एक लड़की एक लड़का डॉ. विजय शिंदे मनुष्य की पहचान है, मानवीयता। मनुष्य बनता...
एक लड़की एक लड़का
डॉ. विजय शिंदे
मनुष्य की पहचान है, मानवीयता। मनुष्य बनता ही है मानवीयता के कारण। जहां मानवीयता का हनन होता है वहां मनुष्य का हनन होकर राक्षस बन सकता है, जो सारी मनुष्यता की सीमाओं को लांघकर अमानवीय एवं राक्षसी व्यवहार करता है। उसकी यह कृति सारी प्रकृति के लिए हानिकारक हो सकती है। राष्ट्रीय स्तर पर विषय पर इस बार-बार चर्चा हुई, चिंता प्रकट की गई एवं कार्रवाइयां भी हुई। जैसे-जैसे उसकी तह में जाने की कोशिश होती गई वैसे-वैसे हमारे ‘मनुष्य’ होने के दांवे का खात्मा कर रही थी। ‘स्त्री भ्रूण हत्या’ विषय की गंभीरता की ओर सबका ध्यान केंद्रित करना उद्देश्य है। पुरुष की तुलना में स्त्रियों की घटती संख्या प्राकृतिक नहीं तो मनुष्य द्वारा निर्मित आपत्ति है, जो उसके अमानवीय, राक्षसी प्रवृत्ति का द्योतक है। हम कल्पना भी..... हां कल्पना भी नहीं कर सकते कितनी कन्याओं की हत्या की होगी, सालों साल से। ‘हत्या’ कानूनी अपराध है और वर्तमान भारतीय समाज धड़ल्ले से हत्याएं करते जा रहा है; और आधार विज्ञान, विद्वान, डॉक्टर, घर-परिवार के सदस्य, पुरुष और स्त्री भी, बाप और मां भी सभी उस छोटी बच्ची के दुश्मन बने हैं, ‘हत्यारे‘ बने हैं, और कानून आंखों पर पट्टी बांधे हाथ पर हाथ धरे बैठा है।
कौनसा अपराध है उस बच्ची का? हम जो कल्पना करते हैं उसके उल्टा सत्य होता है। आम तरीके से कहा जाता है ग्रामीण-अनपढ़ इलाकों में कन्या भ्रूण हत्याएं ज्यादा होती है। पर नहीं आंकडे तो यह बता रहे हैं कि पढ़ा-लिखा, बुद्धिमान, शिक्षित शहरी समाज ही कन्या भ्रूण हत्याएं ज्यादा कर रहा है। यहां प्रश्न कौन कम कौन ज्यादा का नहीं। शहरी लोग ज्यादा कन्या भ्रूण हत्याएं कर रहे हैं इससे ग्रामीण समाज छूटता नहीं है। दोनों क्षेत्रों का अपराध उतना ही घृणास्पद अमानवीय है। इस सामाजिक घिनौने कृत्य के लिए दोनों भी उतने ही दोषी और सजा के हकदार है।
यंत्रों और डॉक्टरों के विरोध में व्यापक मुहिम कानूनी तरीके से छिड़ चुकी है। इसका होना अत्यंत आवश्यक है, पर इससे बड़ी पहल मनुष्यों की मानसिकता को बदलने की हो। सामाजिक मानसिकता दोषी है, उसे पकड़कर सजा देना असंभव है, परंतु बदला जरूर जा सकता है। अर्थात् समाज मन में परिवर्तन और दुरुस्ति अत्यंत आवश्यक हो गई है। कानून को अब सख्त होना पड़ेगा। देश की बढ़ती आबादी को रोकने के लिए ‘हम दो हमारे दो’ का नारा लगाया और उसे कानूनी स्वरूप भी दिया। बीच में इसका भी प्रचलन आया ‘हम दो हमारा एक’ और वह ‘एक’ लड़का हो ऐसी अपेक्षा से हत्याएं-दर-हत्याएं। लालच, अमानवीयता, राक्षसी कृत्य। अब कानून को सख्त होकर पुराने नारे को कड़ाई से दुबारा लागू करना होगा- ‘हम दो हमारे दो, एक लड़की एक लड़का।’
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हद हो गई
डॉ. विजय शिंदे
‘हद हो गई’ जैसे शब्दों का कोई ऐसे ही इस्तेमाल नहीं करता। सारी मर्यादाएं एवं सीमाएं लांघने के बाद ही इसको मुंह से निकाला जाता है। प्राकृतिक तौर पर जब इंसान असल में इंसान था, अपनी प्राचीन-आदिम अवस्था में। प्रकृति के साथ जुड़कर जैसे प्राकृतिक ताकतों ने भेजा था, रखा था वैसे रह रहा था। आज वह बिल्कुल वैसे नहीं हैं, उसने विकास की सीमाओं को लांघा है। शेष प्राणीजगत् एवं प्राकृतिक जीवजंतुओं में इंसान की प्रगति को देखे तो ‘हद हो गई’ कहा जाएगा। परंतु प्रश्न यह उठता है कि क्या मनुष्य ने सच्चे मायने में सही विकास किया है? वह अपनी सभ्यता और संस्कृति को भी विकसित कर पाया? इन प्रश्नों का उत्तर देते नहीं बन पाता। मैं क्यों आप भी और अन्य सभी उत्तर स्वरूप चुप ही रहेंगे। अगर कोई ‘हां’ या ‘ना’ में उत्तर देने की कोशिश करेगा तो ‘ना’ ही कहेगा। इंसान ने भौतिक सुख-सुविधाओं के दृष्टि से अचंभित करनेवाली प्रगति को छुआ है। उसके लिए वह अभिनंदन का पात्र है। उसके प्रगति की हद हो गई। पर सभ्यता एवं सांस्कृतिक दृष्टि से वह पतित और पतित होते जा रहा है, अर्थात् कहा जाएगा कि हद हो गई उसके पतन की। व्यक्ति वेशभूषा परिवर्तन से, भाषा शुद्घ बोलने से एवं हेअर स्टाईल बदलने से सभ्य नहीं होता, उसका आंतरिक हृदय, विचार एवं कृति सभ्य होनी चाहिए, जो आज नहीं के बराबर है।
यह विचार आपको निराश कर सकते हैं। या आप कह सकते हो कि निराशावादी लेखन है। पर करें क्या? निराशा, दुःख, पीडा, आतंक ही पैदा होता है आस-पास के माहौल को देखकर, देश-दुनिया की स्थितियों को देखकर। मेरा संकेत ‘दिल्ली की दरंदगी’ से है। क्या इससे पहले किसी महिला, लड़की, बच्ची के साथ बलात्कार नहीं हुआ? हां हुआ है। सालों-साल से हो रहा है। युगों से हो रहा है। दिल्ली के सामूहिक रेप कांड के पश्चात् पूरे देश भर में कोहराम मचा। देश भर की मीड़िया में खबरें छपी और चर्चाएं होती रही। एक के पश्चात् एक रेप की घटनाओं की खबरें छापी जा रही हैं। दो-चार-पांच साल की बच्ची से लेकर साठ साल की औरत पर अत्याचार की खबरें। यह खबरें आज आ रही हैं, इसका अर्थ ‘रेप’ इन दिनों हो रहे हैं ऐसा नहीं युगों से हो रहे हैं। जब से मनुष्य ने अपनी सभ्यता और संस्कृति को छोड़कर भौतिकवाद के पीछे दौड़ना शुरू किया और अपनी हवस के लिए हदों को पार किया। आप, हम, देश और दुनिया स्त्रियों की घटती आबादी पर चिंता कर रहे हैं, विचार-मंथन शुरू है, संगोष्ठियां ले रहे हैं पर सामाजिक बदलाव नहीं हो रहा है, जो होना चाहिए। स्त्रियों का सम्मान होना चाहिए वह नहीं हो रहा है।
जिस समाज में लड़की के जन्म को नकारा जाता है उसके पीछे एक नहीं हजारों कारण होते हैं। जहां लड़कियों पर बलात्कार हो, दहेज के लिए जलाया जाए, वस्त्रहरण हो, मार-पिट हो, विधवा जीवन की त्रासदी हो, हजारों सामाजिक पाबंदियां हो, अग्निपरीक्षाएं हो, जीवन पत्थर बनाया जाए, गुलामी हो, परिवार वालों से यौनत्याचार हो.... वहां स्त्री जीवन का स्वागत न स्त्री कर सकती है न पुरुष। अपने घर में केवल पुरुष नहीं तो स्त्री भी जन्म ले रही लड़की को नकारती है उसका कारण है समाज में घटित हजारों दुर्घटनाएं, जिसमें उसके जीवन को ध्वस्त किया जाता है। इस पर स्त्री ने और पुरुष ने भी उपाय ढूंढ़ निकाला, अपने घर मे लड़की के प्रवेश को निषिद्घ करो। शुरू हो गई स्त्री भ्रूण हत्याएं । अब चारों ओर ढोल नगाड़े बजाए जा रहे हैं स्त्री जन्म का स्वागत करें। परंतु किसके घरों में हमारे, अपने नहीं तो दूसरों के घरों में। वाह रे! दोगली सामाजिक मानसिकता। कितनी बड़ी विड़ंबन है! अपने घरों में क्यों नहीं?
खैर ऐसी सामाजिक मानसिकता क्यों है सोचना पड़ेगा। उत्तर एक ही भूतकाल और वर्तमान में स्त्री जीवन का सम्मान नहीं हुआ। थोड़ा हुआ, हो रहा है ऐसा बिल्कुल नहीं कह सकते। बिल्कुल साफ और स्पष्ट कहा जाएगा कि स्त्रियों का सम्मान नहीं हुआ और नहीं हो रहा है। अतः न केवल पुरुष बल्कि नारियां भी लड़की को नकारती है। यहां तक मां.... मां भी अपनी बच्ची को नकारती है। उसका कारण समय-दर-समय हो रही छेड़खानियां, बलात्कार, अपमान, शोषण, सीता जैसी अग्निपरीक्षाएं, द्रौपदी जैसा वस्त्रहरण, अहिल्या जैसा पत्थर बनाए जाना है....। चारों ओर लड़कियों एवं महिलाओं को डंसने के लिए सांपों के झुंड़ फुत्कार रहे हैं, अपनी सभ्यता और संस्कृति की हदों को लांघ कर। अज्ञेय ने सच ही लिखा है-
सांप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूं - (उत्तर दोगे?)
विष कहां पाया?
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि पुरुषों के पाशविक कृत्यों की ‘हद हो गई’ है। अब अपने आत्मसम्मान के लिए नारियों को खुद उठना है। सम्मान पुरुषों से, समाज से एवं इंसानों से मिलने से तो रहा। जहां स्त्रियों-लड़कियों पर कोई गंदी टिप्पणी एवं गंदी नजर उठती है वहां वे चप्पल उठाए, लाठी उठाए, जीभ उठाए और सांपों के फनों को कुचल दें। नारी जब तक कुचलना नहीं सिखेगी तब तक शारीरिक, मानसिक एवं बौद्घिक रेप कांड रूकेंगे नहीं। उठो रण-रागिनी बनो। आपके प्रंचड़, रागिनी, चंड़ी रूप को देखकर खुशी होगी और अनायास ही मुंह से शब्द फूट पडेंगे-‘हद हो गई’।
डॉ. विजय शिंदे
देवगिरी महाविद्यालय,औरंगाबाद.
फोन :- ०९४२३२२२८०८
ई.मेल :- drvtshinde@gmail.com
लड़के की चाह और लड़कियों से नफरत ये बहुत बड़ा सामाजिक सत्य है ..हद हो गयी ... वास्तव में आज के परिवेश में ये वाक्य बात बात पर मुंह से निकलता है ...सुन्दर लेख ..
जवाब देंहटाएंAaj har ladki ko m.phuleki vicharo ki jarurat hai. Aratim lekh.
हटाएंपुरवा जी अपने सही लिखा है 'आज हर लडकी को महात्मा फुले जी के विचारों की जरूरत है।' हमारे देश में कई समाज सुधारक होकर गए। माहात्मा जोतिबा फुले और सावित्रिबाई फुले जी का लडकियों के लिए बडा योगदान है। उनको सम्मान और प्रतिष्ठा मिले इसलिए अथक परिश्रम किया दोनों ने।
हटाएंराजेंद्र अवस्थी जी,
जवाब देंहटाएंआभार मेरे विचारों के साथ सहमति के लिए। चाह और नफरत के नाते आप भी युग की मानसिकता की ओर संकेत कर रहें हैं। आशा है 'आप' और 'मैं' में संपूर्ण समाज जुडे और जाग्रति का कारवां बने। लोग बहुत अच्छे हैं, कुछ लोगों के बदौलत महौल में गंदगी फैलती है; ऐसों को अच्छे जरूर औकात पर लाएंगे, ला रहे हैं। मानसिकता बदलेगी और चित्र भी बदलेगा। आशा के साथ... धन्यवाद।
charitra ka doglapan hi sari buraaiyon ka jad hai .......satik avm sarthak charcha ......vijay jee ....
जवाब देंहटाएंक्षमा निशा जी आपको जो आलेख पढने के लिए बता रहा था उसे आप पहले ही पढ चुकी है। सटिक और सार्थक चर्चा वाली टिप्पणि के लिए आभार। चर्चा वास्तववादी रूप जब धारण करेगी तब स्थितियां बदलने के लिए देर नहीं लगेगी।
हटाएंVery well written,
जवाब देंहटाएंVinnie
विन्नी जी आपकी छोटी टिप्पणी परिवार के किसी सदस्य द्वारा पीठ थपथपाने जैसे लग रहा है। चंद शब्द लेखन को साहस प्रदान करेंगे। आभार।
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