वसंत पंचमी का पर्व और विद्या की अधिष्ठात्री प्रोफेसर महावीर सरन जैन आज वसंत पंचमी है। शास्त्रों में वसंत पंचमी का उल्लेख ऋषि पंचमी के नाम स...
वसंत पंचमी का पर्व और विद्या की अधिष्ठात्री
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
आज वसंत पंचमी है। शास्त्रों में वसंत पंचमी का उल्लेख ऋषि पंचमी के नाम से हुआ है। पुराणों, शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में इसका वर्णन एवं चित्रण अलग-अलग ढंग से मिलता है।
वसंत पंचमी प्रकृति का पर्व है। महानगरों या नगरों में रहनेवालों को वसंत के आगमन का अहसास नहीं होता। मगर आज भी शहरों से बाहर निकलने पर हम यह देख पाते हैं एवं अहसास कर पाते हैं कि वसंतागमन पर जंगलों में फूलों पर बहार आ गई है, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगी हैं, आमों के पेड़ों पर बौर आने लगा है, चिड़ियाँ चहचहाने लगी हैं, रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगी हैं। जब हम कार में बैठकर घूमने निकलते हैं तो खेतों में परिलक्षित होने वाला स्वर्ण सी आभामंडित सरसों का सौंदर्य हमें मुग्ध कर देता है।
वसंत पंचमी का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है। प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस माना गया है। इस दृष्टि से वसंत पंचमी सरस्वती के आविर्भाव व विजय का दिन है। देवी सरस्वती का प्राकट्य दिवस होने के कारण इसे सरस्वती जयंती, श्रीपंचमी आदि नामों से भी पुकारा जाता है। भारतीय ज्योतिष की दृष्टि से सायन कुंभ में सूर्य आने पर वसंत शुरू होता है। |
पौराणिक मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों की रचना की। अपनी रचना से वे संतुष्ट नहीं हुए। वातावरण में नीरसता थी, नीरवता थी। उल्लास, उमंग, उत्साह, खिलावट, सजीवता, रागमयता, रासमयता का अभाव था। विष्णु से अनुमति लेकर ब्रह्मा ने अपने कमण्डल से जल छिड़का। पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ। यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। उनके परिधान, रूप एवं आकृति का वैभव तथा सौन्दर्य इस प्रकार थाः
“या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृत्ता। या वीणावरदण्मंडितकरा या श्वेतपद्मासना।।“
ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव जंतुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। सरस्वती को ज्ञानदा, पारायणी, भारती, भगवती, वागीशा, वागीश्वरी, विद्यादेवी, विमला, हंसगामिनी, शारदा, वीणावादिनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पुकारा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी हैं। सरस्वती समस्त रस विधान की आलम्बन हैं। भारतीय मनीषा ने वाक्, शब्द, अर्थ, स्फोट, लय, ताल और नाद की जितनी विवेचना की है, वह सभी अन्ततः सरस्वती की साधना है।
चूँकि वसंत पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में मनाने की परम्परा है, इसलिए इस दिन संगीतज्ञ वसंत राग में गायन करते हैं। वसंत पंचमी को मदनोत्सव के रूप में मनाने की परम्परा थी। आज भी वसंत पंचमी के दिन कामदेव, उनकी पत्नी रति और वसंत की पूजा की जाती है। कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का महत्व सर्वाधिक है। कवि, लेखक, गायक,वादक, नृत्यकार, नाटककार अर्थात् ज्ञान, साहित्य संगीत आदि सभी कलाओं एवं विद्या के आराधक इस दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों एवं शास्त्रों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं। । भारत की सभी भाषाओं के कवियों ने अन्य ऋतुओं की अपेक्षा वसंत ऋतु का वर्णन अधिक किया है। महाकवि कालिदास ने अपनी काव्य-कृति ‘ऋतुसंहार’ में छह ऋतुओं का वर्णन ग्रीष्म से आरंभ किया है, तदनंतर क्रमशः वर्षा, शरद्, हेमंत व शिशिर ऋतुओं का वर्णन करते हुए अंत में प्रकृति के सर्वव्यापी सौंदर्य , माधुर्य एवं वैभव से सम्पन्न वसंत ऋतु का वर्णन किया है।
ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है –“- प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु”। अर्थात् ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है, उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है।
भारतीय प्रज्ञा में सरस्वती का महत्व सर्वोपरि है। दुर्गा सप्तशती में आदि शक्ति का क्रम है – काली, लक्ष्मी और अंत में सरस्वती। सरस्वती विद्या और कलाओं की अधिष्ठात्री है। इसी कारण मनुष्य मात्र के विवेक एवं कलात्मक क्षमता की प्रतीक है। प्रतीक है – मनुष्य के आत्म चैतन्य की। सम्पूर्ण सृष्टि प्रज्ञामात्रा, मनोमात्रा और भूतमात्रा से है। इन्द्रियानुगामी और प्रज्ञानुगामी मन की प्रक्रिया प्राण में केन्द्रानुगामी होकर अक्षर बनती है। प्राण तत्व ही ऋषि तत्व है। ऋषि तत्व अर्थात् परा चैतन्य। सरस्वती इसी की अधिष्ठात्री हैं।
भारतीय दृष्टि काव्य, साहित्य, संगीत, नाटक आदि सभी मानवीय उपलब्धियों का साध्य आनंद की उपलब्धि (ब्रह्मानंद सहोदर) मानती है। अध्यात्म साधना में तो आनंद को सत्, अद्वितीय, शुद्ध, विज्ञानधन, निर्मल, आदि, अनंत, अक्रिय और शाश्वत रस स्वरूप माना गया है। वह भाषिक भेदों से रहित, नित्य सुख स्वरूप, कलारहित, अरूप, अव्यक्त, अनाम, अक्षय स्वरूप एवं स्वयं प्रकाश्य है। भारतीय विद्वानों, चिन्तकों एवं मनीषियों के विचारार्थ प्रश्न है कि यदि “ आनंद “ का स्वरूप उक्त वर्णित है तो ऐसी स्थिति में साहित्य और कलाओं से आनंद की प्राप्ति किस प्रकार सम्भव है ?
पाश्चात्य विचारधारा साहित्यिक एवं कलात्मक सृजन की व्याख्या मनोविज्ञान के आलोक में करती है तथा उसे अवचेतन मन की वेगवती शक्ति के द्वारा समझना चाहती है। इसके विपरीत भारतीय दृष्टि साहित्यिक एवं कलात्मक सृजन की व्याख्या सामूहिक मन की भाव निर्मात्री शक्ति के आलोक में करती है तथा उसे समष्टि चित्त की समष्टिगत चेतना की अभिव्यंजना के रूप में ग्रहण करती है। भारतीय अध्यात्म परम्परा में तांत्रिक साधना में इसे “ सर्वात्मिका संवित् “ के नाम से पुकारा गया है। यह “ सर्वात्मिका संवित् “ काव्य, गीत, नृत्य, संगीत, नाटक आदि के आयोजनों में उपस्थित सहृदयों के चित्त में स्फुरित होती है और सर्वतन्मयी भाव को जाग्रत करती है।
यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या “ सर्वात्मिका संवित् “ सचमुच ही ब्रह्मानंद सहोदर होती है ? सम्प्रति, मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता मगर बलपूर्वक यह जरूर कहना चाहता हूँ कि भारतीय दृष्टि यह मानती है कि काव्य, गीत, नृत्य, संगीत, नाटक आदि व्यक्ति के अहं की संकुचित सीमा को तोड़कर एक प्रकार की विश्वजनीन चेतना के उदबोधक के रूप में कार्य करते हैं और आज इसी कारण मैं इनकी अधिष्ठात्री को नमन करता हूँ।
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Professor Mahavir Saran Jain
( Retired Director, Central Institute Of Hindi )
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