बच्चन पाठक 'सलिल' का व्यंग्य - बलिहारी गुरु आपनो, डॉक्टर दियो बनाय

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व्यंग्य बलिहारी गुरु आपनो, डॉक्टर दियो बनाय -------------------------------------------------                             -- डॉ बच्चन पाठक ...

व्यंग्य

बलिहारी गुरु आपनो, डॉक्टर दियो बनाय

-------------------------------------------------                             -- डॉ बच्चन पाठक 'सलिल

' आज सुबह सुबह संघतिया जी मेरे गरीब खाने पर आ धमके । मैंने चाय मंगाई। उनका हुलिया बदला हुआ था। क्लीन शेव था। पैरों में नई चप्पलें थीं। आइरन किये हुए कुरता पाजामा थे। हाथ में मोबाइल था। मैं चकित रह गया। क्या सचमुच फटीचर संघतिया को कोई कारुं का खजाना मिल गया था । कौन बनेगा करोड़पति के वे विजेता बन गए?

मेरी मुद्रा देखकर वे हँसे । मानो किसी मुंह दुब्बर विधायक को देखकर कोई मुख्य मंत्री हंस रहा हो।

बोले- गुरूजी इधर मैंने एक नया कारोवार आरंभ किया है-- शोध कराने का। पीएच.डी.दिलवाता हूँ। दाल रोटी मजे में चल जाती है।

मैं फिर अचरज के समुन्दर में गोते लगाने लगा। संघतिया तो बी.ए.पास भी नहीं है। दो वार फेल होने पर परीक्षा से तौबा कर लिया था ।

मुझे कुछ पूछने का मौका दिए बिना वे स्वयं चालू हो गए-- ई जो जंगल महाल विश्व विद्यालय खुला है न, एगो अजीबे चीज है। शोध करने के लिए आवेदन मांग लिया। सैकड़ों शोधार्थी कतार में खड़े हैं। निर्देशक नहीं मिल रहे हैं। जहाँ तहां कॉलेजों में पी.जी कक्षाएं खोल दी गयी, शिक्षक नदारद । परीक्षार्थी जहाँ तहां से पूछ कर चोरी कर पास कर गए। नौकरी तो है नहीं, फिर सब शोध करने के लिए कूदे। जो नामजद गाइड हैं, उन्होंने भी ऐसे ही डिग्री ली है । वे क्या शोध कराएँ। छात्रों से कह दिया-- सिनोप्सिस बनाकर लाओ। नव सिखुआ शोधार्थी क्या बनाएगा । उसे तो विषय सुझाने वाला भी कोई नहीं है। यह भी नियम बना दिया गया कि सेवा निवृत्त शिक्षक गाइड नहीं बनेंगे। जो दो चार जानकार थे, वे भी रस्ते से हट गए। मैंने ''डिग्री दिलाऊ संस्थान'' खोल दिया। सब का भला हो अपना भी भला हो। सिनोप्सिस बनाने के लिए पाँच हजार और शोध प्रबंध लिखाने के लिए चालीस हजार रुपये फीस रखी। लोग आ रहे हैं। सब का भला हो रहा है। मैं भी आर्थिक परेशानी से मुक्त हो रहा हूँ । हाँ, अब कविता लिखना छूट गया है।

तभी मोबाइल की घंटी बजी -- वे बोले-- मेरे कमरे के सामने बिजली वाले खम्भे के पास खड़ा रहो। मैं दस मिनट में आता हूँ।

बोले- एक छात्रा आई है। उसकी सिनोप्सिस देनी है। फिर बोले- कल प्रातः मेरे यहाँ आइए। हाई टी पर इन्तजार करूँगा ।

मैं सोचता रहा-- संघतिया सचमुच अदभुत है। वह भोजपुरी 'कविता 'संघतिया' के उपनाम से और हिंदी कविता 'अदभुत' उपनाम से लिखता है।

दूसरे दिन मैं अदभुत जी के निवास पर हाजिर था। तीन-चार शोधार्थी भी मौजूद थे। एक प्लेट में कलाकंद, काजू-बर्फी, और कीमती विस्कुट मेरी ओर बढ़ाये गए। फिर कॉफ़ी का लम्बा ग्लास आया, मजा आ गया।

अब अदभुत जी की कार्य शैली उजागर हुई। एक छात्र को जो एडवांस दे चुका था, सिनोप्सिस की प्रति थमा दी गयी। दूसरे छात्र से उन्होंने पूछा-- तुम किस विषय में पीएच.डी. करोगे। उसने कहा -- अर्थशास्त्र में। रुपये लेकर अदभुत ने उसे एक कागज़ दिया और कहा -- जल्दी लिखो और टाइप कराकर सिनोप्सिस जमा कर दो।

उन्होंने विषय दिया-- ''सराइकेला- खरसावाँ जिले में लौकी की खेती और उसका भविष्य।''  फिर वे ताबड़ तोड़ अध्याय बोलने लगे। भूमिका, पहला अध्याय -- इस जिले में सब्जी का अभाव, दुसरा अध्याय-- लौकी की स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्व ( राम देव बाबा की पुस्तिका से उतार लेना), तीसरा अध्याय-- लौकी की उपज-- आर्थिक लाभ (प्रखंडो की सूचि लेकर जमीं की रकवा नोट करो, प्रत्येक कट्ठे से दस हजार रुपयों की लौकी का उत्पादन दिखाना है), चौथा अध्याय-- रोजगार पर प्रभाव, पांचवा अध्याय-- कारखानों से हानियाँ, छठा अध्याय-- सुझाव, सातवां अध्याय-- निष्कर्ष , फिर सहायक सामग्री की सूची ।

छात्र अभी उनकी ओर प्रश्न वाचक मुद्रा में देख रहा था। अदभुत का पारा कुछ चढ़ा । '' मेरी तरफ बकलोल जईसा क्या टाक रहे हो?

तुम्हारे सभी पॉइंट्स हो गए। सिनोप्सिस बनाओ। कोष्ठक वाले सुझाव मत लिखना। वे तुम्हारी सहायता के लिए है। यदि फिर भी नही बने तो पांच सौ रुपये और लेकर आना। साथ में रामदेव बाबा की पुस्तिका, प्रखंड की सूची और रोजगार दफ्तर में निबंधित बेकारों की लिस्ट लेते आना। मैं लिखवा दूंगा।

शोधार्थी उनका पैर छूकर चला गया। एक तन्वंगी किशोरी को देख वे प्रसन्न हो गए। बोले-- डॉली, तुम्हारे पापा समझदार हैं। फीस से एक हज़ार ज्यादा दे गए थे। मैंने सिनोप्सिस बनाकर कंप्यूटर से टाइप करा लिया है। इसे साइन कर जमा कर दो। शेष बचे दो लोगों पर उन्होंने दृष्टि डाली।

वे दोनों बोले-- सर, हमें पीएच.डी. नहीं करनी है। हमें राष्ट्रीय सेमिनार में भाग लेना है। एक छोटा शोध पत्र जमा करना है। अदभुत हँसे। ओ तुम लोग ए.पी.आइ. (एकेडमिक प्रोफिसिएंसी इंडेक्स) बढाने वाले हो। कोई बात नहीं। तुम्हारा काम भी हो जायेगा। दो-दो हजार रुपये लगेंगे। उन्होंने टॉपिक सुझाये--संस्कृत विभाग वाले को विषय मिला-- ''गरुड़ पुराण के नरक वर्तमान में कहाँ कहाँ पर हैं?'' हिंदी वाले बंधू को विषय दिया गया-

'' भोजपुरी और संताली लोक कथाओं की तुलनात्मक अध्ययन''।

फिर बोले-- तुम जिस स्कूल में पढ़ाते हो, उसका पिउन संथाली है। उससे संथाली की पांच कथाएं पूछ कर लिख लेना। शेष मैं बता दूंगा। हाँ, अगली वार फीस लेकर ही आना। पीएच.डी. वाले तो मुट्ठी में रहते हैं। ये ए.पी.आई. वाले सेमिनार के बाद गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाते हैं।

खाली होने पर फिर उन्होंने कॉपी मंगाई और बोलने लगे-- सच पूछिये तो यू.जी.सी. एगो अजायब घर है । रुपये लुटा रही है । हर महीने हर छुट पुंजिया कॉलेज राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार कर रहा है। नामी लोग आने जाने, खाने पीने में और मौज मस्ती में लाखों उड़ा रहे हैं। मेरे पास तो डिग्री नहीं है, कौन बुलाएगा । बुलाया तो उसको जाता है जो अगली वार होस्ट को बुलाये । '' मैं तेरा मुल्ला बगोयम तुम मेरा हाजी बगोयम।''

मैं चला। रास्ते भर शोध की वर्तमान दशा पर विचार करता आ रहा था।

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पता- आदित्यपुर, जमशेदपुर

झारखण्ड फोन- 0657/2370892  

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रचनाकार: बच्चन पाठक 'सलिल' का व्यंग्य - बलिहारी गुरु आपनो, डॉक्टर दियो बनाय
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