सामाजिक न्याय में रोड़ा बनती अंग्रेजी प्रमोद भार्गव अंग्रेजी की अनिवार्यता सामाजिक न्याय में एक बड़ी बाधा है। संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा...
सामाजिक न्याय में रोड़ा बनती अंग्रेजी
प्रमोद भार्गव
अंग्रेजी की अनिवार्यता सामाजिक न्याय में एक बड़ी बाधा है। संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा में जिस असंवैघानिक ढंग से अंग्रेजी की अहमियत को स्थापित करने की कोशिश की गई,उससे साफ है,नौकरशाही में एक वर्ग ऐसा है,जो जातीय श्रेष्ठता की तरह भाषाई श्रेष्ठता का वर्चस्व बनाए रखना चाहती है। अंग्रेजी भाषाई श्रेष्ठता की साजिश सीधे-सीधे ग्रामीण,वंचित व सरकारी शालाओं में शिक्षा पाने वाले छात्रों को प्रशासनिक सेवाओं से बाहर रखने की कुटिल चालाकी थी। यह अच्छी बात रही कि संसद में विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों ओर के सदस्यों ने आयोग की ओर से अंग्रेजी की अहमियत संबंधी अधिसूचना को लेकर केंद्र्र सरकार पर पर्याप्त दबाव बनाया और आखिर में अधिसूचित नियमावली पर रोक लगा दी गई। आयोग एक संवैधानिक संस्था जरूर है,लेकिन सरकार से बिना सलाह-मश्विरा किए वह भारतीय भाषाओं के महत्व को दरकिनार करने का बाला-बाला निर्णय नहीं ले सकती है। इसीलिए भाषा के प्रति संवेदनशील सांसदों ने इस निर्णय को अलोकतंत्रिक, असंवैधानिक,अन्यायी व राष्ट्र विरोधी कदम तक निरूपित किया। दरअसल संकीर्ण वर्गीय मानसिकता से ग्रस्त नौकरशाही भारतीय प्रशासनिक सेवा में अनेक आंदोलन के बाद आए जनतंत्रीकरण के मार्ग को अवरूद्ध करना चाहती है,जिससे आला अधिकारियों की अंग्रेजी शिक्षण संस्थानों में पढ़ी-लिखी संतानों के लिए अप्रत्यक्ष आरक्षण की सुविधा हासिल हो जाए।
ब्रितानी हुकूमत के दौरान 1872 में भारतीय लोक सेवा परीक्षा की शुरूआत हुई थी, तभी से औपनिवेशिक मानसिकता और अंग्रेजी की अनिवार्यता के चलते आमजन और अपनी मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षित छात्रों के लिए दिवा-स्वत्न रही हैं। वंचित युवाओं के आला अधिकारी बनने के स्वप्न साकार हों,इस नजरीयें से यूपीएससी की परिक्षा में दो सुविधाएं प्रमुख थीं। एक संवि
धान की आठवीं अनसूची में शामिल भारतीय भाषाओं के पर्चे को वैकल्पिक रूप में लेने की और दूसरे, अंग्रेजी परीक्षा में केवल उर्त्तीण होना जरूरी था,अंग्रेजी में पाये अंक भी पात्रता अंकों में नहीं जोड़े जाते थे। इन दो सुविधाओं की वजह से पिछले कुछ दाशकों में अच्छी अंग्रेजी न जानने वाने अभ्यार्थियों की संख्या प्रशासनिक सेवाओं में बढ़ रही थी। इस भगीदारी से वे नौकरशाह परेशान थे, जिन्हें केवल अंग्रेजी ज्ञान से पद और प्रतिष्ठा हासिल हुए हैं। इनके औपनिवेशक सांस्कृतिक गरूर को यह भय भी था कि कालांतर में भी यही सिलसिला अनवरत रहा तो उनकी संततियां प्रशासनिक पद हासिल करने से वंचित होती चली जांएगाी। इस कुटिल मनोवृति का ही परिणाम रहा कि संसद को बिना विश्वास में लिए वर्गीय हित पूर्ति की दृष्टि से आयोग ने पुरानी परीक्षा प्रणाली को बदलते हुए नई परीक्षा पद्धति की नियामावली जारी कर दी।इसमें खासतौर से उच्च वर्गीय छात्रों को सुविधा देने की दृष्टि से एक तो 100 नबंर का अंग्रेजी का पर्चा अनिवार्य कर दिया गया। साथ ही इसके अंक वरीयता अंको में जोड़ दिए गए। दूसरे, भारतीय भाषाओं को वैकल्पिक पर्चे के रूप में लेने की जो सुविधा प्राप्त थी, उसे सामाप्त कर दिया गया। जाहिर है, इस अधिसूचना पर यदि संसद प्रतिबंधं नहीं लगाती तो गा्रमीण परिवेश और अपनी मातृभाषाओं में शिक्षा पाए छात्र सामाजिक न्याय, आर्थिक उन्नती और समता के अधिकार से वंचित रह जाते। क्योंकि यही वह बढ़ी आबादी है,जो अंग्रेजी दक्षता के अभाव में अपराघ व हीनताबोध से ग्रस्त रहती है। नतीजतन उसमें जो नेत्तृव क्षमता है वह समाज में उभरने से वंचित रह जाती थी। इसी सृजनशील कल्पना को आकाश देने के लिए कोठरी आयोग की सिफारिशों को लोक सेवा परीक्षा में लागू किया गया था।
भारतीय भाषा और अंग्रेजी शीषर्क से आई इस रिपोर्ट में अनुशंसा की गई है कि ‘अखिल भारतीय सेवाओं की नौकरी में जाने के इच्छुक प्रत्येक भारतीय आवेदक को आठवीं अनुसूची में शामिल कम से कम एक भाषा का ज्ञान जरूरी होना चाहिए। यदि किसी अभ्यर्थी को देश की एक भी भारतीय भाषा नहीं आती तो वह सरकारी सेवा के योग्य नहीं माना जा सकता है। इसके साथ ही बेहतर तो यह भी होगा कि केवल भाषा ही नहीं उसे भारतीय साहित्य से भी परिचित होना चाहिए।इसलिए हम एक भारतीय भाषा की अनिवार्यता की अनुशंसा करते हैं।' 1974-76 में तैयार की गई इस रिपोर्ट पर अमल 1979 में शुरू हुआ। इस साल की मुख्य परीक्षा में सभी आवेदकों के लिए भारतीय भाषा के ज्ञान के लिए दो सौ क्रमांक का पर्चा देना सुनिश्ति किया गया। साथ ही अंग्रेजी का भी दौ सौ अंको का पर्चा अनिवार्य किया गया। जिससे प्रशासनिक सेवा में आए व्यक्ति राज्यों व दुनिया के दुसरे देशों में संवाद करने की परिपवक्ता का परिचय दे सकें। इन दोनो पर्चों में केवल उत्तीर्ण होने की अनिर्वायता रखी गईं। इन्हें वरीयता अंको में न जोड़े जाने का प्रावधान रखा गया। यही मुख्य वजह रही कि पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान गा्रमीण व आदिवासी युवा और गरीब व मध्य वर्ग के शहरी अभ्यर्थी भारतीय प्रशासनिक,पुलिस,वन,विदेश व राजस्व सेवाओं में आए। सामाजिक न्याय व समरसता का वतावरण बनाने में इन्होंने उल्लेखनीय पहल की। परिणामस्वरूप वंचित तबके का प्रशासन के प्रति विश्वास और कार्य प्रणाली में पारदर्शिता की उम्मीद भी बढ़ीं।
जाहिर है,कोठरी आयोग की अनुशंसाएं अंग्रेजी न जानने से उत्पन्न कुंठा से मुक्ति का उपाय साबित हुईं। इस लिहाज से केंद्र्रीय नेतृव और संवैधानिक संस्थाओं को भविष्य में भी अंग्रेजी न जानने अथवा कम जानने वाले छात्रों के प्रति संवेदनशीलता बरतने की जरूरत है, न कि महज अंग्रेजी ज्ञान की श्रेष्ठता स्थापित करने की ? कालांतर में फिर से यदि जाति की तरह यदि भाषा को भी वर्चस्व का आधार बनाये जाने की पुनरावृत्ति होती है तो लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था संसद का दायित्व बनता है कि वह इसी तरह से संघ लोक सेवा आयोग को सबक सिखाने के लिए आगे आए।
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प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म․प्र․
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
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