लो फ़िर आया मधुमय वसन्त ...
लो फ़िर आया मधुमय वसन्त श्रीमद्भगवत्गीता के विभूति योग मे भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं--
“मासानां मार्गशीर्षोSहम ऋतूनां कुसुमाकरः/(३५/१०) “
ऋतुओं में वसन्त ऋतु मैं हूँ. माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि वसन्तपंचमी को वसन्त ऋतु के आगमन का स्वागत किया जाता है. नयी-नयी कोमल-कोमल कोपलों से लदी वृक्षों की टहनियाँ, गुलाब, चमेली, चम्पा, सरसों के फ़ूल, रंगबिरंगी उडती-फ़िरती तितलियाँ, गुंजन करते भौरें, अमराई में कोयल की कूक और गेहूँ की भरी बालियाँ,जब खेतों में दिखें तो समझो मधुमय वसन्त आ गया. दादा माखनलाल चतुर्वेदी कह उठते हैं- “फ़ैल गया पर्वत शिखरों तक वसन्त मनमाना पत्ती-कली-फ़ूल डालों में दीख रहा मस्ताना”
जब कभी भी कोई अपने पूरे ऎश्वर्य में प्रकट होता है तो वह ईश्वर हो जाता है-वसन्त ऋतु अपने ऎस्श्वर्य के साथ आती है और जीती है,इसीलिए तो कृष्ण ने कहा है—“ऋतूनां कुसुमाकरः” साहित्य में वसन्त ऋतु को आनन्द और सौंदर्य का प्रतीक माना है. शायद ही कोई ऎसा कवि होगा जिसने वसन्त का वर्णण न किया हो. सूर-तुलसी से लेकर निराला, पंत तक सभी को मधुमय ऋतुराज ने अपने यौवन से प्रभावित किया है. गोस्वामीजी ने वसन्त को कामदेव का सहायक माना है. कामदेव ने शिव की तपस्या भंग करने से पूर्व, प्रकृति मे वसन्त का विस्तार किया था. उस समय की मनोदशा का वर्णन तुलसी इन शब्दों में करते हैं “सबके हृदय मदन अभिलाषा-लता विलोकि नवाहिं तरु शाखा नदी उमगि अंबुधि कहुं धाई-संगम करहिं तुलाव तलाई जहं अस दशा जडन्ह कै बरनी-को कहि सकै सचेतन करनी पशु पच्छी नभ जल थल चारी-भए काम बस समय बिसारी” वात्सल्य रस के कुशल चितेरे सूरदासअजी भी मधुमय ऋतुराज के प्रभाव से अछूते न रह सके. एक स्थान पर उनके द्वारा वर्णित उपमा देखने लायक है. “कोकिला बोली, वन-वन फ़ूलै, मधुप गुंजारन लागै सुनि शोर, रोर वादिन को, मदन महीपति जागै
ते दूने,अंकुर द्रुम पल्लव,जे पहले सब दागे. मानेहुँ रतिपति रीझि जात कवि, बरन –बरन दए बागे” मुख्यतः वसन्त के दो माह होते हैं...चैत्र और वैशाख. पौराणिक व्याख्याकार कहते हैं कि सभी ऋतुओं ने स्वेच्छा से अपने प्रिय राजा ऋतुराज वसन्त को अपनी-अपनी अवधि के आठ(८) दिन दे दिए. पांच(५) ऋतुओं के ८-८ मिलाकर चालीस दिन हुए, जो चैत्र बदी प्रतिपदा के चालीस दिन पूर्व माघ शुक्ल पंचमी को आता है, यही तिथि “वसन्त पंचमी” वसन्त आगमन महोत्सव है. सभी वसन्त का आनन्द लेना चाहते हैं. वे दुर्भाग्यशाली हैं जो आनन्द नहीं ले पाते. प्रेमाख्यान के कवियों में मुख्य कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने “नागमती विरह” कॊ वसन्त से कैसे जोडा है, यहा! वसन्त विरह को भी विरह से भर रहा है “ नहिं पावस जेहि देसरा, नहि हेमन्त वसन्त/ न कोकिल न पपीहरा,जेहि स्सुनि आवे कन्त”
वसन्त का समय प्राचीन भारत में उत्सवों का काल हुआ करता था. संस्कृत के किसी भी काव्य ग्रंथ को पढिए,वसन्त आ ही जाएगा. कालिदास तो वसन्तोत्सव का बहाना ढूंढते रहते-से लगते हैं. डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं-“वसन्त आता नहीं, ले आया जाता है.” मन में उत्साह और उमंग भरकर सदकर्म करने की चेष्टा व प्रयास ही जीवन में मधुमय वसन्त का आगमन है. जब भी मानव मन में उत्साह और उमंग की गिरावट आती है, उसका शरीर भी शिथिल होने लगता है.,किंतु जब पर्यावरण में समस्त पंचेन्द्रियों को सुखद अनुभूति देने वाले दृष्य उपस्थित हो जावें तो डूबता हुआ मन भी उचित कर्म के संकल्प लिए जाग जाता है. शुभ कामनाओं और इच्छाओं का सक्रिय होकर मनुष्य़ को कर्म में प्रेरित करना ही मधुमय वसन्त का जीवन में आगमन है. किसान जब अपनी लहलहाती फ़सल को देखता है, तब चारों ओर की हरियाली ही खुशहाली का प्रतीक बन जाती है. ढोलक पर थाप पडती है, नूपुर नाच उठते है, होली-धमार के गीत होंठॊं पर थिरकने लगते हैं. लोकगीतों में मधुमय वसन्त पूरे यौवन के साथ उतर जाता है और अमर शहीद भगतसिंह भी वसंती रंग में रंग जाते हैं और कह उठते हैं—“ मेरा रंग दे वसन्ती चोला”. लोकगीत ही नहीं, शास्त्रीय गायन शैली मे भी वसन्तराग को दूल्हा राग माना जाता है. ऋतुराज में गायक गा उठता है. “ऋतु वसंत मन भाय सखी-सब मिल आज उमंग मनाओ”या फ़िर राग कामोद में गा उठता है “ऋतु ससंत सखि मो मन भावत-रस बरसावत मोद बढावत”
परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है. ऋतुओं मे परिवर्तन सतत होता है. ठिठुराती ढंड और चिलचिलाती गर्मी के बीच वसन्त अपने स्वास्थ्यवर्धक वातावरण क सुखद स्पर्ष देता है. इस ऋतु में वात-पित्त-कफ़ तीनों सम होते हैं. अतः मन में प्रफ़ुल्लता सहज ही आ जाती है. प्रकृति के सुकुमार कवि पं. सुमित्रानन्दन पंत कहते हैं
“नव वसन्त आया/कोयल ने उल्हासित कंठ से अभिवादन गाया./रंगों से भर उर की डाली/अधर पल्लवों के रत लाली/पंखडियों के पंख खोल/गृह वन मे छाया/नव वसन्त आया” प्रकृति में [प्राणियों को दो भागों में विभक्त किया है. एक स्थावर, दूसरा जंगम. स्थावर अर्थात वे प्राणी जिसके प्राण तो है, पर एक स्थान पर खडॆ रहते हैं. जंगम वे हैं,जो स्थान बदल लेते है. आयुर्वेद के सिद्धांत के अनुसार स्थावर अर्थात वनस्पति में वसन्त ऋतु में रस का संचार ऊपर की ओर होता है तथा जंगम याने मनुष्यादि के शरीर में नवीन सुधिर का प्रादुर्भाव होता है,जो उमंग और उत्साह बढाता है.
उमंग और उत्साह को बढाने वाली साहित्य में एक सशक्त विधा है, जिसे व्यंग कहते हैं. व्यंग विधा के शीर्षस्थ लेखक हरिशंकर परसाई की वंसत से नोकझोंक देर तक मस्तिस्क को गुदगुदातीहै “मुझे लगा दरवाजे फ़िर दस्तक हुई. मैंने पूछा-कौन?. जवाब आया-“मैं वसन्त”. मैं खीज उठा- “कह तो दिया फ़िर आना”. उधर से जवाब आया-“मैं बार-बार कब तक आता रहूँगा, मैं किसी बनिये का नौकर नहीं हूँ- ऋतुराज वसन्त हूँ. आज तुम्हारे द्वार पर फ़िर आया हूँ और तुम फ़िर सोते मिले हो.,,अलाल-अभागे. उठकर बाहर तो देखो -ठूठों ने भी नव पल्लव पहिन रखे हैं”. मैंने मुँह उघाडकर कहा-“भई माफ़ करना, मैंने तुम्हें पहचाना नहीं. अपनी यही विडम्बना है कि ऋतुराज वसन्त भी आए तो लगता है, उधारी के तगादे वाला आया है”.
कुछ भी हो, वसन्त आता है, आएगा और आता रहेगा-वह ऋतुराज है. स्थावर-जंगम को सम्पूर्ण पृथ्वी को, कवियो को, प्रेमियों को, सभी को वह प्रिय है-वह राजा है- और जैसे राजा अपनी चतुरंगिनी सेना हाथी-घोडा,रथ और पैदल में चार अंग लेकर प्रस्थान करता है, ऋतुराज मधुमय वसन्त भी रंग-बिरंगे फ़ूलों को लेकर वन, उपवन में उपस्थित होता है. उसके कारण प्रकृति नववधू सी लगने लगती है. कलियो का सुन्दर हार लेकर नई नवेली लतिका, कोमल पत्तों का परिधान पहनकर अपने प्रिय तरुवर से आलिंगित हो जाती है
वसन्त केवल मांसल सौंदर्य का प्रतीक नहीं है. महाप्राण निराला ने इसे विश्वकल्यानी के रुप में वसन्त उद्दत रुप को प्रतिष्ठित किया है. “मधुवन मे रत, वधू मधुर फ़ल/देगी जग को स्वाद,तोष दल/गरला मृत शिव आशुतोष बल, विश्व सकल नेगी/वसन वासंती लेगी.” वसन्त का प्रकृतिक मधुमय परिदृष्य मन में आल्हाद भरता है और जब भीतर हृदय तक भिद जाता है. सौंदर्य जब आत्मसौंदर्य के आनन्द में परिणित होकर उतरता है, तब उसमे स्थायित्व आता है. जो वसन्त आत्मानन्द की रसानुभूति करा दे, उस वसन्त की भारतीय मनीषा सदैव बाट जोहती रहती है.
जिसमे प्राणॊं की वीणा बजने लगती है, मनोमस्तिस्क से विषाद के बादल हट जाते हैं. परमतत्व से एकाकार के आल्हाद की मुमुक्षता में चिरस्थायी वसन्त की चिर प्रतीक्षा में छायावादी कवियित्री महादेवी वर्मा कह उठती हैं-
“जो तुम आ जाते एक बार कितनी करुणा,कितने संदेश/ पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणॊं का तार-तार/अनुराग भरा उन्माद राग आसूं लेते वे पथ परवार/ जो तुम आ जाते एक बार हंस उठते पल में आर्द्र नयन/घुल जाता ओठों का विषाद छा जाता जीवन में वसन्त/ लुट जाता चिरसंचित विराग आंखें देती सर्वस्व वार/ जो तुम आ जाते एक बार.
हम सतयुग और त्रेतायुग के वसन्त की बात छोड दें, हाल के ही १००-५० वर्षों के वसन्त का आंकलन करें तो हम पाएंगे कि वसन्त ऋतु तो हर साल आती है, पर वसन्त की मधुमयता शनै- शनै फ़ीकी पडती जा रही है.
वसन्त उतरता है वृक्षॊं पर, लताओं पर, बाग-बगिचों पर और स्वस्थ मन पर. जंगल के जंगले साफ़ हो रहे हैं. नगर महानगर में बदल रहे हैं. विषैली गैसों से पौधों और लताओं का फ़ैलाना-पनपना मुश्किल हो रहा है. उन पर वसन्त की बात तो अब दूर की हो गई है. वसन्त स्वस्थ पर्यावरण का हर्ष है. अस्वस्थ मुर्झाई सी बीमार डालियाँ वसन्त का क्या स्वागत करेंगी. फ़ूल नहीं है तो भौंरे नहीं ,तितलियाँ नहीं.फ़ूल नहीं तो पराग बिन मधु संचय कहाँ से होगा? माधु विहीन वसन्त को फ़िर किसी और नाम से पुकारना होगा.
जीवन में वसन्त और वसन्त में जीवन जीना है तो पृथ्वी के पर्यावरण को स्वस्थ बनाना होगा जल, वायु, मिट्टी और अरण्य को शुद्ध रखना होगा. प्राकृतिक धरोहरों की रक्षा करनी होगी. तब और तभी, वसन्त अपने वसन्ती रंग में आएगा. शायद इसीलिए डा.हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा था-:वसन्त आता नहीं ले आया जाता है”.
प्रकृति से सच्चा प्रेम और नैतिक मूल्यों के उच्च आयाम ही वसन्त की रक्षा कर सकते हैं
सुरेन्द्रकुमार वर्मा.
बहुत बढ़िया आलेख.
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