जन्म दिवस 15 मार्च पर विशेष दमित वर्गों के लिए ः अगर बाबा साहब मैजीनी थे तो काशीराम गैरीबाल्डी पुस्तक दी चम्चा ऐज पर विशेष मैं कभी श...
जन्म दिवस 15 मार्च पर विशेष
दमित वर्गों के लिए ः अगर बाबा साहब मैजीनी थे तो काशीराम गैरीबाल्डी
पुस्तक दी चम्चा ऐज पर विशेष
मैं कभी शादी नहीं करूंगा, मैं कभी संपत्ति अर्जित नहीं करूंगा, मैं अपने घर कभी नहीं जाउंगा, मैं अपना शेष जीवन फूले-अम्बेदकर आंदोलन के लक्ष्यों को हासिल करने में समर्पित कर दूंगा। यह प्रण कोई और नहीं मान्यवर काशीराम जी ने लिया था और उन्होंने इस प्रण को जीवनपर्यन्त निभाया।
पंजाब के रमदसिया समुदाय के श्री हरि सिंह के घर में काशीराम जी का जन्म 15 मार्च सन् 1934 को रोपर जिला के ख्वासपूर गांव में हुआ था। विज्ञान से स्नातक उत्तीर्ण होने के बाद सहायक वैज्ञानिक के रूप में डीआरडीओ, किरकी, पूणे में अपना योगदान सन् 1957 में दिया जहां इन्हें पहली बार पीड़क जातिप्रथा का सामना करना पड़ा। जिस कारखाना में काशीराम जी कार्यरत थे वहां के प्रबंधन ने अम्बेदकर जयंती और बुद्ध जयंती के छुटि्टयों को रद्द कर दिया जबकि तिलक जयंती पर छुट्टी बरकरार रखी परंतु महाराष्ट्र के बाबा साहेब अम्बेदकर के अनुयायियों ने विरोध नहीं किया विरोध किया एक अनुसूचित जाति के दीना भाना ने, जिन्हें नौकरी से निलंबित कर दिया गया। काशीराम जी को प्रबंधन का यह असमान व्यवहार बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने दीना भाना के लिए कानूनी लड़ाई लड़ा जिसके परिणामस्वरूप न सिर्फ दीना भाना को पुनः नौकरी पर रखा गया बल्कि अम्बेदकर जयंती और बुद्ध जयंती पर छुटि्टयों को भी मान लिया गया। उक्त घटना ने काशीराम जी में एक जागरूकता को जन्म दिया क्योंकि इससे पहले उन्हें कभी असामान सामाजिक व्यवस्था और अस्पृश्यता से रूबरू होने का मौका नहीं मिला था। पंजाबी दलित समाज के शिक्षित परिवार में जन्में काशीराम जी को कभी व्यक्तिगत रूप से अस्पृश्यता का सामना नहीं करना पड़ा था। अपने नौकरी के दौरान असमान सामाजिक व्यवस्था को जब उन्होंने महसूस किया और देखा तब उन्होंने बाबा साहब लिखित शास्त्रीय पुस्तक ‘दी आननिहिलेशन अॉफ कास्ट' जाति का विनाश को पढ़ने की जरूरत महसूस किया और उनपर इस पुस्तक का प्रभाव इस कदर पड़ा कि एक रात में उन्होंने तीन मर्तबा इस पुस्तक को पढ़ डाला। तत्पश्चात काशीराम जी ने ज्योतिबा फूले, पेरियर और बाबा साहब के सभी पुस्तकों को पढ़ा और तब उन्होंने अनुसूचित जाति, जनजाति, अति पिछड़ी जातियों एवं अल्पसंख्यक के कल्याण के लिए कई संस्थाओं की स्थापना किया।
काशीराम जी का मानना था कि सामाजिक समानता कभी भी राजनीतिक शक्ति के बिना हासिल नहीं की जा सकती है। उन्होंने इस तथ्य को बहुजन को समझाने का प्रयास किया कि 15 प्रतिशत सवर्ण जातियां 85 प्रतिशत बहुजन पर क्यों शासन कर रही है और इसके जबाव में उन्होंने नारा दिया कि ‘‘वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा।''
काशीराम जी न तो बाबा साहब भीमराव अम्बेदकर की तरह उद्भट विद्वान थे और न ही कुशल वक्ता परंतु काशीराम जी एक कुशल रणनीतिकार अवश्य थे। उन्हें भारतीय असमान सामाजिक व्यवस्था का अंतर्शनात्मक ज्ञान और संगठित करने की अपार शक्ति के कारण बड़ी संख्या में उन्हें अनुसरण करने वाले मिलते गए जिन्हें काशीराम जी ने शक्तिशाली बहुजन आंदोलन में बदल दिया। काशीराम जी ने बाबा साहब के सैद्धांतिक परंपरा को व्यवहारिक तौर पर आगे बढ़ाया इस दृष्टिकोण से अगर बाबा साहब को इटली के एकीकरण के इतिहास का मैजीनी कहा जाए तो काशीराम जी को गैरीबाल्डी की संज्ञा दी जा सकती है। काशीराम जी ने अपने राजनीतिक रणनीति में दलित आंदोलन को बहुजन आंदोलन कहकर प्रयोग में लाया। उन्होंने ‘दलित' शब्द को अपनी राजनीतिक संघर्ष में कभी जगह नहीं दी बल्कि भारतीय राजनीति में बहुजन शब्द का प्रयोग का श्रेय इन्हीं को जाता है। उन्होंने कहा कि दलितों को रोते रहने व भिखारी की तरह मांगते रहने की आदत को छोड़ना होगा। सामाजिक उत्थान का मूलमंत्र काशीराम जी ने राजनीतिक रूप से बहुजन एकता को बताते हुए कहा कि दबे-कुचले लोगों को ‘दलितवाद' त्यागना होगा। बाबा साहब के ‘साधन और साध्य' के सिद्धांत में काशीराम जी ने साध्य को महत्वपूर्ण मानते हुए किसी तरह के साधन को अपनाने पर जोर दिया। लक्ष्य प्राप्ति लक्ष्य प्राप्त करने के साधन को न्यायोचित्य बना देता है। जबकि बाबा साहब ने लक्ष्य प्राप्ति के लिए नैतिक साधनों पर विशेष बल देते थे।
बाबा साहब ने महात्मा फूले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केन्द्र में रख कर संघर्ष किया और आने वाली नस्लों को जाति के विनाश का एक ऐसा मूलमंत्र दिया जो सही अर्थों में सामाजिक परिवर्तन का वाहक बना। बाबा साहब ने महात्मा फूले द्वारा ब्राहणवाद के खिलाफ शुरू किए गए अभियान को विश्वव्यापी बनाया। बाबा साहब के जीवनकाल में किसी ने यह नहीं सोचा था कि ‘अम्बेदकर के सिद्धांत' को आधार बनाकर सता भी हासिल की जा सकती है लेकिन यह कार्य कर दिखाया काशीरामजी ने जिनकी शिष्या सुश्री मायावती ने पिछले वर्ष तक उतर प्रदेश की सता पर काबिज रही थी। यद्यपि यह पड़ताल का विषय है कि सता का सूख भोगने वाली मायावती सरकार ने बाबा साहब के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिए कुछ किया भी या नहीं।
बाबा साहब की प्रसिद्ध पुस्तक जिसे ‘बहुजनों का बाइबल' कहा जा सकता है वह है ‘जाति का विनाश', पुस्तक के रूप में कैसे आया इसका भी एक रोचक इतिहास रहा है। दरअसल हुआ यह था कि लाहौर के जातपात तोड़क मंडल नामक संस्था ने डा. अम्बेदकर को जाति प्रथा पर भाषण देने को आमंत्रित किया था। भाषण देने के पहले डा. अम्बेदकर ने अपने पढ़े जाने वाले भाषण को लिखकर भिजवा दिया था परंतु जातपात तोड़क मंडल के ब्राहणवादी कर्ताधर्ता ने भाषण को विरोध करते हुए उसे संपादित कर पढ़ने की बात डा. अम्बेदकर से कही जो डा. अम्बेदकर को मंजूर न था। डा. अम्बेदकर ने अपने भाषण सामग्री को पुस्तक रूप देकर छपवा दिया जो ‘दी आननिहिलेशन अॉफ कास्ट' के रूप में आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर है। विश्व में शायद ही इतना लंबा भाषण कोई और रहा होगा।
काशीराम जी ने इस पुस्तक को एक रात में तीन बार पढ़ डाला और इसका प्रभाव यह हुआ कि काशीराम जी ने भी एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘दी चम्चा ऐज' ‘एन एरा अॉफ स्टूजेज' लिखा जो 24 सितंबर 1982 को पूना पेक्ट के 50वीं वर्षगांठ पर प्रकाशित किया गया था। इस पुस्तक को वैदिक मुद्राणालय, 3957, पहाड़ी धीरज, दिल्ली ने मात्र 10 रूपए मूल्य पर प्रकाशित किया था। इस पुस्तक के प्रस्तावना में लेखक काशीराम जी ने कहा है कि शताब्दियों से ब्राहणवादी संस्कृति के शिकार रहे शूद्र और अतिशूद्र जिन्हें अब पिछड़ी जातियां कहा जाता है, काले युग से गुजर रही है। सन् 1848 ई. में ज्योतिराव फूले ने ब्राहमणवादियों के खिलाफ जो आंदोलन चलाया वो 20वीं शताब्दी के शुरूआत में संपूर्ण भारत में दमित जातियों द्वारा आगे बढ़ाया जाने लगा और 1920 ई. से दमित जातियां भाग्यशाली साबित हुयी कि उनलोगों को डा. अम्बेदकर का योग्य नेतृत्व मिला और 17 अगसत 1932 को काम्यूनल एवार्ड की घोषण की गयी जो गांधीजी और उनके कांग्रेस को बर्दाशत नहीं हुआ क्योंकि काम्यूनल एवार्ड के माध्यम से पिछडे जातियों को पहचान और अधिकार दोनों हासिल हुआ था और इसलिए गांधीजी 20 सितंबर 1932 को आमरण अनशन पर चले गए जिसके परिणामस्वरूप पूना पेक्ट अस्तित्व में आया जिसके तहत दमित वर्गों के लोगों पर सेपरेट इलेक्द्रोट के बदले ज्वाइंट इलेक्द्रोट थोप दिया गया जिसका परिणाम यह हुआ कि दमित वर्गों के लोग सही अर्थ में प्रतिनिधि न बनकर सिर्फ नाममात्र के प्रतिनिधि रह गये थे। काशीराम जी ने ज्वांइट इलेक्द्रोट के परिणामस्वरूप जो राजनीतिक व्यवस्था दमित वर्गों के लिए अस्तित्व में आयी उसे चम्चा ऐज से इंगित किया है। काशीराम जी अपनी पुस्तक में कहते है कि जब चम्चा ऐज पचास वर्षों का हो गया तब संपूर्ण भारतवर्ष में पूना पेक्ट के बहिष्कार करने के उद्देश्य से इस पुस्तक को लिखा गया। सर्वप्रथम 50 पन्ने का चम्चा ऐज के नाम से बुकलेट फार्म में छापा गया था, बाद में इसे पुस्तक रूप में लिख जाना जरूरी समझा गया। इस पुस्तक को लिखने के पीछे दलित-शोषित समाज के लोगों को जगाना व जागरूक करना तथा साथ में अगाह करना मुख्य उद्देश्य रहा है। पुस्तक को इस तरह लिखा गया है कि दमित शोषित लोग फर्जी और सही नेतृत्व में अंतर कर सकें। जिन्हें यूगों से चले आ रहे असमान सामाजिक व्यवस्था को बदलना है उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि वे किस युग में रह रहें है। ‘दी चम्चा ऐज' से इस तथ्य की जानकारी मिलती है। पुस्तक को सुलभ व उद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए चार भागों व 17 अध्यायों में बांटा गया है। पहले व दूसरे भाग में पूर्व संघर्ष की झांकी है, तीसरे भाग में वर्तमान समय को दर्शाया गया है तथा चौथे भाग में संघर्ष के भविष्य में अपनाये जाने वाले प्रक्रियाओं की विस्तार से चर्चा की गयी है। इस तरह पूरी पुस्तक भूत, वर्तमान और भविष्य की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। जिसे बाबा साहब लिखित ‘जाति के विनाश' पढ़ने के बाद पढ़ना आवश्यक है।
राजीव
मो. 9471765417
kashiram ji ne dalito ke liye jo sapna dekha aaj uske shisy use bhol gye hai aur unki nam ki kamae ka satta ka sukh bhog rahe hai
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