आलेख कुत्ते और हिरण डॉ. रामवृक्ष सिंह दिनांक 21 जनवरी 2013, चिड़ियाघर, कानपुर। समय दोपहर एक बजे। चिड़ियाघर की टूटी हुई दीवार में से दो क...
आलेख
कुत्ते और हिरण
डॉ. रामवृक्ष सिंह
दिनांक 21 जनवरी 2013, चिड़ियाघर, कानपुर। समय दोपहर एक बजे। चिड़ियाघर की टूटी हुई दीवार में से दो कुत्ते हिरणों के बाड़े में घुस गए और एक-दो नहीं, बल्कि कुल इकत्तीस हिरणों की जान ले ली। इससे एक दिन पहले भी वे पाँच हिरणों को मार चुके थे। किन्तु चिड़ियाघर के कर्मचारियों ने पहले दिन वाली बात उच्चाधिकारियों से छिपा ली थी और पाँचों हिरणों के शव इधर-उधर दफना दिए। लिहाजा जिस व्यवस्थागत कमी को पाँच हिरणों की मौत के बाद ही दूर किया जा सकता था, वह कमी यथावत बनी रही और एक मानवीय भूल का खामियाजा इकत्तीस और हिरणों को अपनी जान देकर चुकाना पडा। बाड़े में कुल कितने हिरण थे या हैं, यह संख्या भी किसी को ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है। अनुमान है कि लगभग चार-साढ़े चार सौ हिरण यहाँ होंगे। भारत जैसे भ्रष्ट देश में क्या यह संभव नहीं है कि कुछ लोग इन्हीं हिरणों में से एकाध को चुपके से मारकर खा जाते हों और किसी को कानों-कान खबर भी न होती हो। हिरणों की ठीक-ठीक गिनती नहीं होने या अराजकता और अनिश्चितता का फायदा उठाने से हमारे भ्रष्ट लोग भला बाज क्यों आने लगे! खैर..।
कुत्तों की हिंसक एवं शिकारी प्रवृत्ति किसी से छिपी नहीं है। कई बार सुनने में आया है कि अपनी स्वामी-भक्ति के लिए सुख्यात कुत्ता अपने गरीब और अभावग्रस्त मालिक के साथ-साथ बना रहा। और जब मालिक भूख से मर गया तो कुत्ते ने उसका मृत शरीर खाकर अपनी भूख मिटा ली। शायद कुत्तों के संसार में यह भी स्वामी-भक्ति की अभिव्यक्ति का ही कोई तरीका हो। डिस्कवरी आदि चैनलों पर हम प्रायः देखते हैं कि गुट बनाकर शिकार करने में कुत्तों का कोई सानी नहीं। लिहाज़ा अपने हिरणों और हिरणियों का हिंसक कुत्तों से बचाव करने की व्यवस्था चिड़ियाघर प्रशासन को करनी चाहिए थी। चूंकि उनकी बचाव-व्यवस्था में कोई कमी रह गई इसलिए उसकी कीमत बेचारे हिरण-हिरणियों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ गई।
अब इस प्रकरण को ज़रा मानव-समाज पर लागू करके देखते हैं। शिकारी प्रवृत्ति तो इन्सानों में भी कम नहीं है। बुनियादी तौर पर इन्सान भी करोड़ों सालों तक शिकार-निर्भर जानवर ही रहा है। बाद में वह खाद्य-संग्राहक और खाद्य उत्पादक की भूमिका में आ गया। लेकिन शिकार करने की आदत इन्सान के गुणसूत्रों में कहीं न कहीं आज भा दबी हुई है। अब भी दुनिया के नक्शे पर ऐसे मानव-समाज हैं, जहाँ लोग भोजन के लिए शिकार पर ही निर्भर रहते हैं। सभ्य समाजों में भी कहीं-कहीं ऐसे जन-समुदायों की बस्तियाँ मिल जाती हैं। बुनियादी तौर पर शिकार की प्रवृत्ति तो आधी से अधिक मनुष्य प्रजाति में आज भी विद्यमान है। यदि ऐसा न होता तो आज भी दुनिया की अधिसंख्य आबादी केवल अपने शौक के लिए माँस-खोर न होती, क्योंकि दुनिया में शाक-भाजी और खाद्यान्नों की इतनी मात्रा तो हर समय मौजूद रहती है कि इन्सानों को मजबूरी में तो माँस कतई नह खाना पड़े।
मनुष्य का शिकारी होना आज भी बड़े गर्व और सम्मान की बात मानी जाती है। वन्य-जीव संरक्षण संबंधी कानून बनने से पहले माँसाहार से परहेज करनेवाले राजा-महाराजा भी केवल अपनी वीरता दिखाने के लिए निरीह जानवरों का बंदूक से शिकार करते थे और उनकी खालें अपने महलों की दीवारों पर शील्ड की भांति लटकाकर रखते, ताकि जो भी देखे वह उनकी वीरता का लोहा माने। अब वन्य जीवों के शिकार पर रोक है, किन्तु वीरता के वे पैमाने अब भी बदस्तूर कायम हैं। वन्य-जीव संग्रहालयों में भी ऐसे भुस्सा-भरे जानवरों के साथ उनके शिकारियों के फोटो लगे दिख जाते हैं, जो प्रकारान्तर से उनकी वीरता का ही बखान करते हैं। सभ्य समाज में सिविलियन लोग भी बिना किसी ज़रूरत के बंदूकें और पिस्तौलें साथ लिए घूमते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि में तो ऐसे-ऐसे गरीब लोगों के पास बंदूकें हैं, जिनका सबसे कीमती धन वे बंदूकें ही हैं। ऐसे बहुत से लोग आजीविका के लिए बंदूक-धारी चौकीदार की नौकरी करते हैं और पाँच से सात हजार रुपये महीने की पगार पाते हैं।
मनुष्य की शिकार-वृत्ति कभी-कभी उससे बड़े-बड़े जघन्य अपराध भी करा देती है। हत्या और बलात्कार ऐसे ही अपराध हैं। जेलों में जाने और कैदियों से मिलने व बात करने का जिन लोगों को अवसर मिला है, वे इस बात से सहमत होंगे कि वहाँ के बाकी कैदी हत्यारोपियों को बड़ी इज्जत की निगाह से देखते हैं। हत्यारोपी भी सीना ठोक कर अपनी वीरता का बखान करते हैं- चार-चार को मारा है। ऐसे ही नहीं आया हूँ। वहीं चोरी जैसे छुटपुट अपराधों में बंद कैदियों को दूसरे कैदी बड़ी हिकारत की निगाह से देखते हैं और प्रायः उनकी ठुकाई भी करते हैं। मध्य प्रदेश- राजस्थान की कुछ अपराधी जातियों के लोग हत्या और मारपीट करने के बाद ही अपने शिकार से राहजनी करते हैं। उनका शिकार कोई व्यक्ति यदि हाथ जोड़कर विनय करे कि मेरा सब कुछ ले लो पर मुझसे मार-पीट न करो, मेरी जान बख्श दो तो वे उसे और मारते हैं और कहते हैं कि हम बिना मेहनत किए कुछ भी नहीं लेते। लूट के लिए अपने हत्थे चढ़े व्यक्ति को मारना-पीटना भी मनुष्य की उसी आदिम शिकार-वृत्ति का ही परिणाम है।
मनुष्य की शिकारी-वृत्ति के बर-अक्स उसकी दया-भावना के निरूपण के लिए जरा इस प्रकरण पर ध्यान दें। मुर्गा खरीदने गए एक व्यक्ति ने कसाई से एक मुर्गा निकालने को कहा। कसाई ने जो मुर्गा निकाला उसने ग्राहक की ओर गरदन झुका दी। ग्राहक ने उसे वापस रखवा दिया और दूसरा मुर्गा निकालने को कहा। कारण? ग्राहक का मानना है कि मुर्गे ने उसे सलामी दी है, इसलिए वह उस सलामी देने, यानी अधीनता स्वीकार करनेवाले मुर्गे की जान बख्शने के लिए बाध्य है। अधीनता स्वीकार करनेवाले की जान भला वह कैसे ले सकता है?
हमारी सत्ता और शक्ति को कोई ललकारे तो उसका मान-मर्दन करना और उसकी जान ले लेना हमें ज़ेब देता है। इसकी विपरीत यदि वह हमारी शरण में चला आए, हमारी शक्ति के वशीभूत हो जाए, हमसे दुआ-बंदगी करे तो उसकी रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य हो जाता है। दिल्ली में घटित बलात्कार और जघन्य हत्या की हालिया घटना के बाद एक धर्म-गुरु का वक्तव्य इसी दर्शन की ओर इशारा करता है। वैष्णव परंपरा में नवधा भक्ति और प्रपत्ति सिद्धान्त की बात आती है। हनुमानजी की आराधना करते समय हम कहते हैं- वातजातं शरणं प्रपत्ये। पवनपुत्र की शरण में जाता हूँ। भगवान शरणागत की रक्षा करते हैं। उन्होंने रक्षा की गुहार लगानेवाली द्रौपदी का चीर बढ़ाकर उसे भरी सभा में बेआबरू और रुसवा होने से बचाया। गज की ग्राह से रक्षा की। ऐसे ही यदि कोई आपकी आबरू पर हाथ डाले तो तुरन्त उसे राखी बाँधिए और कहिए की तुम तो मेरे भइया हो। प्लीज मुझ अबला की रक्षा करो। और फिर देखिए शराब के नशे में धुत्त दरिंदा भी आपको शरणागत जानकर कैसे आपकी रक्षा को उद्यत हो जाता है। धर्म-गुरु का यही मानना और कहना है। ऐसा इसलिए कि वे वैष्णव परंपरा के प्रपत्तिवाद में आस्था रखते हैं।
सुसभ्य, भक्ति-प्रवण समाजों में यह होता है। इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन आम तौर पर शिकार के आग्रही पुरुष और शिकार की जाने के लिए शापित स्त्री के संबंध को कुत्ते और हिरण के कानपुर वाले संदर्भाधीन रूपक से ही समझा जा सकता है। कुत्ता रूपी पुरुष निरंतर शिकार की टोह में रहता है। चिड़ियाघर की दीवार टूटी मिली, चौकीदार की सुरक्षा-व्यवस्था शिथिल हुई तो यह पक्का समझिए कि कुत्ता अपने शिकार पर झपटेगा ही झपटेगा। भूख की व्याकुलता से झपटे तो दो कुत्तों के लिए एक हिरण-शावक ही काफी है, पहले दिन पाँच और उसके ठीक दूसरे दिन इकत्तीस हिरणों को मारने की उन्हें कोई जरूरत नहीं। भूख से भी अधिक बलवान जो भावना है, वह है शिकार करने की। अपने आप को सबसे शक्तिवान साबित करने की। अपना लोहा मनवाने की। हमारे एक देवता की सोलह हजार रानियाँ थीं। वाजिद अली शाह ने शियाओं में प्रचलित मुता का सहारा लेकर, अपने राज्य की सभी खूबसूरत लड़कियों से निकाह किया और उन्हें अपने हरम में डाल लिया। ये दोनों ही किस्से नारी को लेकर पुरुष की शिकार-वृत्ति की ही अभिव्यक्ति करते हैं। आज भी जो पुरुष जितना पावरफुल है, वह उतना ही स्त्री-शिकार-प्रवृत्त भी है। ( यह दीगर बात है कि कुछ शातिर महिलाएँ पुरुष की इस कमजोरी का फायदा उठाकर अपने-अपने हिसाब से ऊँचे मुकाम भी हासिल करती हैं।)
इसी को हमारे नारीवादी संगठन पुरुष-मानसिकता, पुरुष-सत्तात्मकता का नाम दे रहे हैं। पुरुष चाहता है कि नारी उसके सामने हर समय हार माने। नारी हर समय उसके अधीन रहे। यदि नारी ने पुरुष के वर्चस्व को ललकारा तो पुरुष का शिकारी स्वभाव जाग उठता है और वह न केवल उसकी यौन-शुचिता को भंग करता है, बल्कि उसकी जान भी ले लेता है। नारी द्वारा ललकारा गया पुरुष सबसे पहले उसकी सबसे बड़ी संपत्ति, यानी उसकी यौन-शुचिता को भंग करके, उसका मान-मर्दन करता है और शिकारी-वृत्ति की अधिकता होने पर नारी-देह से जबरिया संसर्ग के बाद उसको दीर्ण-विदीर्ण कर डालता है। पुरुष प्रधानता की ही परिणाम है कि हमारे समाज में जितनी गालियाँ हैं सब स्त्रियों पर और प्रायः सब की सब स्त्रियों से जबरिया यौन-संबंध बनाने पर केंद्रित हैं। समाज के जिन तबकों में महिलाएं भी गालियाँ देती हैं, वहाँ भी सारा अजाब महिलाओं पर ही नाजिल होता है। सिग्मंड फ्रायड ने जिस परिष्कृत काम-वृत्ति को मानव-संसार की संचालिका निरूपित किया, वही काम-शक्ति विरूपित होकर हमारे समाज में गालियों और यौन-अपराधों की जड़ में भी काम करती है। इस दुर्दमनीय कामासक्ति से बचने के लिए बाबाजी ने उपदेश दिया कि अपराधी के सामने दीन-हीन बनकर उसकी शरण में जाओ और उसे भाई बना लो, ताकि शरणागत जानकर वही तुम्हारे शील की रक्षा करने में जुट जाए, ताकि भावी भक्षक ही तुम्हारा रक्षक बन जाए। कई बार सुनने में आता है कि पंचायतों ने फैसला देकर, अपराधी बलात्कारी से ही पीड़िता युवती का विवाह करा दिया। वहाँ भी भक्षक को ही रक्षक बनाने का सुधारवादी दर्शन काम कर रहा होता है।
शिकारी से खाद्य-उत्पादक कृषक और बगिया का माली व फसलों का रखवाला बनने का मनुष्य का विकास-क्रम करोड़ों वर्ष लंबा है। हमारे हिंसात्मक गुणसूत्रों में रातों-रात बदलाव नहीं आनेवाला। यदि रातों-रात बदलाव चाहिए तो आइए प्रार्थना करें कि हमारे देश के ऊपर भी कोई विंग कमांडर चशायर दस-बीस परमाणु बम डाल दे और भारत के जनमानस को भी उतना ही दयनीय और निरीह बना दे जितना हिरोशिमा-नागासाकी पर बम गिरने के बाद जापानी जनता हो गई थी। अपनी दयनीयता और निरीहता का अनुभव करके ही हम उद्दंड, भ्रष्ट और अनुशासनहीन भारतवासी समझ पाएँगे कि मानव-जीवन की कीमत क्या होती है। उसके बाद ही हम नियम-कानून, आदर्श, नैतिकता और सदाचार के मार्ग पर चलना सीख पाएँगे।
हमारे देश के निरीह, निश्छल हिरणों और हिरणियों के दुर्भाग्य से ऐसा होने के कोई आसार तो दिखते नहीं। कुत्ते और इन्सान, दोनों ही अपनी शिकारी प्रवृत्ति भी छोड़ने वाले नहीं हैं। कुत्तों को पकड़ने, बाँधने, उनके दाँत व नाखून कुंद करने अथवा मार डालने की हमारे सभ्य समाज में कूवत नहीं, शायद इरादा भी नहीं। कुछ लोग तो अपने-अपने स्वार्थवश कुत्तों को पालते भी हैं। इसलिए हाल-फिलहाल तो समाज को कुत्तों से निजात नहीं मिलने वाली। इसलिए फिलहाल तो यही करणीय है कि हम अपने हिरणों-हिरणियों को मजबूत बाड़ों की सुरक्षा में रखें। बाड़ा टूटा और सुरक्षा हटी तो हिरणों-हिरणियों का काम तमाम करने में कुत्तों को तनिक भी देर नहीं लगेगी। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।
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सही कहां आपने बात कुत्तों की तो समझ में आती हैं पर मानव की मानवता कहा हैं । यह प्रश्न बडा व गभीर हैं ।
जवाब देंहटाएंबात कुत्तों की तो समझ में आती हैं पर मानव -मानवता से गिर जाए यह ठीक नहीं ।
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