विजय वर्मा के हाइकु बासंती हवा [हाइकु ] हवा जो चली गुनगुनाने लगे मन औ' प्राण। मदमस्त-सी हो गयी फिज़ा ,जागे सोये अरमां . छूकर ...
विजय वर्मा के हाइकु
बासंती हवा [हाइकु ]
हवा जो चली
गुनगुनाने लगे
मन औ' प्राण।
मदमस्त-सी
हो गयी फिज़ा ,जागे
सोये अरमां .
छूकर गई
बासंती हवा संग
यादें बासंती।
कंचन-काया
एक कड़ी हो गयी
आँखों के आगे।
गुलाबी आभा
फ़ैल गयी नभ में
फैली सुगंधी
तन की उम्र
होती है छोटी,पर
यादों की बड़ी
--
v k verma,sr.chemist,D.V.C.,BTPS
BOKARO THERMAL,BOKARO
vijayvermavijay560@gm
मनोज 'आजिज़' की ग़ज़ल
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इस राह चले वो छूट गया
इससे मिला तो वो रूठ गया
क्या पता कौन है ज़ाद-ए-मंज़िल
इक नयी राह से जुड़ गया
आँधियाँ हैं शायद तब्दीली की
इस क़यास में कुछ छूट गया
सबको है तलाश मुकम्मल जहाँ
तलाश में कोई आबाद कोई लूट गया
--
मनोज 'आजिज़' की कविता
रंगों का त्योहार होली में
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दीनदयाल जी दीन हाल में
गये पास मंत्री के
उनसे पहले पूछा गया
क्या मिला उन्होंने संत्री से?
दीनदयाल जी विनम्र होकर
कहा-- जरुर मिला हुजूर
मिलने की अनुमति उसने दी
आप कर दें कष्ट दुर.।
मंत्री पूछे जल्दबाजी में
कहिये क्या संवार दूँ
हर भाषण में नाम जपता हूँ
अब कितना प्यार दूँ ।
जनता-जनता जप कर तो
हरि नाम भी बिसर गया
धर्म-कर्म की बात अब तो
न जाने कब किधर गया ।
दीनदयाल जी हाथ जोड़कर
बोले-- मेरी एक पीड़ा है
चार पुत्रियों का बाप हूँ
शादी करवाने की बीड़ा है ।
इस होली में एक के लिए
लड़के वाले आएंगे
हम बेलचा-गैंता मारकर
क्या माँग पूरी कर पाएंगे ?
मंत्री थोड़ा सोचकर बोले--
'कन्यादान योजना' जारी है
इस योजना के सामने तो
बड़ी गरीबी भी हारी है।
लेकर आयें चारों का वर
हम व्यवस्था करवाते हैं
' आपको क्या पता दयाल जी
हम इस पर भी कमीशन खाते हैं'।
दीनदयालजी खुश होकर
वर ढूंढने लग गए
विवाह के दिन कहीं कोई नहीं
मंत्री जी तो ठग गए ।
चार कन्यायों का पैसा तो
गया मंत्री की झोली में
दीनदयाल जी फीका पड़ गए
रंगों का त्योहार होली में ।
पता- आदित्यपुर-२
जमशेदपुर
झारखण्ड
09973680146
बच्चन पाठक 'सलिल' की कविता
अब और नहीं ढाई आखर
सुनो बंधु, सुनो
मेरे कथन को गुनो
युग युगों तक प्रेम के
ढाई आखर पढ़ते रहे
किसिम किसिम के प्रेम
नए सोपान भी गढ़ते रहे।
राम जाने कितने पंडित हुए
सपने तो हजारों खंडित हुए
अब तुम्हे पढने हैं
ग़रीबी के मात्र तीन अक्षर
तभी कहला सकोगे साक्षर।
ग़रीबी को महिमा मंडित मत करना
पर सदा गरीबों के उत्थान का रखना ध्यान
इसी में है मानवता का कल्याण ।
ग़रीबी हटानी है, रूढ़ियाँ मिटानी है
जन सामान्य को कार्य की गीता सिखानी है
चाहे रहो देश या विदेश
याद रखना यह रचनात्मक सन्देश।
-- डॉ बच्चन पाठक 'सलिल'
जमशेदपुर-
झारखण्ड
0657/2370892
विन्दु की कविता
'क्यों'
दफ़नाए है ग़म अन्त: में
अश्कों के मोती बिखराएं क्यों?
महफ़ूज खुशी है दुनियां में
बुलबुले पकड़ने दौड़ें क्यों?
हमें मांजने आती जो,उस
रजनी की कालिख से क्या झुंझलाना
असल कालिमा होती गर,
नवल प्रभात गले लगाता क्यों?
प्यास तपाता मधुमासों हित
उस पतझर से क्या अकुताना
तुष्टि सिला है उसी तपन का
तो मधुबन का जाना वीराना क्यों?
-विन्दु
राजीव आनंद की कविता
ऋतुराज वसंत आ गया
ऋतुराज वसंत आ गया
कहां है कोयल की कुहुकने की सुरीली आवाज
है आम्र मंजरिंया बौराई तो
कोयल पर विकिरण टॉवरों ने गिरायी है गाज
ऋतुराज वसंत आ गया
भौंरे आम्र मंजरिंयों का नहीं करते रसपान
पर्यावरण असंतुलन भौंरों पर पड़ा भारी
पड़े है भौंरे बागों में यहां-वहां लहूलुहान
ऋतुराज वसंत आ गया
सूना था पलाश के फूल खिलते थे
सेमल की दरख्तों पर रूई हिला करते थे
कौन से शहर में हिलते थे, कौन से शहर में खिलते थे ?
ऋतुराज वसंत आ गया
क्यों भौंरों ने आम्रमंजरिंयों से बनायी दूरी है ?
क्यों पपीहे ने कुहुकना छोड़ी है ?
आया है वसंत पर क्यों उसकी मिठास अधूरी है ?
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंड़ा
गिरिडीह, झारखंड़ 815301
---.
मीनाक्षी भालेराव की 2 कविताएँ
आ जाना
मैं जब भी कोई गीत लिखूं
तुम शब्दों को ले कर आ जाना
मैं कागज सी बिछ जाऊं
तुम रंगों को लेकर आ जाना
मैं बीज बन धरती पर गिरुं
तुम सावन लेकर आ जाना
पतझड़ का कोई फूल बनूं
तुम बसंत लेकर आ जाना
हाथों में मेरे कम्पन हो
पांवों में मेरे बल ना हो
तुम सहारा ले कर आ जाना
दुल्हन सी मैं सजने लगूं
तुम श्रंगार लेकर आ जाना
अंतिम जब मेरी विदाई हो
मैं मृत्यु श्य्या पर सोयी हूँ
तुम अग्नि ले कर आ जाना
जब साँसे ले में वापस आऊं
तुम मिलन लेकर आ जाना
मैं जब भी कोई गीत लिखूं
तुम शब्दों को ले कर आ जाना
दीप जलाने दो
घनघोर छाया अन्धेरा है
मुझको दीप जलाने दो
लो बन कर लहराने दो
तूफ़ान बड़ा भयानक है
चाहे मैं तिनका ही सही
मुझको सहारा बन ने दो
पीड़ा में डूबा है संसार
मुझे मरहम लगाने दो
थोड़ा सुकूं फैलाने दो
बरस रही है अग्नि हर तरफ
मूझे बरखा बन जाने दो
आग अराजकता की बुझाने दो
अभी चाहे अकेली हूँ
थोड़ा रुको मेरे हाथों से
हाथ मिल जाने दो
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प्रेम मंगल की कविता
ज + ल + न = जलन
तीन अक्षरों के योग से बना है मेरा नाम
तन में हो या मन में सहन करना है कठिन काम।
तन झुलसे तो आकृति विकृत हो जाती,
मन झुलसे तो मनोवृत्ति दूषित हो जाती।
कुछ भी हो मैं अच्छा कर सकती नहीं किसी का,
पर बुरा करने में भी पीछे नहीं रहती किसी का।
मेरी प्रविष्टि होती अन्तःस्तल में भी जिसके,
चैन नहीं रह सकती कभी भी मन में उसके ।
दुखी होता रहता सदा ही वह पर-सुख से,
चिन्ता में डूबा सदा वह रहता पर उन्नति से।
चिन्ता नहीं कर पाता वह अपने ही जीवन की
योजना बनाता रहता दूजे की जीवन हानि की ।
मेरी प्रविष्टि आन-बान-शान बिगाड़ देती दोस्ती की,
दोस्ती क्या वह तो तोड़ देती जोड़ी मिया बीबी की।
दफ्तर हो ,घर हो ,या जाति समाज का कोई अवसर हो
जिस-जिस दिल में मैं घुस जाऊॅ उसका ही जीना दूभर हो।
यदि किसी पव़ित्रता का नाम ईर्ष्या है तो मेरा नाम ईर्ष्या है,
एक बनाये स्वर्ग घर को,मेरा काम घरों को नरक बनाना है।
मुझसे जो भी बच जायेगा
शान्तमय जीवन वह जी पायेगा।
इसीलिये कहती हूं, सुनो ध्यान से,
सदा दूर रहो बन्दो तुम मेरे ज्ञान से।
जानना चाहते हो नाम गर तुम मेरा तो सुनो
मेरा नाम है जलन पर्याय जिसका ईर्ष्या है
प्रेम मंगल
कार्यालय अधीक्षक
स्वामी विवेकानन्द कॉलेज ऑफ इंस्टीटृयूशन्स
इन्दौर मध्यप्रदेश
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शंकर लाल की 2 कविताएँ
इंसान और खुशी
लगता है खुश होना
इंसान को रास नहीं आता है
जब कुछ नहीं मिलता है
तो इंसान दु:खी होता है
और
मिल जाने पर और अधिक रोता है |
इसका एक किस्सा बतलाता हूँ
मैं आपको इंसानी फितरत की कहानी सुनाता हूँ
बचपन से आदमी
चाँद को पाना चाहता है
उसे मामा कहकर बुलाता है
जब चाँद नहीं आता है
तो वो दु:खी हो जाता है |
गम को गलत करने के लिए
जवानी में एक सुन्दर बाला से
ब्याह रचाता है
फिर उसे चाँद की उपमा देकर बुलाता है
और अपना दिल बहलाता है
इस पर भी चाँद नहीं आता है
तो इंसान दु:खी होकर
अपना सिर खुजलाता है
तब कही जाकर बुढ़ापे में
चाँद को तरस आता है
वो प्रेम से आदमी के
सिर पर उतर आता है
अपनी चमक से
इंसान की शोभा बढ़ाता है
तब आदमी और दु:खी हो जाता है
इससे लगता है
इंसान को रास नहीं आता है |
घूस खाए सफल हो जाये
अखबार में खबर आयी
उड़नखटोलों खरीदी में
साहब लोगों ने मोटी दलाली खायी
टीवी चैनल वालों ने
मुद्दे पर लाईव बहस करवायी
सभी पार्टियों के नेता
और
सरकारी अफसर आये
एक दूसरे पर जमकर आरोप लगाये
अपनी बारी आयी तो
अभी जाँच चल रही है कहकर टाल गये
मगर, दूसरे ने कितना खाया
इसका हिसाब पैसे और तारीख
सहित लिखकर साथ में लाये
बहस सुनकर
हम को चक्कर आये
क्योंकि हम कुछ समझ नहीं पाये
केवल गुस्से से तिलमिलाये
इतने में टीवी चैनल वाले ने
स्क्रीन पर मोबाईल नंबर चलाये
अगर आपका कोई सवाल हो तो
कृपया इस नंबर पर फोन लगाये
बहस का हिस्सा बनकर
अपना राष्ट्र धर्म निभाए |
सुनकर हमारे अन्दर का
आम आदमी जाग आया
हमने झट से फोन लगाया
और बहस को आगे बढाया
आप लोगों ने मिलकर
हमारे पैसे है खाए
अब कृपया कर के बताये
आप हमारे पैसे कब लौटायेंगे ?
इस पर नेता अफसर पहले तो मुस्काए
फिर एक स्वर में सुर चलाये
तुम बड़े मूर्ख लगते हो भाई
पैसे वापस करने के लिए
हमने बहस नहीं करवाई
हमने पूछा, नेता जी
फिर किस लिए बहस करवाई
ये बात हमारी समझ नहीं आयी
वो बोले
देश में सब को समानता का अधिकार है भाई
इसलिए जिसने कम घूस है खाई
उस बेचारे की कैसे होगी भरपाई
ये जानने के लिए हमने ये बहस है करवाई
सुनकर हमारी जुबान अटक गई भाई
इतने में नेताजी बोले
लगता है बात जनता के समझ में गई
हमारी मेहनत रंग ला गई
जनता को समझाना ही है
हमारी सबसे बड़ी कमाई
केवल घूस ही सत्य है
बाकी सब मिथ्या है
घूस खाए बिना
कोई बड़ा नहीं होता है
मीडिया तो ऐसे ही रोता है
जो जितना खाता है
उतना ही सफल कहलाता है
अब आप लोग भी
अपने अपने दफ्तर जाए
जम कर घूस खाए
और जीवन को सफल बनाये
जीवन को सफल बनाये |
.... शंकर लाल, इंदौर मध्यप्रदेश |
----.
संजय वर्मा "दृष्टि" की कुछ कविताएँ
बेटी
बेटी अब घुटने चलने लगी संभलती वो अब धीरे-धीरे
उठ खड़ी होकर चलने लगी डगमगाती अब वो धीरे-धीरे
कही गिर ना जाये डरता मन कहता है चलो जरा धीरे -धीरे
पहली बार छोड़ने गया स्कूल संग आंसू गिरे मोती से धीरे-धीरे
बिटियाँ बन गई अफसर सपने सच होने लगे मेरे धीरे-धीरे
बिटियाँ की शादी मे होती बिदाई पग चलने लगे मेरे धीरे-धीरे
पीछे मुड़कर बाबुल देखे बिछोह मन से आँखे कह रही धीरे-धीरे
बूढ़ा हो जाऊं टेक लकड़ी बिटियाँ से मिलने जाऊंगा धीरे-धीरे
बिटियाँ में मेरी सांसें बसती बचपन की लोरी गाता अब मैं धीरे-धीरे
संदेशा वो जब भेजती तब मेरी आँखों में आंसू झरते धीरे-धीरे
---.
हितों का ध्यान
मोरनी अपने परों से
नहीं ढंक पाती अपना तन
जितना ढंक लेता है मोर
अपने पंखों से अपना तन |
ना घर ,ना घोसला
मुंडेरों और कुछ बचे पेड़ों पर
बैठकर ये सोच रहे ?
इंसानों को रहने के लिए
कुछ तो है मेरे देश में
जंगलों के कम होने से
क्या मेरे लिए कुछ भी नहीं है
मेरे इस देश में |
पिहू -पिहू बोल के
बुद्धिजीवी इंसानों से
कह रहा हो जैसे
इंसानों के हितों के साथ
हमारे हितों का भी ध्यान रखो
क्योंकि हम राष्ट्रीय पक्षी हैं |
नहीं तो कहते रह जाओगे
जंगल में मोर नाचा किसने देखा
और यही सवाल अनुत्तरित बन
रह जायेगा महज किताबों में |
---.
नीम
फूलों से लदे
हरे-भरे नीम की महक
दे जाती है मन को सुकून
भले ही नीम कड़वा हो |
पेड़ पर आई जवानी
चिलचिलाती धूप से
कभी ढलती नहीं
बल्कि खिल जाती है
लगता, जैसे नीम ने
बांध रखा हो सेहरा |
पक्षी कलरव करते पेड़ पर
ठंडी छाँव तले राहगीर
लेते एक पल के लिए ठहराव
लगता जैसे प्रतीक्षालय हो नीम |
निरोगी काया के लिए
इन्सान क्यों नहीं जाता
नीम की शरण
बेखबर नीम तो प्रतीक्षा कर रहा
निबोलियों के आने की
उसे तो देना है पक्षियों को
कच्ची -कड़वी,पक्की मीठी
निबोलियों का उपहार |
---.
नेत्रदान महादान समर्पित
रंगों से रंगी दुनिया (गीत )
मैंने देखी ही नहीं
रंगों से रंगी दुनिया को
मेरी आखें ही नहीं
ख्वाबों के रंग सजाने को |
*
कौन आएगा ,आखों में समाएगा
रंगों के रूप को जब दिखायेगा
रंगों पे इठलाने वालों
डगर मुझे दिखावो जरा
चल सकूं मैं भी अपने पग से
रोशनी मुझे दिलों जरा
ये हकीकत है कि, क्यों दुनिया है खफा मुझसे
मैंने देखी ही नहीं ...........................
*
याद आएगा ,दिलों में समाएगा
मन के मित को पास पायेगा
आखों से देखने वालों
नयन मुझे दिलों जरा
देख सकूं मैं भी भेदकर
इन्द्रधनुष के तीर दिलाओ जरा
ये हकीकत है कि .क्यों दुनिया है खफा मुझसे
मैंने देखी ही नहीं ..............................
*
जान जायेगा ,वो दिन आएगा
आखों से बोल के कोई समझाएगा
रंगों को खेलने वालों
रोशनी मुझे दिलाओ जरा
देख सकूं मैं भी खुशियों को
आखों में रोशनी दे जाओ जरा
ये हकीकत है कि क्यों दुनिया है खफा मुझसे
मैंने देखी ही नहीं ................................
संजय वर्मा "दृष्टि "
१२५ शहीद भगत सिंग मार्ग
मनावर जिला-धार (म.प्र.)
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सभी कवितायें अछी हैं," घूस खाए सफल हो जाये" बहुत अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंBhandari giriraj ji, bhut bhut dhanywad. Shankar Lal
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