यदि हम इसका अर्थ होलिका के दाह-संस्कार से लगायें, तो हमें उसकी अग्नि में जौ, चना, गन्ना , आलू आदि भूनकर नहीं खाना चाहिए, क्योंकि किसी...
यदि हम इसका अर्थ होलिका के दाह-संस्कार से लगायें, तो हमें उसकी अग्नि में जौ, चना, गन्ना , आलू आदि भूनकर नहीं खाना चाहिए, क्योंकि किसी मृतक की अग्नि में कुछ भी पकाकर खाना बड़ा ही घिनौना और दुष्टतापूर्ण कार्य है।
होली : प्राचीनकाल से अब तक
प्राचीन काल में ‘बसंत पर्व' बड़े ही उत्साह और हर्षोल्लास के साथ
मनाया जाता था। राजा -प्रजा सब इस पर्व को मिल-जुल कर मनाते तथा बसंत
ऋतु का स्वागत करते। कहा जाता है, कि जब ईश्वर ने सृष्टि की रचना की, उस
समय प्राकृतिक सौन्दर्य बड़ा ही मन-मोहक और शांतप्रिय था। कालान्तर में
इसे ही बसंत कहा गया।
कुछ समय पश्चात नये अन्न के स्वागत के लिए बसंत के चालीस दिन बाद एक
पर्व मनाया जाने लगा। जो ‘नवशस्येष्टि यज्ञ पर्व' के नाम से विख्यात हुआ। यह
पर्व नयी फसलों के पकने का आह्वान था, जिसे होली का आदिम रूप कहा
गया। शुरूआत में यह फाल्गुन महीने की पूर्णिमा को मनाया गया । श्रीमद्भगवत गीता के अनुसार -‘जो लोग बिना ईश्वर को भोग लगाये ,अन्न का
उपयोग करते हैं, वे वास्तव में चोर हैंं।'
हमारी पुरानी मान्यता भी यही रही है, कि सर्वप्रथम ईश्वर को खिलायें
,तत्पश्चात् स्वयं खायें। इसलिए इस यज्ञ में नये अनाज के सिवा और भी तमाम
यज्ञ सम्बंधी वस्तुएँ डाली जाती थीं। देशी घी, मेवा-मिष्ठान, हवन सामग्री
आदि की आहुति दी जाती थी। यह आहुति व्यर्थ नहीं जाती थी। इसका धुँआ
कीट नाशक होता था तथा हवा को सुगन्धित और स्वच्छ बनाता था। धुँआ
बादलों में मिल कर वर्षा कराता था। यह जल कृषि के लिए बहुत ही उपयुक्त
तथा लाभदायक होता था। इससे फसल अच्छी और पौष्टिक युक्त होती थी।
यह पर्व सिर्फ जनता ही नहीं,बल्कि राजा लोग भी हर्षोल्लास के साथ
मनाते थे। देवताओं पर नयी फसलों की बलि चढ़ाकर, अधभुना अन्न प्रसाद
के रूप में स्वयं खाते तथा अन्य सभी लोगों में बाँट देते । इस
अधभुने अन्न को संस्कृत में ‘होलक' कहा जाता था।
‘होलक' के कारण ‘नवशस्येष्टि पर्व' को ‘होलिकोत्सव ' कहा जाने लगा
और यही आगे चलकर सिर्फ होली रह गया। ‘होलक' शब्द को होली का जनक
माना जाता है।
बसंत पंचमी के दिन ‘होलिकादहन' के स्थान पर एक डंडा गाड़ा जाता
है। जो रंडा वृक्ष का होता है। इसे होली तथा प्रहलाद का प्रतीक माना
जाता है। कुछ विद्वान इसे यज्ञ का तथा कुछ प्रहलाद का चिह्न बताते हैं।
वास्तव में इसे एक यज्ञ का स्तम्भ समझा जाना चाहिए, क्योंकि हिरण्यकश्यप और
उसकी बहिन होलिका राक्षस परिवार से सम्बंधित थे। जिससे इनकी पूजा-अर्चना
का सवाल ही नहीं उठता।
यदि हम इसका अर्थ होलिका के दाह-संस्कार से लगायें, तो हमें उसकी
अग्नि में जौ, चना, गन्ना , आलू आदि भूनकर नहीं खाना चाहिए, क्योंकि
किसी मृतक की अग्नि में कुछ भी पकाकर खाना बड़ा ही घिनौना और
दुष्टतापूर्ण कार्य है।
कुछ भी हो , लेकिन जब इस यज्ञ में हिरण्यकश्यप, होलिका और
प्रहलाद की कथा जुड़ गयी, तो लोग इसे और भी अधिक रूचि और
भक्ति-भाव से मनाने लगे । यही कारण है, कि होली आज तक इसी कथा से
जुड़ी हुई है और धीरे-धीरे ‘नवशस्येष्टि यज्ञ' तथा ‘होलक यज्ञ' की बात
समाप्त हो गयी।
होली के दूसरे दिन रंग खेलने तथा आमोद -प्रमोद से उल्लासित
होकर गीत गाने,नाचने तथा मनोरंजन के कार्यक्रम करने का ऐसा प्रचलन हुआ,
कि धीरे-धीरे यही होली का प्रमुख अंग बन गया। जबकि यह प्रथा ‘होलक
यज्ञ' के समय में भी प्रचलित थी और अनाज की आहुति देकर इस बसन्त ऋतु का
समापन होता था। इसे '‘सुबन्तक' के नाम से भी माना जाता है।
मस्ती और मादकता का भी बसन्त के साथ काफी गहन सम्बंध है। इसे
श्रृंगार का द्योतक माना जाता है। रूप ,रंग, सौन्दर्य तथा प्रेमियों से
सम्बंधित होने के कारण इसे ‘मदनोत्सव' के रूप में भी मनाया जाने लगा।
ूमते मद-मस्त पेड़-पौधे, फूलों से युक्त डालियाँ भौरों की गुंजान
तथा कोयल की कूक से चारों ओर का वातावरण बड़ा ही मन मोहक और
मादकतापूर्ण हो जाता है। इसलिए कुछ लोग इस दिन ‘कामदेव' और ‘रति' की
पूजा करते थे। अशोक के वृक्ष के नीचे स्थापित ‘कामदेव' और ‘रति' के
ऊपर चुने हुए सुन्दर फूल चढ़ाते तथा अक्षत, रोली,चंदन का टीका लगा कर
उनके शरीर को चंदन से लेप देते और उसी के अनुरूप गीत गाते । दक्षिण
में आज भी कुछ जगह इसे ‘कामदहन' के रूप में मनाया जाता है। इसके बाद
ढोल, मजीरे तथा गीत-संगीत से वातावरण गुंजायमान हो जाता है। गुप्त काल
में राजाओं ने इस अवसर पर दरबार की सर्वश्रेष्ठ ‘सुन्दरी' को सम्मानित करने
की प्रथा प्रारम्भ की । माना जाता है,कि तभी से सौन्दर्य प्रतियोगिता का
प्रारम्भ हुआ ,जो अब तक कायम है।
प्राचीन काल में ‘बसन्तोत्सव' तथा ‘मदनोत्सव' पर जो रंग खेलने की
प्रवृति होती थी, उसका वर्णन संस्कृत के ग्रथों में पढ़ने को मिलता है।
उस समय पिचकारियों को ‘श्रृगक' कहा जाता था। इसका आकार साँप जैसा या
कीपाकार होता था। उस समय टेशू के रंग का जल छोड़ा जाता था। यह
मनोहर स्वच्छ तथा सुगन्धित होने के साथ-साथ कीटनाशक और स्वास्थ्य के
लिए लाभप्रद भी था। केसर ,कुमकुम, गुलाब जल ,केवड़ा और तुलसी युक्त जल
भी प्रयोग में लाया जाता था। आज के दिन राजा और प्रजा में कोई भेद
नहीं रहता था। सब मिल-जुलकर प्रेमपूर्वक इसका आनन्द लेते थे।
कालिदास ने अपनी पुस्तक ‘रघुवंश' में लिखा है, कि उस समय धनी
लोग सोने की पिचकारियों का प्रयोग करते थे। कुमकुम से युक्त केशों
से रंग की बूँदें टपकती थीं तथा स्त्रियाँ पूरी तरह से रंग में सराबोर
हो जाती थीं। जिन व्यक्तियों के पास पिचकारी नहीं होती ,वे अपने मुँह
में जल भर कर अपने प्रियजनों पर डालते थे।
राज्य में एक मंडप बनाया जाता था, जहाँ राजा ,राजकुमार और मंत्री के
अतिरिक्त अन्य अतिथि होते थे। वीरांगनायें धवल वस्त्र धारण किये, शांत
पायल की रून-झुन ध्वनि करती हुई आती और राजा तथा राजकुमार पर रंग
डालती । जिसके बदले राजा भी सुगन्धित जल उन पर बरसाता और फूल बिखेर
कर उन्हें सम्मानित करता था। इसके पश्चात खुशियाँ मनाई जाती, गीत-संगीत
आयोजित किया जाता तथा हो-हल्ला से वातावरण कोलाहलपूर्ण हो जाता ।
प्रहलाद की कहानी के उपरान्त इसमें एक कहानी और जुड़ जाती है। कहा जाता
है, कि एक ढूँढा नामक राक्षसी थी। जिसे तृप्त करने के लिए लोग निर्भीक
और निसंकोच एक-दूसरे को गाली बकते, हल्ला मचाते, नाचते-गाते, अपने
शरीर पर भस्म लगाते तथा मिट्टी लेपन करके खूब उछलते-कूदते। ऐसी
मान्यता थी, कि इससे राक्षसी का भय समाप्त हो जाता है।
होली का मुख्य उद्देश्य लोगों में आपसी भाई-चारे को बढ़ाना
है। इसमें अनेक अन्तर्कथाएँ जुड़ती गयी ,पात्र आते रहे और इसका इतिहास
बढ़ता गया। किंतु होली के स्वरूप में कोई बदलाव नहीं आया। यह ज्यों का
त्यों ही बना रहा। सैकड़ों साल पहले भी लोग हास-परिहास करते तथा एक
दूसरे पर रंग बरसाते थे। आज भी वही है सब कुछ जैसे का तैसा।
इस त्यौहार में भले ही एक दिन के लिए सही, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े,
राजा-प्रजा सभी आपसी भेदभाव भुलाकर बराबर का व्यवहार करते हैं। यहाँ
तक कि मुगल बादशाहों भी हिन्दुओं के इस त्यौहार को बड़े आनन्द के
साथ मनाते थे। मुगल शाशनकाल में एक माह पहले से ही होली की
तैयारियाँ शुरू हो जाती थीं। इस अवसर पर सम्राट अकबर बिना किसी भेदभाव
के अपने मातहत,सभी राजाओं और सामंतों को होली का निमंत्रण देते
और उन सबके साथ मिल-जुलकर उल्लास के साथ होली खेलते। वर्तमान युग में
कहीं लट्ठमार होली खेली जाती है, तो कहीं-कहीं पर तो लोग रंग की जगह
कीचड़ ही पोतने लगते हैं। गुलाल और रंग का प्रयोग सभी को अच्छा लगता
है। आज के दिन हमें किसी को रूष्ट नहीं करना चाहिए। होली प्यार-मोहब्बत
से ही खेलनी चाहिए। न उसे बुरा लगे और तुम्हारी अभिलाषा अपूर्ण रहे।
जहाँ तक हो सके सूखे रंग का ही प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि काला भूत
बनाने के चक्कर में कभी-कभी लड़ाई-दंगे भी हो जाते हैं और रंग में
भंग पड़ जाता है।
''''''
- राम नरेश ‘उज्ज्वल'
उपसंपादक, पैदावार
मुंशीखेड़ा अमौसी एयरपोर्ट,
लखनऊ-226009
COMMENTS