आत्माराम यादव पीव एक अनवरत से बातें पवन से बोलता हूँ गगन से बोलता हूँ, अगन से बोलता हूँ मैं लगन से बोलता हूँ। धरा से बोलता हूँ चरा से ब...
आत्माराम यादव पीव
एक
अनवरत से बातें
पवन से बोलता हूँ
गगन से बोलता हूँ,
अगन से बोलता हूँ
मैं लगन से बोलता हूँ।
धरा से बोलता हूँ
चरा से बोलता हूँ,
परा से बोलता हूँ
मैं खरा सा बोलता हूँ।
बहारों से बोलता हूँ,
सितारों से बोलता हूँ
चान्द तारों से बौलता हूँ,
मैं इशारों से बोलता हूँ।
चन्द्र से बोलता हूँ
वृन्द से बोलता हूँ
कन्द से बोलता हूँ
हाँ में दृन्द से बोलता हूँ।
खग से बोलता हूँ
मृग से बोलता हूँ
दृग से बोलता हूँ
हाँ में रग-रग से बोलता हूँ।
जान से बोलता हूँ
इन्सान से बोलता हूँ
सारे जहाँ से बोलता हूँ
मैं जाने कहाँ से बोलता हूँ।
जो दिन से बोलता है
जो रात से बोलता है
जो अनवरत से बोलता है
मैं उसको बोलता हूँ।
महाशून्य से बोलता हूँ
महाकार से बोलता हूँ
जो तत्व है विराट का
पीव मैं उस बुद्घत्व को बोलता हूँ।
दो
प्राणों में तेरी प्यास है
ये जमी पर झुका -झुका सा लगे आसमां
पर पाओगे न उसे कहीं पर भी झुका है।
बुलन्दी आसमाँ की शिखर चूमती है,
इन्सानों की भी लेकर ये बुलन्दी घूमती है।
इस मालिक की दुनिया का कैसे करूं मैं बयाँ
मैं ऐसे हूँ जैसे दुनिया में होकर भी हूँ ना।
परिव्राजक हूँ मैं सदियों से इस जहाँ का
मिला न अब तक मुझे तेरी दुनिया का कोई पता।
बिखरी है सारे जहाँ में एक तेरी ही अस्मिता,
लिखना पाया अभी तक फिर भी कोई सजीता।
शानोशौकत की तेरी एक छटा है निराली,
पर कहने का सबका है अलग अपना सलीका।
पीव प्राणों में मेरे लगी गहरी प्यास है,
बुझ न पाये साँसें है तब तक
हरदम गाँऊ मै तब तक ं तेरा ही तराना।
तीन
मेरा जीवन
कालरात्रि है
मेरे जीवन में,
है घुप्प अंधेरा
मेरे जीवन में।
है नीरवता का फेरा
मेरे जीवन में,
है मरूस्थल का डेरा
मेंरे जीवन में।
है पतित रहा न यौवन
मेरे जीवन में,
है अंधकार सा सावन
मेरे जीवन में।
है घनघोर पीडाओं का वन
मेरे जीवन में
पीव शेष बचा न तन मन धन
मेरे जीवन में।
चार-
भूख
तन को सताती जब भूख हैं,
इन्सानियत से तब
गिराती भूख हैं।
भूख लगवाये यहाँ,
तन की बोलियाँ,
जला दे आदर्शो की
भूख यहाँ होलियाँ।
अतृप्त है विक्षिप्त है
भूख से इंसान
घोंटकर गला ले
भूख किसी की भी जान।
नाच जीवन भर
भूख ही कराती है,
भेद सफेद काले का
नहीं भूख कभी कराती है।
जहाँ गर भूख है -वहाँ
जीवन नहीं उसूल नहीं
और न आदर्श पास है,
आनन्द नहीं उल्लास नहीं
ओर न परिहास है।
गुल और गुलिस्ता क्या
जाने ये जीव भी
भूख होती है क्या ?
जाने ये पीव सभी।
पाँच
मेरी अभिलाषा
चाह मेरी तू फूल बन,
बगिया में मेरी खिल जाना।
तोड़ लेना मुझको
नहीं तो बगियाँ को महकाना।
चाह मेरी तू हवा बन,
साँसों में मेरी बस जाना।
जब तक बहे साँस मेरी,
कालान्तर कई साँस बहाना।
चाह मेरी तू गीत बन,
प्राणों में मेरे संगीत सजाना।
देह मेरी की बना बाँसुरी,
जग में स्वर सरिता बहाना।
चाह मेरी तू सरिता बन ,
लहर बना मुझे बह जाना।
दरियों के संग बहता जाऊं,
अन्तससागर में मिल जाना।
चाह मेरी तू बदली बन,
संग मुझे ले बून्द बनाना।
बंजर धरती पर बरसाकर बून्दों को,
वसुन्धरा की प्यास बुझाना।
लखता जाऊं हर पल तुझको,
शीतलता का जग भण्डार लुटाना।
चाह मेरी तू कलम बन,
दबात अपनी मुझको बनाना।
पीव जीवन भर में लिखता जाऊं,
तुझ सा सनम जनम-जनम है पाना।
छह
होली
चटक-चटक के कलिया बोली,
जी भर होली खेलेंगे।
चहक-चहक के पंछी बोले,
रंगे बिना नहीं छोडेंगे।
महक-महक के हवा ये बोली,
हर दिन में मिश्री घोलेंगे।
खुशी हृदय से मानव बोला,
रंग इन्द्रधनुष सा बिखेरेगें।
हाथों में अपने सप्तरंग लिये
सभी मन पिचकारी भरते है।
एक दूजे की अपलक देखें,
नयनों से मधु रंग उडेंलते है।
खाली हुई है स्नेह दृष्टि से,
सबके मन की पिचकारी।
भोर भये सूरज ने लुटायी,
जग में लाल रंग की लाली है।
वसुन्धरा से ऊषा खेल रही,
होली हो-हो कर मतवाली है।
कान्हा के मन भा रही,
ब्रज मतवारिन की गाली है।
गोपी ग्वाल इठलाबै मन में,
पीव लाज सभी ने उघारी है।
द्वेष-द्वन्द्व का रंग बनाकर,
आओं हम जी भर होली खेलेंगे।
मानवता के राग रंग में सबके,
मस्तक टीका रोली का दें।
सात
किरणों की प्रतीक्षा
सर्वांगसुन्दरी वसुन्धरा
अपने ऑचल में असीम सागर को लपेटे
हरियाली की चूनर ओढ़े
पूर्व सौन्दर्य शिखाओं के
पुलकित परमात्मलीन है।
अक्षत यौवना वसुन्धरा
अपने अंक में अज्ञात अक्षेय निर्जन टापू
अनन्त सर्पिली खाईयों और कन्दराओं के
कई अनछुये बियावान जंगलों के
अद्भुत कौतुहलमयीन है।
अपने निर्जन तन पर
अगणित प्रजाति के जीवनधारी
अपनी पूर्व प्रकृति के
निश्चिन्त भयहीन रेंगते पनपते है
अपने ममतत्व से वसुन्धरा
लुटाती इन्हें भी समरसलीन है।
प्रकृतिदत्त अपूर्व सौन्दर्य से
मानव नजरें आज भी अंजान है
तभी वसुन्धरा के जन्म से
आज तक कोई भटकता मानव कदम
या भिज्ञ अभेज्ञ विद्वज नजरें
्रपहंुच नहीं सकी है वहाँ।
ठीक वैसे ही जैसेः-
मेरे जीवन के कई अनछुए पहलु
अपने बदरंग अंधेरों को लिये
प्रकाश के पद्पापों कीे
एक हल्की सी सरसराहट को
सदियों से सुनने को तरसते है।
लेकिन प्रकाश की किरणें
प्राची के झोंकों से
जीवन रथ पर सवार हो
सौरभ समीर की लगाम थामें
मेरे ह्दय के द्वार को
दस्तक दिये बिना लौट जाती है।
और मेरा विकलित अन्तस
अपनी कामनाओं के वातायन में
रंध्रों के द्वार खोल
मधुवन की उल्लासमयी प्रेम का
मधु लिये
स्वर्गिक सपनों की किरणों के
आगमन तक देखना चाहता है
पीव ह्दयकलश की
अन्तिम बून्द छलक जाने तक
प्राणों में आशातीत धैर्य लिये
प्रतीक्षारत- प्रतीक्षारत प्रतीक्षारत।
आठ
दमन
मैं रोक लंूगा अपनी वासनाओं कामनाओं को
आखिर कब तक इनके हाथों खुदकों
कठपुतली बनाये रखंूगा।
इन्हें रोकना संभव नहीं पर
असंभव कुछ भी तो नही है।
आखिर इन्हें रोकता कितना तकलीफदेह है
इनकी तीब्र विहाग्नि छोडी भी नहीं जाती
जो मुझे दग्ध किये हुये है।
हो सकता है इन्हें रोकना अहितकर हो
क्योंकि इनकी राह ही गलत है।
यदि इनकी राह को मैं
अपनी सशक्त वैचारिकता के साथ बदलंूगा
तो संभव है मेरे लिये जीवन में
नवीनतम मार्ग खुल जाये।
मेरी वासनायें कामनायें
लोगों से आगे बढ़ने का प्रतिशोध है।
जीवन रूपी शरीर क ी
जो विकृत छाया रही है
जिसे मैंने पोेषित किया है
चाहे भले ही मैं इनसे
अनभिज्ञ रहा होऊगा
या जवानी की मदहोशी में
इनकी परवाह किये बिना
बारम्बार पुर्नरावृत्तियां करता रहा होऊ।
जो मन के स्वभाव में, संभव है
स्वभाव इनका आदि है, अन्त है
अगर आदि को समझ चुके, हो तो
फिर अन्त की ओर, चलना होगा।
मेरा अन्त ,
मेरा स्वभाव होना चाहिए
पर मेरा स्वभाव
पीव अपनी निजता से कितना भिन्न है।
नौ
दुख दर्द दे
वर दे वर दे वर दे,
प्रभू जीवन दुख से भर दे।
रहे उदीप्त ये मेरा स्वर,
साँसों में ऐंसा दुख दर्द दें।
शिशु जननी सी पीड़ा सा,
तन पीड़ित मेरा कर दें।
विधवाओं के संतप्त ह्दय का,
हर पल नाम मेरे कर दें।
शिशुहीन नारी को
वात्सल्य सुख दे,
चाहे हर सुख से
बाँझ मुझे कर दें।
दीन-दुखी दारूणता का,
दुख सारा ही मुझकों दें।
तुझे याद करू मैं हर पल,
वे सारे अवसर पीव मुझकों दें।
आत्माराम यादव पीव
प्रेमपर्ण,कमलकुटी, विश्वकर्मा मंदिर के सामने, शनिचरा मोहल्ला, होशंगाबाद
आपकी ,'प्राणों में तेरी प्यास है' और ' दमन' कविता बहुत अच्छी लगी ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद गिरिराज जी
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