इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या मुद्रित माध्यमों का व्यवसायीकरण -मनोज कुमार इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या मुद्रित माध्यमों का व्यवसायीकरण. इ...
इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या मुद्रित माध्यमों का
व्यवसायीकरण
-मनोज कुमार
इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या मुद्रित माध्यमों का
व्यवसायीकरण. इस बात में अब कोई दो राय नहीं है कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या मुद्रित
माध्यमों का व्यवसायीकरण हो चुका है. आने वाले समय में व्यवसायीकरण का यह चेहरा और
विकृत और विकराल देखने को मिले तो समाज को हैरान नहीं होना चाहिये. माध्यम अर्थात अंग्रेजी का शब्द मीडिया. मीडिया
का सामान्य सा अर्थ है मीडियम अर्थात समाज और सरकार के बीच संवाद का सेतु किन्तु
संवाद का यह सेतु वह चाहे इलेक्ट्रानिक हो या मुद्रित, दोनों का चेहरा कारोबारी हो गया है. इस
विषय पर विस्तार से चर्चा करने के पूर्व पत्रकारिता एवं माध्यम दोनों के स्वरूप
एवं चरित्र पर गौर करना उचित होगा. पत्रकारिता एवं माध्यम अर्थात मीडिया दोनों की
विषय-वस्तु अलग अलग है. दोनों की प्रवृति एवं प्रकृति एकदम अलग हैं. व्यवसायीकरण
की चर्चा के पूर्व दोनों को समझना होगा. इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या मुद्रित माध्यमों
का व्यवसायीकरण की बात करने के पूर्व मीडिया और पत्रकारिता के अन्र्तसंबंध एवं इन
दोनों के बीच का अंतर समझना होगा. सबसे पहले मैं पत्रकारिता की प्रवृति एवं
प्रकृति पर प्रकाश डालना चाहूंगा.
सर्वप्रथम हम बात करेंगे पत्रकारिता की. पत्रकारिता
समाज का वटवृक्ष है तो मीडिया नये जमाने का संचार माध्यम. पत्रकारिता निरपेक्ष
होकर, लाभ-हानि के
गणित से परे रहकर, सामाजिक
सरोकार की पैरोकार है. पत्रकारिता का चरित्र और कार्य व्यवहार, मीडिया से एकदम भिन्न है. पत्रकारिता
दिल से होती है. समाज में जब अन्याय होता है, अराजकता की स्थिति बनती है और आम आदमी के हितों पर कुठाराघात होता है
तो पत्रकारिता स्वयं में आंदोलित हो उठती है. स्मरण कीजिये पराधीन भारत के उस दौर
को जब गोरे शासकों के नाक में पत्रकारिता ने दम कर रखा था. तिलक, महात्मा गांधी से लेकर गणेशशंकर
विद्यार्थी, गोखले, माधवराव सप्रे, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे दर्जनों लोगों
ने अपनी लेखनी से अंग्रेज शासकों की नींद उड़ा दी थी.
समय बदला, काल बदला लेकिन पत्रकारिता के तेवर
नहीं बदले. देश के स्वाधीन होने के बाद भारत वर्ष के नवनिर्माण में पत्रकारिता ने
अपना योगदान दिया. देश की पहली पंचवर्षीय योजनाओं के लागू होने के साथ ही
भ्रष्टाचार का श्रीगणेश हुआ. पत्रकारिता अपनी ही सरकार को आईना दिखाने से नहीं
चूकी. परिणाम यह हुआ कि भ्रष्टाचार तो हुआ लेकिन उसका ग्राफ रूक गया. यह मान लेना
भी भूल होगी कि पत्रकारिता ने भ्रष्टाचार को, अनाचार को, अत्याचार
को खत्म कर दिया है लेकिन पत्रकारिता की ही ताकत थी कि भ्रष्ट को भ्रष्टतम नहीं
होने दिया. पत्रकारिता को दमन का शिकार भी होना पड़ा है. पराधीन भारत में अंग्रेज
शासकों ने किया और स्वतंत्र भारत में हमारे अपनों ने ही. उन अपनों ने जिन्हें अपनी
करतूतों के खुल जाने का भय था. पत्रकारिता की ही ताकत है कि 25 बरस से ज्यादा समय
गुजर जाने के बाद भी अरूण शौरी द्वारा उद्घाटित किया गया बोफोर्स का मामला आज भी
जीवित है. विश्व की भीषणत औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैस कांड को भला कौन भूल सकता
है.
एक अनाम सा साप्ताहिक अखबार ने सचेत किया था. पत्रकारिता का यह चरित्र है.
पत्रकारिता के इस चरित्र के कारण ही पत्रकारिता को समाज का चौथा स्तंभ संबोधित
किया गया .
पत्रकारिता का इतिहास हमें गर्व से भर देता है.
पराधीन भारत से लेकर स्वाधीन भारत की पत्रकारिता की विश्वसनीयता इतनी पक्की है कि
करीब ढाई सौ सालों के इतिहास में कोई अखबार अथवा पत्रिका गलत खबर छापने के कारण
बंद नहीं हुई लेकिन पश्चिमी देशों में पत्रकारिता की जो दशा है, उसके चलते हाल ही में सौ साल से अधिक
पुराने अखबार का प्रकाशन बंद कर दिया गया. भारत में पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन
रूका या बंद हुआ तो सिर्फ इसलिये कि उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं थी. वे
व्यवसायिक नहीं बन पाये. पत्रकारिता एक चुनौती है. यह चुनौती आपको कस्बाई
पत्रकारिता में देखने को मिल जाएगी. जहां एक दरोगा, एक पटवारी या एक मामूली सा धनवान व्यक्ति भी अपने खिलाफ कुछ पढऩा या
सुनना नहीं जानता है. ऐसे में सच का साथ देना ही पत्रकारिता है.
पत्रकारिता की अपनी भाषा होती है. उसकी अपनी
शैली है. पत्रकारिता की भाषा बेलौस नहीं होती है. वह संयमित होती है और सम्मानजनक
भी. पत्रकारिता किसी को बेपर्दा भी करती है तो पूरे तथ्य और प्रमाण के साथ. वह
सनसनी नहीं फैलाती है. पत्रकारिता का गुण यह भी है कि वह खबर का पीछा करती है.
जिसे अंग्रेजी में फालोअप कहते हैं. वह आखिरी सिरे तक पहुंच कर सच को सामने लाने
की कोशिश करती है ताकि समाज में शुचिता कायम रहे. पत्रकारिता का यह गुण उसकी
विश्वसनीयता को बनाये रखता है. आगे पाठ, पीछे सपाट पत्रकारिता की शैली नहीं है.
इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की बात के बरक्स मैं वापस
दोहराना चाहूंगा कि इसे एक ही नाम मिला है मीडिया. मीडिया में पत्रकारिता को भी
शामिल किया गया है, बावजूद
इसके मीडिया और पत्रकारिता का फर्क वैसा ही दिखता है जैसा कि इलहाबाद में गंगा और
जमुना के संगम का. मीडिया का
कार्य-व्यवहार दिमाग से होता है. वह पहले लाभ-हानि का गणित लगा लेता है. वह अपने
लाभ को पहले रखता है, फिर
वह एक निश्चित सोच के साथ अपने कार्य को पूर्ण करता है. मीडिया अर्थात टेलीविजन के
पर्दे पर वही दिखाया जाता है, जो
मीडिया के पक्ष में लाभकारी होता है. संचार के इस विधा में दिल का नहीं, सौफीसद दिमाग का कब्जा होता है.
पत्रकारिता और मीडिया के बीच यह बुनियाद अंतर दोनों को कई अर्थों में अलग करता है.
मीडिया का बहुत सीधा वास्ता सामाजिक सरोकार से नहीं होता है. वह अपने लाभ के लिये
लोगों की इमेज बिल्डिंग का काम करता है. जिन खबरों या घटनाओं को इलेक्ट्रॉनिक
माध्यम स्थान देता है तो इसलिये कि उसकी टीआरपी बढ़ सके.
मीडिया की उत्पत्ति लगभग तीन दशक के आसपास की
है. मीडिया शब्द आया कहां से, यह
अनसुलझा सा है. इस बारे में विद्वानों की
राय भी स्पष्ट नहीं है. कुछ लोगों का मत है कि जिस तरह पत्रकारिता से सम्पादक
संस्था का लोप कर दिया गया, उसी
समय मीडिया शब्द को चलन में लाया गया. सम्पादक संस्था की कमान प्रबंधकों के हाथों
में आ गयी और मीडिया में सम्पादक संस्था के लिये कोई स्थान रखा ही नहीं गया था. इस
तरह अर्मूत रूप से मीडिया शब्द की रचना की गयी और बेहद चालाकी के साथ इसे स्थापित
कर दिया गया. मीडिया तो माध्यम है ही, पत्रकारिता को भी माध्यम बना दिया गया.
उपरोक्त संदर्भ के रूप में अब यह बात हमारे
सामने स्पष्ट हो जाती है कि पत्रकारिता क्या है, उसकी प्रवृति और प्रकृति क्या है तथा मीडिया की प्रवृत्ति और प्रकृति
क्या है. इन दोनों के बीच का अन्र्तसंबंध भी लगभग स्पष्ट हो गया है. सवाल यह है कि
क्या दोनों माध्यम व्यवसायिक हो गये हैं, तो इस सवाल का सीधा-सादा जवाब हां में है. मुद्रित माध्यम से आशय
पत्रकारिता से हो सकता है और आज की तारीख में पत्रकारिता को लेकर जो संशय और सवाल
उठाये जा रहे हैं, सवाल
उठ रहे हैं, वह
पत्रकारिता के व्यवसायीकरण की ओर संकेत करता है. कुछ आगे बढक़र कहें कि पत्रकारिता
के व्यवसायीकरण की बात को स्थापित करता है तो भी गलत नहीं होगा. पत्रकारिता के
हिस्से में पेडन्यूज का जो धब्बा बार बार लगता रहा है, वह पत्रकारिता के व्यवसायीकरण का ही
उदाहरण है. पेडन्यूज को लेकर चिंता चारों तरफ है तो इसलिये कि पत्रकारिता का मूल
स्वरूप सामाजिक दायित्व, निरपेक्ष
व्यवहार और सच का साथ देने की ताकत खत्म न हो जाये. यह बात हमें सुकून देती है कि
पेडन्यूज का दाग तो लगा है लेकिन अभी रोशनी के कुछ सुराख ही बंद हुये हैं. पूरा
केनवास अभी काला नहीं हुआ है. हालांकि जिस तेजी से पत्रकारिता का व्यवसायीकरण हो
रहा है, वह भयावह है.
पिछले कुछ वर्षों में ऐसे मामले प्रकाश में आये हैं जहां पत्रकारिता के दिग्गज
भ्रष्टाचारियों को बचाने में शामिल पाये गये. यह और बात है कि प्रमाण के अभाव में
या प्रभाव के बूूते पर वे अपने आसान पर जमे हुये हैं. अब पत्रकारिता की भाषा भी
बेलौस होती जा रही है क्योंकि वह बाजार की भाषा बोलने लगी है. मुद्रित माध्यम का
व्यवासायिक होने के पीछे उसका आधुनिक भी हो जाना है.
महंगी मशीनें, महंगी छपाई, कागज और उत्पादन खर्च इतना है कि वह
दो-पांच रूपये की कीमत से वसूला नहीं जा सकता है. इस तरह मुद्रित माध्यम पूर्णरूप
से व्यवसायीकरण की ओर कदम बढ़ चुका है.
इलेक्ट्रॉनिक माध्यम अपने जन्मकाल से
व्ययवसायिक रहा है. पत्रकारिता अथवा मुद्रित माध्यम के विपरीत इलेक्ट्रॉनिक माध्यम
का चरित्र है. दूरदर्शन का जब जन्म हुआ था, तब इसे बुद्धु बक्सा कह कर इसे समाज ने तव्वजो नहीं दी थी किन्तु
आकाशीय चैनलों के आगमन के साथ इलेक्ट्रॉनिक माध्यम का एकछत्र राज्य कायम हो गया.
इस माध्यम ने एक वाक्य गढ़ा जो दिखता है, वो बिकता है और इसी सूत्रवाक्य के सहारे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम पूरी
तरह बाजार के कब्जे में आ गया. व्यवसायीकरण कुछ इस माध्यम की बुनियादी जरूरतें थी
तो कुछ उसने स्वयं उत्पन्न कर लिया. इलेक्ट्रॉनिक माध्यम ने मान लिया कि बाजार के
मन के मुताबिक उसे चलना है और वह चलता गया. एक प्रिंस के गड्ढे में गिर जाने को
इलेक्ट्रॉनिक माध्यम ने इतना हाइप दिया कि लगा कि संसार में पहली दफा कोई बच्चा
गड्ढे में गिरा है. इसके बाद ऐसी घटनाओं को दिखाने में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की
रूचि कम होने लगी. उसे पता था कि दर्शक बहुत ज्यादा नहीं झेल पायेंगे. तथ्यपरक
घटनाओं को दिखाने की कोशिश तो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में होती है लेकिन अवसर पाकर इस
माध्यम ने सनसनी फैलायी है. ऐसा एक बार नहीं, कई कई बार हुआ है. दिल्ली की एक शिक्षिका के मामले में तो
इलेक्ट्रॉनिक माध्यम को अदालत का सामना भी करना पड़ा है.
इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की प्रवृति हमेशा से आगे
पाठ, पीछे सपाट की
रही है. वह खबरों के पीछे भागना नहीं जानता है अथवा नहीं चाहता है. वह हर घड़ी नयी
खबर की तलाश में जुटा रहता है. खबरों को अथवा घटनाओं को बीच में छोड़ देना भी इस
माध्यम की प्रवृति रही है. इस बात का एक बड़ा उदाहरण है ऑपरेशन चक्रव्यूह.
इलेक्ट्रॉनिक माध्यम ने उन सांसदों को बेनकाब करने का अभियान चलाया था जो कथित रूप
से गैरकानूनी ढंग से धन प्राप्त करते हैं. इस ऑपरेशन में 11 सांसदों को घेरे में
लिया गया था और अचानक से यह अभियान बंद कर दिया गया. इसके पीछे क्या कारण समझा या
माना जाये, दर्शकों
के पास जो संदेश गया, वह
क्या यह नहीं था कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यम का व्यवसायीकरण हो चुका है और शायद इन्हीं
कारणों से यह अभियान बीच में बंद कर दिया गया. करप्सन अंगेस्ट इंडिया आंदोलन में
भी मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाया गया था. जी-जिंदल विवाद किस बात की तरफ संकेत
करते हैं? इस तरह यह बात साफ है कि इलेक्ट्रॉनिक
माध्यम का व्यवसायीकरण हो चुका है.
निष्कर्षत: हम यह मान लेना चाहिये कि
इलेक्ट्रॉनिक माध्यम एवं मुद्रित माध्यम व्यवसायीकरण की तरफ अपना कदम बढ़ा चुके
हैं. कुछ व्यवसायिक जरूरतों के कारण और कुछ कथित रूप से उत्पन्न जरूरतों के कारण.
मुद्रित माध्यम को पेडन्यूज जैसे कलंक से स्वयं को बचाना होगा. यह राहत की बात है
कि व्यवसायीकरण के इस दौर में मुद्रित माध्यम ने अपनी साख बचाकर रखी है. मुद्रित
माध्यम पर लोगों का विश्वास अभी भी कायम है और बार बार टेलीविजन के पर्दे पर खबरें
देखने और सुनने के बाद भी वह अखबार और पत्रिकाओं के पन्ने पलटने के बाद ही राहत
पाता है. (औरगाबाद में29 जनवरी 2013 को
हुए एक दिवसीय मीडिया सेमिनार में
दिया गया भाषण)
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