व्यंग्य अब प्रेम कैसे होगा? डॉ. रामवृक्ष सिंह भारत के युवाओं के सामने बड़ी अजीब समस्या पैदा हो गई है। कानून बन गया है कि कोई लड़का अब कि...
व्यंग्य
अब प्रेम कैसे होगा?
डॉ. रामवृक्ष सिंह
भारत के युवाओं के सामने बड़ी अजीब समस्या पैदा हो गई है। कानून बन गया है कि कोई लड़का अब किसी लड़की से प्रेम का इजहार करने के लिए उसका पीछा करेगा तो सीधे जेल जाएगा। सोचकर कलेजा मुँह को आ रहा है, बड़ी चिन्ता हो रही है। और हमें ही नहीं, बल्कि कानून बनानेवाली संस्था में बैठे लोगों को भी हो रही है। उनमें से कुछ लोग बहुत मुखर होकर एक-दूसरे से पूछ रहे हैं कि अब प्रेम कैसे होगा। ऐसा ही एक दृश्य गोस्वामी तुलसीदास ने कलि-काल वर्णन में चित्रित किया है- जीविका विहीन लोग, सीद्यमान, सोच बस, कहैं एक-एकन सों, कहाँ जाईं, का करीं? देश का बेरोजगार नौजवान, जो कान में मोबाइल फोन की ठीसी खोंसे, फटी हुई लो-वेस्ट, कूल्हा-दर्शना, जीन्स पहने इधर-उधर आती-जाती युवतियों के पीछे-पीछे घूमकर देश के सकल घरेलू उत्पाद में अपना अमूल्य योगदान करता चला आ रहा था, वह सदमें में है- व्हाट टु डू, हाउ टु किल टाइम?
पता नहीं, सौन्दर्य-शास्त्र का सैद्धान्तिक पक्ष पढ़ानेवालों और सिद्धान्तों को व्यवहार में लानेवालों को यह चिन्ता सता रही है, या नहीं। पर हम तो सोच-सोचकर परेशान हैं कि यार भइए, अब परकीया नायिकाओं का क्या होगा? हम तो होश संभालने से लेकर अब तक (जबकि बुढ़ापा बाहर खड़ा, हमारे गेट खोलने का इंतजार कर रहा है ) यही देखते आए हैं कि लड़की के पीछे-पीछे कोई बीन लिए घूमता है और पूछता है कि संगम होगा कि नहीं, तो कोई हवाई जहाज से मंडराकर कहता है कि तेरे दिल के पास ही है मेरी मंजिले-मकसूद, कोई कहता है कि रुक जा ओ जानेवाली रुक जा, मैं हूँ राही तेरी मंजिल का, तो कोई कहता है कि रुक-रुक, रुक जाना ओ जाना हमसे दो बातें करके चली जाना। और आज अचानक पूरी व्यवस्था हमें अपना समाजशास्त्र दुरुस्त करने को कह रही है, क्योंकि ये सारी हरकतें अब ग़ैर-कानूनी करार दे दी गई हैं। अब यकीनन ये सब गुजरे जमाने की बातें हो जाएँगी और सिर्फ पुरानी फिल्मों में दिखाई देंगी। नई फिल्मों में अगर इस तरह के दृश्य आए भी तो शर्तिया तौर पर वे खलनायकों पर (या खलनायक-नुमा नायकों पर) फिल्माए गए होंगे, क्योंकि अपना पारंपरिक नायक तो गैरकानूनी काम कर नहीं सकता। अब चाहे जो कहिए, लेकिन इस नए कानून ने सारे पारंपरिक रोमांस की हवा ही निकाल दी है।
ज़रा इस मसले पर ग़ौर फरमाएँ कि कोई लड़का किसी लड़की का पीछा क्यों करता है? दरअसल, लड़का जब लड़की का पीछा करता है तो एक प्रकार से वह ट्रायल एंड एरर थ्योरी पर चल रहा होता है। और सच करें तो ऐसा करने की नौबत केवल अज़नबी लड़कों-लड़कियों के बीच आती है। एक साथ पढ़ने वाले, या एक मोहल्ले में रहनेवाले लड़कों-लड़कियों के मामले में ऐसा नहीं होता। वहाँ तो नोट्स बदलने के बहाने, जन्म-दिन पार्टी, न्यू-इयर या होली-मिलन के बहाने दोनों के आपस में इलू-इलू कर लेने की बहुत संभावना रहती है। वैसे तो हर मामले में लेडीज फर्स्ट का राग अलापा जाता है, लेकिन प्यार के मामले में पहल करनी हो तो बेचारे लड़के को ही शहादत देनी पड़ती है। पूर्व-परिचय हो तो रिस्क ज्यादा नहीं है, लेकिन अगर पहले का परिचय नहीं हो और मामला बिलकुल अजनबी लड़की का हो, तो लड़के को बहुत बड़ा जोखिम उठाना पड़ता है। ऐसे में किए गए इज़हार-ए-मुहब्ब्त का तो बस अल्लाह ही मालिक होता है- लग गया तो तीर, नहीं तो तुक्का। और अगर प्रायः तीर ही होता तो ये कानून बनाने की माँग ही क्योंकर उठती? अकसर दूसरी वाली स्थिति यानी तुक्के की स्थिति ही निर्मित होती है। कभी-कभी, लड़के का ‘बैड लक खराब’ न हो तो ऐसा भी हो जाता है जिसे कहते हैं कि दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई। अगर उस पाले में आग नहीं लगी हो, तो बेचारे लड़के के लिए तो मियां ग़ालिब वाली बात ही होगी, कि ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। तो ज़ाहिर-सी बात है कि अगर उधर आग नहीं लगी तो आग के दरिया में डूबना होगा और प्यार तो हासिल होगा नहीं, उल्टे जेल पहुँचने की नौबत और आ जा जाएगी। खैर, कड़वी सच्चाई यह है कि फकत पोट्टी पटाना जिनका काम है, उन बेचारों की तो अब हवा टाइट होनेवाली है।
तो उपाय क्या है? उपाय है, बराबर है। जिसने दर्दे-दिल दिया है उसी के पास दवा भी है। दवा क्या, यों कहिए कि भगवान का वरदान है। प्रेम की नेमत कहें या लानत, इसकी ज़रूरत सिर्फ लड़कों को ही होती हो, और लड़कियाँ इससे बिलकुल बरी हों, भगवान की दया से ऐसा होता नहीं। सृष्टि को चलाने के लिए कुदरत ने ऐसा नियम बनाया है कि स्त्री जाति और पुरुष जाति, दोनों एक दूसरे को परस्पर आकर्षित करते हैं, एक-दूसरे की ओर खिंचाव अनुभव करते हैं। यही कारण है कि मौका मिले तो लड़कियाँ भी लाइन मारने में पुरुषों से पीछे नहीं रहतीं। अपुन इसके भुक्त-भोगी हैं, इसलिए बिलकुल प्रामाणिक तरीके से यह बात कह सकते हैं। बस होना यह चाहिए कि लड़कों में वो कशिश हो, वो बात हो, जिसके सहारे सरकार खिंचे चले आएँ। अपुन कुछ दिन यूनिवर्सिटी टॉपर रहे। उन दिनों कुछ छोकरी लोग अपुन पर भी ट्राई मारा। हालांकि अपुन का चेहरा-मोहरा कुछ खास नहीं है, पर टॉपर होना भी कोई छोटी बात नहीं थी।
तो लड़कों को यदि इस सर्वाइवल ऑफ दि फिटेस्ट के माहौल में प्रेम पाना और देना है तो अपने अंदर कुछ खास बात पैदा करनी होगी। खुदी को बुलन्द कीजिए और फिर देखिए प्रेम के खुदा खुद आपसे आकर पूछते हैं या नहीं कि तेरी रज़ा क्या है?
क़ाबिल युवकों पर अच्छी-अच्छी युवतियाँ जान छिड़कती हैं। हमारे इतिहास, पुराण और महाकाव्य भी इसके प्रमाण हैं। अर्जुन जब अपने पिता इन्द्र के लोक गए तो उनपर मुग्ध होकर उर्वशी ने खुद आगे बढ़कर उनसे रति-निवेदन किया। अर्जुन भले घर के बच्चे थे, बोले आंटी, जरा पापा की तो सोचो। हमसे ये सब नहीं होगा, माफ करो। बेचारे को शाप मिला और पूरे एक वर्ष तक नपुंसक का जीवन बिताना पडा। रामायण में शूर्पणखा ने भी मर्यादा पुरुषोत्तम रामजी और लक्ष्मण भैया पर हाथ आजमाने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रही। इब्तदा-ए-इश्क में नाक-कान कट गए सो अलग। द्वापर के कृष्ण जी इतने अनुदार नहीं थे। चाहे कुब्जा हो या गोपियाँ, सबका बराबर ध्यान रखते रहे। उन्हें अपनी सोलहों कलाओं पर इतना कॉन्फिडेन्स था कि कहीं खड़े होकर बाँसुरी की टेर सुनाने लगते, और गोपियाँ उनकी बाँसुरी की सुरीली धुन सुनकर सब लोक-लाज तजकर दौड़ी चली आती थीं। अपुन का एक छोकरा है। देखने-भालने में स्मार्ट है और गिटार बजाता है। उसके साथ-साथ कुछ गाता है, जो या तो उसे समझ आता है या उसकी फैन छोकरी लोग को। ऐसे गिटार-वादक कृष्ण-मुरारी लाखों की संख्या में अपने देश में हैं और उनके आगे-पीछे घूमने वाली गोपियों की भी कमी नहीं है। गुलाम याकूत पर फिदा होकर उसपर अपना सब कुछ वारने वाली रजिया सुल्तान का किस्सा भी किसी से छिपा नहीं है। सूफियों के प्रेमाख्यानों में तो ऐसे ढेरों किस्से मिल जाएँगे, जिनमें प्रेम की पहल नायिका ही करती है। यानी, सब बातों का लब्बे-लुआब यह कि महिलाएं भी प्रेम में पहल कर सकती हैं, बस सामनेवाले मेल फैक्टर में इतनी कूवत होनी चाहिए। हमें तो ऐसा लगता है कि इसका सीधा असर ब्यूटीशियन लोगों के धंधे पर भी पड़नेवाला है। वैसे भी अपने शहर में अब ज्यादातर युवतियाँ चेहरे पर नकाब पहनकर बाहर निकलती हैं। इसलिए प्रैक्टीकली देखें तो नकाब के नीचे मेकअप करने की जरूरत तो है नहीं। और यदि कानून अपनी मंशा और मकसद में कामयाब रहा तो अब उन्हें राह चलते मजनूं भी परेशान नहीं करेंगे। तो फिर वे किसे आकर्षित करने के लिए साज-शृंगार करेंगी? अपनी सखियों के लिए तो करने से रहीं, क्योंकि बकौल गोस्वामी तुलसीदास- नारि न मोहे नारि के रूपा। अलबत्ता युवकों को ज़रूर अपनी लुक्स पर ध्यान देना होगा, ताकि विपरीत लिंगी खुद ब खुद उनसे प्रणय-निवेदन करने को विवश हो जाएं। इसलिए बहुत संभव है कि अब पुरुषों के पार्लर खुलें, उनके प्रसाधनों की बिक्री में खूब इजाफा हो जाए। यानी अपनी अपील बढ़ाने के लिए पहले जो टोटके महिलाएं करती थीं, वे ही टोटके अब पुरुषों को करने होंगे। तभी तो लगभग हजार पुरुषों के पीछ बमुश्किल आठ सौ सत्तर अस्सी के अनुपात वाली महिलाओं में से किसी एक को वे लुभा पाएँगे। इसके बावजूद करीब सौ-सवा सौ पुरुष बिना संगिनी के ही रह जानेवाले हैं। इस विसंगति की सारी जिम्मेदारी हमारी पुरुष-प्रधान, पितृ-सत्तात्मक मानसिकता पर जाती है। हम पुरुष सदियों से स्त्री जाति के पीछे हाथ धोकर, सत्तू बाँधकर पड़े हुए हैं, उसकी अस्मत और जान के प्यासे बने हुए हैं। इसी का यह नतीजा है कि कोई बेटी के रूप में स्त्री जाति की तमन्ना नहीं करता, प्रेयसी के रूप में सुन्दर संगिनी सबको चाहिए। तो लो बच्चा, जैसा बोया था, वैसा काटो। बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ ते होय!!
मामला संगीन है। पर इतना भी नहीं कि कोई उपाय ही न हो। इधर, अपने समकालिक समाज में न जाने किसने यह भ्रांति फैला दी कि सारा रिस्क बेचारा लड़का लेगा, और यदि लड़की को भी उसमें रुचि हुई तो वह हाँ कर देगी, लेकिन यदि दुर्दैव से रुचि न हुई तो पहले खुद चप्पल से उसकी चंपी करेगी और फिर पुलिस वालों से सुताई कराके सीधे जेल भिजवा देगी। अब माना कि इस तरह की कारगुजारियों में रिस्क अंतर्निहित है। लेकिन यह तो जीवन के हर क्षेत्र का सीधा-सा नियम है। जितना रिस्क उतना फायदा, रिस्क और फायदा- दोनों परस्पर समानुपाती हैं। प्रबंधन के क्षेत्र में इसी को एंटरप्राइजिंग होना कहा जाता है। दस-दस, बीस-बीस लाख रुपये फीस लेकर हमारे ज्यादातर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट हमारे युवाओं को एंटरप्राइजिंग होना ही तो सिखा रहे हैं। चाहे व्यापार हो या जीवन का कोई अन्य क्षेत्र, कैलकुलेटेड रिस्क तो लेना ही पड़ता है। अपने यहाँ बड़े-बड़े नेता और अफसर लोग तरह-तरह के रिस्क ले लेते हैं। बच गए तो पौ-बारह, और पकड़े गए तो छी-छी, थू-थू। और पौ-बारह होने की संभावना ही अधिक रहती है, क्योंकि सारा तंत्र ही ऐसा है। जहाँ तक प्रेम का मामला है, अभी अपना समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। इसलिए इन सारी समस्याओं को टीदिंग ट्रबल के तौर पर देखा जाना चाहिए और जैसाकि सारे प्रयोगों में होता है, इस तरह के प्रयोगों में भी यदि कोई प्रयोग टाँय-टाँय फिस्स हो जाए तो दिल छोटा नहीं करना चाहिए।
जैसाकि हम पहले कह आए, अच्छी बात यह है कि प्रेम की दरकार सिर्फ और सिर्फ लड़कों को ही हो, ऐसा तो है नहीं। इसलिए सौ साल पहले भी हमें तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा की तर्ज़ पर अब लड़कियों को ही प्यार की इस शै को जिन्दा रखने के लिए कुछ करना पड़ेगा। वैसे भी, आचार्य श्रीराम शर्मा तथा विभिन्न विद्वानों ने इक्कीसवीं सदी को महिलाओं की सदी कहा है। यह सदी महिलाओं की सदी है, इसका अभिप्राय केवल यह नहीं कि वे विश्वविद्यालय टॉप करेंगी, आईएसएस और आईपीएस बनेंगी, सुनीता विलियम, और कल्पना चावला जैसी बनकर अंतरिक्ष में भी नारी जाति के परचम फहराएँगी, या वे पायलट, डॉक्टर, इंजीनियर, फौजी अफसर बनेंगी, वगैरह-वगैरह। यह सब तो होगा ही। बल्कि वे हर मामले में लड़कों को पछाड़ेंगी, यहाँ तक कि प्रेम के मामले में भी।
मानव-जाति के दुर्भाग्य से यदि ऐसा नहीं हुआ और लड़कियों ने खुद आगे बढ़कर पहल नहीं कि तो मानव-जाति का अंत निकट ही समझिए। जैसे दुनिया में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की रोशनी पश्चिम से आई है, वैसे ही इस दिशा में भी वहीं से हमें प्रेरणा मिलने की संभावना है। अपना इशारा समलैंगिक विवाह की तरफ है। अमेरिका आदि देशों में समलैंगिक विवाह होने भी लगे हैं। ऐसे प्रेम-विरोधी कानून बन जाने पर लड़के बेचारे क्या करें? रिस्क लें, और पासा उलटा पड़ जाए तो प्रेम की रपटीली राह में फिसलकर सीधे कारागार पहुँच जाएं और उनके प्रेम का बिरवा जेल की कोठरी में सूख-सड़ जाए। इससे तो बेहतर होगा कि आपस में ही शादी करके पुरुष होने का ग़म गलत कर लें।
बात तो चिन्ता की है, लेकिन इस समस्या का उपाय भी है। फैसला दुनिया की आधी आबादी को करना है।
---0---
एक द्वारा की गई चोरिऔर डो द्वारा आपस में प्रणयकभी प्रगट नहीं होते किन्तु अब एक मध्यस्थ की आवश्यकता होगी जो भेद छिपाने के बदले black mail करेगा सारांश सब कुछ arrainge होगा
जवाब देंहटाएं