अभिशप्त जीवन मैं अंग्रेजों के जमाने में दारोगई करने के लिए बहाल हुआ था। अपने आप में इसे उपलब्धि मानते हुए त्रिपुरारी शर्मा उर्फ टीपू बाब...
अभिशप्त जीवन
मैं अंग्रेजों के जमाने में दारोगई करने के लिए बहाल हुआ था। अपने आप में इसे उपलब्धि मानते हुए त्रिपुरारी शर्मा उर्फ टीपू बाबू आज के थानेदारों को बताया करते और उनपर अपने अंग्रेजी और हिन्दी भाषाओं के ज्ञान का रोब झाड़ते रहते थे। जिला भर के थानों के फाइलों को कानूनी तौर पर दुरूस्त करवाने के लिए विभिन्न थानों के थानेदार टीपू बाबू के घर आते रहते थे।
टीपू बाबू जब खेलारी थाना में थानेदार थे उस समय देश तुरंत ही आजाद हुआ था। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान लोग आ जा रहे थे। खेलारी में मस्जिद के सामने कोई सुअर के शव को छोड़ गया था इस मुददे को लेकर दंगा भड़क गया था, उस समय अंग्रेजों के जमाने के दारोगा टीपू बाबू ने परिस्थिति को बहुत ही काबिलियत के साथ नियंत्रण कर लिया था। जिसके लिए बाद में उन्हें राष्ट्रपति के हाथों दिल्ली में काबिल और जाबांज अफसर होने का मेडल भी मिला था। उस मेडल को टीपू बाबू सहेज कर रखे हुए थे और आज के थानेदारों को दिखाया करते थे।
पांच भाईयों में सबसे बड़े टीपू बाबू अपने दारोगा होने का रोब सिर्फ बाहरी व्यक्तियों पर ही नहीं गांठते थे बल्कि परिवार वालों पर भी रोब गांठते रहते थे। समाज में अपने प्रभाव का दबदबा बना कर रखे हुए थे त्रिपुरारी शर्मा उर्फ टीपू बाबू। रिश्वत लेने का भी नायाब अंदाज था टीपू बाबू का। गांव में जब पुश्तैनी मकान का रिमॉडलिंग करवाना था उस वक्त पिता और चाचा द्वारा मदद की मांग करने पर एक सीमेंट-छड़ विक्रेता के यहां छापा मरवा दिया था। सीमेंट में मिलावट और चोरी किए छड़ों को रखने के आरोप के लिए मुकदमा दर्ज करने की धमकी देते हुए सीमेंट-छड़ विक्रेता को ऐसा डराया कि वह सौ बोरी सीमेंट और एक सौ टन छड़ जेल की हवा खाने से बचने के लिए दारोगा साहब के गांव पहुंचा दिया था। गांव में रह रहे टीपू बाबू के पिता और चाचा को सीमेंट-छड़ विक्रेता ने खुद बतलाया कि दारोगा साहब किश्तों पर रकम दे कर सीमेंट-छड़ खरीदा है तथा पुश्तैनी मकान के मरम्मत के लिए भिजवाया है। टीपू बाबू के पिता और चाचा का सीना फर्क से चौड़ा हो गया था।
टीपू बाबू जब भी अपने गांव आते थे तो बड़ी गाड़ियों में आते थे और साथ लाते थे चावलों की बोरियां, अंग्रेजी शराब की कम से कम दस कार्टून बोतलें, कंबल, गरम चादर आदि। ये सभी सामान टीपू बाबू किश्तवार रकम देकर अपने बड़े संयुक्त परिवार के लिए खरीदा करते थे, यही दलील वो अपने माता-पिता, चाचा-चाची को दिया करते थे। जबकि सभी माल टीपू बाबू भयदोहन से जमा करते थे और किसी गाड़ी वाले को फंसा कर गांव पहुंचा देते थे। शातिर दिमाग के धनी टीपू बाबू ने हराम की अकूत संपति अर्जित कर लिया था अपने नौकरी में रहते हुए। घर पर घी और दूध की नदियां बहा दी थी उन्होंने।
अपने अन्य चार भाईयों को पढ़-लिखा कर नौकरी लगवा दिए थे। टीपू बाबू के जमाने में नौकरियां बूला कर दी जाती थी। अपने बड़े होने का फर्ज के तहत सभी भाईयों का विवाह भी करवा दिया था। टीपू बाबू को पांच पुत्र और एक पुत्री थी। सभी को पढ़ा-लिखा कर नौकरी लगवा दिए थे तथा पुत्री का विवाह एक फौजी अफसर से करवा दिया था। अपने पिता का भोज-भात में पूरे गांव के लोगों को बुलवा कर खिलाया था टीपू बाबू ने। टीपू बाबू की माँ का देहांत उनके छोटे रहते ही हो चुका था।
यद्यपि अपने दारोगई के नौकरी के दौरान कभी रिश्वत लेते फंसे नहीं लेकिन दारोगा के दारोगा ही रह गए और दारोगा के पद पर रहते हुए ही सेवा निवृत हुए। टीपू बाबू को इस बात का ख्याल कभी नहीं रहा कि हराम का कमाया धन न तो रहता है और न ही सूख देता है बल्कि किश्तों में दुख देता रहता है।
यही हुआ सेवा निवृत अंग्रेजों के जमाने के दारोगा टीपू बाबू के साथ। पत्नी को मधुमेह हुए बीस वर्ष गुजर चुका था। जब तक नौकरी में रहे चिकित्सकों ने भय से और रूप्ए के बल पर टीपू बाबू अपनी पत्नी का इलाज करवाते रहे, जब दारोगा का रोब जाता रहा तब सूखे हुए आम की गूठली की तरह खुद को समझने लगे थे। लिहाजा एक दिन पत्नी चल बसी। पत्नी की सेवा में लगे टीपू बाबू के पांच पुत्रों में से एक पुत्र को अपनी माँ के गुजर जाने का ऐसा सदमा लगा कि मॉ के मरने के सालभर के भीतर वह भी गुजर गया। बाप के कंधे पर जवान बेटा की अर्थी से बड़ा बोझ और कुछ नहीं होता, इस बोझा को भी उठाना पड़ा था टीपू बाबू को।
टीपू बाबू को पत्नी और पुत्र के गुजर जाने का गम कुछ ही दिनों तक रहा। उनसे काम करवाने वाले थानेदारों पर अंग्रेजी और हिन्दी भाषाओं पर अपनी पकड़ का रोब गांठते टीपू बाबू को देखा जा सकता था। ज्ञान का अंहकार था टीपू बाबू को। अंहकार ने उन्हें अंधा बना दिया था। अपने अंहकार के दंभ पर किश्तों में आए गमों को सहते रहे थे टीपू बाबू।
एक दिन की बात है टीपू बाबू अपने आवास के बैठक में कुछ थानेदारों के साथ थाने की डायरी लिखने-लिखवाने में व्यस्त थे। इसी बीच डाकिया आकर तार दे गया। खबर थी टीपू बाबू के एकलौते दामाद की मृत्यु का। कश्मीर बार्डर पर गोली लग जाने के कारण उनकी मृत्यु हो गयी थी। विधवा हो चुकी बेटी ने अंबाला कैंट से तार भेजा था। टीपू बाबू की हिम्मत देखिए उन्होंने बैठे थानेदारों को कुछ नहीं कहा बल्कि घंटे भर और काम करवा कर पूरी डायरी लिखवा दिया था टीपू बाबू ने और अपनी फीस लेने के बाद उन्होंने जाते हुए थानेदारों को बतलाया कि तार में क्या लिखा था। सभी थानेदार अवाक् और स्तब्ध थे, टीपू बाबू के जालिम धैर्य पर। असंवेदनशील बन चुके थे टीपू बाबू। अपने दारोगई के कार्यकाल में रोज लाशों को देखते, मरने की खबर भेजते और मरने की खबर रिसीव करते एक आदत सी बन गयी थी उनकी। मरने की खबर से आहत् होना छोड़ दिया था टीपू बाबू, ऐसा प्रतीत होता था। घर पर अपने एकलौते दामाद की मृत्यु की खबर सूनाने के बाद, रोना-धोना मच गया था। टीपू बाबू अंबाला जाने के लिए तैयार होने लगे और रात को ही अंबाला के लिए रवाना हो गए।
फौजी की पत्नी थी उनकी पुत्री, शहीद हुए पति का गम जल्द ही गफलत कर ली थी और अपने तीन बच्चियों के साथ सामान्य दिनचर्या अपना ली थी। टीपू बाबू भी अंबाला पहुंचकर सामान्य औपचारिकता निभा दिया था और अपनी विधवा हुयी बेटी को साथ चलने का आग्रह किया था जिसे उनकी बेटी ने यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि उनलोगों का अंबाला में रहना आवश्यक है क्योंकि पेंशन, ग्रेच्यूटी, पीएफ वगैरह मिलने में अभी समय लग जाएगा। टीपू बाबू घर लौट आए थे और शुरू कर दिया था थाने का काम करना।
पयजामा और बनियान पहनकर गले में रूद्राक्ष की माला डाले, हाथ में कमन्डल लेकर सूबह-शाम शहर के मुख्य सड़कों पर स्थित मंदिरों के चक्कर काटते उन्हें देखा जा सकता था। सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को की कहावत को चरितार्थ करते टीपू बाबू को घर के अन्य सदस्य उन्हें पतलून पहने की हिदायत देता तो उसे आड़े हाथों लेते थे लिहाजा उनके रहन-सहन, तौर-तरीके में घर का कोई सदस्य हस्ताक्षेप नहीं करने के लिए मजबूर था।
एक दिन पुनः बनियान-पायजामा पहने, गले में रूद्राक्ष की माला डाले, हाथ में कमन्डल लिए दिन के बारह बजे शहर के मुख्य चौक पर स्थित मंदिर से लौट रहे थे कि उन्हें घर के दरवाजे पर ही डाकिया ने रोका और एक तार थमा गया। तार में उनके छोटे भाई कानपुर वाले नहीं रहे कि खबर भेजी गयी थी। पढ़कर तार को बेठक में लगे टेबूल पर रख दिया और अंदर जाकर घर के सभी सदस्यों को कानपुर वाले भाई की मृत्यु की खबर देते हुए हल्दी खाने में नहीं डालने की ताकीद कर गए। दूसरे दिन पुनः एक तार कानपुर से ही आया कि आर्यसमाजी रीति रिवाज से तीन दिन में क्रियाकर्म कानपुर वाले भाई के घर के सदस्यों ने कर दिया है। अपने घर के सदस्यों को कानपुर वाले भाई के परिवार को पथभ्रष्ट कहते हुए टीपू बाबू ने यह घोषणा कर दिया कि बारह दिनों तक हल्दी खाने में नहीं खाया जाएगा और दसवें दिन घर के सभी पुरूष सदस्य अपने-अपने सरों का मुंडन करायेंगे, सभी ने वैसा ही किया।
कुछ दिनों के बाद टीपू बाबू के एक अन्य छोटे भाई की मृत्यु कारखाने में काम करने के दौरान हो गयी। उन्होंने मृतक भाई के परिवार को जो उनके आवास के पास ही दूसरे घर में रहते थे, मृत्यु की खबर पहुंचा कर शव कारखाने से लाए जाने का इंतजार करने लगे। शव आने में विलंब हुआ और शाम हो गयी, टीपू बाबू रात भर शव को घर पर रखना उचित नहीं समझा और अपने मृतक भाई के बड़े पुत्र को आवश्यक निर्देश देकर रात के आठ बजे शव को लेकर श्मशान पहुंच गए और रात के एक बजे दाह संस्कार कर लौटे। खुद नब्बे वर्ष के हो चुके टीपू बाबू रात को एक बजे घर पहुंचने के बाद स्नान कर लिया और सो गए। सुबह उनकी तबियत बिगड़ गयी, महीने भर बीमार रहने के बाद पुनः अपनी पुरानी परिपाटी पर लौट गए।
खराब ढ़ंग से बोलने के कारण टीपू बाबू की कभी किसी से बनती नहीं थी। घर के सदस्य और आस-पड़ोस के लोग उन्हें देखकर कतराते थे और टीपू बाबू थे कि बुला-बुलाकर बात करते और सिर्फ अपनी ही कहते, अगर बीच में सुनने वाले ने टोका तो उसकी शामत ही आ जाती थी।
एक दिन फिर डाकिया आया और एक तार दे गया। टीपू बाबू समझ गए कि फिर किसी के गूजर जाने की खबर आ गयी। तार पढ़ा, इस बार उनकी विधवा पुत्री के मृत्यु की खबर आयी थी। इस बार टीपू बाबू को सदमा सा लगा, वे कुछ क्षणों के लिए मूर्छित से हो गए। आखिर पत्थर तो थे नहीं, हाड-मांस के बने इंसान ही थे। विगत समृतियों में बेटी के जन्म से लेकर, उसका विवाह, फिर मृत्यु चलचित्र की भांति दिमाग में आता-जाता रहा। शव पर शव को श्मशान पहुंचाते टीपू बाबू अपनी पुत्री के शव को श्मशान तक ले जाने के लिए प्रस्तुत नहीं होना चाहते थे। भावना को कमजोरी समझते आए थे टीपू बाबू। पुत्री को आग देते कहीं आंखों से आंसू छलक गए तो लोग क्या कहेंगे, कि टीपू बाबू कितने कमजोर इंसान है। उसी समय प्रधान डाकघर जाकर अपने नातिनियों को तार दे दिया कि तुम लोगों के बड़े मामा समय पर पहुंच जायेंगे, मुझे नहीं आने पर माफ कर देना। अपने घर के छह सदस्यों को श्मशान में आग को सौंपते हुए टीपू बाबू इतना वियोग नहीं महसूस किया था जितना कि अपने पुत्री के मृत्यु की खबर सुनने के बाद महसूस किया था।
टीपू बाबू पुत्री की मृत्यु की खबर लेकर आये तार को देखकर सोच रहे थे कि जीने के लिए वे अभिशप्त क्यों है ? भगवान उन्हें कितनी मौत और दिखाएगा ?
पुत्री के मृत्यु के बाद टीपू बाबू के दिनचर्या में परिवर्तन सा आ गया था। चौबीस घंटे में मुश्किल से एक घंटा भी वे नहीं बोलते थे लगभग मौन से रहने लगे थे टीपू बाबू। ज्यादातर समय अब भगवान की आराधना में बिताने लगे थे परंतु देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मौन में भी उन्हें चैन नहीं। एकाग्रचित नहीं रह पाते थे टीपू बाबू, चिंता हर वक्त चेहरे पर झलकती थी।
एक दिन की बात है पता नहीं टीपू बाबू को क्या सूझा कि दूधवाले की घर के सामने रखी साइकिल को लेकर शहर से गांव की ओर बिना किसी को बतलाए चल दिए। दूधवाले ने जब अपनी साइकिल को गायब पाया तो इधर-उधर पूछताछ करने लगा तो आस-पड़ोस वाले ने बताया कि दारोगा जी साइकिल पर चड़कर कुछ देर पहले इधर गए है। टीपू बाबू के छोटे पुत्र को दूधवाले ने जाकर बताया तो टीपू बाबू के छोटे पुत्र ने स्कूटर निकाला और दूधवाले को पीछे बिठाकर अपने पिता को ढूढ़ने निकल पड़ा। गांव से कुछ पहले ही उबड़-खाबड़ रास्ते में साइकिल में ब्रेक नहीं रहने की वजह से टीपू बाबू का संतुलन बिगड़ गया और ढ़लान पर तेज चलती साइकिल से गिरकर बुढ़ापे में फजीहत को न्यौता दे दिया था। उनका बांया हाथ और दाहिना पांव टूट गया था, दर्द से सड़क के किनारे पड़े कराह रहे थे कि तब तक उनका छोटा पुत्र स्कूटर से वहां पहुंच गया और दूधवाले की मदद से स्कूटर पर बिठाकर सीधा शहर के सदर अस्पताल ले आया। छह महीने लग गए टीपू बाबू को पुनः स्वास्थ्य होने में। निरोग होकर अब टीपू बाबू खुद बिना सहारा के चलने लगे थे, अभी घर आए उनके दो ही दिन हुए थे कि इस बार आए डाकिया को दरवाजे पर खड़ा देखकर वे डाकिया पर विफर पड़े और डांटते हुए कहा कि तुम्हें सरकार ने नियुक्त किया है या यमराज ने ? जब आता है मरने की खबर लाता है और चिल्लाकर अपने छोटे पुत्र को बुलाया और डाकिया द्वारा लाए गए खबर को लेने को कहते हुए खुद अंदर चले गए। पिता के निर्देशानुसार छोटे पुत्र ने डाकिया से खबर ले लिया और अपने पिता के कमरे में जाकर खबर सूना दिया कि पिताजी रांची वाले चाचा की मृत्यु हो गयी है और दाह संस्कार के लिए आपका इंतजार किया जा रहा है। टीपू बाबू के अब सिर्फ दो भाई बच गए थे।
टीपू बाबू रांची जाने की तैयारी में जुट गए और शाम होते-होते अपने भाई के घर पहुंच कर बिना समय गवांए थोडी ही दूर पर स्थित श्मशान की ओर शव लेकर रवाना हो गए। भाई के शव को अग्नि के हवाले करने के बाद आग की ज्वाला को तापते हुए दर्शनशास्त्र की व्याख्या उपस्थित लोगों के बीच करने लगे। दर्शन के बाद रामायण, महाभारत और गीता पर अपना शोधपरख व्याख्या दिया जिसे वहां उपस्थित लोगों द्वारा सुनने के अलावा कोई चारा नहीं था।
टीपू बाबू अपने भाईयों को पढ़ाया-लिखाया, नौकरी-चाकरी लगवा दिया और अब एक-एक कर तीन भाईयों का दाह संस्कार किया, अपनी पत्नी, एक पुत्र और पुत्री का दाह संस्कार किया और आज भी नब्बे वर्ष के उम्र में बिल्कुल स्वस्थ्य श्मशान में बेठे आग की लपटों को तापते जिंदगी और मौत की व्याख्या करते टीपू बाबू जीने के लिए अभिशप्त है। अपने दारोगई के कार्यकाल में अनैतिक ढ़ंग से कमाए और विकसित किए गए धन संपति उनके कुछ भी काम नहीं आया आज जो गम को टीपू बाबू सहने के लिए अभिशप्त है उसे लॉकर में रखे सूप भर सोने, चांदी और हीरे के जेवरातों ने कम नहीं कर सका। अपने परिवार में सबसे बड़े होने के बाद भी टीपू बाबू के परिवार के लोग उनके ही आंखों के सामने मरते गए और वे जीते रहे क्योंकि भगवान भी उन्हें अपने पास शायद नहीं बुलाना चाहते।
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंड़ा, गिरिडीह, झारखंड़ 815301
मो. 9471765417
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