नूतन प्रसाद का व्यंग्य - प्रभु कृपा

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  रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास जीवन भर अभावों सक जूझते रहे . वे मांगकर खाते और मस्जिद में सोते थे (मांग के खैबो,मसीत मं सोइबो) पर रामायण ...

 

रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास जीवन भर अभावों सक जूझते रहे . वे मांगकर खाते और मस्जिद में सोते थे (मांग के खैबो,मसीत मं सोइबो) पर रामायण के प्रवचनकर्ता शुद्ध घी का माल उड़ाते हैं और ठाठ से रहते हैं. तुलसी ने अपने दास मंदबुद्धि और अज्ञानी कहा पर ये प्रवचनकार अपने को श्री-श्री एक हजार आठ स्वामी जी महाराज कहते हैं. जबकि इन्हें कहना चाहिए श्री चार सौ बीस उर्फ धार्मिक लुटेरे . इनके उपनाम भी तो देखिए-कोई मानस मर्मज्ञ है तो कोई मानस सम्राट . यानि तुलसी से भी धुरंधर विद्वान ये हुए. लेखकों की ऐसी ही दुर्गति होती है. चूंकि मुझे भी तुलसी की स्वर्गीय आत्मा को पीड़ा पहुंचाना है साथ ही पाठकों का बहुमूल्य समय बर्बाद करना है इस इन बड़बोले विद्वानों का अनुसरण कर रामायण का एक अंश प्रस्तुत करता हूं. . . . ।

रामचन्द्र लंका पर विजय पा चुके थे. यद्यपि युद्ध में वानरों ने भी खून बहाया था,पर उन्हें श्रेय नहीं दिया जायेगा. ताजमहल मजदूरों के श्रम से बना पर शाहजहां का नाम होता है. राम जल्द से जल्द अयोध्या लौटना चाहते थे. विभीषण को बुलाया गया. कहा- तुम्हें राज्य क्या मिला घमंड हो गया. मेरी सुधि भी नहीं रही. . ?

अपने ही देश में दूसरे की डांट सुनकर विभीषण को बड़ा गुस्सा आया. लेकिन अंर्तराष्ट्रीय मैत्री पर ध्यान गया तो विनम्र होकर पूछा- क्या हो गया भगवान,मैं कुछ समझा नहीं . . . . ?

- जमाना टेढ़ा है. मेरी अनुपस्थिति में किसी दूसरे ने राज सिंहासन पर धावा बोल दिया तो मैं कठिनाइ में पड़ जाऊंगा. मैं जल्द से जल्द अयोध्या लौटना चाहता हूं.

- प्रभु,आपने भाई साहब (रावण)को मार लंका की गद्दी मुझे सौंपी इसके लिए मैं आपका ऋणी हूं. आप चाहते क्या हैं आज्ञा तो दीजिए. मैं उसका पालन करुंगा.

- मुझे विमान चाहिए ,वह भी तीव्रगामी. प्रबंध कर सकोगे. . . ?

राम पूरी बात भी नहीं कह पाये थे कि विभीषण ने पुष्पक विमान का प्रबंध कर दिया. राम-सीता-लक्ष्मण -हनुमान इत्यादि विशिष्ट व्यक्ति विमान पर बैठे और उड़ चले. राम आते वक्त वनवासियों को आश्वासन देकर आये थे कि मैं तुम्हारे गांव का विकास करुंगा. स्वर्ग बना दूंगा पर जीतने के बाद उनकी सूरत देखना अशुभ माना तभी तो पैदल नहीं लौटे. यही नहीं जिन वानरों ने लड़ाई में साथ दिया था वे लंका में ही छूट गए. विमान में चढ़ते वक्त राम ने उनकी याद तक नहीं की . वैसे ही चुनाव युद्ध जीतने के बाद नेता जनता का ख्याल नहीं रखते. कोई उनके आगे अपना दुख रोता है तो वे कहते हैं कि मैं अभी राजधानी जा रहा हूं जबकि वास्तव में वे अपने परिवार के लोगो एवं चम्मचों के साथ राजधानी सैर सपाटे करने निकल भी जाते हैं.

बेचारे वानर बड़े परेशानी में पड़े थे. उनमें से एक ने कहा-भइया घर छोड़े बहुत दिन हो गए हैं बाल बच्चों की बहुत याद आ रही है. . . . ।

-पर क्या करें,जाने का कोई साधन भी तो नहीं है. दूसरा ने कहा.

-ऐसा करे न,यहां पर जो भारत के राजनयिक है,उनसे विनती करें. यदि वे समाधान निकल देते हैं तो मातृभूमि के दर्शन हो जायेंगे.

वानर राजनयिक के पास दौड़े और अपनी समस्या बताई,पर व्यस्त होने के कारण उनने कुछ ध्यान नहीं दिया. विदेशों में नियुक्ति राजनयिक वहां मौज-मस्ती करते हैं. पार्टियों में भाग लेते है . हकीकत में यही उनकी व्यस्तता है. वानर अधिक गिड़गिड़ाये तो राजनयिक ने भारत से सम्पर्क किया. तो भारत के कर्तव्य परायण अधिकारियों ने दू टूक जवाब दे दिया-इस समय देश नाजुक दौर से गुजर रहा है. असम और पंजाब की समस्याएं बाएं मुंह खड़ी है. जब इनसे निपट लेंगे तब वानरों के बारे में सोचेगे.

राजनयिक ने स्थिति बताई-लेकिन वानर यहां हल्ला मचा रहे हैं ,देश वापसी के लिए. मेरा तो इन लोगो ने नाक में दम कर दिया हैं.

- उन बानरों को लंका जाने किसने कहा. जब वे आपको परेशान कर रहे हैं तो समुद्र में फिंकवा दीजिए. दोनों देशों के झंझट ही खत्म हो जायेगे.

अब वानर क्या करें ?एक बूढ़े वानर ने सुझाव दिया कि विदेश मंत्रालय से सम्पर्क किया जाए. वहां से कोई मदद मिले तो स्वदेंश लौटना संभव हो जायेगा. वानर विदेश विभाग के कार्यालय में उपस्थित हुए. वहां अपना रोना रोये. विदेश सचिव उबल पड़े- युद्ध के कारण देश का सर्वनास हो गया है. फसलें चौपट हो गई हैं. व्यापार भी ठप्प है. तुम भारतीय बड़े धूर्त होते हो. दूसरे देशों में दंगा कराते हो.

. जाओ,तुम्हें सहायता नहीं मिलेगी.

वानरों ने कहा- साहब,हम यहां प्रवासी है इसलिए हमारा सम्मान होना चाहिए. आप तो हमें कुत्ते की तरह हमें दुत्कार रहे हैं. बताइये तो तमिलों का संहार करने हमने कहा था.

विदेश सचिव आपे से बाहर हो गए. उनने सामने से हट जाने कहा तो वानर पुनः बाले -आप हमारे लौटने की व्यवस्था नहीं करते तो लंका में ही रहने आज्ञा दिलवा दीजिए.

विदेश सचिव ने नाग की तरह फुंफकारा- तुम्हें यहां की नागरिकता देकर आफत को निमंत्रण नहीं चाहते. यहां रहोगे तो तमिलों के साथ मिल कर समाजवाद की मांग करोगे. इसलिए चौबीस घंट के भीतर लंका से मुंह काला करो वरना. . . ।

- वरना क्या. . . . ?

- कत्ल कर दिए जाओगे.

वानरों में हाहाकार मच गया. उनकी स्थिति त्रिशंकु सी हों गई. वे घर के हो रहे थे न घाट के . प्रवासी ऐसे ही बेमौत मरते हैं. जब उन्हें किसी भी प्रकार से सहायता नहीं मिली तो उनने पैदल ही लौटने का फैसला किया. वे गिरते-पड़ते समुद्र के पास आये तो हैरान रह गए- लंका आने के लिए जो पुल बनवाया गया था,उसका नामो निशान भी नहीं था. वानरों में से एक ने कहा- पुल कहां उड़ गया. उसे जमीन निगल गई या आसमान खा गया,आखिर यह कैसे हुआ !

- राम ने उद्घाटन किया था इसलिए . दूसरे ने कहा.

- तुम ठीक कहते हो ईश्वर के लिए कोई भी कार्य असम्भव नहीं हैं. तीसरे ने कहा.

-पुल क्यों और कैसे ध्वस्त हुआ यह दूसरी बात है पर इस पवित्र स्थान को पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा खोज की जानी चाहिए. चौथे ने कहा.

यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है कि मकान की सुरक्षा के लिए उपाय नहीं करते पर जब वह खंडहर में बदल जाते हैं तो कहते हैं कि इमारत बुलंद थी. उसकी खुदाई की जानी चाहिए. संभव हैं - पुराने सिक्के निकल आये. पुरातत्व विभाग अपने कर्तव्य पथ पर दौड़ जाता है. हम अतीत के प्रेम में इतने दीवाने हैं कि वर्तमान को ठोकर मार देते हैं ब,ा दूध के लिए रोता है तो उसे लोरी गाकर शांत कराते हैं कि मुन्ना क्या हुआ अभी पानी भी नहीं मिल रहा. पर इस देश में पहले दूध-दही की नदियां बहती थी.

मेरे एक मित्र इतिहासकार है. वे मेरे पास आये और बोले- अब इस देश में रखा ही क्या है. पहले यहां सुख था वैभव था. समृद्धि थी तभी तो इसे सोने की चिड़िया कहा जाता था. . . ।

मैंने कहा-वह इसलिए कहा जाता था क्योंकि उस चिड़िया का मांस शिकारियों को खाना था.

मित्र भौंचक्क हो गये - मैं समझा नहीं . . . . ?

- विदेशियों को भारत को लूटना था. यहां की संस्कृति को तबाह करना था. कोहिनूर ,हीरा और मयूर सिंहासन को ले जाना था. जिसे बर्बाद करना हो उसकी प्रशंसा की जाती है,यह बात आप अच्छी तरह जानती होगे.

उस दिन से इतिहास कार महोदय मेरे लिए इतिहास हो गये.

लो,मैं इधर दूसरी धारा में बह रहा हूं. उधर वानर समुद्र पार कर गये. इसका पता मुझे भी नहीं चला. जनता भूख मर कर भी जीवनरुपी हिन्द महासागर में कैसे पार उतरती है. किसी मंत्री की कालर पकड़कर पूछ देखिये,वे कभी बता ही नहीं सकते. हां,जनता को गाय की तरह सीधी कहकर उसकी प्रशंसा जरुर कर देंगे. आशंका है कि समुद्र को वानरो पर दया आ गई होगी तो वह पार उतार दिया होगा. मजदूर श्रम करके अपना पेट भरते हैं पर कारखाने के मालिक कहते हैं कि हम मजदूरों को काम देते हैं. उन्हें न खिलाये तो वे मणिकर्णिका घाट पहुंच जायें.

वानर धक्के खाते भूखे-प्यासे मरते राजधानी पहुंचे तो वहां जश्न मनाया जा रहा था. राजधानी कैबरे डांसर की तरह संजी संवरी थी. जंगलों से तुरंत कटवा कर मंगवाये गये बांस बल्लियों से स्वागत द्वार बने थे. ग्रामीणों को खाने के लिए फल्लीतेल भी नहीं मिल पा रहा था पर वहां शुद्ध घी के दीपक जल रहे थे. गांव के लोग अन्न के दाने के लिए तरस रहे थे. वहां के लोग मिठाई फेंक रहे थे. दिल्ली वह खर्चीली साम्राज्ञी है जो सारे देश के पैसे से ऐश करती है. वानरों ने वहां के लोगो सेपूछा-तुम प्रसन्न क्यों हो. किसलिए फटाके फूट रहे हैं. ?

राजधानी वासी वानरो पर हंसे- अरे,ये कहां के भूक्कड़ आ गये. क्या इन्हें पता नहीं कि आज दीवाली हैं.

- दीवाली, लेकिन किस खुशी में . . . . ?

- हमने लंका पर विजय पाई हैं इसलिए. . . ।

वानर आश्चर्य में पड़ गए. बोले -लेकिन हमने तुम्हें युद्ध के मैदान में नहीं देखा.

-कैसे देखोगे,तुम वहां उपस्थित रहो तब न. . . ?

यानि राजधानी वालों ने युद्ध किया और वानर झक मार रहे थे. बड़े गुरु होते हैं दिल्ली वाले. वे करते धरते कुछ नहीं पर यश लूटने में बाजी मार लेते हैं. तभी पता चला कि पुरस्कार वितरण होने वाला है. उसमें भी जिनने युद्धभूमि में दुश्मन के दांत खट्टे किए थे वे दुत्कार दिये गये पर जो कायर थे,पीठ दिखाकर समर भूमि से भाग खड़े हुए थे,वे पुरस्कार हथिया लिए. उनका राम तक एप्रोच रहा होगा.

जब पुरस्कार वितरण समारोह समाप्त हो गया तो वानरों ने राम को घेरा. राम को विश्वास नहीं था कि वानर यहां आ धमकेंगे . इसलिए वे आतंकित हुए पर सबको नचाने वाले राम अपने को भक्तवत्सल सिद्ध करने के लिए आंखों में आंसू भर लिए और बोले- मेरे सहयोगी मित्रों,मैं तुम्हारी ही राह देख रहा हूं. चलो,अच्छा हुआ जो आ गए.

वानर बोले- अब आप घाव में मरहम लगाने का प्रयास न करे . हम आपके हैं कौन,जो हमारा ख्याल करेंगे !

- ऐसा न कहो. तुम्हारे बल मैं रावण मारयो और लंका जीती है.

- जी नहीं,हमने आपकी कभी सहायता नहीं की हैं. विजय तो राजधानी वालों ने दिलाई है. हम यहां कैसे आये,कितनी तकलीफें मिली. किसी को बता कर करे भी क्या?कौन हैं हमारा दुख सुनने वाला !

- मैं कृतध्न नहीं हूं ,बताओ,क्या कष्ट है ?

- हमारे कुछ साथी मर गये. उन्हें जीवित कीजिए तो .

राम ने किसी को जीवित नहीं किया. हां,दो मिनट मौन रहकर श्रद्धांजलि अर्पित जरुर की . वैसे यह उनका स्वभाव था. सीता को बचाने के लिए जटायु ने रावण से घोर संग्राम किया. अंत में वह मारा गया. बाद में राम वहां पर पहुंचे. जटायु का अग्नि संस्कार किया. दो-चार आंसू ढाल दिए. बस इतने में ही उनका कर्तव्य पूरा हो गया. जिन वीरों ने देश के लिए अपना बलिदान दिया उनके यश गान गाकर और शहीद दिवस मनाकर हम छुट्टी पा लेते हैं. यह नियम राष्ट्रीय हैं इसलिए प्रत्येक भारतीय को इसका पालन करना चाहिए.

राम संयम होने के बाद बोले- वानरों के मृत्यु से मुझे भयंकर आहत पहुंचा है. मैं उनके परिवार जनों को दस-दस हजार देने की घोषणा करता हूंपर मैं यह जानना चाहता हूं कि उनकी मृत्यु हुई कैसे ?

वानरों ने बताया- समुद्र में डूबने से. . . ।

- अरे ,मैंने पुल बनवाया था ,उससे पार क्यों नहीं किया ?

- पुल का पता नहीं है. जाने कहां बह गया. हां, रामेश्वरम-मंदिर अब तक हैं.

जहां भी बांध बनाया जाता है. उसके समीप ही मंदिर का निर्माण होता है. कुछ दिनों बाद बांध तो फूट जाता है पर मंदिर रह जाता है. राम ने चकित होकर पूछा- लेकिन यह कैसे हुआ. पुल का निर्माण तो मेरे ही देखरेख में हुआ था ?

- इसलिए तो बह गया. एक वानर ने व्यंग्य -तीर छोड़ा.

- मजाक मत करे भाई,सच-सच बताओ ।

- विश्वास न हो तो सी. बी. आई. से पता लगवा लीजिए न ।

राम ने जांच करायी तो वानरों की बात सच निकली. उनने नल-नील को तुरंत बुलवाया. कड़े स्वर मे कहा- मैं क्या सुन रहा हूं ?

नल-नील ने हाथ जोड़कर पूछा-क्या हो गया भगवन,हम कुछ समझे नहीं.

- जिस पुल को तुमने बनवाया था. वह तो बह गया. अब दिख गई तुम्हारी ईमानदारी. देश के साथ गद्दारी करते हो और अपने घर भरते हो.

नल-नील बड़े चालाक अभियंता थे. उन्हें मालूम था कि पुल बहेगा और घपले की जांच होगी. इसलिए रुपयों को विदेशी बैंकों में पहले से ही जमा कर चुके थे . बड़े अधिकारी-उद्धोगपति और राजपुरुष अपने काले धन को स्विटजरलैंड के बैंकों में छिपा देते हैं और यहां कहते हैं कि हम तो भिखारियों से भी गये बीते हैं हमारे पास कुछ नहीं हैं.

नल-नील के खातों की जांच हुई पर दमड़ी न निकली तो वे मूछों पर हाथ फेरते हुए बोले-प्रभु,अब तो आपको विश्वास हो गया कि हम ईमानदार हैं.

- हां,लेकिन किसकी गलती है यह भी तो मालूम होना चाहिए.

- ठेकेदारों की. . . ।

ठेकेदार आये पर उननेअपने को ऐसा बेदाग साबित किया किराम के दामन पर दाग नजर आने लगे. इसी तरह जितने भी लोगो से पूछताछ हुई वे सब के सब दूध के धुले बन गये. भारत के गर्त में जाने का मूल कारण यही है. उन्होंने वानरों पर उल्टा आरोप ठोंक दिया- ये हमारी देशभक्ति से जलते हैं. हमें बदनाम करने के लिए पुल तोड़कर हम पर लांछन लगा रहे हैंदरअसल ये आतंकवादी है तोड़फोड़ करते हैं. आपको सत्ताच्युत करना चाहते हैं,तभी तो आप पर भी ब्लेम लगाया.

वानरों के ऊपर वज्रपात हुआ. वे बोले - प्रभु ये झूठ बोल रहे हैं.

राम ने डपटकर कहा- चुप रहो,मुझे मालूम हैं कि हत्यारा स्वयं थाने जाकर दूसरे के नाम से रिर्पोट कर देता है. वैसे ही तुमने मेरे ईमानदार अधिकारियों और विश्वस्त अदमियों पर दोष मढ़ रहे हो इस राष्ट्रघाती कर्म के लिए तुम्हें दण्ड मिलेगा.

वानर बहुत गिड़गिड़ाये पर वे जेल में डाल दिए गए.

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भंडारपुर ( करेला )

पोष्ट - ढारा, व्हाया - डोंगरगढ़

जिला - राजनांदगांव 

(छत्तीसगढ़)

COMMENTS

BLOGGER: 7
  1. यही समाजिक असमानता आज भी है कल भी थी, करारा।

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  2. he ram yah katha bhi sunani padegi aisa kaliyug aa gaya

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  3. बहुत व्यंग्यात्मक प्रस्तुति,सार्थक.

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  4. यह एक श्रेष्ठ व्यंग है संगो पांग व्यंग संज्ञा देना चाहिए

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  5. कुछ नही बदलता, केवल पात्र बदले हैं, लेकिन अपके व्यंग मे मज़ा आ गया । बधाई !!

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रचनाकार: नूतन प्रसाद का व्यंग्य - प्रभु कृपा
नूतन प्रसाद का व्यंग्य - प्रभु कृपा
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