क़लम की कला का संतुलित संग्रह '' हाशिये के लोग '' 'इक बुराई से लड़ रहे थे हम /औ'' सचाई से लड़ रहे थे हम जीतक...
क़लम की कला का संतुलित संग्रह '' हाशिये के लोग ''
'इक बुराई से लड़ रहे थे हम /औ'' सचाई से लड़ रहे थे हम
जीतकर भी तो हार होनी थी /अपने भाई से लड़ रहे थे हम''
काव्य की रचनात्मक कला में लेखन की सहज गति समाई है, जिसमें शामिल हैं चिंतन , मनन एवं संयम . ऐसे चमत्कारिक शब्द -शिल्पी रचनाकार डॉ. राम गोपाल भारतीय अपनी भाव-भाषा से अपने विचारों के प्रारूप को रचने में समर्थ हैं I अपनी निष्ठावान सोच के अंकुरित शब्द सुमन दलित साहित्य के संघर्षमय जीवन को रेखांकित करते हुए हमसे रूबरू हो रहे हैं.
"हाशिये के लोग" के माध्यम से परम्पराओं के अविस्मर्णीय बिम्ब शब्दावली से झांकते हुए, मानवता को झंझोड़ते हुए , कहीं सवालों के तांते बनकर सामने आते हैं.. तो कहीं उन्ही के भीतर छुपे जवाबों के चिन्ह बनकर !!
सृजनात्मक लेखन में एक संतुलन है- यह उनकी क़लम की कला की खूबी कह लें या विषय के प्रति न्याय का तकाज़ा मान लेंI
नि:शब्द सोच को शब्दों का पैरहन यूँ पहनाना की बिम्ब कल्पना होते हुए भी कभी यथार्थ लगे. कहीं कहीं शब्द अर्थ बन जाते हैं कहीं कहीं अर्थ शब्द ! / इसी की नगीनेदारी इन शेरों में परखिये :
"आईने उपलब्ध होंगे सिर्फ अन्धो के लिए / और बहरों को तराना भी सुनाया जाएगा
हो चुकी तैयारियां सब कुर्सियों के खेल की / आँख भर जायेगी जब पर्दा उठाया जाएगा"
श्री राम गोपाल भारतीय जी चिन्तक कवि हैं, अपनी सक्षम वेदना को कलारूप देने का यथासंभव प्रयास किया हैI उनके काव्य और चिंतन में सर्वत्र आत्मत्व की प्रधानता हैI उनकी लेखनी में देश एवं समाज के प्रति गहरी चिंतन शीलता शामिल है और इन रचनाओं के माध्यम से उनका रचनात्मक व्यक्तित्व निर्मित होता है; जिसकी झलक में शामिल है उनकी सादगी,अकृत्रिमता, सरलता एवं स्वाभाविकता, और तो और एक अटूट आस्था की झलक भी जो इन शब्दों में जाहिर है:
"आस्था विश्वास का दीपक अगर बुझने लगेगा / तो हमारे कल के सपने भी अंधेरों में रहेंगे
तोड़ दो चाहे बुतों को बेजुबां हैं क्या कहेंगे / बुद्ध तो जग के मसीहा हैं, मसीहा ही रहेंगे"
हमारा जीवन हमारी ज़िन्दगी, हमारा समाज जटिल होता जा रहा है. अमानवीय भोग प्रबल होता जा रहा है. जीवन की विसंगतियों से सभी हार मान बैठें हैं, जब कि एक नन्हा सा दीपक घनघोर अन्धकार से पराजय नहीं मानता. डॉ. गोपाल जी की निष्ठा सरलता से उनके विचारों से हर मान्यता को ज़ाहिर करते हुए जतलाती है कि ज़िन्दगी अपने आप में एक जंग है जो हरेक को अपने ढंग से लड़नी होगी. पराजय से धराशाई होकर भी फिर उठना है और प्रयासों में सफ़लता पानी है:
"रोज़ सूरज से लड़ेंगे , मोमपंखो को लिए
और पिघलेंगे बहेंगे ,हाशिये के लोग हैं
कुछ न बिगड़ेगा किसी का कुर्सियों की जंग में
रेत बनकर ये ढहेंगे , हाशिये के लोग हैं"
आगे अपने ही शब्दों में इस कलात्मक, रचनाधर्मिता के लेकर वे इसी पुस्तक में लिखते हैं -
"आज की हिंदी ग़ज़ल सिर्फ़ प्रेमिका से गुफ़्तगू ही नहीं करती बल्कि समाज के उन करोड़ों लोगों की परेशानियों को बयान करती है; जिन्हें चन्द साधन सम्पन्न लोगों ने हाशिये पर धकेल दिया है"
इसी सिलसिले में किसी ने खूब कहा है " देश बाज़ार हो गया है/ हम तुम उपभोक्ता हो गए हैं". सोच वही है पुराने , अभिव्यक्ति वक़्त के माहौल में ढलने के लिए रूप बदलती है. इस बानगी में डंके की चोट पर सच कहा गया है.....
"लूटते हैं गाँव में अस्मत गरीबों की जो लोग
फैसला करते वही सरपंच पंचायत में हैं
अब मुनासिब है सियासत बे-इमानो के लिए
साहिबे ईमान तो सब आजकल फुर्सत में हैं"
डॉ. राम गोपाल जी की ग़ज़लें समाज के बहुविध सन्दर्भों को जिस सहजता में उजागर करती है उससे कविता के समाज शास्त्र की पूर्व पीठिका तैयार हो जाती हैI मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़े अनुभव, अनुभूतियों एवम जीवन मूल्यों को अपनी ग़ज़लों की विषय वस्तु बनाया है. जो देखा, सुना, जिया, भोगा वही शब्दों में पिरो दिया. आतंकवाद , भ्रष्टाचार , राजनीति, सियासत , दलित समाज व हालाते-ज़िन्दगी की मार्मिक अभिव्यक्तियाँ हैं उनकी ग़ज़लें जो अपनी सृजनात्मकता के प्रवाह में पाठक को बहा ले जाती हैंI कुछ तराशते हुए शब्द शिल्प के नमूने के तौर पर ये शेर सुनिए:
" कुछ घरों में कैद सत्ता के उजाले कर दिए
और जन-गन-मन अंधेरों के हवाले कर दिए
कौन लिक्खेगा सुनहरा देश का इतिहास अब
रहनुमाओं ने तो सारे पृष्ठ काले कर दिए"
ग़ज़लों में कथ्य और शिल्प की आश्चर्य जनक विविधता तो है ही और साथ में कलात्मक कसावट एवम बुनावट भी है जो पढ़ने वालों का ध्यान अपनी और खींचती है. श्री राम गोपाल जी की रचनाधर्मिता पद-पद से मुखर है और उनकी शख़्सियत को एक अनूठी बुलंदी पर पहुंचाती है. भावनाशाली सोच मानवता के आस-पास के वातावरण में मंडराते हुए मष्तिष्क पर भी दस्तक देने में सक्षम है.
मन के गहरे भावों को सरल एवम सटीक शब्दों में अभिव्यक्त करना उनकी रचनाओं की विशेषता है एवम उनकी प्रतिभाशाली क्षमताओं का प्रमाण भी. उनका यह मुक्तक उनके चिंतन मनन का प्रतिफल है जो पठनीय एवम संग्रहनीय है :
" चीत्कारों के स्वर कहकहे बन गए
ज़ुल्म जब खुद-ब-खुद फैसले बन गए
वक़्त की ऐसी कुछ मेहरबानी हुई
सांप भी आजकल नेवले बन गए"
हाशिये के लोग एक अनूठी काव्य-कृति है जो मार्गदर्शक बनकर अंधेरों में राहें रोशन करेगी..
अंधेरे ज़माने में बेइन्तहां हैं बहुत काम आएगी लौ इस कलम की '
इस अनूठी क्रुति के लिये डा॰ रामगोपाल जी को बहुत शुभकामनाएं व बधाई
देवी नागरानी , न्यू जर्सी, यू.एस. ए , dnangrani@gmail.com
संग्रह : हाशिये के लोग, लेखक : डॉ. राम गोपाल भारतीय, पन्ने : 96, मूल्य : 150, प्रकाशन: कादम्बरी प्रकाशन, जवाहर नगर , दिल्ली 110007
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