चंद्रेश कुमार छतलानी और चाँद डूब गया वो था मेरा ही तो अस्थि-कलश, मैं ही जान ना पाया | लिख रहा था बिना स्याही की कलम से, मान ना पाया | बन...
चंद्रेश कुमार छतलानी
और चाँद डूब गया
वो था मेरा ही तो अस्थि-कलश, मैं ही जान ना पाया |
लिख रहा था बिना स्याही की कलम से, मान ना पाया |
बन के चकोर डूब गया था चमकते चाँद की रोशनी में,
वो रात अमावस्या की थी, चाँदनी को पहचान ना पाया |
मैं अधूरा था, परछाई में फिर भी देखता रहा मेरी संपूर्णता
दुनिया से तो तारीफें बटोर ली, अक्स से सम्मान ना पाया |
क्या सवाल पूछ के खुदा ने सारी ज़िंदगी की रहमतें दी थी,
जवाब ढूँढते सारे जहां को पा लिया, लेकिन राम ना पाया |
झील की लहरों में कई दिनों तक बह के डूब गया तन्हा चाँद
कैसे जुस्तजू करूँ, ज़मीं क्या आसमाँ में भी निशान ना पाया |
चंद्रेश कुमार छतलानी
३ प् ४६, प्रभात नगर
सेक्टर-५, हिरन मगरी
उदयपुर (राजस्थान) - भारत
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Cellphone: 9928544749
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गिरिराज भंडारी
आदतन हम पुकार लेते हैं
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मन का कोना बुहार लेते हैं
चलो खुद को संवार लेते हैं
आसमानों में उड़ न जाएँ कहीं
ज़मीं पर उतार लेते हैं
जीना क्या है, और मरना क्या
हम तो वो भी उधार लेते हैं
कौन उसपे यक़ीन करता है
फिर भी ,कर इन्तिज़ार लेते हैं
वो बड़ों के सगे - वगे होंगे
हर किसी को सुधार लेते हैं
घर,खुद का भी नहीं खुलता है
आदतन हम पुकार लेते हैं
तय है, उनको कहीं लगी होगी
लफ्ज़ हम धारदार लेते हैं
कभी इक बार ही हुए थे ग़लत
तुहमतें बार बार लेते हैं
अपना तो बस यही सलीक़ा है
प्यार देते हैं प्यार लेते हैं
पतझड़ों ने नहीं सताया मुझे
इम्तिहान, पर बहार लेते हैं
हार जब भी हुई तो उनकी हुई
वो जो हिम्मत को हार लेते हैं
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नीरा सिन्हा
औरतनामा
आया था गांव बन के परदेशी
गंवार दुल्हन की तलाश में
रिश्तेदारों से संपर्क साध कर
फंसा लिया अपने मोहपाश में
चिकनी चुपड़ी बातें करता
शहर में घर का दिखाता था सपना
नीम का पेड़ लगा है आंगन में
बनाया है गौरैया ने जिसपर घोंसला अपना
शहर में क्या लड़कियां नहीं है
पूछते परदेशी से बाबू औ' माई
लड़कियां तो कई मिल जावे है
अब तक मुझे एक न भाई
खाने को कुछ मिला नहीं
कहते हुए घर में घुसपैठ बनाया
महुआ कुर्थी खा-खा कर
विश्वास हम सबों पर जमाया
माई-बाबू का एक दिन जीतकर विश्वास
ब्याह कर मुझे ले आया शहर
बहुत खुश थी बन कर दुल्हन
सपनों में खोयी जिंदगी कर रही थी बसर
एक दिन उनकी मौसी ने आकर
घर पर मेरे डेरा जमाया
काम के सिलसिले में पति मेरा
कई महीने तक घर नहीं आया
घर पर राशन हो गए खत्म
कुछ दिनों तक फांका किया
मौसी ने फिर रास्ता दिखाया
रोजगार के लिए नौकरी दिया
नौकरी पहुंची करने जब मैं
पता चला मैं गुलाम हुयी
पच्चीस हजार मेरी कीमत आंकी
मौसी मुझको बेच गयी
कई रातों तक दिल जला
जब मालिक था देह को नोचता
असहनीय पीड़ा की बेला में
दिल अक्सर था मरने की सोचता
किंतु कहां मेरे पीड़ा का था अंत
नोचा-खरोंचा मुझे फिर बेच दिया
मालिक बदलते गए पीड़ा वही रही
तहे दिल से पति का प्यार किया
उन्नीस-बीस मालिकों ने
नित्य नये तरीके आजमाए
शहर-दर-शहर भटकती रही
जिस्म औ' जान को रोज लुटवाए
पति बनकर सपने जिसने दिखलाए
बेचा था पहले-पहल उसी ने मुझे
खरीद-बिक्री का था अंतहीन सिलसिला वह
जिस्म औ' जान की लौ थे बुझे-बुझे
मासूम दिल मगर मानने को तैयार नहीं था
आया जो गांव था वो दलाल पति नहीं था
लग गया था दाग मेरी कोरी चुनरी में
किया था तिजारत वो प्यार नहीं था
आंखें पथरा गयी थी प्यार ढूढंते
देह नुचवाने का पति ने व्यापार किया
जवान, अधेड़ औ' बूढ़ों ने
बंद कमरे में मेरा शिकार किया
फर्श पोंछते बर्तन मांजते
मिट गयी लकीरें हाथों की
याद आया कहना ब्राहमण का
बड़ी भाग्यशाली हॅूं हर्फ कहती ज्योतिष शास्त्रों की
छलनी शरीर मेरा था बिखरा
खरीददारों के कमरे में
समेटती-सहेजती जिसे रोज मैं
रातों को फिर लुटवाने में
माँ बनने का मेरा सपना
हर रोज होता लहूलुहान
कई बार खैराती अस्पतालों में
सपनों को चढ़ाया परवान
कारण नहीं था जीवित रहने का
मरना मेरी लाचारी थी
मन तो कब का मर चुका था
शारीरिक स्पंदन बाकी थी
लूटी जिसने प्रतिष्ठा मेरी
समाज में वे सभी प्रतिष्ठित है
बन गयी मैं कुलटा-बेहया
समाज कहता मुझे अप्रतिष्ठित है
जब तक रहेगा समाज में
यह रूढ़िवादी चलन जारी
मरती रहेगी बेमौत मेरे
जैसी बेहया-कुलटा बेचारी
समाज के ठेकेदारों को समझना होगा
खोलते रहने से औरतों की साड़ी
कब तक चलेगी आखिर
देश के लोकतंत्र की गाड़ी
अगर मुझे छला गया है समाज में
लौटाना होगा मुझे प्रतिष्ठित जीवन समाज को
नहीं तो बदल डालो संविधान के इबारतों को
जो मानता है समान समाज को
अगर ऐसा नहीं हो सका भारतीय समाज में
छल से रोज ब्याही जाती रहेगी भारतीय नारी
रोज छलनी होता रहेगा शरीर औ' आत्मा
रोज मरती जाएगी कहीं-न-कहीं भारतीय नारी
गांवों का देश है हमारा भारत
घूमते है भेडिए जहां परदेशी के भेष में
जात-बिरादरी-रिश्तेदारों के कारण
कभी बिकती, कभी फंसती है नारियां इस देश में
मेरा तो लगभग आ गया है अंत
मरते-मरते यह बता देना चाहती सभी को
अंत महिला जाति का भारत देखेगा तुरंत
सुरक्षित न किया गया अगर महिला जाति को
तारों के बीच से देखेगी मेरी आंखें
किसे परदेशी धोखे से ब्याहेगा
ढूंढ़ने से नहीं मिलेगी नारी कहीं
समाज फिर जीवित कहां रहेगा, मर जावेगा
आयात करना फिर नारियों का
कौन भला यहां आना चाहेगी ?
नारी का अपमान जहां पुरूष करता हो सरेआम
कौन नारी भला ऐसे पुरूष को चाहेगी !
नीरा सिन्हा
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंड़ा
गिरिडीह 815301 झारखंड़
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उमेश मौर्य
!! शब्द !!
शब्द, केवल शब्द,
जो लग जाते हैं दिल में, काँटे की तरह,
कर देते हैं बीमार, शरीर को,
शब्द केवल शब्द, निरर्थक शब्द, बेकार शब्द,
बीमार से शब्द, बिना भार के शब्द,
बिना आधार के शब्द, भार बन जाते है,
पहाड़ बन जाते है,
तीर और गोली की बौछार बन जाते हैं,
यही शब्द, यही शब्द,
यही शब्द, जो तुम्हारे कानों में पड़ते हैं, हमारे कानों में पड़ते हैं,
वही शब्द, कभी-कभी हमारे दिल की झनकार बन जाते हैं,
कभी प्यार बन जाते है, कभी इकरार बन जाते है,
कभी तकरार बन जाते है,
यही शब्द, यही शब्द,
यही शब्द, कभी बुद्ध के अवतार बन जाते हैं,
विवेकानन्द की हुंकार बन जाते हैं,
चाणक्य का चमत्कार बन जाते हैं,
यही शब्द, गीता का सार बन जाते हैं,
यही शब्द, जब पिरोये जाते हैं
चुन चुन कर तो, हार बन जाते हैं,
शब्द ही, ज्ञान का भण्डार बन जाते है,
शब्द ही, मधुर जीवन का आधार बन जाते हैं,
शब्द ही, संसार का आकार बन जाते हैं,
शब्द, केवल शब्द।
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!! हादसे !!
हादसे बिखर गये हैं ,
कितने जीवन सड़कों पर,
सपनों का क्या होगा इनके,
टूट गये जो सड़कों पर ।
हादसे बिखर गये हैं।
इंसा दूर तलक जाता है
आशाओं की डोर लिए।
कभी-कभी मन घबराता है,
सूनामी सी सड़कों पर।
हादसे बिखर गये हैं।
माँ की साड़ी, बीबी का कुछ,
बच्चों की चाभी गाड़ी।
एक जतन से कितने सपने,
जुड़े हुए इन सड़कों पर।
हादसे बिखर गये हैं।
मेरी साँसों से चलती है,
घर के लोगों की साँसें ।
एक साँस पे कितने जीवन,
आधारित इन सड़कों पर।
हादसे बिखर गये हैं।
माँ का बेटा, बहन का भाई,
पिता कोई तो, पति किसी का।
एक बदन से कितने दुख सुख,
झेल रहा मनु सड़कों पर।
हादसे बिखर गये हैं।
अगले पल की खबर नहीं कुछ,
पल-पल में पल मिट जाता।
एक धमाके से कितनों का,
जीवन बिखरा सड़कों पर।
हादसे बिखर गये हैं।
खून नहीं ये सपने फैले,
नहीं मोल सपनों का है।
किसके खातिर इनका सौदा,
किसके सपने सड़कों पर।
हादसे बिखर गये हैं।
-उमेश मौर्य
सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश, भारत।
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मनोज 'आजिज़'
रंगों का त्योहार होली में
दीनदयाल जी दीन हाल में
गये पास मंत्री के
उनसे पहले पूछा गया
क्या मिला उन्होंने संत्री से?
दीनदयाल जी विनम्र होकर
कहा-- जरुर मिला हुजूर
मिलने की अनुमति उसने दी
आप कर दें कष्ट दुर.।
मंत्री पूछे जल्दबाजी में
कहिये क्या संवार दूँ
हर भाषण में नाम जपता हूँ
अब कितना प्यार दूँ ।
जनता-जनता जप कर तो
हरि नाम भी बिसर गया
धर्म-कर्म की बात अब तो
न जाने कब किधर गया ।
दीनदयाल जी हाथ जोड़कर
बोले-- मेरी एक पीड़ा है
चार पुत्रियों का बाप हूँ
शादी करवाने की बीड़ा है ।
इस होली में एक के लिए
लड़के वाले आएंगे
हम बेलचा-गैंता मारकर
क्या माँग पूरी कर पाएंगे ?
मंत्री थोड़ा सोचकर बोले--
'कन्यादान योजना' जारी है
इस योजना के सामने तो
बड़ी गरीबी भी हारी है।
लेकर आयें चारों का वर
हम व्यवस्था करवाते हैं
' आपको क्या पता दयाल जी
हम इस पर भी कमीशन खाते हैं'।
दीनदयालजी खुश होकर
वर ढूंढने लग गए
विवाह के दिन कहीं कोई नहीं
मंत्री जी तो ठग गए ।
चार कन्यायों का पैसा तो
गया मंत्री की झोली में
दीनदयाल जी फीका पड़ गए
रंगों का त्योहार होली में ।
पता- आदित्यपुर-२
जमशेदपुर
झारखण्ड
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सुधीर मौर्य 'सुधीर'
वो हिन्दू थे।
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उन्होंने विपत्ति को
आभूषण की तरह
धारण किया
उनके ही घरों में आये
लोगों ने
उन्हें काफ़िर कहा
क्योंकि
वो हिन्दू थे।
उन्होंने
यूनान से आये घोड़ो का
अभिमान
चूर - चूर
कर दिया
सभ्यता ने
जिनकी वजह से
संसार में जन्म लिया
वो हिन्दू थे।
जिन्होंने
तराइन के मैदान में
हंस - हंस के
हारे हुए
दुश्मनों को
जीवन दिया
वो हिन्दू थे।
जिनके मंदिर
आये हुए लुटेरो ने
तोड़ दिए
जिनकी फूल जैसी
कुमारियों को
जबरन अगुआ करके
हरम में रखा गया
जिन पर
उनके हीघर में
उनकी ही भगवान्
की पूजा पर
जजिया लगया गया
वो हिन्दू थे।
हा वो
हिन्दू थे
जो हल्दी घाटी में
देश की आन
के लिए
अपना रक्त
बहाते रहे
जिनके बच्चे
घास की रोटी
खा कर
खुश रहे
क्योंकि
वो हिन्दू थे।
हाँ वो हिन्दू हैं
इसलिए
उनकी लडकियों की
अस्मत का
कोई मोल नहीं
आज भी
वो अपनी ज़मीन
पर ही रहते हैं
पर अब
उस ज़मीन का
नाम पकिस्तान है।
अब उनकी
मातृभूमि का नाम
पाकिस्तान है
इसलिए
अब उन्हें वहाँ
इन्साफ
मांगने का हक नहीं
अब उनकी
आवाज़
सुनी नहीं जाती
'दबा दी जाती है'
आज उनकी लड़कियां
इस डर में
जीती हैं
अपहरण होने की
अगली बारी उनकी है।
क्योंकि उन मासूमो
में से
रोज़
कोई न कोई
रिंकल से फरयाल
जबरन
बना दी जाती हैं
इसलिए
जिनकी बेटियां हैं
वो हिन्दू है
और उनके
पुर्वज
हिन्दू थे।
(रिंकल कुमारी को समर्पित)
सुधीर मौर्य 'सुधीर'
गंज जलालाबाद, उन्नाव
209869
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शशांक मिश्र भारती
1 रोज नया एक वृक्ष लगाओ
आज पुनः व्याप्त देखो
कुहासा अपरम्पार है
खग'विहग व्याकुल भए
संत्रस्त समस्त संसार है
समय की अच्छी दौड़ लगी
पर्यावरण की न चिन्ता है
पृथ्वी का रक्षक जो था
विनाशी वही नियन्ता है
चहुंओर घट रही वनस्पति
नित वृक्ष कटते जाते हैं
वादे हो रहे रोज अनेक
पर लगना कहीं पर पाते हैं
स्वार्थ लिप्सा बढ़ गयी इतनी
स्व ? ही सब कुछ सार है,
त्याग का कहीं पता नहीं है
भोगवाद साकार है
इसीलिए यह प्रश्न जगा है
पर्यावरण क्यों दूर भगा है
उसको जीवन का अधिकार
जो प्रकृति की गोद में उगा है
यदि नहीं लगा सकते तुम हो
काटते क्यों फिर जाते हो,
नित घटा रहे वनस्पति
धरा से नमी भगाते हो
तुम्हारा कर्त्तव्य यही है
रोज नया एक वृक्ष लगाओ
चहुं ओर आये हरियाली
प्रकृति-धरा खुशहाल बनाओ।
प्रकाशनः-साहित्यप्रवाह मासिक साहित्यिक पत्र अगस्त 2012 पृ....04
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2 वृक्ष जीवन के पचास वर्ष
जिसके कारण जीवित हम सब
प्रकृति मानव सन्तुलन बनाते हैं,
उपकार करता लाखों रुपये का
क्षण भर में हम उसे भुलाते हैं।
वृक्ष के जीवन के पचास वर्ष
पच्चीस लाख का लाभ दे जाते हैं।
बदले में मानव बतलाए तो
क्या आभार प्रकट भी कर पाते हैं।
उर्वरता,आर्द्रता,प्राणवायु सब
वृक्षों से ही हम रहते पाते हैं।
मूर्खों सा फिर भी व्यवहार करते
पल भर में काट गिराते हैं।
स्वंय परोपकार करें न किसी का
वृृक्षों का सहन नहीं कर पाते हैं।
स्वार्थ अपना पूरा होता रहे बस
धरा पे असन्तुलन बढत्राते हैं।
फले वृक्षों की झुकी डालियां,
न प्रेरणा हमको दे पाती हैं।
कार्बन की बढती मात्रा भी तो
समझ न हमको दिला पाती है।
प्रकृति मानव संस्कृति का
सन्तुलन मनुज न बचा पाएगा
धरती के प्राणियों की श्रेष्ठता कैसी
स्वपूर्ति माप पशु बन जाएगा।
प्रकाशनः-सरयूपरिवार मासिक अक्टूबर 2012 पृ..09
संपर्क:
हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर -242401 उ.प्र.
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शशांक जी,वृक्ष पे आपकी कविता अच्छी सीख है,सुधीर जी सच मे वो हिन्दू ही थे,
जवाब देंहटाएंउमेश जी आप की कविता -शब्द अच्छी लगी,नीरा जी आपने एक दुखद सत्य का बहुत अच्छा चित्रण किया है,और चन्द्रेश जी आप्की गज़ल ठीक 2 है।
Giriraj ji shukriya apko dukhad satya ka chitran acha laga, sadhubad....Nira Sinha.
हटाएंSabhi kavitaye aachi hai. Nira ji ki "aourt nana" bhut is aachi abhiwaykti hai.
जवाब देंहटाएंचंद्रेश कुमार छतलानी, गिरिराज भंडारी, नीरा सिन्हा, मनोज 'आजिज़', सुधीर मौर्य 'सुधीर', और शशांक मिश्र भारती, इतने कवियों को रचनाकार के मंच पे एक साथ लानें के लिए रवि जी का आभार, सुधीर जी की कविता वो हिन्दू थे। इतिहास की सच्चाई का षत् प्रतिषत सत्य उजागर किया है एवं गिरिराज जी की ये पंक्तियाॅं अच्छी लगी-
जवाब देंहटाएंघर,खुद का भी नहीं खुलता है
आदतन हम पुकार लेते हैं
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हार जब भी हुई तो उनकी हुई
वो जो हिम्मत को हार लेते हैं
सभी कवियों, एवं पाठकों को धन्यवाद
राजीव जी,उमेश जी और बेनाम जी को हमारी हिम्मत बढाई के लिये बहुत बहुत धन्यवाद । अगर कभी कुछ गलत लगे तो वरिष्ठों की सलाह हमेशा मार्गदर्शन के लिये आपेक्षित है। कृपया संकोच न करें।
जवाब देंहटाएंगिरिराज भंडरी
sabhi tippanikaron ko shukriya! aap sab hamari rachanaon ko bariki se padhte hain, ye ek rachanakar ke liye khushi ki baat hai.
जवाब देंहटाएंManoj 'Aajiz'