हकीकत (कहानी) -गोविन्द बैरवा ‘‘हैलो! पापा, मैं ठीक हूँ। पापा मुझे कुछ रूपयों की आवश्यकता थी।‘‘ अशोक अपने पापा ताराचन्द शर्मा से मोबाईल द्...
हकीकत (कहानी)
-गोविन्द बैरवा
‘‘हैलो! पापा, मैं ठीक हूँ। पापा मुझे कुछ रूपयों की आवश्यकता थी।‘‘ अशोक अपने पापा ताराचन्द शर्मा से मोबाईल द्वारा बात करता हुआ। बात करते समय बीच-बीच में अपने मित्र सुरेश को होठों पर चुप्पी का संकेत भी देता हुआ नजर आता है।
बेटे अशोक की बात सुनकर शर्मा जी कहने लगते है-‘‘बेटे पिछले सप्ताह ही तेरे ए,टी,एम में मैंने पाँच हजार रूपये डलवाए थे। अब क्या आवश्यकता पड़ गयी रूपयों की तुझे।‘‘
पिताजी की बात सुनकर अशोक कुछ देर मौन रहने के बाद कहने लगा-‘‘पापा मैं एक विषय में कोचिंग करना चाहता हूँ। इसलिए रूपयों की आवश्यकता पड़ गई।‘‘ शर्मा जी दबी आवाज में धीरे से पुत्र को इतना ही कहते है-‘‘अच्छा! बेटे में तेरे ए,टी,एम में कल पाँच हजार रूपये डलवा देता हूँ, आखिर तेरी पढ़ाई से बढ़कर पैसा नहीं हैं।‘‘
अशोक का चेहरा खिल गया था। मोबाईल अपनी जेब में रखता हुआ, सुरेश को कहने लगता है-‘‘पढ़ाई तो मेरा ए,टी,एम कार्ड हैं।‘‘ सुरेश कुछ देर पुस्तक से अपना ध्यान हटाकर अशोक की तरफ देखकर कहने लगा-‘‘अच्छी बात नहीं है अशोक। अपने पिता से पढ़ाई का नाम लेकर पैसे मंगवाकर फालतू खर्च करते हो।‘‘
सुरेश को बीच में ही टोककर अशोक कहने लगा-‘‘अरे यार तेरी तरह मैं नहीं रह सकता। और ना ही मैं तेरी तरह सारा समय पढ़ाई में देना चाहता। ये डिप्लोमा तो मेरे मौज-मस्ती के लिए है। क्योंकि पैसों की कमी नहीं।‘‘ जूते पहनते हुए अशोक सुरेश की तरफ देखकर कहे जा रहा था।
अशोक और सुरेश दोनों एक ही कमरे में रहते हैं। सुरेश का सारा ध्यान अपने डिप्लोमा कोर्स की तरफ ही लगा रहता है। व्यर्थ में पैसे खर्च नहीं करता। अगर खर्च है तो सिर्फ कॉलेज जाते समय लगने वाला टेक्सी किराया, वह भी कभी-कभी अन्यथा अधिकतर पैदल आया-जाया करता है। जबकि अशोक, सुरेश से विपरीत प्रवृति का इंसान, पैदल बिल्कुल नहीं चलता, थोड़ी दूर जाना हो तो टैक्सी का सहारा लेता है। मित्रों को सप्ताह में एक बार पार्टी देना। सिनेमा देखना। हर माह में एक जोड़ी नये कपड़े खरीदना।
‘‘अब कहाँ चले तैयार होकर।‘‘ सुरेश, अशोक को बाहर जाते हुए देखकर कहने लगता है।
‘‘दिनेश के कमरे पर जाकर आता हूँ। आखिर जो प्लान था वह पुरा हो गया।‘‘ दरवाजे की तरफ बढ़ता हुआ अशोक, सुरेश की तरफ देखकर इतना ही कह पाता है। सुरेश अपनी जगह से उठकर दरवाजे की तरफ जाते अशोक को रोककर पूछने लगता है-‘‘कौन सा प्लान है, तुम्हारा अशोक।‘‘
दरवाजे की चौखट पर खड़े-खड़े अशोक कहने लगा-‘‘गोवा जाने का प्लान।‘‘
सुरेश आश्चर्य में पड़ गया। एकटक अशोक को देखता रहा। कुछ देर बाद कहने लगा-‘‘तू जानता है। इस सप्ताह पेपर शुरू होने वाले है, तुझे इस परीक्षा में सारे पेपर पास करना जरूरी है। अन्यथा डिप्लोमा निरस्त कर दिया जायेगा।‘‘ सुरेश के मुख पर कुछ गम्भीरता नजर आ रही थी। पर अशोक के चेहरे पर परीक्षा से ज्यादा गोवा जाने का रूझान प्रकट हो रहा था।
सुरेश की बात सुनकर अशोक मंद गति से मुस्कान होठों पर लाकर कहने लगा-‘‘पेपर तो मैं सारे एक साथ पास कर दूंगा, वो भी बिना तैयारी के पर गोवा जाने की तैयारी अभी से करनी है।‘‘ सुरेश को इतना कहकर अशोक बाहर चला जाता है।
‘‘यार रिजर्वेशन तो हो गया, गोवा आने-जाने का पर रहने के इन्तजाम में पैसे कम पड़ रहे हैं।‘‘ देवेन्द्र ने अशोक के कंधे पर हाथ रखकर कहाँ। कैंटीन में बैठे चारों मित्र आपस में बात करते हैं।
सुरेश व अशोक का आमना-सामना कमरे में ही होता है। कॉलेज में सुरेश, अशोक के साथ नहीं रहता। अशोक की मित्रता उन लड़कों से हो गयी थी, जो अधिकतर आवारा प्रवृत्ति के पुजारी थे। कॉलेज के बाहर बैठकर आती-जाती लडकियों को छेडना। कांलाश में नहीं जाना। सारा दिन फालतू इधर-उधर गुजार देना। अशोक की मित्रता इनके साथ हो जाने से वह भी इनकी प्रवृत्तियों को अपनाने लग गया था। इस कारण सुरेश, अशोक के साथ कॉलेज में नहीं रहता था।
‘‘तू यार चिन्ता मत कर, मैंने पाँच हजार का बंदोबस्त कर लिया है। होटल में ठहरेंगे, देवेन्द्र।‘‘ अशोक ने देवेन्द्र की तरफ देखकर इतना ही कहाँ। देवेन्द्र ने अशोक के मुँह से पाँच हजार का सुनकर हँसते हुए कहने लगा-‘‘फिर अपने पिता को टोपी पहना दी, अशोक।‘‘
देवेन्द्र के साथ किशोर, दिनेश और साथ-साथ में अशोक भी ठहका लगाकर हँसने लगा।
‘‘यार ये तो मानना पड़ेगा। बेटे की पढ़ाई के लिए माता-पिता कहीं ना कहीं से पैसों का इन्तजाम कर देते हैं।‘‘ किशोर आगे भी कहने वाला था उसे बीच में ही चुप कराकर दिनेश कहने लगा-‘‘बेटे भी तो पढ़ाई का नाम ले लेकर पैसे प्यार से निकलवाते हैं।‘‘
फिर कैंटीन में जोरों का ठहाका हँसी के साथ गूंजने लगता है।
‘‘अरे यार सुरेश, गोवा देखने लायक है। बड़ा मजा आया। चार दिन गुजर गयें, मालूम ही नहीं चला। पैसे कम पड़ गये अन्यथा आज नहीं, कल आते।‘‘अशोक की बातें सुनकर सुरेश कुछ देर चुप रहा फिर कहने लगा-‘‘यार इन चार दिनों में मैंने दो पेपर की अच्छी तैयारी कर ली है। मुझे अपने पिताजी की उम्मीद पर खरा उतरना है।‘‘
अशोक, सुरेश की तरफ देखकर आलमारी से पुस्तक निकालकर धीरे स्वर में पूछने लगता है-‘‘क्या पिछले सेमेस्टर के पेपर पास करना जरूरी है, अन्यथा डिप्लोमा निरस्त हो जायेगा।‘‘
सुरेश, अशोक की तरफ देखकर कहने लगा-‘‘पिछले पेपरों के साथ तुझे इस सेमेस्टर के पेपर भी पास करना है। परीक्षा कल से शुरू हो जायेंगी।‘‘
अशोक के चेहरे पर अब हँसी का आलम नहीं था। कुछ देर एक पुस्तक के पन्ने पलटकर देखता फिर दूसरी पुस्तक को खोलकर उसके पन्ने पलटता। उसका मन असन्तुलित था। आखिर एक साथ इतने पेपर की तैयारी किसी भी तरह से सम्भव ही नहीं
‘‘अरे ताराचन्दजी सुनकर बड़ा दुःख हुआ कि तुम्हारे पुत्र अशोक का डिप्लोमा निरस्त हो गया।‘‘ शुक्लाजी के मुँह से यह सुनकर ताराचन्दजी आश्चर्य में पड़ गये।
शर्माजी की तरफ देखकर कहने लगे-‘‘शर्माजी आपको गल्त सूचना मिली है। अशोक का डिप्लोमा निरस्त नहीं हुआ, कल ही उससे मेरी बात हुई कह रहा था पिताजी मेरे अच्छे अंक आये है।‘‘ शर्माजी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान होठों पर फैली हुई थी।
‘‘अरे शर्माजी, मेरे मामा जी का लड़का उसी कॉलेज में पढ़ता, जिस कॉलेज में आपका बेटा अशोक पढ़ता है। आज सुबह ही मेरी उससे बात हुई, कह रहा था कि चार लड़कों का डिप्लोमा निरस्त हो गया शेष सभी पास हो गये। उन चार लड़कों में अशोक का नाम भी है।‘‘
ताराचन्द जी के चेहरे पर अब मुस्कान का स्थान बदलकर भय का रूझान नजर आ रहा था। बार-बार रूमाल से चेहरे पर आयें पसीने को पोंछ रहे थे। आखिर बेटे की पढ़ाई के लिए सरकारी लोन भी ले रखा था। आशा भी कुछ जोड रखी थी कि डिप्लोमा के बाद बेटा भी आर्थिक सहयोग देगा। पर शुक्लाजी के द्वारा कहा कथन में प्रत्येक उम्मीद समाप्त हो रही थी। बडी मुशकिल से अपने आप को सम्भालते हुंए, मोबाईल जेब से बाहर निकालकर नम्बर खोजने लगते है। थोडी देर बाद मोबाईल कान में लगाकर बोलने लगे-‘‘हैलो!,हैलो! क्या आप डी0पी0कॉलेज से बोल रहे हैं।‘‘
‘‘हाँ! आप कौन बोल रहे है।‘‘ दूसरी तरफ से जवाब आता है।
‘‘जी, मैं ताराचन्द शर्मा बोल रहा हूँ। आपसे मुझे ये जानना था कि अशोक कुमार पुत्र ताराचन्द का डिप्लोमा कोर्स निरस्त कर दिया गया है क्या?‘‘ ताराचन्द की जबान बात करते समय बार-बार अटक रही थी। ‘‘हाँ! आपने सही सुना है। आपके बेटे अशोक का डिप्लोमा निरस्त कर दिया गया है। नियम के अनुसार उसके पेपर पास नहीं हुए, इसलिए उसका डिप्लोमा कोर्स निरस्त घोषित किया गया है।‘‘
शर्मा के मुख पर पसीने की बुंद उभर आयी थी। दुःख इस कारण भी ज्यादा था कि बेटा बार-बार पिता को झूठ पर झूठ बोले जा रहा था। शर्माजी अपने बेटे को फोन लगाते है। पिता की बात सुनकर कुछ देर अशोक खामोश रहने के बाद कहने लगा- ‘‘नहीं पापा! मेरा डिप्लोमा निरस्त नहीं हुआ।‘‘ अशोक पिता को जवाब देता हुआ कहता है।
‘‘बेटे तेरे जैसे ना जाने कितने लड़के अपने माता-पिता के विश्वास के साथ विश्वासघात करते हैं। पर बेटा हम यह सोचकर अपना कर्तव्य निभाते है कि हमारे सहयोग से तुम्हारा भविष्य उस स्तर पर पहुँच जाये, जहाँ दुःख का साया ना हो, पर तुम जैसे अभागे बेटे माता-पिता के साथ-साथ अपना भी नुकसान करते हो, क्या करें तुम अंधेरा ही चाहते हो तो हमारा क्या दोष।‘‘ शर्माजी के दिल से आज बेटे के प्रति नाराजगी भी एक सीख देती हुई बाहर आ रही थी। शर्माजी फोन काट देते है। अशोक पापा,पापा कहता हुआ रोने लगता है।
अशोक को रोता देखकर सुरेश उसके पास आकर कहने लगता है-‘‘तू नहीं समझेगा यार, ये डिप्लोमा निरस्त नहीं हुआ, तेरे पिता की उम्मीद निरस्त हो गयी है। तुझसे ज्यादा दुःखी तो तेरे पिता होगें क्योंकि उनको समाज व सम्बन्धों में जबाव देना है। लोग दोषी तुझसे ज्यादा उनको मानेंगे,जबकि दोष उनका नहीं।‘‘
सुरेश की बातें सुनकर अशोक अब खुलकर रोने लगा। सुरेश कहे जा रहा था-‘‘आज हम जैसी युवा पीढ़ी अपने भविष्य के प्रति जागरूक नहीं हैं। उनकी सोच सामान्य स्तर पर ही आकर ठहर जाती है। अपने लक्ष्य को अनदेखा करके सारा ध्यान दुनियाँ की चमक-दमक में ही लगाये रखते हैं। माता-पिता बडे़ विश्वास से हमें बाहर पढ़ने भेजते है। अपने जीवन के ना जाने कितने सपनों को दबाकर हमारी आवश्यकता को पुरा करने में तत्पर रहते है। सिर्फ स्वार्थ यही मन में रहता है कि बेटे के जीवन में सुख ही सुख का वास हो पर..।‘‘
--
लेखक- गोविन्द बैरवा पुत्र खेमाराम जी बैरवा
आर्य समाज स्कूल के पास, सुमेरपुर
जिला-पाली, राजस्थान, पिन0कोड़-306902
aaj ka modern india ...ka sach...
जवाब देंहटाएंjai baba banaras....
बहुत ही अच्छी और शिक्षाप्रद कहानी लिखने के लिए साधुवाद |
जवाब देंहटाएं