मंजुला सक्सेना ने देसाकू इकेदा तथा रित्सुको कवाबाता की कविताओं का हिंदी में रूपांतरण किया है. प्रस्तुत है चुनिंदा कविताएँ - सूरज असाधा...
मंजुला सक्सेना ने देसाकू इकेदा तथा रित्सुको कवाबाता की कविताओं का हिंदी में रूपांतरण किया है. प्रस्तुत है चुनिंदा कविताएँ -
सूरज
असाधारण पर फिर भी साधारण ,
एक दिन भी नहीं
भूले अपने पथ पर गमन !
हमारी गति 'कौसान रफू ' की ओर
आधारित इस सिद्धांत पर -
'विश्वास प्रतिबिंबित होता देनिक जीवन में '
भी हो ऐसी ही !
प्रकाश और सर्वव्यापी शक्ति सूर्य की
है निःसीम, असीम,भव्य !
सूर्य मूलभूत शक्ति है जो
पालती -पोसती है सब को,
बिना इस ऊर्जा के पादप,जंतु और मानव
जी नहीं सकते एक दिन.
जनक सब प्राणियों का
सूर्य निहारता है
दयाद्र मनुष्य के तुच्छ विवाद और द्वन्द.
और फिर भी आलिंगन करता सबका
प्रतीक्षा रत समय का,सृजन करता समय का ,
गहनता से करता जाता अपने पथ पर गमन !
देसाकू इकेदा
भारत
दूरस्थ भारत
अमर आत्मा की शांतिपूर्ण मात्रभूमि,
आकर्षित करती रही अगणित लोगों को
हर काल और हर देश में !
गेटे कहते हैं प्रभावित और प्रेरित हुआ था
पुरातन नाटक 'शाकुंतलम' से
अपनी कृति 'फाउस्ट' रचने के लिए !
मनुस्मृति एक ग्रन्थ था उनमे से
जो नीत्शे पड़ता था भाव-विभोर हो !
हेर्डर,शौपेनावर,वाग्नेर और हैसे
मंत्रमुग्ध थे भारत के ज्ञान प्रकाश से !
शाक्यमुनि का विषद आत्मज्ञान
दर्शाता विराट
अंतर्जगत मनुष्य के भीतर का,
गौरवशाली उपलब्धियां
अशोक जैसे दार्शनिक सम्राट की
जिसने चाहा की साम्राज्य हो
करूणा और शान्ति का
धर्म की आधारशिला पर !
नियाग्रा
हे नियाग्रा !
हे भव्य निर्झर !
कैसा विराट है तेरा दर्शन !
लाखों धाराएं मिल रहीं गरजते जल प्रपात में,
बिखरती,उछलती,उमड़ती !
समाहित होती निसीम प्रवाह में .
भीगी चट्टानों की काया पर चमचमाता सूर्य का प्रकाश.
दूरस्थ चोटियाँ आच्छादित कुहासे से !
प्रवाह का तीव्र आवेग कम्पित करता
धरती के अन्तःस्थल को
प्रभावित करता झकझोर देता
हर अस्तित्व को.
अबाध बढ़ता,रुकता न एक पल.
किनारे खिले सुन्दर फूल और मृणाल भी
लगते कम्पित, भयभीत !
मैंने देखा यह अनंत असीम गर्जन .
मंत्रमुग्ध मैंने देखा प्रकृति के भव्य वैभव को
जो जीवन के अनंत प्रवाह की भाँती
प्रकट होता ,रहता स्पंदित ,झंकृत !
देसाकू इकेदा
नयी शताब्दी
अग्रदूत नयी सहस्राब्दी का
उदित होता पर्वत -श्रृंखलाओं से
जो प्रसारित होगा
नयी शताब्दी में !
सर्वप्रथम फेलता प्रकाश ,-
सूर्योदय हो रहा है !
अर्द्धशतक मैं जी चूका हूँ
मात्र पृथ्वी की परिक्रमा हेतु
आकाश में शांति-रश्मियाँ भरने के लिए
ज्योति से दुःख के अँधेरे को मिटाने के लिए,
पृथ्वी के मुखमंडल से !
तुम्हारा जो चढ़ चुके हो मेरे साथ
पर्वतों पर इस शताब्दी के
मेरे मित्रों समस्त भूमंडल के !
मैं फिर से करता हूँ आह्वान
समय आगया है छा जाने का
समस्त पर्वत श्रृंखलाओं पर
नयी शताब्दी की !
फैलाओ आशा की किरणें सारे संसार में
फिर से सहस्त्रों बार अन्दर व बाहर समाज के
और अपने परितः !
मैं आह्वान करता हूँ अपना भी जैसे तुम्हारा
फिर और फिर व्यापक और व्यापक
फैलाओ आशा की किरणें संसार और समाज
देसाकू इकेदा
नयी शताब्दी
जोड़ना व्यक्ति से व्यक्ति को और विचार से विचार को
प्लवन करना आगे -पीछे ,संस्कृतियों की धाराओं में,
जोड़ना सभ्यताओं को,भूत को - वर्तमान को
ये हमारा संयुक्त प्रयास है !
आशा के किरण -जाल पर
गुम्फित बुद्ध के मानव प्रेम से
ऐसे आएगा सुप्रभात
नयी शताब्दी में प्रवेश का जिसमे
दमन परिवर्तित होगा स्वातंत्र में ,
पार्थक्य परिवर्तित होगा विलय में ,
और विरोध बन जाएगा सह-अस्तित्व!
सहजीवन !
मित्रों और साथियों से मिलने के लिए
मैं करता रहूँगा यात्रा सारे विश्व की
ताकि मेरी निष्ठां करे सृजन
परस्पर सामंजस्य मानव समाज में
यही है उद्देश्य सत्य और सौहार्द्र का !
यही है परिणाम अंतिम ,संभाषण का .
और पुनः संभाषण का ,अतः मिलाएं हम हाथ
सामना करने को चुनोती, इस शतक के शिखरों की !
करें अंतिम प्रयास सम्मलेन को सुखद बनाने का
आशा से परिपूर्ण ज्यूँ ज्यूँ हम अग्रसर हो,
एक सफल व समृद्ध संभाषण की ओर
देसाकू इकेदा
सर्जक जीवन
कला , हे अमर -ज्योति
अविनाशी छाप, सभ्यता की !
गीत जीवन का,मुक्ति का,सृजन का, आनंद का !
उत्कट प्रार्थना,गहन सामंजस्य आधारभूत सत्य से ,
गोष्ठी मित्रों की,जहाँ लाखों प्राणी
मिलते हैं ,अभिनन्दन -अभिवादन करते हैं परस्पर !
किसी विद्वान ने कहा था पश्चिम के -
पूर्व है पूर्व और पश्चिम -पश्चिम .
किन्तु मिले जब दो महानायक
सीमायें -राष्ट्रीयताएँ हो जायेंगी विलुप्त !
तभी पूर्व के एक महाकवि ने लिखा -
पूर्व और पश्चिम का हो परिणय
वेदी पर मानवता की !
और ये है कला
आमंत्रण करती आत्मा का पसारे भुजा
शांत व सौम्य उपवन की ओर
जहाँ कल्पना उड़ती है पंख पस्सारे, आकाश में !
आमंत्रण करती ज्ञान के भव्य मंच की ओर
लेजाती आत्मा को दूरस्थ क्षितिज की ओर
सार्वभौमिक सभ्यता के !
देसाकू इकेदा
जापानी कवयित्री रित्सुको कवाबाता की पुस्तक -'wonder filled walking'
नन्हा सा ठीकरा
नन्हा गोल ठीकरा
मेरी निधी
स्कूल के रास्ते की !
केवल एक नन्हा गोल ठीकरा
बिलकुल सही खेलने को पांव-टिक्के का खेल .
एक जोर दार ठोकर से
लुडकता है ,पुडकता है ,ढुलकता है
तेज और,और तेज
नन्हा गोल ठीकरा .
और ज्यादा ठोकरों से
रुक जाता है गली में!
मुझे दीखता है अब स्कूल का गेट
खेल ख़तम !
मेरी जेब में दुबक जाता है
मेरा नन्हा गोल ठीकरा !
ज्वार
ज्वार पुरे जोर पर है अब ,
विचार उफनते हैं ,
गहनता से मस्तिष्क में .
बन जाते हैं लहर प्रचंड .
शब्द उमड़ते हैं
ज्वार पूरे जोर पर है अब
यही समय है सही !
रित्सुको कवाबाता
सन्देश मेरु- दंड का
मेरे योग शिक्षक का सूत्र !
सीधे पेट के बल लेट
बाहें बांधे माथे पर
मैं घुमती हूँ दायें -बाएं !
मेरुदंड से आती झनकार
जब ये घुमती है फर्श पर !
बाहें बांधे छाती पर
मैं घुमती हूँ दायें -बाएं .
मुझे सचमुच महसूस होती है उपस्थिति
मेरुदंड की !
रित्सुको कवाबात
पुलकित गमन
सिंदूरी केमिल्या बिखरे
गली में ,
मन करता है फुदकूँ
फूलों पर !
फूलों की झाडी
कलियों से लदी
उमगती है हर्षोल्लास से !
निहार कर नीलाकाश को
ज़ेल्कोवा वृक्ष के पार ,
पत्तों के पंख करते प्रस्फुरण
महसूस करती हूँ स्फूर्ति
वृक्ष के सशक्त स्कंध से !
आह गमन पुलकित !
सुनते हो क्या प्रकृति को ?
फूलों के स्वर ,
वृक्षों के प्रस्फुरण?
पहले रविवार की सुबह ,
बसंत ऋतु में
जाते समय गिरिजाघर!
रित्सुको कवाबाता
चीशें की पूं
चीशें बच्ची है दो साल की
चेहरा गोल जैसे कि - चाँद ,
आँखों में कौतूहल !
रविवार के भोजन के बाद का मौन
टूटता है अकस्मात
'पूं....."
मैंने नहीं किया कहती है बहन
हर बड़ा दबाता है अपनी हसीं
चीशें कि गोल आँखे पूछती हैं
सब क्यूँ हंस रहे हैं ?
वृक्षरोहन
चीशें
मंत्रीजी की सबसे छोटी संतान
एक दो साल की बच्ची है .
विश्वविद्यालय का लम्बा छात्र
एक ऊंचे वृक्ष सा लगता है
चीशें को .
उसकी टाँगे हैं वृक्ष का तना,
और उसकी बाहें ,- शाखाएं !
चढ़ते हुए ऊपर और ऊपर
जब तक पहुँचती है वह शीर्ष तक .
हम देखते हैं उसे थाम साँसे,
वह उतरती है भाई से नीचे
टाँगे लिपटाये
और हम सब बजाते हैं ताली .
चीशें की आँखों से झलकता है -
वृक्ष पर चढ़ना आसन हैं उसके लिए
यह इश्वर का वरदान है !
रित्सुको कवाबाता
समवेत गायन
हम गा रहे हैं भजन संख्या ३१२
मैं हूँ विद्यार्थी
छोटा भाई है शिक्षक हमारा !
हाल ही में संगीत अकादमी से स्नातक ,
वह प्रोत्साहित करता है हमें
अलापने को स्वर
स्वर और ऊंचे उठने दो !
मेरी मर्दानी आवाज़ आज सुर में है
कितना दक्ष निर्देशक !
कैसे चौकन्ने कान !
तुरंत पकड़ लेता है
हर स्वर को संगति में चार की .
गाते हुए बार - बार
मैं बन जाती हूँ निपुण
पेशेवर गायन में
पूरी तरह जोशीली
हा ले लुजः ....!
रित्सुको कवाबाता
क्षमा करना डन्डेलिओन
गिरिजाघर से वापस आते हुए
मैं गुज़रती हूँ डन्डेलिओन के बगीचे से !
झूमते पीले फूल
आकाश तक गाते हैं बसंत आ गया ..
कितने सारे डन्डेलिओन ,
कहीं रह न जाए ,
अतः मैं चुनती हूँ - तीन ,पांच ..सात
एक जड़ समेत भी .
तुरंत घर पहुँच कर
एक छोटे से फूलदान में मेज़ पर
डन्डेलिओन , लगते है शर्माए
क्या बात है ?
तुम दुखी हो क्या ?
सूर्य डूबते ही पंखुडियां समेटे
सो जाते हैं वे
क्षमा करना डन्डेलिओन
तुम खुश थे उसी बगिया में !
रित्सुको कवाबाता
रुपहले दंदेलियन
नहाए झुटपुटे के प्रकाश में
रुपहले रंग के दंदेलियाँ
प्रस्फुरित करते हैं कुछ
हरे मैदान में !
"अहा मैं फैला रहा हूँ पांख
अपने सर पर
खूब झबरीले !"
"तुम भी ? क्या नहीं ?"
"अहा, मैं भी ?"
"हम क्यों बदल रहे हैं ?
"लगता है मैं उड़ सकता हूँ !"
"क्या मैं उडूँ?"
उसी एक पल ,
एक स्वर उभरता है स्वर्गलोक से ,
"जब हवा बहती हो
हो जाना सवार उस पर !"
झबरीले दंदेलियाँ
कर रहे हैं प्रतीक्षा हवा की
धड़कते दिल से !
रित्सुको कवाबाता
अकेला प्योनी
एक अकेला प्योनी
उजाला मेरे कमरे का !
पंखुडियां जैसे कोमल रेशम
हल्का सिंदूरी रंग
बड़े दो चक्रों वाले प्योनी के दल
जैसे हो एक सुंदरी मेरे कमरे में.
केवल एक प्योनी है
मेरे कमरे में ,
देखते ही, शांत हो जाती हूँ मैं.
सुबह के समय
पंखुडियां कुछ ढीली सी हैं
पर यह अब भी खुश है
जैसे नाचती हो कोई सुंदरी !
यदि सुनें ध्यान से
समझ सकते हैं हम प्योनी की भाषा
"मैं सिर्फ खिलाना चाहता हूँ…
जब तक हो संभव …..
अपने अंदाज़ में,"
मुझे लिखना चाहिए प्योनी का सन्देश .
तीसरे दिन -
पंखुडियां मुरझा चुकी हैं
और फिर
गिरती जाती हैं एक एक कर ...
रित्सुको कवाबाता
टूटने पर
फटाक !
मेरी प्रिय कांच की चायदानी
प्योनी और हरे पत्तों के साथ
टूटी पड़ी है !
मात्र एक दंपत्ति के मतलब की
पुरानी यादें गत दस वर्षों की
आनंद लिया हर दिन इसकी खूब्सूरती का
थामे इसे अपने हाथों में,
दुःख है इसके खोने का .
ऐसी बढ़िया चायदानी
नहीं मिलेगी फिर ,
लेकिन खोजनी पड़ेगी नई,
टूटना किसी चीज़ का बुरा नहीं है इतना
यह अवसर है
नए के आने का !
रित्सुको कवाबाता
गिलास में पानी उड़ेलने पर
सुबह के समय
तीन नारंगी रंग के अन्ड़ेदान
मेज़ पर
तीन उबले अण्डों के साथ .
मेरा प्रिय नाश्ता
डेडी मेरे सामने बैठे हैं
ममा मेरे साथ ,
चलो शुरू करें ब्रेकफास्ट .
जैसे ही डेडी के गिलास में
पानी डालती हूँ
अन्ड़ेदानी बड़ी होने लगती है .
गिलास के पार.
अंडे भी बढ़ने लगते हैं
जैसे उछल रहे हों कप से बाहर !
ऐ लडके !
जैसे ही मैं उड़ेलती हूँ
पानी गिलास में
होता है ये जादू !
रित्सुको कवाबाता
होम रन
तड़ाक!
सफ़ेद गेंद उछलती है हवा में !
ज़ोरदार तालियाँ गूँजती हैं
ओह ओ ......
जब गेंद खो जाती है आकाश में .
दर्शक बौरा जाते हैं
लेकिन खिलाडी शांत है
ख़ुशी से झिलमिलाता !
काश लगा पाती मैं एक होम-रन ,
अगर मिलता मौका मुझे भी ,
मैं उछलती बल्ले को
अपनी पूरी ताकत से !
रित्सुको कवाबाता
सुबह
गर्मी की शुरुआत ,
मैं खोलती हूँ खिड़की दूसरे तल पर,
सूर्योदय से पहले हवा ठंडी है .
और पुकारती है मुझे ,-उठो! जागो !
मैं शांत बैठ लेती हूँ गहरी सांस
निकाल सारी हवा एक निश्वास में ,
झुकती हुई आगे
धीरे धीरे !
अगले ही पल
मेरे हरे भरे बगीचे की ताज़ी हवा
बहकर भर जाती है सीने में .
फिर से निकलती हूँ बासी सांस धीरे धीरे
आगे झुकते हुए .
और ताज़ी हवा को अन्दर लेते हुए
जैसे खड़ी होती हूँ सीधे !
चीं -चीं, चूँ -चूँ
मैं निगलती हूँ
चिड़ियों के स्वर भी
मैं जी रही हूँ
अब !
रित्सुको कवाबाता
मेरा चेहरा
हर सुबह
मैं देखती हूँ दर्पण में अपना चेहरा
कैसा विलक्षण है यह !
काले रेशमी बाल, छाये सर पर
दो आँखे,झरोखे आत्मा के
पलकें,खुलने -बंद होने को मुक्त
घनी भोंये आँखों का सटीक ढक्कन
ऊंची उठी नाक बीन्चों- बीन्च
मूंह जैसे पंखुड़ी गुलाब की
कान सजे दोनों ओर !
आँखे कहती हैं -यह दीखता है सुन्दर
नाक कहती है -यह गंध है अद्भुत
जीभ कहती है -यह स्वाद है बढ़िया
कान कहते हैं -यह आवाज़ है मधुर !
बाईबिल कहती है कि-
इश्वर ने बनाया मानव को
अपने जैसा .
कितनी बढ़िया रचना है
मेरा चेहरा !
रित्सुको कवाबाता
एक भुजंग
योगाभ्यास की कक्षा में
मैं लगाती हूँ भुजंगासन
लेटकर पेट के बल
प्रबाहू झुका फर्श पर
निकाल कर सांस बाहर .
मैं उठाती हूँ अपना सर
ठोढ़ी आगे की तरफ
गिनते महसूस करते
एक पसली,दूसरी पसली
आखिर में छाती उठा कर .
मैं लेती हूँ एक सांस
घुमाकर सर को
देख पाती हूँ केवल घास और मिटटी !
सिकोड़ते व फैलाते हुए
अपने पेडू की पेशियाँ
रेंगती हूँ आगे .
मैं महसूस करती हूँ दुनिया नाग - दृष्टि से
मैं रेंग सकती हूँ मिटटी में ,
दूर रो रहा है कोई?
आरहा है कोई दो पैरों पर ?
वह नहीं देख सकता कुछ भी ज्यादा दूर .
वह नहीं देख सकता कुछ भी ऊपर .
भयभीत
नाग रेंगता है आगे
वृक्ष के सिरे तक .
वह लेता है सांस सारे शरीर से .
एक पल में ,
उसका गला फूलता है
चश्मे सी धारियां उसकी पीठ पर
बदल जाती हैं बड़ी बड़ी आँखों में .
वह सम्हालता है अपना सर
जो की लगता है
तेज़ हंसिया/दरांती सा
वह नाग की एक चाल है
एक छद्म वेश !
रित्सुको कवाबाता
बिना मूंछों वाली बिल्ली
मैं बन जाती हूँ बिल्ली
दिन में एक बार !
चेहरा नीचे ,
हथेलियाँ फर्श पर ,
मैं तानती हूँ अपनी बाहें .
मैं बन जाती हूँ समुद्री शेर
'उठाकर अपने नितम्ब
मैं डालती हूँ सारा भार पीछे को .
मैं बन जाती हूँ एक ऊंट
बाहें पसारे
छूती है थोड़ी फर्श .
मैं सचमुच की बिल्ली नहीं हूँ ,
मेरे नहीं है बिल्ली सी मूंछ
लेकिन मैं बड़ी खुश हूँ ,
सोचकर की मैं बिल्ली हूँ ..
म्याऊं ....!
रित्सुको कवाबाता
नाख़ून
कितनी जल्दी मेरे नाख़ून जाते हैं बढ़ ?
कब काटा था पिछली बार इन्हें मैंने ?
मैं नहीं खाती कभी खाना
इतनी मेहनत से जैसे के नाख़ून .
मैं खाती हूँ मछली
रोज़ और एक गिलास ढूध.
मेरी माँ बताती है मुझे
इससे होती हैं हड्डियाँ मज़बूत
कैसे मेरा शरीर
बदल देता है इन चीज़ों को
ऐसे सख्त नाखुनो में?
रित्सुको कवाबाता
स्मरण- शक्ति
मैं ओजोनी के लिए सेरी पका रही हूँ ,
इसका एक हरा कोमल तना है
सफ़ेद नीचे से .
बैंगनी,हरी पत्तियां
जैसे ही काटती हूँ इसे चाक़ू से
खेतों की तेज़ खुशबू
बस जाती है हर ओर मेरे .
याद दिलाती उन दिनों की
मेरे अपने शहर की
लहलहाती सेरियां निर्मल जलधारा में ,
जोड़ती दो चोटियों को
सोप्पोरो में मदमस्त त्सुकिसमु पहाड़ की .
मेरे बचपन में
गयी थी मैं, माँ के साथ चुनने सेरियां
वह पहने थी किमोनो, हल्का भूरा धारीदार
अब सोचती हूँ की वह केवल
बत्तीस साल की थी तब .
हैरान हूँ मैं कि क्यूँ वह दृश्य
इतना पुराना
चौंध रहा है मस्तिष्क में !
कितने गहरे छपा है यह मेरी यादों में !
रित्सुको कवाबाता
पुनरावृत्ति
"अंतर्राष्ट्रीय मानसिकता जगाओ "
मैं कहती हूँ अपने पुराने विद्यार्थियों से
सेवा निवृति के बाद
शुरू किया मैंने पढ़ना अंग्रेजी .
एक दिन कक्षा में ,
देखा मैंने हवाई-जहाज़
"आई ?"
नहीं "ऐ".
अकस्मात कोई तार मेरे दिमाग का
जुड़ जाता है पुरानी यादों से .
गूँजती आवाजें
एक स्कूली बच्ची क़ी आवाज़
"ऐरो- ऐ, इ, आर, ओ,
प्लेन -पी,एल ,ऐ ,एन ,ई .."
लिखने में -
ऐ, इ, आर, ओ,
पी,एल ,ऐ ,एन ,ई .."
बोलने में -
एरोप्लेन .
आहा इस तरह
मैं सीखती हूँ शब्द मन लगा कर
जोड़ कर यादों से
उभरती है ज्ञान की बातें
जैसे के कंप्यूटर से !
रित्सुको कवाबाता
स्वयं से बात
बहुत व्यस्त रही मैं
अंततः निबट गए सब काम
नहा सकती हूँ मैं अब
मलते हुए आराम से अपना शरीर.
रग - रग को रगड़ने से
कितना मैल निकलता है!
किन्तु ये हैं मेरी कोशिकाएं .
हैरान हूँ कि कैसे कोशिकाएं
लेती हैं पुनर्जन्म ?
दिन प्रति दिन .
बिना आभास दिए
नयी कोशिकाएं जन्मती हैं
पुरानी मर जाती हैं .
बाईबल कहती है ,-"तुम मिटटी हो
और मिटटी में मिल जाओगे "
सचुमच करती हूँ मैं विश्वास अब !
रित्सुको कवाबाता
पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण
बसंत का नवागमन ,
मैं हूँ आरोहण पर सागर के अतुल वैभव में,
बड़ते हुए पोत में दक्षिण की और गौम से .
आकाश फैलता जा रहा है शांत चुपचाप
सागर हो रहा है विशाल अंतहीन
आच्छादित गहरे नीले फेन से
जैसे हो काया किसी जलचर की !
क्या सचमुच सागर मात्र जलराशि है ?
मैं कड़ी हूँ छज्जे पर पोत के
पृथ्वी तल से अट्ठारह मीटर परे
मैं हूँ बाहर पृश्वी से .
क्षितिज है एक विशाल वृक्ष
सागर नहीं है समतल .
जमघट जल;बूंदों का बना रहा वक्र
क्यों नहीं उफनता जल ऊपर ?
कैसा अद्भुत है पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण !
मैंने जाना था मात्र शब्दों में .
अब,
विश्वस्त हूँ मैं इस नैसर्गिक प्रक्रम को
देख अपनी आँखों से !
मैं हूँ जहाज में बिलकुल बीच
दक्षिण प्रशांत महासागर में
अक्षांश १४४ पूर्व
देशांतर १२ उत्तर पर !
रित्सुको कवाबाता
बिगुल बजाते फूल
बिगुल बजाते फूल
एक गमले में
जैसे हो प्रहरी
मेरे द्वार के !
चार बिगुल बजाते फूल
उभरते पत्र्चक्रों से
बड़े , श्वेत
लटक रहे हैं नीचे !
"सुप्रभात "
जैसे बहता है पानी धीरे धीरे
मेरे फब्बारे से !
बिगुल बजाते फूल भर जाते हैं नई स्फूर्ति से
यही ऊर्जा समां जाती है मुझ में
वे लगाते हैं मेला शहनाइयों का
हाँ यह शुरुआत है एक नए दिन की !
रित्सुको कवाबाता
मोर्निंग ग्लोरी
सूर्योदय से पहले
जाते हुए पात्र पेटी की ओर
हूँ आनंदमग्न शांत शीतल पवन के !
एक नन्हा बैंगनी फूल
शाखा पर
शहनाई बजाता स्वागत में नए दिन के !
एक नन्हा लाल फूल
बजाता है धुन जीवन राग की !
इन सुबह के क्षणों में
मोर्निंग ग्लोरी के साथ
मैं गा रही हूँ
सुबह का राग !
घूरना एक बिदु को
मैं करती हूँ योगाभ्यास
बन जाती हूँ एक सारस !
मेरी फैली बाहें हैं पंख
खड़ी हो कर बायीं टांग पर
बाहें ऊपर-नीचे फड़फदाती
बनाने को संतुलन !
एक बिंदु दीवार पर
गति हो जाती है बद्द जैसे ही
मेरी दृष्टि जमती है !
जमाये दृष्टि उस बिंदु पर
लम्बे समय तक
मैं हूँ एक सारस !
रित्सुको कवाबाता
सिलवट रहित
दादी माँ के हाथ पर झुर्रियां हैं
ध्यान से देखती हूँ अपना हाथ
"ओह मेरा,इस पर भी हैं झुर्रियां! "
गहरी झुर्रियां
हर जोड़ पर
हो जाती हैं गायब जब करती हूँ बंद हाथ .
"त्वचा सिलवट रहित है "
त्वचा लपटी है मेरे हाथ पर
मात्र एक त्वचा लिपटी है हाथ पर !
जब मैं पलटती हूँ अपना हाथ
मेरी हथेली लगती है सपाट
जोड़ों पर हैं रेखाएं !
हतप्रभ मैं सोचती हूँ
मेरे हाथ की सतह
कोमल है और पतली !
यह एक सार है सिलवट रहित !
रित्सुको कवाबाता
बादल में साईकिलिंग
मुझे भाता है साइकिल चलाना सुनहरे दिन में
चलाते हुए साइकिल तेजी से
मेरी आँखें जैसे हों एंटीना .
मैं मारती हूँ पैडल ताबड़तोड़
पूरे जोशोखरोश से
एल्म वृक्षों की कतार जाती है पीछे छूट!
पास आते ही हरे मैदान के
हो जाती हूँ धीमे, लेने विश्राम.
क्या धकेल रहा है मुझे ?
यह हवा है ..
महसूस करती हूँ हवा अपने पीछे .
मुझे भाता है साइकिल चलाना
किसी सुनहरे दिन में
बैठना मैदान में .
पोंछते हुए बहता पसीना .
उसी पल
एक जेट गरजता है ऊपर
छोड़ते हुए पीछे सफ़ेद लकीर
नीले आकाश में .
काश मैं चला पाती साइकिल आकाश में
बैठकर साइकिल पर गुजरती आकाश से
कैसे दिखेंगे बादल जो उमड़ेंगे
गहरे नीले आकाश में ?
मछली बन कर
में लगाती हूँ मत्स्यासन योगाभ्यास में
लेट पीठ के बल
तान कर शरीर.
सिरे मेरी टांगों के
हैं पूंछ और पंख मछली के .
में मोड़ती हूँ बाहें ,
मेरे उँगलियों के पोर हैं आगे के पंख
झुकते हुए पीछे ठोड़ी उठा ऊपर .
छूता है मेरे सर का केंद्र
धरती को .
अकस्मात
देख सकती हूँ पीछे .
"अहा ,मैं देख सकती हूँ आगे .."
अनजाने ही मैं बन जाती हूँ मछली
तैरती फिरती नदी में .
मेरा सर घूमता है फुर्ती से
आगे बढ़ता सरलता से .
मैं हिलाती हूँ अपनी दुम और पंख
बढ़ते हुए आगे तेजी से .
लहराओ दायाँ पंख,मुढ़ जाओ बाएं .
पानी से होकर आता प्रकाश
झिलमिला कर नाचता है .
एक चिढिया उड़ बैठती है पेड़ पर
वह घूरती है नदी में .
ओ ! वह देख रही है मुझे !
मैं तैर जाती हूँ अँधेरे में .
पानी में उगे पोधों के नीचे डर कर .
कोई देख रहा है नीचे ..
मुझे पानी के अन्दर ..
मुझे लगता है जीना धरती पर
बेहतर है जीने से पानी मैं .
पंख बन जाते हैं फिर से हाथ-पैर ,
और खड़े होकर
मैं बढ़ाती हूँ कदम सशक्त .
यह अद्भुत है -
मैं हूँ एक मानव
शून्य
आगे वाला मकान तोड़ दिया गया .
तीस वर्षों का इतिहास होगया धूल धूसरित
कुछ भी शेष नहीं है
बस रह गया है शून्य .
मैं देख सकती हूँ आधारभूमि
अपने दूसरे तल के दालान से
मैं देखती हूँ -
पश्चिमी आकाश विस्तृत है
कुछ नहीं करता अवरुद्ध मेरी दृष्टि
नीले आकाश तक
ब्रह्मांड लगता है कुछ और निकट
कुछ भी नहीं है कृत्रिम धरती पर
शून्य सर्व श्रेष्ठ है !
शून्य अंत है और आरम्भ भी .
रित्सुको कवाबाता
श्वेत साईंक्लामें
श्वेत साईंक्लामें के फूल एक गमले में,
समर्पित मेरी बहन की आत्मा को
मेरे परम प्रिय मित्र की ओर से .
तने के छोर पर
एक कलिका
जैसे की चोंच शिशु पक्षी की .
ताकती है नीचे और
लगती है खिलने .
मार्च के महीने में
धूप भरे आँगन में
श्वेत साईंक्लामें के फूल
देखता है एक शिशु पक्षी
उड़ता ऊपर
लुकाट के पेड़ से .
काश में उगा पाती पंख !
आकाश में
उस पक्षी की तरह .
श्वेत साईंक्लामें का फूल
पसारता है अपनी पंखुडियां
और बस उड़ने जा रहा है .
रित्सुको कवाबाता
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