में होता है, किंतु इस व्यवसाय में ग्राहक रूपी पुरुष प्रथम दर्जे में तथा विक्रेता रूपी स्त्री दोयम दर्जे में होती है।"(पृ.226)
5.बेटी के जन्म का स्वागत -
जिस देश की तमाम जनता इधर स्त्री भ्रूण हत्या करने पर तुली है उसी देश की एक जनजाति बेडिया स्त्री जन्म का स्वागत बडी खुशी के साथ करती है। उसका कारण है इस जाति में लड़की ही परिवार का मुख्य आधार और पालनकर्ता होती है। इनमें पुरुष शराबी, जुआरी, अकर्मण्य रहा है; अतः उसे नकारा जाता है और लड़की का स्वागत किया जाता है। शरद सिंह को इनके वास्तव का जब पता चलता है तब वे चकित होती हैं। और इसे पढ़ पाठक के नाते हम भी दंग रह जाते हैं। भारतीय समाज में "सच तो यह है कि स्त्री का जन्म एक अवांछित घटना होती है। समाज की व्यापारिक बुद्धि स्त्री के जन्म को साहूकार के खाते में चढे हुए एक ऐसे कर्ज के रूप में देखती है जिस पर ब्याज-पर-ब्याज लगते जाना है।"(पृ.163) कहां आम भारतीय समाज और कहां बेडिया। वैसे बेडियां परिवार में मुख्य आर्थिक स्रोत लड़कियों की खूबसूरती-यौवन से जुड़ने के कारण यह दृष्टिकोण है। जो भी हो इससे खुशी होती है कि कहीं तो स्त्री जन्म का स्वागत हो रहा है। पर स्वागत के कारणों को खंगालने से पीडा और दुःख होता है। इससे यह सीख मिल सकती है कि बेटी को जिंदा रखना है, नारी जाति का अस्तित्व बनाए रखना है, स्त्री-पुरुष समानता लानी है तो औरत ही आगे आकर वह परिवार के आर्थिक स्रोतों का भार वहन करें, ईमानदारी से, और परिवार में इज्जत पाए। ऐसी स्थिति में नारी सम्मान का सूरज उग सकता है। लेखिका ने बेडिया समाज में जन्मी लड़की के स्वागत के कारणों पर प्रकाश डाला है,"आज एक बेड़नी उस समय फूली नहीं समाती जब वह एक स्त्री शिशु को जन्म देती है। वह और उसके परिवार जन स्त्री-शिशु के जन्म पर खुशियां मनाते हैं। इसका सबसे बडा कारण यह है कि एक बेड़नी को अपने बेटी के भविष्य में ही अपना सुरक्षित भविष्य दिखाई देता है।"(पृ.167)
6.क्या किया जाए ?
‘पिछले पन्ने की औरतें’उपन्यास को पढ़ने के पश्चात् कोई भी नहीं चाहेगा कि भारत में ऐसी जनजातियां बची रहें। अपेक्षा की जाएगी बदलाव की। ऐसे जातिगत लोगों के जीवन में सूरज की किरणें उगे और यह भी राष्ट्रीय प्रवाह में शामिल होकर आजाद देश के निवासी होने के नाते आजादी-अधिकारों को चखें। इन परिवारों के बच्चे जब पढ़-लिख कर आगे बढेंगे तभी यह संभव होगा। पर इनके लिए पढाई का रास्ता आसान नहीं और स्पर्धात्मक युग में टिक पाना मुश्किल भी है। परंतु आज सरकारी नौकरियों की कमी तथा प्रायव्हेट नौकरियों की बढोत्तरी आशावादी चित्र दिखा रही है। इन बच्चों के लिए सरकारी तौर पर पढाई के लिए हर सुविधा मुहैया की जाए जिससे वे शिक्षा की चरम को छूकर अपने टैलेंट के बल पर विभिन्न क्षेत्रों में झंडे गाढ़ सके। प्रायव्हेट क्षेत्र में टैलेंट को तराशा जाए तो एक से दो, दो से चार, चार से आठ.... में परिवर्तन की लहर उठ सकती है।
शरद सिंह ने‘पिछले पन्ने की औरतें’उपन्यास में बेडिया समाज में औरतों द्वारा देह व्यापार करने के कुल पांच प्रेरक तत्वों का जिक्र किया है -
1. देह व्यापार की परंपरा,
2. वातावरण एवं सामाजिक दशाएं,
3. पुरुषों की अकर्मण्यता,
4. कमजोर आर्थिक स्थिति,
5. कमाई के आसान रास्ते के प्रति रुझान।
लेखिका द्वारा दिए गए इन पांच तत्वों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यह उपन्यास सरकार एवं सामाजिक कार्य करने वाली संस्थाओं के लिए मार्गदर्शक तत्वों को बताता है। कुछ सरकार, कुछ समाज और कुछ बेडियां एक-दूसरे के प्रति विश्वास से हाथ बढाए तो परिस्थितियां बदल सकती है। पिछडी जनजातियां लगन विश्वास से शिक्षा प्राप्त करें बडी आसानी से अपने-आपको परिवर्तित कर सकते हैं। पिछले पन्नों में दबे सामाजिक हिस्से को जब तक मुखपृष्ठ पर लेकर नहीं आएंगे तब तक इन्हें मनुष्य माना नहीं जाएगा; अतः उठकर मुखपृष्ठ की ओर चलने का सफर शुरू करना अत्यंत आवश्यक है।
उपसंहार -
‘पिछले पन्ने की औरतें’शरद सिंह द्वारा लिखित उनका पहला खोजपरख उपन्यास है जिसमें सामाजिक स्तरों में दबी-कुचली और पिछले पन्नों में गई औरतों को मुखपृष्ठ पर लाने का सफल प्रयास किया है। तीन भागों और सत्ताईस उपभागों में लिखे गए उपन्यास में कोई नायिका नहीं, हर हिस्से में स्त्री पात्र बदलता है। किसी स्त्री की वेदना एवं पीडा को रिर्पोताज शैली में लेखन करना लेखिका की कुशलता का परिचायक है। विभिन्न औरतों से होकर संपूर्ण भारतीय औरतों के अस्तित्व, अधिकार पर लेखिका ने प्रकाश डाला है। औरतों को अपने अस्तित्व की तलाश करनी होगी। पुरुष उसे तलाशने में मदत करने का नाटक कर भटका सकता है, अतः उसकी मदत के बिना‘आधी दुनिया’होने के नाते वे अपनी‘आधी दुनिया’की हकदार है, उसे पाए। औरत का अस्तित्व पुरुष के समकक्ष है इसे कभी न भुले।
‘पिछले पन्ने की औरतें’उपन्यास में चित्रित संपूर्ण औरतों के मन में सादगी भरा जीवन जीने की मंशा है। उन्हें भी लगता है कि उनका भी एक पति और घर हो, उनके बच्चों को उनके पिता के नाम मिले, वे पढे-लिखे। बच्चों की प्रगति अपनी आंखों से देखें। लड़की और लड़कों की शादी अच्छे घरों में हो....। इन मंशाओ-इच्छाओं को पूरा करने के लिए बेड़नियां प्रयासरत रहती है परंतु उपन्यास से यह भी तथ्य बाहर निकलता है कि सारे प्रयासों के बावजूद उनके बच्चे उसी दलदल में दुबारा फंस जाते हैं। इतिहास और परंपरा उनका पीछा नहीं छोड़ती। उनकी स्थिति सूरदास के पंछी जैसे होती है-
"अब मेरा मन अनंत कहां सुख पावै।
जैसे उडि जहाज पै पंछी, फिर जहाज पर लौट आवै।"
शरद सिंह ने पात्रों का दुबारा दलदल में फंसने का वर्णन किया है परंतु कुछ पात्र सलामति से दबाओं और परंपराओं को तोड़कर आत्मविश्वास से उडान भरने में सफलता हासिल करने का भी चित्रांकन किया है। जीवन में पिछले पन्नों से मुखपृष्ठों पर स्थान पाना है तो जीवट, पेशन्स, आत्मविश्वास, ईमानदारी और ज्ञान की जरूरत है; अगर बेड़नियां यह सब कुछ पाए तो वे‘पिछले पन्नों की औरतें’नहीं कही जाएगी।
आधार ग्रंथ –
पिछले पन्ने की औरतें (उपन्यास) - शरद सिंह
सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, तृतीय संस्करण - 2010
पृष्ठ संख्या - 304, मूल्य-395 रुपए
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डॉ.विजय शिंदे
देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद.
फोन 09423222808
ई-मेल drvtshinde@gmail.com
sir, your said article is a catalyst of the emancipation and empowerment of women unto this last. it is both an antodite and panacia to the trauma of women.
जवाब देंहटाएंडॉ. नवले जी आपकी टिप्पणी उचित है महिला जगत् की स्थितियां सच में सोचनिय है और इस पर उचित कदम उठाना भी जरूरी है। पुरुषों ने हमेशा उन्हें इस्तेमाल किया है इतना भी अगर वे जाने तो भी काफी है।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार डॉ. विजय शिंदे जी....
जवाब देंहटाएंप्रस्तुत समीक्षा शरद जी आप तक पहुंची और आपने इसे पढा धन्यवाद। वैसे आपने 'पिछले पन्ने की औरतें' में जो भी लिखा है वह वास्तववादी तो है ही पर इसमें वर्णित हर प्रसंग के साथ आपका जुडाव है यह विशेष माना जाएगा। दूसरी बात एक समाजशास्त्रिय समाज सेवी के नाते आपका मूल्यांकन उपन्यास को और अधिक ताकतवर बनाता है। आपसे हमारा आगे भी संपर्क बना रहेगा।
हटाएंशरद जी को उनकी लेखनी के वजह से ही जानती हूँ ,उनकी रचनाओं में मौलिकता व् आधुनिक समाज के दर्पण की झलक है | आगे भी पढूंगी उन्हें शुभकामनायें |
जवाब देंहटाएंरजनी जी प्रणाम। आपका संदेश शरद जी के पास पहुंच जाएगा। आपने उचित फर्माया 'उनकी रचनाओं में मौलिकता व आधुनिक समाज के दर्पण की झलक है।' हमारा और अपका संपर्क बना रहेगा और शरद सिंह जी के अन्य रचनाओं पर भी चर्चा करेंगे। स्नेह बनाए रखें।
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हटाएंमुझे शरद जी की इस पुष्तक को पढ़ने का गौरव प्राप्त हुआ और उसमें विजय जी की समीक्षा पड़कर कहा जा सकता है कि बड़ी ही गहराई और मेहनत से तैयार किया गया है ...दोनों को सदर साभार ....
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