पांच लघुकथायें -राकेश भ्रमर संस्कार (एक) बेटे ने जब शहर में नया बंगला खरीदा, तो बूढ़े मां-बाप की खुशी का पारावार न रहा. बहू-बेटे से ज्य...
पांच लघुकथायें
-राकेश भ्रमर
संस्कार (एक)
बेटे ने जब शहर में नया बंगला खरीदा, तो बूढ़े मां-बाप की खुशी का पारावार न रहा. बहू-बेटे से ज्यादा खुश थे वे दोनों. जिन्दगी भर किराये के मकान में रहे थे. बच्चे को उच्च शिक्षा दी, उसे उच्च पद पर आसीन किया. कभी बचत के बारे में नहीं सोचा. सेवानिवृत्ति के बाद एक छोटा प्लॉट लेकर दो कमरों का मकान बनवा पाये थे. अभी तक उसी में रह रहे थे.
बेटा ऊंची नौकरी में था. तगड़ी तनख्वाह पाता था. ऊपरी आमदनी भी थी. पांच साल में ही अपना बंगला ले लिया था. कल उसमें शिफ्ट होना था.
रात-भर बूढ़े मां-बाप को नींद न आई. भविष्य के सुनहरे सपनों में खोये रहे. बेटे पर उन्हें बहुत गर्व था. उसकी वजह से अब उन्हें भी संभ्रान्त मोहल्ले में बड़े लोगों के बीच में रहने का अवसर प्राप्त होने जा रहा था.
सुबह ट्रक आया. घर का सामान लादा जाने लगा. बहू मजदूरों को बता रही थी कि कौन-कौन सा सामान ट्रक में लादना है. सब सामान लद गया, परन्तु बूढ़े मां-बाप के कमरे का सामान जैसे का तैसा पड़ा रह गया. बाप ने कई बार बेटे को टोकना चाहा कि उसका सामान कब लदेगा; परन्तु बहू-बेटे को उनकी तरफ देखने का भी मौका नहीं था. वह सामान लदवाने में अति व्यस्त थे. ट्रक में लदा सामान बांध दिया गया. ऊपर तिरपाल भी बांध दिया गया. ड्राइवर सीट पर जाकर बैठ गया. बेटा भी बहू के साथ अपनी कार की तरफ बढ़ा. बाप से रहा न गया. सब कुछ समझने के बाद भी उसने पूछा ‘‘बेटा, क्या हम लोग तुम्हारे साथ नहीं चलेंगे ?’’ मां एक तरफ रुआंसी खड़ी थी. वह तो जैसे गूंगी हो गयी थी.
बेटा एक पल के लिए ठिठका और बाप की तरफ पीठ करके बोला, ‘‘पिताजी, आपका यह घर तो है, इसी घर में रहिए. इसे खाली छोड़ना भी ठीक नहीं होगा.’’
बाप के स्वर में तल्खी आ गई, ‘‘तो क्या इसी दिन के लिए मैंने तुम्हें पढ़ाया-लिखाया था. जीवन भर की कमाई तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई और शादी-ब्याह में खर्च कर दी, अब हम लोगों को कौन सहारा देगा ?’’
बेटा बिना किसी पश्चाताप के बोला, ‘‘वह आपका जीवन था, जिसे आपने अपने ढ़ंग से जिया. हर बाप अपने बेटे के लिए अच्छे से अच्छा करता है. आपने अपने बेटे के लिए किया. अब मैं बड़ा हो गया हूं. मेरा अपना घर-परिवार हैं. अब मुझे मेरे ढंग से जीने दीजिए. मुझे भी अपने बीवी-बच्चों के लिए कुछ करना है. आपकी पेन्शन आपके लिए काफी होगी. कम पड़े तो बता दीजिएगा. हजार-पांच सौ भिजवा दिया करुंगा.’’
और वह मां-बाप की तरफ देखे बगैर कार में बैठा और पत्नी के साथ फुर्र हो गया. आखिर बेटा भारत सरकार का प्रथम श्रेणी अधिकारी था और उसकी पत्नी मुख्य सचिव की बेटी... वह दोनों अपने उच्च समाज के संस्कार निभा रहे थे.
*****
किसकी कितनी औकात {दो}
चाय का कप पकड़ाते हुए श्रीमती जी ने कहा, ‘‘आप मेरा एक काम नहीं कर सकते ?’’
मेरे हाथ में चाय का कप हिल गया. मैंने आश्चर्य से श्रीमतीजी को देखा, ‘‘तुम्हारा काम...?’’
‘‘मेरी सहेली का काम है तो मेरा ही काम है.’’ उसने मासूमियत से कहा.
‘‘क्या काम है उसका ?’’
‘‘वह बेचारी एक गांव के स्कूल में प्रधानाध्यापिका है. स्कूल के सारे काम ग्राम पंचायत के माध्यम से होते हैं. उसने बताया है कि ग्राम प्रधान के हस्ताक्षर के बिना कोई भुगतान नहीं होता. प्रधान मेरी सहेली को बहुत तंग और परेशान कर रहा है. स्कूल के काम प्राध्यापिका को करवाने होते हैं, जबकि भुगतान ग्राम प्रधान के माध्यम से होते हैं. काम हो जाता है और प्रधान भुगतान का चेक नहीं काटता. इसके लिए सबसे पैसा मांगता है. लोग मेरी सहेली को पैसे के लिए परेशान करते हैं. गाह-बगाहे प्रधान धमकाता है कि मेरी सहेली को अगवा कर लेगा.’’
मेरी पत्नी इसी जिले के एक गांव की थीं. वहां उनकी कोई सहेली होगी. संयोग से इस बार मैं अपनी श्रीमती जी के गृह जिले में जिलाधीश बन कर आया था. सहेली को किसी प्रकार मेरे बारे में पता चल गया होगा. चाय का घूंट भरते हुए मैंने पूछा, ‘‘तो मैं क्या कर सकता हूं, उनके लिए...?’’
‘‘वह किसी दूसरे विद्यालय में अपना तबादला चाहती है. कई बार लिखकर दिया. यहां आकर बी.एस.ए. से भी मिली; परन्तु वह सुनता ही नहीं... कहते हैं कि हर तबादले के लिए वह पन्द्रह हजार रुपये मांगता है. आप उसका तबादला करवा दीजिए.’’
‘‘अच्छा, अपनी सहेली का पूरा विवरण दो. कल मैं बी.एस.ए. से बात करता हूं.’’
दूसरे दिन बी.एस.ए. को अपने कार्यालय में बुलाकर मैंने उसे प्राथमिकता के आधार पर इस कार्य को करने के लिए कहा. उसने तुरन्त ‘हां’ कर दी और आश्वासन दिया कि काम हो जाएगा. मैं निश्चिन्त हो गया. श्रीमतीजी को बताया तो उन्होंने खुश होकर अपनी सहेली को फोन करके बता दिया कि उसका स्थानांतरण वांछित जगह पर हो जाएगा.
कई महीने बीत गये. इस प्रकरण को मैं भूल चुका था.
एक दिन जब मैं घर लौटा तो श्रीमतीजी का पारा गर्म था. चाय के स्थान पर उन्होंने उलाहना मिला, ‘‘क्या आप सचमुच जिलाधिकारी हो ?’’
‘‘क्यों, क्या हो गया ? मैं कुछ समझा नहीं...’’
‘‘यहीं कि जिले में आपकी कोई सुनता भी है या नहीं... जिलाधिकारी के रूप में आपकी कोई औकात है या नाम के अधिकारी हो ?’’
‘‘क्यों ऐसा क्या हो गया, जो इस कदर खफा हो ?’’
‘‘मेरे लिए तो डूब मरने की बात है. एक बेसिक शिक्षा अधिकारी आपकी बात नहीं मानता. जिले का प्रशासन कैसे चलाते हैं ?’’
मुझे कुछ-कुछ याद आने लगा था, ‘‘क्या तुम्हारी सहेली...’’
मेरी बात पूरी होने के पहले ही श्रीमती जी ने शब्द लपक लिए, ‘‘हां, मेरी सहेली का तबादला आपके निर्देश के बावजूद नहीं हुआ.’’
‘‘फिर...’’
‘‘फिर क्या... सहेली ने पन्द्रह हजार रुपये बी.एस.ए. को दिये और अगले दिन ही उसके ट्रांस्फर का आदेश जारी हो गया. उसने मुझे बताया कि मैं आपको यह खुशखबरी दे दूं.’’
श्रीमतीजी नाराज़ होकर किचन में चली गई. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ होकर लज्जित सा खड़ा रहा. मैं स्वयं नहीं समझ पा रहा था कि लज्जा मुझे अपने अधिकारी होने पर आ रही थी या मेरे आदेश का अनुपालन न होने पर...या कि प्रशासनिक अधिकारियों के इस प्रकार भ्रष्ट हो जाने पर... उत्तर अभी बाकी है.
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खेलने की उम्र (तीन)
सड़क के एक तरफ झोंपड़-पट्टी थी, दूसरी तरफ विशाल अट्टालिकाएं. दीपू अपने मां-बाप के साथ झोंपड़-पट्टी के टपरेवाले दड़बेनुमां एक कमरे में रहता था. उसके मां-बाप घर पर ही लिफाफे बनाने का काम करते थे. दीपू का बचपन गन्दे टूटे-फूटे टपरेवाले कमरे में खोकर रह गया था. वह जब भी खेलने के लिए बाहर जाने का प्रयत्न करता, मां-बाप जोर से डंपटकर उसे लिफाफे चिपकाने के काम में लगा देते. मना करने पर अच्छी-खासी मार खाता था.
‘‘बड़े हो गए हो. अब काम करना सीखो. कमाओगे नहीं तो खाना कहां से आएगा.’’ रोज ही वह अपने मां-बाप के मुंह से यह वाक्य सुनता रहता था. उसकी समझ में नहीं आता था कि दस बरस का लड़का बड़ा कैसे हो सकता था.
उसकी झोंपड़ी के सामने एक क्लब था, जिसके अन्दर रोज शाम को पुरुष और स्त्रियां झुण्ड के झुण्ड जाते थे. दीपू उन रंगबिरंगी खूबसूरत कपड़ों में सजी स्त्रियों और गोरे-लंबे पुरुषों को हसरत भरी नज़र से देखता रहता था. एक दिन जिज्ञासावश उसने अपने बाप से पूछ लिया, ‘‘ये लोग हर शाम को इस बिल्डिंग में क्या करने जाते हैं?’’
बाप शायद जानकार था. बोला, ‘‘ये बड़े लोग हैं. बिल्डिंग के अन्दर खेल खेलने जाते हैं.’’
दीपू हैरान रह गया, ‘‘इतने बड़े-बडे़ लोग बिल्डिंग के अन्दर क्या खेल खेलने जाते हैं?’’
‘‘बहुत सारे खेल हैं, जैसे ताश के, चिड़िया के, गेंद के, टेबल के...’’ बापू ने अपना ज्ञान बखारा.
‘‘बापू आपको कैसे पता?’’
‘‘मैंने कुछ दिन ऐसे ही क्लब में काम किया है, इसलिए जानता हूं.’’
दीपू रुआंसा होकर बोला, ‘‘आप सब बहुत गन्दे हो, इतने बड़े-बड़े लोग रोज खेल खेलते हैं और आप लोग मुझे खेलने के लिए मना करते हो. कभी खेलने के लिए बाहर नहीं जाने देते.’’
पास ही उसकी मां, जो बाप-बेटे की बातें सुन रही थी, एक गहरी सांस लेकर बोली, ‘‘बेटा, वह बड़े लोग हैं. यह उनके खेलने की उम्र है. हम लोगों के खेलने की कोई उम्र नहीं होती है. हमें होश संभालते ही काम में जुटना पड़ता है. हम काम नहीं करेंगे तो भूखों मर जाएंगे. बड़े लोग बुढापे में खेल नहीं खेलेंगे, तो बीमारी से मर जाएंगे.’’
उसकी मां ने बहुत गहरी बात कही थी, परन्तु दीपू की समझ में कुछ नहीं आया. वह तो यह सोच रहा था कि उसकी खेलने की उम्र कब आएगी?
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भेड़िया और मेमना {चार}
चश्मे के किनारे बकरी के मेमने को अपना शिकार बनाते जुए भेड़िये ने कहा, ‘‘हम जन्म-जन्मांतर तक इसी प्रकार तुम्हें मारकर खाते रहेंगे.’’
सारी बकरियों को चिन्ता हुई. भेड़िया अगर इसी प्रकार उनके बच्चों को मारकर खाता रहेगा, तो उनका वंश आगे कैसे बढ़ेगा. उन्होंने भगवान के पास जाकर अपनी समस्या बताई और अपनी सुरक्षा की फरियाद की. भगवान ने पूछा, ‘‘तुम क्या चाहती हो?’’
सोच-विचार कर बकरियों ने जवाब दिया, ‘‘भगवन्! हम बकरियां भेड़िये से अपना बचाव नहीं कर सकतीं, अतः आप हमें मनुष्य बना दें.’’ भगवान ने कहा, ‘‘तथास्तु’’ और सारी बकरियां मनुष्य के रूप में बदल गईं.
भेड़िया जंगल-जंगल भटक रहा था. उसे अपना शिकार कहीं नज़र नहीं आ रहा था. भूख से बेहाल होकर उसने जंगल के एक जानवर से पूछा कि जंगल की सारी बकरियां कहां चली गईं. जानवर ने भेद खोला, ‘‘वह मनुष्य के भेष में गांव और शहरों में बसकर आराम की जिंदगी बसर कर रही हैं.’’
‘‘अच्छा!’’ भेड़िये ने उस जानवर से उनके मनुष्य बनने का पूरा भेद ले लिया. फिर भगवान के पास गया और आर्त्त स्वर में रोते हुए अपने जीवन को बचाने के लिए याचना की. भगवान से अपने लिए एक वरदान मांग लिया. भगवान दयालु थे ही. खुश होकर भेड़िये को मनचाहा वरदान दे दिया और अगले ही क्षण भेड़िया नेता के रूप में मनुष्यों के सामने खड़ा था.
पहले भेड़िया बकरी के बच्चे को झटका देकर मारता था और आराम से खाता था. आज आम जनता को नेता जिन्दा ही नोंच-नोंचकर खा रहे हैं.
कहानी वही है, परन्तु उसका रूप बदल गया है.
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सरकारी भेड़ {पांच}
भेड़ एक सरकारी दफ्तर में स्टेनोग्राफर थी. सुन्दर और जवान थी. अभी अविवाहित थी, परन्तु दुर्भाग्य से उसका बॉस एक भेड़िया था. वह उसकी खूबसूरती और जवानी का दीवाना था. ऐन-केन प्रकारेण वह भेड़ को निवाला बनाकर निगलना चाहता था, परन्तु भेड़िये को कोई अवसर हाथ नहीं आ रहा था, क्योंकि भेड़ अपने काम में दक्ष थी. उसका स्वभाव बहुत मृदुल था और दफ्तर के सभी कर्मचारी उससे खुश थे.
भेड़िये ने सुनियोजित योजना के तहत भेड़ को तंग करना शुरू किया. वह उसके काम में नुक्श निकालता, बात-बात पर उसे डांटता-फटकारता और उसे नौकरी से निकालने की धमकी देता. भेड़ डर जाती. सरकारी नौकरी वह छोड़ नहीं सकती थी. बाप की कोई बंधी-बंधाई नौकरी नहीं थी और उसकी कमाई बहुत कम थी. मां बीमार रहती थी और छोटा भाई अभी पढ़ाई कर रहा था. एक तरह से घर की जिम्मेदारी उसी के ऊपर थी. भेड़ के डरने से भेड़िये को अपनी योजना सफल होती नज़र आने लगी. वह उसके साथ अश्लील मजाक करने लगा. भद्दे इशारे पहले से ही करता था. मौका मिलने पर अपने नुकीले पंजे से भेड़ की कोमल पीठ सहलाने लगता. भेड़ डर के मारे सहमकर सिमट जाती. इसका परिणाम यह हुआ कि एक दिन भेड़िये ने अपना काला थूथन भेड़ के कोमल होंठों से सटा दिया और फिर अपनी खुरदरी जीभ से भेड़ का गाल चाट लिया.
भेड़ बेहद डर गई थी. अपना दुखड़ा वह किसी से नहीं कह सकती थी.
काफी सोच विचारकर भेड़ ने भेड़िये के दफ्तर से अपने तबादले के लिए मुख्यालय को लिखा. मुख्यालय का मुखिया शेरखान था. उसने भेड़िये से उसकी राय मांगी. भेड़िया भेड़ के तबादले के आवेदन पर खफ़ा हो गया था. उसने अपनी टिप्पड़ी में लिखा, ‘‘भेड़ बेहद लापरवाह और कामचोर है. वह अपने कार्य में कुशल नहीं है. तमाम निदेशों और समझाईश के बाद भी उसके कार्य में कोई सुधार नहीं आया है. इन्हीं कारणों से वह अपना तबादला दूसरे दफ्तर में चाहती है. कार्य में लापरवाही और अकुशलता के कारण मैं उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुशंसा करता हूं. जब तक कार्रवाई पूरी न हो, उसे इस कार्यालय से स्थानांतरित न किया जाए.’’
शेरखान और भेड़िया एक ही जाति, स्वभाव और चरित्र के थे. भेड़िये की अनुशंसा पर तुरन्त भेड़ को सरकारी कार्य में लापरवाही बरतने के आरोप में चार्जशीट थमा दी गई. भेड़िये को जांच अधिकारी नियुक्त किया गया. अब भेड़ के पास निकल भागने का कोई रास्ता नहीं बचा था. वह बुरी तरीके से भेड़िये के चंगुल में फंस चुकी थी. कार्यालय के अन्य कर्मचारी भी सियार और लोमड़ी थे. वह भी भेड़ की तरह निरीह थे और उस़ की कोई मदद नहीं कर सकते थे. उस दफ्तर में अधेड़ उम्र की एक चालाक लोमड़ी भी काम करती थी. वह खेली-खाई थी. उसने भेड़ को एकान्त में ले जाकर सलाह दी, ‘‘जरा बुद्धिमानी से काम लो. सुन्दरता और जवानी का एक ही काम होता है. इससे फायदा उठाकर अपना मतलब हल करो. सब ठीक हो जाएगा.’’
लोमड़ी की बात भेड़ कुछ समझी, कुछ नहीं. सुन्दर थी, परन्तु बुद्धि कम थी. सोचा- एक बार जाकर भेड़िये से माफी मांग लेने में कोई हानि नहीं है. लोमड़ी की सलाह पर भेड़ ने अमल करना उचित समझा.
वह डरते-कांपते भेड़िये के चैम्बर में पहुंची. उसके हाथों में चार्जशीट की कापी थी और वह हवा में उड़ते पत्ते की तरह कांप रही थी. भेड़िया उसे देखकर कुटिलता से मुस्कराया. और बोला, ‘‘अब क्या चाहती हो?’’
भेड़ के मुंह से आवाज नहीं निकली. उसकी आंखों से पीड़ा का सागर अश्रुओं के रूप में बह निकला. उसके आंसू अगर बोल सकते तो चीखकर यही कहते, ‘मुझे माफ कर दो, हांलाकि मैंने कोई गलती नहीं की है.’
‘‘पहले ही समझ जाती तो ये नौबत क्यों आती?’’ भेड़िया कुटिलता से मुस्कराता हुआ अपनी मेज से उठा और भेड़ को अपनी बगल में दबोच लिया. वह उसकी विवशता भांप चुका था. भेड़ के पास न तो बोलने के लिए शब्द थे, न भागने के लिए कोई रास्ता. कमरे का दरवाजा स्वतः बन्द हो गया था.
एक खूबसूरत और जवान भेड़ सारी सावधानियों के बावजूद भेड़िये का शिकार बन गई थी.
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(राकेश भ्रमर)
ई-15, प्रगति विहार हास्टल,
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