अर्जुन प्रसाद की कहानी - शेषनाग

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शेषनाग क्वार का महीना था। कृष्णपक्ष की काली अंधेरी रात थी। आसमान बिल्कुल साफ था। मौसम बड़ा आनंददायक और सुहावना था। शरद ऋतु का शुभागमन कुछ-क...

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शेषनाग

क्वार का महीना था। कृष्णपक्ष की काली अंधेरी रात थी। आसमान बिल्कुल साफ था। मौसम बड़ा आनंददायक और सुहावना था। शरद ऋतु का शुभागमन कुछ-कुछ हो चुका था। दस बजे होंगे। मैं अपने परम मित्र आनंद के घर से दावत में नाना प्रकार के व्यंजनों का भरपूर स्वाद लेकर गुनगुनाता हुआ अपने घर वापस आ रहा था। स्वादिष्ट भोजन से आत्मा तृप्त थी। पूरी, सब्जी, गाजर का हलवा। उस पर दही-बड़ा और रायते का क्या कहना ?

दावत में एक से बढ़कर एक मनपसंद व्यंजन शामिल थे। देशी घी में तली गई पूरियों से वातावरण सुगंधित हो रहा था। मटर, पनीर और आलू-कोफते की भाजी भी बड़ी लजीज थी। जी में बार-बार यही आता था कि काश! ऐसा भोजन रोज मिले। बासमती चावलों की महक ऐसी कि वाह ! क्या कहने ? खाने वाले लोग तारीफ पर तारीफ किए जा रहे थे।

एक भुक्खड़ सज्जन तो यहाँ तक कह दिए कि अरे, भाई आनंद जी ! सत्यनारायण जी की कथा महीने में कम से कम एक बार अवश्य होनी चाहिए। इससे इसी बहाने मित्रों को तरह-तरह के पकवान तो खाने को मिल जाया करेंगे। मैं मस्ती में गाता हुआ चला जा रहा था। किन्तु, बादल घिर जाने से मौसम अचानक उष्ण हो गया। यकायक भीषण गर्मी पड़ने लगी। ऐसे वक्त में वह भी बढ़ती गर्मी से छुटकारा पाने के लिए हवाखोरी करने निकल पड़ा। हवा खाने से उसके मन को कुछ शांति अवश्य मिली होगी।

लेकिन, उसकी हिम्मत तो देखिए। सारी जगह छोड़कर बीच रास्ते में ही आकर लेट गया। घमंडी कहीं का। पता नहीं, सीधे-सादे लोगों को डराने में उसे इतना आनंद क्यों आता है ? मानो, घास-फूस में रहते-रहते उसकी बुद्धि भी घास चरने चली जाती है। समझदार होकर भी दूसरों को भयभीत करता फिरता है। यह कोई शराफत थोड़े ही है। दूसरों का प्रसन्नचित मुँह उदास बनाकर खुद आनंदित होना कोई भलमनसी नहीं है। यह सरासर कुटिलता है। इतनी उग्र कठोरता भी किस काम की ?

दिन में उसका नाम सुनकर कोई विशेष भय तो नहीं होता। पर, रात में कोई उसके नाम का शब्द भी सुनना पसंद नहीं करता। उसे देखना तो बहुत दूर की बात है। काली, अंधेरी रात में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता। उसका नाम सुनकर ही पूरा शरीर झनझना उठता है। एक बार उसके नाम का भय व्याप्त हो जाने पर रातों की नींद हराम हो जाती है। क्योंकि, बिना पैर के भी उसकी चाल घोड़े से तेज होती है। उसके विषप्रभाव के कारण उसका नाम सुनते ही लोग सन्न हो जाते हैं। वे थर-थर काँपते हैं।

वैसे तो स्वभाव से वह बहुत कायर होता है। आहट पाते ही दुम दबाकर भागता है और जान बचाने के लिए इधर-उधर छिप जाता है। छेड़ने पर ही वह किसी को काटता है। वह इतना समझदार होता है कि अकारण ही कभी किसी को मामूली सी भी हानि नहीं पहुँचाता। फिर भी, उसका जीवन सदैव हिंसायुक्त ही रहता है, हिंसामुक्त कभी नहीं।

चाँदनी रात होती तो शायद, मैं उसे देखकर अपना रास्ता बदल लेता। क्योंकि अड़ियल प्राणी से बचकर निकल जाना ही अक्लमंदी है। पर, कुशल यह कि मेरा पैर उसकी छाती पर न पड़ा। वरना, मु-ो कष्ट तो होता ही, उसे आत्मग्लानि भी होती। सौभाग्य से मेरा पाँव उसकी पीठ पर पड़ा। मैं बिल्कुल चौंक गया और अपना पैर झटके से पीछे हटा लिया।

अब जरा उसकी उस्तादी तो देखिए ! उसके बदन में तुरंत मानो, बिजली सी दौड़ गई। उसने झपटकर मेरा पाँव बिल्कुल वैसे ही पकड़ लिया, जैसे कबीर ने रामानंद स्वामी का पैर कसकर पकड़ लिया था।

यह देखकर मैंने बड़ी विनम्रता से उससे कहा-मित्र इस समय खेत-खलिहान फसलों से भरपूर है। बाग-बगीचे भाँति-भाँति के फूल और फल से लदे हुए हैं। चारों ओर हरियाली ही हरियाली है। इन सबको छोड़कर मु-ो इस प्रकार मुसीबत में डालने के लिए तुम चोरों जैसे छिपकर क्यों बैठे थे ? मैं अज्ञानी तुम्हें कोई ज्ञान नहीं दे सकता। तुम तो खुद बहुत बड़े ज्ञानी हो। मेरा पाँव छोड़ो। देर हो रही है। मुझे घर जाने दो। तुमने मेरी दावत खाने का सारा मजा अनायास ही किरकिरा कर दिया। क्या यह भी कोई सज्जनता है ?

लेकिन, वह भी पूरा घाघ था। वह इतना जिद्दी निकला कि मेरी एक भी बात सुनने को कतई तैयार न था। मानो, कोई जन्मजात बहरा हो। अपनी जान संकट में देखकर कुत्ता भी अड़कर खड़ा हो जाता है। वह पलटकर गुर्राने लगता है। मेरे मस्तिष्क में मृत्यु भय ने शक्ति उत्पन्न कर दी। बल का संचार होते ही मैंने तय किया कि इसे जो कुछ करना था, कर चुका। अब यह मेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकता। अतःअब डरने से क्या लाभ ?

साथ ही मैं अपना पैर उससे छुड़ाने की कोशिश भी करने लगा। उसे ज्यों-ज्यों अलग करने का प्रयास करता, उसके बाहुपाश का बंधन और भी मजबूती से मेरे पैर को कस लेता। इस प्रकार हम दोनों को संघर्ष करते-करते करीब दो घंटे बीत गए। रात के साढ़े बारह बज गए।

पर, दोनों में से कोई भी हार मानने को तैयार न था। वह अपने अहंकार के नशे में चूर था तो मैं अपने स्वाभिमान पर अड़ा हुआ था। एक-दूसरे के सामने झुकना किसी को पसंद न था। अपने प्रति उसकी ऐसी उपेक्षा देखकर मुझे उससे घृणा सी होने लगी। मु-ा जैसे अनाड़ी शिकारी को जाल में स्वयं ही फँसा देखकर शायद, वह मन ही मन प्रसन्न हो रहा था।

यद्यपि वह अभी तक मुझे कोई हानि न पहुँचा सका था। वरना, अब तक तो हमारे होश ठिकाने आ गए होते। इसलिए मैं भी उसे कोई नुकसान न पहुँचाना चाहता था। इस धर्म संकट के नाते मेरी समझ में कुछ भी न आ रहा था कि क्या करूँ?

इसी उधेड़बुन में मैं एक पैर पर तप मुद्रा में खड़ा था कि एक सज्जन विष्णु दत्त जी नींद से जाग गए। सवा बजे रात को अंधेरे में मुझे चुपचाप मूर्तिवत खड़ा देखकर वह सशंकित हो उठे। पास आकर उन्होंने मुझसे पूछा-कौन? कौन है वहाँ?

मैं बिल्कुल चुप रहा। क्योंकि, मैं नहीं चाहता था कि हम दोनों के बीच कोई तीसरा आकर अपनी टाँग अड़ाए। फिर, गाँव वाले भी अपने जानी दुश्मन को पाकर भला कब छोड़ने वाले थे? वे उस बेचारे को पीट-पीटकर मार ही डालते। देखते ही उसका सिर कुचल देते। इतना ही नहीं, जल्दबाजी में बिना सोचे समझे मेरी टांग का भी बुरा हाल कर देते। अपने ऊपर आक्रमण होता देखकर वह भी मुझे न बख्शता।

आखिर, उनका बदला वह मुझसे ही तो लेता। परिणाम यह निकलता कि हम दोनों को अपने-अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता। मेरा कोई उत्तर न मिलने पर विष्णु दत्त का संदेह बढ़ गया। शायद, उन्होंने मुझे कोई चोर, बदमाश समझ लिया। वह दबे पाँव पीछे लौट गए और टिमटिमाते हुए लालटेन की लौ बढ़ा दिए। इसके बाद वह लालटेन लेकर मेरे पास आने लगे तो यह मुझसे सहन न हुआ।

मैंने उनसे कहा- देखिए ! इधर न आएं, उधर ही रहें। क्योंकि, प्रकाश से उसे बड़ा कष्ट होता है। लोग कहते हैं कि वह कभी-कभी अंधा भी हो जाता है। इसलिए उसे नाराज करना किसी खतरे से खाली न था। जानबूझ कर जान जोखिम में डालना मूर्खता है।

मेरी आवाज पहचानते ही विष्णु दत्त वहीं रूक गए और बोले- अच्छा ! तो तुम हो। अरे, भाई ! आवाज देने पर बोले क्यों नहीं? मैंने तो कुछ और ही समझा। इतनी रात में अकेले यहाँ क्यों खड़े हो? क्या कोई मंत्र जगाने का बिचार है?

मैं बोला- हाँ, कुछ ऐसा ही सम-ा लीजिए। कृपा करके आप यहाँ से तशरीफ ले जाएं। तब तो मैं कुछ करूँ। प्लीज, मेरे काम में रोड़ा न अटकाएं। वरना, मेरी सारी मेहनत निष्फल हो जाएगी। जैसा हम जानते हैं कि मनुष्य स्वभाव से ईर्ष्यालु होता है। दूसरों की प्रगति देखकर जलता है। वह सेर भर खाया हुआ भोजन तो पचा सकता है। पर, छोटी सी बात नहीं। विष्णु दत्त खुद तो उस वक्त वहाँ से हट गए।

लेकिन, चुपके से अपने परिवार को जगाकर सतर्क कर दिए। उनके घर वालों ने बड़ी उत्सुकता से अन्य सभी पड़ोसियों को जगा दिया और बोले- मामला बड़ा गड़बड़ है। यह सुनते ही एक-एक कर सारे मोहल्ले के लोग मेरे चारों ओर जमा हो गए। अब मेरी सूरत देखने लायक थी। मुझे बड़ी ग्लानि हुई। मेरे आगे कुँआ था तो पीछे खाई। सामने संदेहमय सैकड़ों आँखें मुझे घूर रही थीं। दूसरी ओर उसने मेरा पैर जकड़ रखा था। जितने मुँह उतनी बातें होने लगीं।

कोई कुछ कहता तो कोई कुछ। कोई कहता कि अरे, यह तो बड़े सज्जन हैं। इनसे कैसा घबराना? तो कोई कहता- यदि, इन्हें मंत्र ही जगाना था तो क्या हम लोगों का हर वक्त का रास्ता ही इन्हें मिला था?

कुछ लोगों ने कहा- अरे यार, इनका चक्कर छोड़ो। चलो सोएं। इन्हें किसी देवी ने निमंत्रण दिया होगा। विघ्न मत डालो। इन्हें दूध, मलाई खाने दो। हम सब अपनी नींद क्यों खराब करें? मैं चुपचाप उनका व्यंग्यबाण सुनता रहा। क्योंकि, जब एक ही साथ बहुत से लोग किसी की आलोचना करने लगें तो उस समय चुप रहना ही उत्तम है।

इसी उहापोह में मेरे ऊपर चारों ओर से टार्चां और लालटेनों की रोशनी पड़ने लगी। अब उसे छिपाना मेरे लिए बड़ा कटिन हो गया। प्रकाश देखते ही वह अपनी गर्दन हवा में लहराने लगा। जीभ लपलपाने लगा। तभी एक तगड़ा नौजवान चिल्ला उठा- साँप, साँप । इतना सुनते ही भीड़ में भगदड़ मच गई। लोग गिरते-पड़ते भागने लगे। कोई किधर भागा, कोई किधर। देखते ही देखते चारों ओर कोलाहल मच गया।

तभी एक व्यक्ति बोला- बाप रे बाप ! इतना बड़ा..। फन तो देखो जरा। साक्षात शेषनाग है। तभी दूसरे आदमी ने पूछा-कहाँ है? किधर है? उस हृष्ट-पुष्ट जवान के हाथ में भाला था। वह मेरे पैर की ओर संकेत करके बोला-यहाँ है, इनके पैर पर। अब मेरे एक पाँव पर खडा़ रहने का सारा राज खुल चुका था। यह स्थिति देखकर सबको अपने संदेह पर पश्चाताप होने लगा। पल भर में सबकी मनोदशा बदल गई। उनकी आँखें लज्जा से झुक गईं। कुछ लोग धीरे से खिसक कर अपने घर चले गए।

शंका में मनुष्य जाने क्या-क्या सोचने लगता है। मैं भी इतनी देर तक उससे संघर्ष करने के बाद बिल्कुल थक गया था। इसलिए अपने उस पैर को धीरे से जमीन पर रख दिया। वह बड़ी फुर्ती से मेरा पैर छोड़कर धरती पर उतरते ही हरी-भरी घासों के बीच में जाकर छिप गया। उसके प्राण पखेरू बच गए।

मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हुआ अपने घर की ओर चल पड़ा। तब मुझे ध्यान आया कि उसके भय के कारण ऊपर हवा में टंगा हुआ अपना पैर यदि मैं पहले ही नीचे रख देता तो शीघ्र छुटकारा मिल जाता। पर, घबराहट में मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है आखिर, मेरी और शेषनाग दोनों की जान बच गई। किसी ने किसी को कोई नुकसान न पहुँचाया।

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रचनाकार: अर्जुन प्रसाद की कहानी - शेषनाग
अर्जुन प्रसाद की कहानी - शेषनाग
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