आंखों का जाल अच्छा होना भी कितनी बुरी बात है आज के जमाने में। ज्यादातर लोग एक खूबसूरत लड़की को बूरी नजर से ही देखते है। सोचते हुए इंटर स्...
आंखों का जाल
अच्छा होना भी कितनी बुरी बात है आज के जमाने में। ज्यादातर लोग एक खूबसूरत लड़की को बूरी नजर से ही देखते है। सोचते हुए इंटर स्कूल जा रही थी रश्मि। परेशानी का सबब रश्मि के लिए यह था कि चाहे पैंसठ पार के मिश्राजी हो या पचास पार के सिंहजी या तीस पार के वर्माजी, सभी की नजरें खा जाने वाली ही होती थी।
रश्मि को रास्ते पर चलते हुए लगता था कि उसके आगे-पीछे, उपर-नीचे, दांयें-बांयें आंखों का जाल सा बिछ गया है, जो बस उसे घूर रहा है। नहीं रश्मि का दिमाग खराब नहीं था, उसकी किस्मत खराब थी कि वो बला की जहीन थी, छरहरा नाजुक बदन, लंबे चेहरे पर झील सी बड़ी-बड़ी आंखें, स्याह पुतलियां, गुलाबी नाजुक होंठ, लंबी नाक, मुस्कुराते गालों पर दो गडढ़े, भरा हुआ सीना, कमर तक लहराते गेंसू जिसपर जीन्स और कुर्ती पहन कर गजब की खूबसूरत लगती थी वो। पर उसे क्या मालूम देखने वाले उसे कपड़े सहित कहां देखते थे। लोग आज गलत दिशा में अपने कल्पना चक्षु को खेल रखा है जहां सिर्फ नंगापन है अगर ऐसा नहीं होता तो हर दस मिनट में बलात्कार कतई नहीं होता।
खैर जो भी रश्मि को देखता देखता ही रह जाता। बूढ़े से लेकर जवान सिर्फ खा जाने वाली नजरों से उसे देखते थे। घूरने वालों की निगाहों ने रश्मि को समय से पहले जवान बना दिया था। घर से निकलते ही रश्मि खूद को आंखों की जाल में फंसी पाती थी। स्वच्छंदता के लिए तड़पती रहती थी रश्मि, क्या वो एक स्वतंत्र देश की नागरिक है उसे शक सा होता था।
रश्मि अपनी सहेली रागिनी को कहा करती थी कि ‘या तो भगवान मुझे खूबसूरत न बनाया होता या तो फिर पिता सरीखे लोगों को किसी खूबसूरत लड़की को देखने की तहजीब दिया होता।' आज भी रश्मि आंखों के जाल में फंसी कथित सभ्य समाज में छटपटा रही है।
अकेला
मनमोहन राय का मानना था कि उनकी अच्छी नौकरी, अच्छा तलब उन्हें समाज के अन्य लोगों से अलग करता है और उन्हें समाज के कमजोर लोगों से कोई लेना-देना नहीं है। समाज के कमजोर तबके के लोग स्वार्थी होते है और उनके जैसे अमीरों से समाजिकता के नाम पर सांठ-गांठ कर रूपए-पैसे ऐंठते रहते है। इनलोगों से दूर रहने में ही भलाई है।
घर में पत्नी और दो बच्चों को उन्होंने सभी सूख-सुविधा दे रखा था। रायजी अपने बढ़ते हुए बच्चों को घर पर ही मोबाइल फोन, क्म्प्यूटर, आईपैड, टेबलेट वगैरह से खेलते हुए रहने की ताकिद कर रखा था। मैदान में जाकर खेलना, दोस्त बनाने से अपने बच्चों को मना करते थे। उन्हें अपना परिवार के अलावा कुछ दिखता ही नहीं था, वे भूल गए थे कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उनके बच्चे, पत्नी एकांतवास से व्यथित रहते थे, इसका एहसास शायद उन्हें नहीं था या रायजी एकसास करना नहीं चाहते थे।
राज जी अपना बंग्ला शहर से दूर एकांत में ही बनवा रखा था। कार्यालय जाने के लिए राय जी की कार थी तथा बच्चे स्कूल दूसरे कार से अपनी माँ के साथ जाते थे। राय जी समाज से अपना और अपने परिवार का नाता तोड़ रखा था।
राय जी एक दिन अपने कार्यालय में अखबार देख रहे थे कि उन्हें पता चला कि शहर में मलेरिया और डायरिया फैला हुआ है। वे मन ही मन खूश हो रहे थे कि उनका घर शहर से दूर होने के कारण उनके यहां किसी तरह की बीमारी फटक ही नहीं सकती है। अभी वे सोच ही रहे थे कि फोन की घंटी बजी, रायजी ने फोन उठाया तो उनकी पत्नी कह रही थी कि स्कूल से लौटने के बाद उनका आठ वर्षीय पूत्र को बुखार आ गया है और वो उल्टी भी कर रहा है। आंखें लाल हो गयी है बच्चे की। राय जी तुंरत घर की ओर रवाना हुए और घर पहुंच कर पुत्र को शहर के अस्पताल में भर्ती करवाया। उस रात राय जी और उनकी पत्नी को अस्पताल में ही रूकना पड़ा तो उनकी छह वर्षीय बेटी अकेली कहां रहती लिहाजा पूरा परिवार उस रात अस्पताल में ही रहा।
बंगले में ताला लगाना पड़ क्योंकि घर पर काम करने वाली बाई का पति मौके-बेमौके रह जाया करता था परंतु आज वह भी मलेरिया की चपेट में आ चुका था इसलिए राय जी के घर के रखवाली के लिए रात में उनके घर में नहीं रह सका।
दूसरे दिन जब राय जी अस्पताल से घर गए तो देखा कि घर का ताला टूटा हुआ है और ऐसा मालूम हो रहा था कि किसी ने ठेले में लदवाकर घर का सारा सामान ढो कर ले गया है। राय जी के आंखों में आंसू छलक आए थे लेकिन उसे पोंछने वाला कोई साथ नहीं था, राय जी ने कभी समाज के किसी भी लोग से कोई सरोकार रख ही नहीं तो ऐसे वक्त में कौन आता आंसू पोंछने। राय जी एक-एक सामान चोरी हो जाने के बाद बिरान पड़े बंगले को देख रहे थे और अकेला महसूस कर रहे थे।
सुख
गुहिया अपने चार सुअरों को लेकर रोज जंगल चराने चला जाता। जंगल में सुअरों को चरने छोड़ देता और झूरी-लकड़ी जमा करने लगता, उसकी गठरी बनाता, छोटे-छोटे झाड़ियों से पौधे में फले चिंयाकोर को थैली में तोड़-तोड़ कर जमा करता और शाम होते-होते घर आ जाता। झूंरियां जलावन के काम आती और चियाकोर को गहिया की घरवाली सुगनी दूसरे दिन गांव के हाट में जाकर बेच आती। जिस दिन जंगल में चिंयाकोर नहीं मिलता गुहिया उस दिन सखूआ के पत्तों से दोना और पत्तल बना लाता और दोपहर को जब सुगनी मडुए की रोटी और प्याज और हरी मिर्च लेकर आती तो अपने बनाए पत्तल में मडुए की रोटी, प्याज और हरी मिर्च को बड़े प्रेम से धीरे-धीरे चबाता हुआ खाता और खाने के बाद एक लोटा पास में बह रहे छोटा झरना जिसे पिछहरिया दह के नाम से जाना जाता था के पानी को पीता और सखूआ पेड़ के छांव में आराम करता था।
गुहिया पढ़ा-लिख नहीं था और इसका उसे मलाल भी नहीं था। सुगनी जब अपने बेटे भीमा को पढ़ाने की बात करती तो गुहिया प्रतिकार तो नहीं करता था पर अपने बेटे को पढ़ाने का प्रयत्न भी नहीं करता था। गांव के सरकारी स्कूल में जब सुगनी अपने बेटे को भर्ती करवा आयी तो गुहिया अपने बेटे को कहा था कि बेटा पढ़-लिख कर तू भी उन बाबूओं की तरह हो जाएगा जो रिश्वत लिए बिना सांस ही नही लेते। भीमा छोटा था पहली कक्षा में उसका नामांकरण हुआ था लेकिन बमुश्किल महीने में दो-तीन दिन ही मास्टर साहब स्कूल आते थे। भीमा स्कूल जाता और कुछ देर स्कूल में इधर-उधर घूम कर बिताने के बाद सीधा जंगल की ओर अपने पिता गुहिया के पास चला जाता। गुहिया जब पूछता कि स्कूल से क्यों आ गया तो भीमा बताता कि मास्टर साहब स्कूल नहीं आए। स्कूल में दो मास्टर थे लेकिन दोनों ने गांव में दवा की दुकान और क्लिनिक खोल रखा था। स्कूल दिन भर में कभी चले जाते थे और हजारी बना लिया करते थे। तनख्वाह समय पर उठा लेते थे।
भीमा स्कूल कम जंगल ज्यादा जाने लगा था। जगंल जाने के बाद सुअर के पीठ पर गुहिया उसे बिठा दिया करता था और भीमा मस्ती में झूमते हुए कंधे में छोटा सा डंड़ा लेकर सुअर के पीठ में बैठा जंगल की सैर करता था। भीमा को जंगल में खेलने के लिए सुअर के अलावे गिलहरी, खरगोश, कई तरह के पक्षी थे जिसमें कब सुबह से शाम होता था भीमा को पता भी नहीं चलता था। रात को गुहिया महुआ का शराब पीकर जब बांसुरी बजाता था तो लगता था कि चांद-सितारे मस्ती में झूम रहे है। भीमा को बचपन से ही बांसुरी के धुन से प्यार हो गया था जिस दिन गुहिया ज्यादा शराब पीने के कारण बांसुरी नहीं बजाता था उस दिन भीमा बांसुरी को अपने पिता की तरह ही बजाने का अभ्यास करता थक जाता और सो जाता था।
गुहिया का पिता अनुपवा गांव के दीवान के यहां काम किया करता था। अनुपवा के मरने के बाद न तो जमींदारी रही और न दीवानी इसलिए गुहिया को अपने पिता की तरह दीवान के यहां काम करने का मौका नहीं मिला। हालांकि दीवान के यहां के लोग गुहिया को अपने साथ शहर ले जाना चाहते थे लेकिन गुहिया परोक्ष रूप से मना तो नहीं कर सकता था लेकिन शहर जाकर दो-एक दिन रहकर फिर गांव वापस आ जाता और जंगल की ओर रूख कर लेता था।
एक बार गुहिया को शहर ले जाने के लिए दीवानघर के एक बड़े ओहदे वाले अफसर गुहिया से मिलने उसके घर गए और शहर से बिना बताए उसके गांव आ जाने के कारण नाराजगी जाहिर करते हुए गुहिया को शहर चलने का आदेश दिए। गुहिया मन ही मन यह फैसला कर चुका था कि इस बार वह शहर नहीं जाएगा। अफसर साहब ने गुहिया को कहा कि तुम बेवकूफ हो हमारे साथ चलोगे तो तुम्हारी जिंदगी बन जाएगी। यहां जंगल में सुअर चराकर तुम्हें क्या मिलेगा, तुम्हारा बेटा भी बड़ा होकर सुअर ही न चराएगा। तुम अगर मेरे साथ चले गए तो बाद में तुम्हारा बेटा भी शहर आ जाएगा और वो भी आदमी बन जाएगा।
गुहिया बोला देखिए साब जी हम जंगल में सुअर चराकर जितना खुश है उतना शहर जाकर नहीं रह सकते। शहर में हमको सब पराया लगता है और जंगल में एक-एक पेड़, पौधा, झरना, पहाड़ सब हमारा रिश्तेदार लगता है। जब हम पेड़ के छांव में बैठ कर बांसुरी बजाते है तो जंगल का गिलहरी, भालू, मोर, कोयल सब सुनता है साब, रोटी-प्याज खकर जब झरना से पानी पीने जाते है न साब तो लगता है झरना अपने हाथ से पानी पीला रहा है। इधर हम बांसुरी में एक तान छेड़ते है उधर कोयल उसका जवाब देती है साब और हमारा बेटवा भीमा है न साब उसे भी जंगल के सब पेड़, पौधा, पशु, पक्षी, झरना, पहाड़ पहचानने लगा है साब, आप पूछ लीजिए भीमा से अगर हम झूठ बोलते हों तो साब।
इतना सुनने के बाद अफसर साहब को समझ में आ गया कि गुहिया और उसका बेटा भीमा को जंगल के सान्निध्य में जो सूख है वह कंक्र्रीट के जंगल शहर में कभी नहीं मिल सकता। भावना की कद्र करने वाले साहब जी ने गुहिया को कुछ नहीं कहा सिर्फ गुहिया को मिला हुआ नैसर्गिक सुख के बारे में सोचते हुए शहर की ओर चल दिए।
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंडा, गिरिडीह, झारखंड़ 815301
मो. 9471765417
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