इंसानियत की ख़ुश्बू से लबरेज़ है .... “ख़ाकी में इंसान” बहुत पहले हुक्का बिजनौरी की कुछ पंक्तियाँ सुनी थी , सुनकर हंसी भी आयी और दुःख भी हुआ...
इंसानियत की ख़ुश्बू से लबरेज़ है .... “ख़ाकी में इंसान”
बहुत पहले हुक्का बिजनौरी की कुछ पंक्तियाँ सुनी थी , सुनकर हंसी भी आयी और दुःख भी हुआ कि “हुक्का” बिजनौरी साहब को आख़िर ऐसा क्यूँ लिखना पड़ा :--
पुलिस कर्मचारी और ईमानदारी ?
आप भी क्या बात करते हैं श्रीमान ...
सरदारों के मोहल्ले में नाई की दूकान ..…
आज भी समाज का नज़रिया ख़ाकी के प्रति ये ही है। चाहें हमारी फ़िल्में हों या फिर हमारा मीडिया इन्होंने पुलिस के चेहरे पे एक आध चिपके भ्रष्ट चेचक के दाग तो समाज को दिखाए मगर ख़ाकी के मर्म , ख़ाकी की टीस ,ख़ाकी के भीतर के इंसान को कभी आवाम से मुख़ातिब नहीं करवाया।
ऐसा नहीं है कि पुलिस अपने काम को सही तरीक़े से अंजाम नहीं दे रही , ऐसा भी नहीं है कि ख़ाकी लबादे के पीछे सिर्फ़ संवेदनहीन लोग हैं और ऐसा भी नहीं है कि ख़ाकी में इंसान नहीं होते मगर आम आदमी को किसी ने सिक्के का दूसरा पहलू कभी दिखाया ही नहीं।
भारतीय पुलिस सेवा के 89 बैच के अधिकारी अशोक कुमार ने अपने दो दशक ख़ाकी में पूरे करने के बाद इस इलाके में एक बेहतरीन कोशिश अपनी किताब “ख़ाकी में इंसान” के ज़रिये की। उन्होंने अपनी इस किताब में छोटे –छोटे अफ़सानों के माध्यम से पुलिस की तस्वीर के वो रंग दिखाए जिसे समाज अपने पूर्वाग्रहों से ग्रसित चश्में से कभी देखता ही नहीं था।
राजकमल पेपरबैक्स से 2011 में छपी “ख़ाकी में इंसान “ इतनी मक़बूल हुई कि 2012 में इसका दूसरा संस्करण भी आ गया।
ख़ाकी में बीस साल से भी ज़ियादा अपने तजुर्बे को किस्सों की शक्ल में ढालकर किताब के पन्नों पर जिस तरह अशोक साहब ने उकेरा है उससे लगता है कि एक बेहतरीन पुलिस अफ़सर के साथ - साथ वे एक मंझे हुए क़लमकार भी हैं।
ख़ाकी पहनने के बाद ख़ाकी के अन्दर तक के तमाम पेचो-ख़म ,काम करने के तौर-तरीक़े , काम नहीं करने के सबब , इंसाफ़ की गुहार करते मज़लूम की दिल से इमदाद और कभी ख़ाकी का वो बर्ताव जो आज उसकी शिनाख्त हो गया है ये तमाम चीज़ें लेखक ने बड़े सलीक़े और सच्चाई के साथ अपने किस्सों में चित्रित की हैं।
हरियाणा के एक छोटे से गाँव से तअल्लुक़ रखने वाले अशोक कुमार ने अपनी मेहनत और लगन से हिन्दुस्तान के जाने – माने संस्थान आई.आई.टी ,दिल्ली से बी.टेक और एम्.टेक किया। साल 1989 में इनका चयन भारतीय पुलिस सेवा में हुआ फिलहाल लेखक सीमा सुरक्षा बल ,दिल्ली में महानिरीक्षक के पद पर हैं।
पुलिस सेवा में अपने व्यक्तिगत अनुभवों को अशोक साहब ने पंद्रह –सोलह किस्सों में बांटा है और हर किस्से में उन्होंने अपने महकमें के अच्छे कामों के साथ – साथ बड़ी बेबाकी से उसकी ख़ामियों को भी उजागर किया है।
“लीक से हटकर इंसाफ़ की एक डगर”..इस उन्वान से लिखे शाहजहांपुर के 1997 के एक संस्मरण में वे दबंगों के ज़ुल्मों-सितम से त्रस्त एक महिला और उसके परिवार को इंसाफ़ दिलाने में पुलिस के इंसानियत की सतह पर किये प्रयासों को वर्णित करते है। प्राय देखने में आता है कि पुलिस अपनी ख़ामियों पे लीपा-पोती करती है मगर इस किस्से में अनोखी बात ये नज़र आती है कि लेखक पूर्व में की हुई पुलिस की तमाम ग़लतियों को सरेआम स्वीकार कर पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए एक नई राह अख्तियार करते है।
चक्रव्यूह शीर्षक वाले अपने किस्से में लेखक पाठकों को पुलिस अकादमी हैदराबाद से तरबीयत (ट्रेनिंग ) मुकम्मल करने के बाद अपनी इलाहाबाद की पहली पोस्टिं के संस्मरण से रु-ब-रु करवाते हैं। प्रारम्भ में वे इलाहाबाद के धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक पृष्ठ भूमि का जिस तरह वर्णन करते हैं तो लगता है कि साहित्य से हुज़ूर का तआर्रुफ़ बहुत पुराना है। छोटे कस्बों के पुलिस थानों में कैसा निज़ाम चलता है इसका चित्रण इस अफ़साने में अशोक साहब बड़ी साफ़गोई से करते हैं। दलालों , दबंगों ,बदमाशों और कुछ पुलिस वालों के जटिल चक्रव्यूह को अगर भेदना है तो पुलिस में इंसानियत का जज़्बा और जनता के साथ बेहतर समन्वय होना बेहद ज़रूरी है। फूलपुर थाने में थानाध्यक्ष की ट्रेनिंग के दौरान अपने अनुभव को इस किस्से में लेखक ने बड़ी ईमानदारी से बयान किया है।
अपनी हरिद्वार पोस्टिंग के दौरान अशोक साहब 1996 में हुए रुड़की के एक बहुचर्चित केस में पीड़िता को इंसाफ़ दिलाने में इसलिए क़ामयाब होते है कि पूरी तफ़्तीश के वक़्त अपनी टीम में वे इंसानियत का जज़्बा कम नहीं होने देते। ”पंच परमेश्वर या “...उन्वान से उनका ये संस्मरण कई जगह रौंगटे खड़े कर देता है। आख़िर में मज़लूम को इंसाफ़ मिलता है , एक औरत पर
ज़ुल्म ढाने वाले समाज के ठेकेदार सलाखों के पीछे भेज दिए जाते हैं। एक इंसान दोस्त रहनुमा की अगुवाई में रुड़की पुलिस के शानदार काम पर ख़ाकी को सलाम करने का दिल करता है।
समाज को पुलिस की क़दम क़दम पर ज़रूरत पड़ती है इसी तरह पुलिस भी बिना समाज की मदद के अपने फ़र्ज़ को अंजाम नहीं दे सकती। इन दिनों ज़मीनों की बढ़ती हुई क़ीमतों की वजह से ज़मीन से संम्बंधित अपराधों की तादाद में इज़ाफा हुआ है। ज़मीन के कब्ज़े से मुतअलिक जब कोई केस पुलिस के पास आता है तो वो या तो कुछ ले दे के उसे रफ़ा-दफ़ा करने की फिराक़ में रहती है या फिर इसे दीवानी का मुआमला बता कर अपना पल्ला झाड़ लेती है। भू-माफ़ियाओं और कुछ पुलिस वालों के इस तंत्र का पूरा लेखा जोखा अपने किस्से “भू-माफ़िया” में अशोक साहब ने बड़ी सच्चाई से लिखा है। केन्द्रीय सुरक्षा बल का एक सेवानिवृत इंस्पेक्टर अपने रिटायर्मेंट के पूरे पैसे से एक प्लाट खरीदता है और वो भू-माफ़ियाओं की जालसाज़ी का शिकार हो जाता है। पीड़ित की गुहार थाने में नहीं सुनी जाती और हताश हो वो आख़िरी उम्मीद के साथ लेखक के पास पहुंचता है। लेखक जानते हैं कि मुआमला उतना आसान नहीं है ,क़ानूनी पेचीदगियां है , भू –माफ़ियाओं के बड़े बड़े रसूक हैं मगर सिर्फ़ फरियादी के दर्द को इंसानियत के नाते अपना दर्द समझ कर अशोक साहब उस पीड़ित इंस्पेक्टर की मदद करते है। किसी काम के पीछे अगर नीयत साफ़ हो तो नतीजा भी अच्छा निकलता है अन्ततोगत्वा पीड़ित को अपने डूबे हुए बारह लाख वापिस मिल जाते है और लोगों की खून पसीने की गाढ़ी कमाई को निगलने वाले सलाख़ों के पीछे भेज दिए जाते हैं।
जब लेखक भारतीय पुलिस सेवा से जुड़े उस वक़्त पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था और उसकी जड़े तत्कालीन यूपी के तराई क्षेत्र तक फ़ैल चुकी थी। जून 93 में अशोक साहब को तराई के रूद्रपुर इलाके में दहशतगर्दी से दो–दो हाथ करने के लिए पदस्थापित किया गया। “तराई में आतंक” वाले अफ़साने में लेखक ने तराई में क्यूँ और कैसे आतंक ने अपनी चादर बिछाई का वर्णन बहुत ख़ूबसूरती से किया है। उस वक़्त के कुख्यात आतंकवादी हीरा सिंह और उसके साथियों का सफाया पुलिस ने किस तरह किया इसे भी लेखक ने शब्दों की माला में उम्दा अंदाज़ से पिरोया है। ये अफ़साना पढने के बाद ये तो कहा जा सकता है कि अशोक कुमार साहब ने तराई में आतंक के खात्मे की पूरी प्रक्रिया और संक्रिया में कई मर्तबा फ़ैसले दिमाग से नहीं दिल से लिए । ख़तरात के उबड़-खाबड़ रास्तों पर पुलिस द्वारा अंजाम दिया गया ये पूरा ऑपरेशन वाकई काबिले तारीफ़ था। पुलिस के इस तरह के कारनामे आवाम तक पहुँचने चाहियें और “ख़ाकी में इंसान “ ने इस काम को बख़ूबी अंजाम दिया है।
“ख़ाकी में इंसान “ में लेखक ने अपने तजुर्बात की राह में मिले हर तरह के अपराध को अफ़साने की शक्ल देने की कोशिश की है। जेल से अपराधी किस तरह अपनी गतिविधियाँ संचालित करते हैं और जेल से ही भोले –भाले लोगों को डरा धमका उनसे वसूली करते हैं ऐसे अनुभवों से भी लेखक का पाला पड़ा। किसी बुज़ुर्ग की शिकायत पर एक ऐसे ही केस को अशोक साहब सुलझाते हैं। जेल के कुछ कार्मिकों और अपराधियों के बीच पनप चुके गठजोड़ को ध्वस्त करते हैं।
एक दूसरे अफ़साने में लेखक रूड़की के उस किस्से को बयान करते है जिसमे एक कारोबारी को कोई अपराधी फिरौती के लिए धमकी देता है और व्यापारी लेखक के पास फ़रियाद लेकर आता है। अपनी सूझ –बूझ और तमाम तकनिकी दक्षता का इस्तेमाल करते हुए अशोक साहब की टीम अपराधियों को मार गिराती है। ऐसे अपराधियों के खात्मे के बाद लोगों के चेहरों पर जो सुकून दिखाई देता है वो सुकून “ ख़ाकी में इंसान “ के हर सफ़्हे ( पन्ने ) से टपकता है।
“अंधी दौड़ “ उन्वान से गढ़े एक किस्से में लेखक मथुरा के गोवर्धन मेले में पुलिस इन्तेज़ामात का और लोगों की बेतहाशा भीड़ का ज़िक्र करते हैं। अपने दौरे के दौरान उन्हें राजमार्ग पर एक बस पलटी हुई दिखाई देती है और पूरे दर्दनाक मंज़र को जब अशोक साहब लफ़्ज़ों का लिबास पहनाते हैं तो सोई हुई संवेदनाएं जाग जाती हैं। लोग कितने संवेदनहीन हो गएँ है , एक तरफ़ मदद को लोग चिल्ला रहें होते हैं दूसरी तरफ़ लोग ये सब देखकर गुज़र जाते हैं और यहाँ भी लोगों की नज़र में संवेदनहीन पुलिस अपने कर्तव्य के साथ - साथ इंसानियत का धर्म भी निभाती है।
“ख़ाकी में इंसान” में अशोक साहब के अनुभवों की और भी बहुत सी कड़ियाँ है जिन्हें उन्होंने कहानियां बनाकर अपने अफ़साना निगार होने के पुख्ता सुबूत दिए हैं। यू.पी और उतरांचल में मुख्तलिफ़-मुख्तलिफ़ जगहों पर अपनी मुलाज़्मत के दौरान अपने और भी बहुत से तजुर्बात उन्होंने साझे किये हैं।
दहेज़ के लिए किसी अबला को जला देने से लेकर दहेज़ क़ानून के ग़लत इस्तेमाल पर भी उन्होंने रौशनी डाली है। अपहरण , रिश्वतखोरी , बलात्कार , और दूसरे अन्य अपराधों से जुड़े अफ़साने भी “ख़ाकी में इंसान “ में पढ़े जा सकते हैं।
“ख़ाकी में इंसान “ में किस्सों का एक अलग मनोविज्ञान देखने को मिलता है। सामान्यतः कहानियों में किरदारों की गुफ़्तगू और किरदार से जुड़े सिलसिले को अफ़सानागो किसी फिल्म के दृश्य की भाँती पेश करता है मगर अशोक साहब ने
पुलिस महकमे से सम्बंधित पूरे निज़ाम (व्यवस्था) की मंज़रकशी की है जो सताईश (तारीफ़ ) के क़ाबिल है। किसी अपराधिक घटना के घटने से लेकर मुक़द्दमे ,तफ़्तीश , गिरफ़्तारी, और पीड़ित को इंसाफ़ मिलने तक के घटनाक्रम का रोज़मर्रा इस्तेमाल में आने वाले लफ़्ज़ों के सहारे खाका खींचना इस किताब की सबसे बड़ी ख़ूबी है।
जहां – जहां लेखक को लगा कि इस जगह पुलिस सही नहीं है तो उन्होंने उसे बड़ी साफ़गोई से स्वीकार भी किया है। इंसानियत एक ऐसी शय है जिसकी बुनियाद पर हर मज़हब की इमारत खड़ी होती है। “ख़ाकी में इंसान “ पहले सफ़्हे से आख़िरी सफ़्हे तक इंसानियत की महक से लबरेज़ है। किताब पढ़ते वक़्त कई बार लगता है कि क्या पुलिस इस तरीक़े से भी काम करती है ?
लेखक का अदब से गहरा जुड़ाव साफ़ नज़र आता है। अपने ज़ाती अनुभव और सच्ची घटनाओं को किस्सों में तब्दील करते वक़्त अशोक साहब ने बड़े आसान और आम बोल चाल के अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किये है। एक अच्छी तक़रीर वही है जो सीधे – सीधे पढ़ने और सुनने वाले के दिल में उतर जाए।
“ख़ाकी में इंसान “ के हर नए किस्से से पहले अशोक साहब ने अपनी डायरी से ली कुछ पंक्तियाँ लिखीं है या फिर किसी के हवाले से छोटी –छोटी कवितायें जिनका राब्ता उस अफ़साने से है , उनका ये प्रयोग वाकई अनूठा है। लेखक की डायरी से निकली पंक्तियाँ पढ़कर लगता है कि वे पुलिस में आने से पहले भी कुछ ना कुछ लिखते रहे हैं। लेखक ने अपने अफ़सानों में जिन –जिन शहरों का ज़िक्र किया है उन्होंने उस शहर की ऐतिहासिक ,भौगोलिक ,धार्मिक , और सांस्कृतिक पहचान से भी पाठकों को अवगत करवाया है।
इस पूरी किताब को पढने के बाद एक बात तो तय है कि लेखक की धमनियों में रक्त के साथ –साथ संवेदना का संचार भी प्रचुर मात्रा में है। उनके भीतर पसरी हुई ये संवेदना ही है कि वे अपहरण से मुतअलिक अपने एक अफ़साने में लिखते हैं कि “” मैंने महसूस किया है कि एक ह्त्या के पेचीदा केस को सुलझाने में जितनी ख़ुशी होती है उससे कई गुना अधिक ख़ुशी अपहृत को बरामद करने में होती है। “”
“ख़ाकी में इंसान” को पढ़कर आप पुलिस तंत्र की पूरी व्यवस्था से वाकिफ़ हो सकते है। इस किताब में ख़ूबियों की कोई कमी नहीं है मगर इसे पढने के बाद कारी ( पाठक ) के ज़ेहन में ये सवाल ज़रूर आयेंगे कि .. “ क्या पुलिस ऐसे भी काम करती है ? क्या ख़ाकी में भी इंसानियत के रंग हो सकते हैं ? वगैरा .. वगैरा.. इन सवालों के जवाब अशोक साहब ने किताब के ठीक पीछे मोटे-मोटे शब्दों में स्वयं ही सवाल करके दे दिया है , वे लिखते हैं ..” मेरा कहना है ..पुलिस की वर्दी में होते हुए भी इंसान बने रहना ..इतना मुश्किल तो नहीं ?
“ख़ाकी में इंसान” के एक–एक हर्फ़ को तन्मयता से पढने के बाद मेरा ये मानना है कि इस किताब को आम आदमी के साथ –साथ तमाम पुलिस वालों को भी पढ़ना चाहिए। मुल्क के हर थाने में जहां हिंदी पढ़ी समझी जाती हो ये किताब होनी चाहिए। इस किताब का अनुवाद मुल्क की दूसरी भाषाओं में भी होना चाहिए और यदि संभव हो तो पुलिस की बुनियादी तरबीयत ( बेसिक ट्रेनिंग ) में भी इस किताब के किस्से पढ़ाए जाने चाहियें ताकि बुनियाद के वक़्त ही इंसानियत और संवेदना के बीज पुलिस कर्मियों में डाल दिए जाएँ।
मुझे यक़ीन है कि “ख़ाकी में इंसान” को पढने के बाद लोगों की नज़रों में पुलिस की एक बेहतर छवि बनेगी जिसकी दरकार आज पुलिस को बहुत ज़ियादा है और इससे समाज और पुलिस के बीच जो खाई बन गयी है वो भी ख़ुद ब ख़ुद भर जायेगी।
इस ख़ूबसूरत किताब को अपने नायाब छायाचित्रों से जनाबे चंचल ने सजाया है और जनाबे लोकेश ओहरी ने भी इसमें अपना भरपूर सहयोग दिया है ये दोनों फ़नकार भी मुबारकबाद के मुस्तहक़ हैं।
आज के परिवेश में इस किताब की उपयोगिता और सार्थकता को देखते हुए गृह मंत्रालय ,भारत सरकार ने “ख़ाकी में इंसान” को गोविन्द वल्लभ पन्त पुरस्कार से नवाज़ा है।
“ख़ाकी में इंसान” जिस मक़सद से लिखी गयी थी उस मक़सद में क़ामयाब हो रही है। इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज के माहौल में ख़ाकी को देखकर हमारी आँखों का ज़ायका खराब हो जाता है मगर “ख़ाकी में इंसान” को पढने के बाद आँखों का ये बिगड़ा हुआ ज़ायका ठीक किया जा सकता है। परवरदिगार से यही दुआ करता हूँ कि इंसानियत की महक वाला ये गुलदस्ता ज़ियादा से ज़ियादा नज़रों के आगे से गुज़रे और इसे पढने के बाद ख़ाकी में हमे इंसानियत के रंग नज़र आने लगे ...आमीन।
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बदलेगा फिर नज़रिया ,सच जाओगे जान।
एक बार पढ़ लीजिये , ख़ाकी में इंसान।।
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विजेंद्र शर्मा
Vijendra.vijen@gmail.com
अभी तक तो ऐसा लगा नहीं कि नजरिया बदल सके. बाकी मैनेजमेन्ट देखा है. अपवाद तो हर जगह होते हैं.
जवाब देंहटाएंसुंदर पुस्तक की सुंदर समीक्षा । पुस्तक वास्तव में पठनीय होगी ।
जवाब देंहटाएंडॉ.मोहसिन ख़ान (अलीबाग)
विजेंन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंAaj Bharat ke har ek pradesh me jo pulish ka tandav ho raha hi, kya ushko najarandaj kiya ja shakta hi, kewal najariya badale se pulish wale badal nahai jayege, Pulish ki reswat baji, nyaay prarali me hamesh bagunho ko saja milti hi, desh ki redh hote huwe bhi, sabshe bekar hi, aaj ek sahi aadmi police ke paash jate jarta hi ye akaran to nahi hi, har ek aadmi aasurakshit hi aaj apne desh me, kitabo me kewal padhkar rayaya badal dene se kuch nahi hota hi, pulish ke roop me choor daku ghoom rahe hi, kya ye satya nahi hi, mai aapke pulish wad ke vichar se 100 % ashahnat hu, apni muh apni badaee karna accha nahi hi, Pahale choori ka intjar karo Phir apna shourya dikhao, pahale balatkar ho phir khooj been,
Polish sabse bhrast hi. Polish nahi Palish ishaka naam hona chahiye.
Janta ko kahaniyo se nahi, Polish ki imandari se prarit karo.
Danyabad
Bharat.
समीक्चा सही
जवाब देंहटाएंहोने से पूलिस वाले सही नही होते, खाकी नही खाक है. जरूरत नही है किताब देखने की. पहले अपने विभाग को किताब बाटे.
विजेंन्द्र शर्मा जी,
जवाब देंहटाएंआज देश में हर एक प्रदेश में पुलिस का जो रूप देखने को मिल रहा है क्या आप उससे खिन्न नहीं है। किसी भी आदमी को पुलिस के नाम से घृणा है वो वेवजह नहीं है। केवल कुछ पुस्तकों मे किसी की गौरव गाथा से कुछ नही होता है। आज एक साधारण आदमी चोर, उच्क्कों से ज्यादा पोलिस वालों से डरता है। पोलिस वाले चोरों के रूप में देखे जाते। हर जगह पुलिस की रिश्वत खोरी, रोड पे, गली में, आॅफिसों में, क्या लोगों की गलती है। लोगों का नजरिया बदलनें की जरूरत नहीं है। ये खाकी वाले बदल जायें नजरिया अपने आप बदल जायेगा। कुछ मत्रालय का पुरस्कार लेते रहे बस। कही भी ऐसा नही है कि एक साधारण आदमीं को एक बार मे सही न्याय मिल पाता है। खाकी में इंसान है कि चोर। हमेशा एक सवाल हर एक इंसान के दिमाग में है। जो कि बेवजह नहीं है।
खाकी वालों को इंसान बनाओं, लोगों के नजरिये खुद ब खुद बदल जायेगें।
धन्यवाद।
namaskaar
जवाब देंहटाएंvijendra jee aur ashok jee !
main aur mudoo ki baat ko viraam detee hue sirf pustak ki badhai pradaan karnaa chahtaa hoo . atah badhai ek rachnaakar ko aur sameekshak ko.
खाक का मतलब राखहोता है और जो राख धारण करता है वह शिव /शिव भी कभी कभी ऐसे कार्य कर बैठते है जो अनपेक्षित होते है जिसका प्रभाव दुष्प्रभाव हो जाते है जैसे कामदेव दहन जो माँ पार्वती के लिए एक अभिशाप हो गया वे मातृत्व से वंचित हो गई
जवाब देंहटाएंबेनामी साहब आपका आक्रोश वाजिब है ...मगर आपने तो पुलिस के सराहनीय कार्यों को भी नकार दिया है ! शायद आपकी जानकारी में नहीं है कि हर साल हज़ारों पुलिस कर्मी शहीद होते हैं ..... मेले -त्यौहार सभी मनाते हैं , हर बच्चे का बाप उसके पास होता है मगर कभी आपने सोचा है की त्योहारों की रौनक के बीच एक पुलिस वाले के बच्चे अपने वालिद का इंतज़ार करते- करते ही जवान हो जाते हैं ! हमारे पुलिस तंत्र में खामियां हैं इस से इनकार नहीं किया जा सकता मगर कोई अच्छा कार्य करता है तो क्या हम उसकी पीठ नहीं थप थापा सकते ! बेनामी साहब ऐसा कौनसा महकमा हमारे यहाँ है जहां भ्रष्टाचार नहीं है ...
जवाब देंहटाएंविद्यालयों में अध्यापक गायब मिलते हैं , अस्पतालों जाओ तो डॉ नहीं मिलते अन्य विभागों का भी यही हाल है , बेनामी साहब यह विडम्बना है की आवाम को पुलिस की गलतियाँ तो नज़र आती हैं मगर और किसी की नहीं ....
बेनामी साहब पुलिस की जैसी छवि आपने अपने ज़ेहन में बना रखी है वैसी हकीकत नहीं है !
पुलिस का वास्ता रोजाना बुराई से पड़ता है ...मुसलसल बुराई के करीब रहने से इंसान में बुराई की छाया दिखाई देना स्वाभाविक है ....
किसी दिन आपको उस फ़र्ज़ को अंजाम देना पड़े तो पता चलेगा जिसे बीस -बीस घंटे लगातार अपनी duty पर रह कर पुलिस वाले देते हैं !
विजेंन्द्र शर्मा जी,
जवाब देंहटाएंapna dosh dusro pe thop kar kya batana chahte hai, kewal polish wale hi nahi hajaro lakho aam log aaj apne gar se bahar bin tyavahar manye rah rahe hi, aatank ke saye me mar rahe hi, unka bare me socha hi, jo na teacher hi, na polish, kya kahe aapke aankh me polish ka chasma laga hi to wahi dikhega.
Danybad
दिलचस्प किताब लगती है| धन्यवाद इससे परिचित करवाने के लिए| हरेक विभाग की तरह पुलिस महकमे के भी सभी रंग लोगों के सामने आने चाहियें|
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