शलिनी : एक पुत्र शलिनी कॉलेज से एमए की डिग्री सामाजिक विज्ञान से लेने के बाद नौकरी नहीं करना चाहती थी। शलिनी समाज में व्याप्त कुरीतियों क...
शलिनी : एक पुत्र
शलिनी कॉलेज से एमए की डिग्री सामाजिक विज्ञान से लेने के बाद नौकरी नहीं करना चाहती थी। शलिनी समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए सामाजिक आंदोलन चलाना चाहती थी। आंदोलन की रूपरेखा उसके दिमाग में स्पष्ट नहीं थी पंरतु जज्बा था जो स्पष्ट था।
शलिनी अपने माता-पिता की एकलौती औलाद थी। शलिनी के पिता सोने के व्यापारी थे तथा शलिनी की माँ पढ़ी-लिखी गृहणी थी।
शलिनी की माँ को अपनी बेटी के शादी की चिंता लगी रहती थी इसलिए नहीं कि शलिनी के लिए लड़के की कोई कमी थी या धन-दौलत की कमी थी बल्कि चिंता इसलिए थी कि शलिनी शादी करना नहीं चाहती थी। शलिनी की माँ जब भी शलिनी से शादी संबंधित बात करती तो शलिनी यह कह कर टाल देती थी कि उसे बहुत कुछ करना है। शलिनी की माँ जब पूछती कि शलिनी तू नौकरी भी नहीं करना चाहती, शादी भी नहीं करना चाहती, तो तू क्या करेगी ? उम्र कोई रूकी रहने वाली चीज है क्या ? वह तो बढ़ती जाएगी, शलिनी की माँ झुंझलाते हुए शलिनी से कहती।
शलिनी अपनी माँ के गले में बांहों को डालती हुयी पूरे विश्वास के साथ कहा करती कि माँ तू चिंता न कर, सब कुछ मैं ठीक-ठाक समय में कर लूंगी, शादी भी, शलिनी ने ‘शादी' पर जोर देते हुए कहा।
उस रात शलिनी अपने कमरे में रोजा लक्जमबर्ग की सामाजिक विज्ञान पर एक पुस्तक पढ़ते हुए सोच रही थी कि वह कैसे सामाजिक आंदोलन की शुरूआत करेगी, उसकी रूपरेखा क्या होगी। दूसरे दिन सुबह-सुबह शलिनी ने अपने पिता रोशन लाल को घर से निकलने से पहले ही चाय पीते हुए टेबल पर जा कर मिली और बड़े प्यार से अपने पिता से बोली, पिताजी मैं अभी शादी नहीं करना चाहती हूं और नौकरी भी नहीं करना चाहती हूं बल्कि कोई सामाजिक भलाई का काम करना चाहती हूं, एक ही सांस में शलिनी सब बोल गयी।
शलिनी के पिता रोशनलाल बहुत पढ़े-लिखे तो नहीं थे परंतु अपने साहित्यिक मित्रों के साथ रहते-रहते उनका नजरिया विस्तार ले चुका था। जो उनके द्वारा अपने पुत्री शलिनी के लालन-पालन में नजर आता था। शलिनी को रोशनलाल ने कभी भी उस नजरिए से नहीं पाला कि लड़की बोझ होती है, पराया धन होती, कन्यादान करना होगा। इन सब बातों को वे नहीं मानते थे। शलिनी को लड़के की तरह उन्होंने पाला था, हाँ चूकि शलिनी लड़की थी और सुंदर भी थी इसलिए रोशनलाल शलिनी को पर्याप्त सुरक्षा दे रखा था। शलिनी से रोशनलाल हर बात स्पष्ट ढ़ंग से करते थे। शलिनी को निडर और आत्मसम्मानी बनाकर पाला था रोशनलाल ने।
रोशनलाल चाय पी चुके थे। अखबार उलट-पलट कर रख दिया और पास खड़ी शलिनी से मुखातिब होते हुए पूछा कि अगर मेरी बेटी शादी नहीं करेगी, नौकरी नहीं करेगी तो किसा तरह की सामाजिक भलाई का कार्य करेगी, भलाई का कार्य कहां से शुरू होगी और कहां खत्म होगी, जरा मुझे भी तो स्पष्ट करो।
अब बारी शलिनी की थी अपने पिता को समझाने की कि वो किस तरह की सामाजिक आंदोलन करना चाहती है। शलिनी ने कहा, पिताजी हमलोगों के यहां जो काम करने वाली आती है न, आपने ध्यान दिया है पिताजी, कभी-कभी काम करने वाली की दस वर्षीया बेटी भी आती है और आपको पता है पिताजी वह दस वर्ष की लड़की भी बहुत हम जैसों के घरों में झाडू लगाती है, जूठा वर्तन साफ करती है।
हाँ-हाँ, करती है मैं जानता हॅूं, शलिनी के पिता ने कहा।
शलिनी ने कहा बस-बस पिताजी यहीं से शुरू होगा मेरा सामाजिक आंदोलन। बच्चों को काम करना बालश्रम निषेध कानून के तहत मना है लेकिन हम पढ़े-लिखे लोगों के घरों में प्रतिदिन बच्चे काम करते है। इसे रोकना होगा।
क्या तुम्हारे रोकने से बच्चे काम करना छोड़ देंगे, शलिनी के पिता ने पूछा।
मुझे बच्चों से काम लेने की प्रथा को रोकना ही होगा पिताजी, आज मैं यह कार्य अकेले शुरू जरूर करूंगी परंतु मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन यह आंदोलन का रूप ले लेगा। किसी न किसी को तो पहल करनी ही होगी पिताजी, शलिनी ने पूरे विश्वास के साथ कहा।
कैसे रोकेगी इसे शलिनी, रोशनलाल ने पूछा।
शलिनी ने कहा, पिताजी सभी सामाजिक कुरीतियों को रोकने के लिए शिक्षा का अलख जलाना होता है तभी कुरीतियां रोकी जा सकेंगी। मैं सबसे पहले हमलोगों का खाली पड़ा फार्म हाउस वाले घर को साफ-सुथरा करा कर काम करने वाली मोहल्ले के कामगारों के बच्चों को पढ़ाना शुरू करूंगी, कुछ दिनों के बाद जब बच्चों की संख्या बढ़ जाएगी तब पंजीकरण करवाकर ‘गरीब विद्यालय' में उसे परिवर्तित कर दूंगी।
शलिनी के पिता को बहुत खुशी हुयी कि उनकी पुत्री ने शिक्षा का हक अदा कर दिया। रोशनलाल सोचने लगे कि अगर पढ़े-लिखे लड़के-लड़कियां शलिनी की तरह सोचने लगे तो देश को प्रगति करने से कौन रोक सकता है। चुप देखकर, शलिनी ने पूछा, पिताजी, क्या पंसद नहीं आया मेरी योजना ?
रोशनलाल खड़े हो गए और आर्शीवाद देते हुए शलिनी को बस इतना कहा कि मुझे नाज है तुम पर बेटी।
शलिनी पहला दिन अपने गरीब विद्यालय में सिर्फ एक दस वर्षीय बच्ची आरती, जो शलिनी के घर काम करने वाली रेखा की बेटी थी, को पढ़ाना शुरू किया और आज शलिनी के गरीब विद्यालय में सैकड़ों कामगार औरतों के बच्चे पढ़ रहे हैं।
शलिनी ने दो-एक अपने जैसी समाज सुधारक शिक्षकों को भी नौकरी पर रख है। एक रूपया टोकन मनी से विद्यालय में दाखिला दिया जाता है शेष खर्चों का वहन शलिनी अपनी जमा पूंजी से करती है। उसे विश्वास है कि उसकी यह छोटी सी पहल आने वाले दिनों में एक आंदोलन का रूप ले लगा।
शॉपिंग
मान्टी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहा था, आईसीएसई बोर्ड परीक्षा की तैयारी कर रहा था। पिता का देहांत पहले ही हो चुका था तथा मान्टी की माँ सरकारी स्कूल की शिक्षिका थी। मान्टी की माँ कई बार उसे सरकारी स्कूल में दाखिला लेने को कह चुकी थी पर मान्टी तैयार नहीं होता था। मान्टी का कहना था कि सरकारी स्कूल में सिर्फ गरीब लोगों के बाल-बच्चे पढ़ते है, वो भी हिन्दी मीडियम से। उसे हिन्दी मीडियम से गरीब बच्चों के साथ सरकारी स्कूल में पढ़ने का कोई शौक नहीं है।
मान्टी की माँ सरकारी स्कूल में नौकरी करते हुए मान्टी को कान्वेंट स्कूल में पढ़ा रही है। मान्टी के दादा गांव में बीमार होने के बाद शहर आ गए थे। फेफड़े के झिल्ली में आए संक्रमण से पीडित मान्टी के दादा को बहुत इलाज करवाने के बाद भी बचाया नहीं जा सका और उनका देहांत हो गया। मान्टी को ही अपने दादा का दाहसंस्कार करना था।
मान्टी की माँ ने उसे सब कुछ समझा कर रूपए दिए और कही कि श्मशान ले जाने के लिए सारी चीजों का इंतजाम उसे जल्द करना होगा क्योंकि शव को ज्यादा देर तक घर पर नहीं रखा जा सकता। मान्टी कफन और अन्य सामग्रियों को लाने के लिए घर से निकला ही था कि रास्ते में उसके मित्र अंशु का फोन आया, अंशु फोन पर कह रहा था कि अरे मान्टी आज सुबह टूयशन पर नहीं आए, कहां हो ?
मान्टी बोला यार दादाजी गुजर गए आज सुबह, तुम मुझे चौंक पर मिलो कफन वगैरह लेने के लिए शॉपिंग करने जा रहा हॅूं।
भिखारी
एक भिखारी मोबाइल फोन पर अपने साथी भिखारी को कह रहा था, यार पप्पु मेहनत कर के ही पहले जो हमलोग कमाते थे वो ठीक था, रात को रोटी और दारू खाने-पीने के बाद अच्छी नींद तो आती थी, तुमने जब से भीख मांगने के धंधे में लगाया है तब से कमाई तो अच्छी हो जाती है पर रात में नींद का टोटा पड़ गया है।
पप्पु ने उसे फोन पर समझाया, यार रामू कहां मेहनत-मशक्कत की बात करता है, दिन भर हाड़तोड़ मेहनत कर सौ-डेढ़ सौ रूपए से कहीं घर चलता है। याद नहीं है तुम्हें रामू जब तुम पंचम सेठ के गोदाम में बोरा ढोते थे तो अपने लड़के को भी ले जाते थे, बेचारे की छाती में रात को दर्द होने लगा था। जब से भीख मांगने के धंधे में आए हो तब से तुम्हारा लड़का अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहा है न ! नींद नहीं आती है तो कोटा बढ़ा दो, नीब न पीकर अध्धा पीओ, पैसे की कमी अब तुम्हें है क्या ? हाँ जैसा बताया था कि सप्ताह में एक दिन ही नहाना और कंबल भी धोना नहीं, एक आंख पर हरे रंग की पट्टी जरूर लगाए रखना, बालों में कंघी मत करना। रविवार को जब भीख मांगना ऑफ करते हो उस दिन ‘न्यू मेंन्स सैलून' जो बांद्रा के पास नया खुला है वहां चले जाना, भाप से पहले स्टीम बाथ लेना, फिर सैलून के उपरी तल्ले पर लडकियां मॉलिश करती है वो करवा लेना, बाल वगैरह में मंहगी सेम्पू करवा कर सप्ताह भर की धूल-गर्द को साफ करवा लेना और तब सूट-टाई पहन कर बेटे के साथ सीनामा देखने जाना। जिंदगी का मजा लेना फिर सोमवार से धंधे पर चले जाना। और हाँ किसी तरह की मानसिक परेशानी हो तो मुझे बताना, हम है तो क्या गम है, अभी मैं जुहू वाले ऑफिस में हूँ। आज विक्टोरिया टर्मिन्ल के पास अपना रंजू भाई का सूंटिग होने वाला है, वहीं जा रहा हूँ, भीड़ होगी, भीख भी मिलेगा और बटुए पर हाथ साफ करने का मौका भी मिलेगा, ठीक है अब फोन रखता हॅूं।
क्या, क्या कहा रामू, आवाज में घडघडाहट आने के कारण पप्पु ठीक से सुन नहीं पा रहा था। फिर से फोन लगाने को कहते हुए पप्पु ने फोन काट दिया। फोन पप्पु ने फिर लगाया, रामू की आवाज अब साफ आ रही थी। पप्पु ने कहा, क्या तू भी जाना चाहता है शूटिंग पर, नहीं रामू, पप्पु ने मना करते हुए कहा कि अभी तू इतना दक्ष नहीं हुआ है भेष बदलने में और बटुआ साफ करने में। कुछ साल और लगेंगे।
इतना उपदेश सुन कर रामू गदगद हो गया। रामू का गाइड था पप्पु, उसके सुख-दुख का साथी। रामू सोचने लगा पप्पु ठीक ही कहता है, साला मेहनत-मजदूरी करता था तो दवा की खुराक की तरह खाना मिलता था, जब से भीख मांगने का धंधा किया है, बेटा को सेन्ट जान्स कान्वेंट में पढ़ा रहा हॅूं, खाने में नान-चिकेन जब मन करे तब। वाइफ के लिए मॉल से कपड़े, सेन्डल, गहने सब तो खरीद कर देता हॅूं। अरे नींद नहीं आती है तो पप्पु ने ठीक ही कहा, अध्धा पीओ, नींद साली कहां जाएगी, उसे तो आनी ही है।
इसी बीच कटोरे में एक रूपया जिसने उछाल कर फेंका था, उसे आवाज देते हुए रामू ने कहा, सुनो साब, एक रूपए का जमाना गया, अगर नहीं है तो मत दो, पर एक रूपया देकर भीखमंगी की बेइज्जती मत करो साब, लो मेरे से एक रूपया और ले जाओ। इतना कह कर रामू कंबल के अंदर अपने कान में हेड फोन को एडजस्ट करते हुए मेंहदी हसन की गजल ‘क्या टूटा है अंदर-अंदर' सुनने में मशरूफ हो गया।
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंड़ा, गिरिडीह
झारखंड ़815301 मो. 9471765417
राजीव जी तीनों लघुकथाएं अच्छी है। 'शॉपिंग' का शाब्दिक व्यंग्य वास्तववादी। खैर कहानी का बच्चा शॉपिंग ही क्यों न कहे पर कफन तो लाने जा रहा है। पर कई जगहों पर बूढों को कफन छोड दें अपने लोग भी नसिब नहीं हैं। वैसे अंग्रेजी स्कूलों में पढ रहे बच्चों के लिए मम्मी-डॅडी की अपेक्षा दादा-दादी ही बहुत नजदिकी होते है। चलो बुजुर्गों के लिए आपकी चिंता एवं अंग्रेजी चकाचौंध में अपनी संस्कृति का सांकेतिक पतन दिखाना पाठकों के लिए सोच में डालेगा।
जवाब देंहटाएंDanyabad Vijayji, apko meri laghukathayan pasand aayee, sadhubad.
हटाएंRajiv Anand
17.3.13