सजा कुशल तिवारी बड़े ही शिक्षित और विद्वान पुरूष थे। वह बहुत सज्जन और धार्मिक भी थे। तिवारी जी एक ब्राह्मण होकर भी आडंबरों को बिल्कुल ...
सजा
कुशल तिवारी बड़े ही शिक्षित और विद्वान पुरूष थे। वह बहुत सज्जन और धार्मिक भी थे। तिवारी जी एक ब्राह्मण होकर भी आडंबरों को बिल्कुल भी न मानते थे। ढोंग से सदैव कोसों दूर रहते। उनका विचार था कि पाखंड में फँसा व्यक्ति जीवन में सच्ची प्रगति नहीं कर पाता है। वह समाज में पिछड़कर दीन-हीन वन जाता है। मौका मिलते ही वह सामाजिक कुरीतियों पर व्याख्यान देने लगते। बल्कि यह समझिए कि बड़े ही समदर्शी और विचारशील थे तिवारी जी।
वह न तो जाति-पांति के आडंबरों को ही मानते और न ही ऊँच-नीच के भेदभाव को ही कोई स्थान देते। उनका मानना था कि जब सब लोग एक ही परमात्मा की देन हैं और एक ही धरा पर बसेरा करते हैं तो ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र होने का यह भेदभाव क्यों? समाज में एक इंसान दूसरे इंसान का सहायक और उसका हितैषी है। मानव मानव का कोई वैरी थोड़े ही है। सब एक ही समाज में जन्मते-मरते हैं। मनुष्य को मनुष्य के साथ जाति-वर्ण के नाम पर भेदभाव करना शोभा नहीं देता। यह नैतिक पाप और अधर्म है। इससे आपसी भाई-चारा और समरसता घटती है।
कुशल बाबू पढ़े-लिखे तो थे ही, कालेज से इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर रेलवे में इंजीनियर बन गए। तिस पर भी उनके गृहस्थी की गाड़ी पूरी तरह पटरी पर ही थी। घर भरा-पूरा था। कहीं कोई कमी न थी। यही नहीं, उनकी जीवन संगिनी रागनी देवी भी एक कुशल गृहणी थीं। पति-पत्नी में क्या गजब की मधुरता थी। उनके मधुर संबंध का कोई जवाब ही न था। रागनी देवी गृह कार्य में निपुण तो थीं ही, बड़ी हँसमुख और चतुर भी थीं। उनकी अक्लमंदी देखकर कुशल बाबू को बड़े गर्व का अहसास होता। रागनी देवी उन्हें कभी भूलकर भी शिकायत का अवसर न देतीं। वह पत्नी प्रेम से प्रसन्न होकर बार-बार यही कहते-रागनी! पत्नी हो तो बस तुम्हारे जैसी। मुझे कब और क्या चाहिए? तुम्हें पहले ही मालूम हो जाता है। तुम कोई ज्योतिषी हो या मेरी पत्नी?
यह सुनकर रागनी देवी हँसकर कहतीं-अजी, जब पति-पत्नी एक ही गाड़ी के दो पहिए के समान हैं और अगर एक पहिया काम करना बंद कर दे तो दूसरा भी रूक जाता है। घर-गृहस्थी की गाड़ी चलाने में रेलगाड़ी के गार्ड और ड्राइवर रूपी पति-पत्नी की जरूरत होती है। एक-दूसरे के सहयोग के बगैर जीवन की गाड़ी आगे नही बढ़ सकती। वह जहां भी है वहीं रूकी रहेगी। अगर दोनों अपना-अपना फर्ज पूरा करते रहें तो जिंदगी की परेशानियां स्वत ही कम हो जाती हैं। आप जैसे आडंबरविहीन और उन्नत विचार के पुरूष को पाकर धन्य हो गई हूँ। मेरा जीवन सफल हो गया है। तिवारी जी की बस दो संतानें थीं। उनकी बेटी प्रिया बड़ी थी और बेटा मुकुल छोटा। दोनों अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते थे। रागनी देवी पढ़ी-लिखी प्रवीण गृहणी तो थीं ही। अपने बच्चों का गृह कार्य कुशलता से पूरा करातीं। उन्हें कभी मामूली सी भी दिक्कत महसूस न होती।
लेकिन तिवारी जी और रागनी देवी की यह खुशी बहुत अधिक दिन तक कायम न रही। उनकी हंसती-खेलती गृहस्थी को न जाने किसकी नजर लग गई कि कुशल बाबू को कैंसर हो गया। वह युवावस्था में ही रोगी और बीमार हो गए। धीरे-धीरे उनकी तबीयत काफी बिगड़ गई। रागनी देवी ने एक से बढ़कर एक बड़े अस्पताल में उनका इलाज कराने का भरसक प्रयास किया। मगर कहीं कोई फायदा न हुआ। दिन-प्रतिदिन उनकी तंदुरूस्ती खराब ही होती चली गई। दुर्भाग्य से सभी डाक्टर निष्फल ही साबित हुए। इसे विधि का विधान कहिए या कुछ और। आखिर तिवारी जी भरी जवानी में ही एक दिन संसार छोड़कर चल बसे। उनके नेत्र फेरते ही रागनी देवी पर मानो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। असमय ही उन्हें वैधव्य का मुँह देखना पड़ा। वह एक विधवा का जीवन बिताने को विवश हो गईं।
पति रूपी माली के दूर जाते ही सारा चमन देखते ही देखते उजड़कर बिखर गया। बच्चों को पढ़ाने-लिखाने की जिम्मेदारी उन पर आ गई। उनके लालन-पालन का सारा दायित्व रागनी देवी के कंधों पर आ पड़ा। एक विधवा ब्राह्मणी बेचारी पारिवारिक बोझ तले दबकर रह गई। पर वह देवता समान प्राणप्रिय पति का वियोग सहन न कर सकी और अंदर से टूटकर बिखर गई। कुशल बाबू की मृत्यु के कुछ दिन बाद रागनी देवी को तिवारी जी के स्थान पर बाबू की नौकरी मिल गई। अब वह घर-परिवार की भांति दफ्तर में भी कर्तव्य पालन करने लगीं। सुबह से शाम तक घर और आफिस की माथा-पच्ची में उलझकर रह गईं। शाम को वहां से छूटने पर बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के काम में जुट जातीं।
सामाजिक आडंबरों और मान्यताओं के साए से दूर पली-बढ़ी रागनी देवी सरकारी नौकरी करते हुए भी पति के अभाव में जैसे-तैसे ही अपने दोनों बच्चों का लालन-पालन कर पा रही थीं। साथ ही वह तमाम सामाजिक जिम्मेदारियां भी निभा रहीं थीं। इसी बीच गुड्डे-गुड़ियों के संग खेलने वाली उनकी लाडली बेटी प्रिया विवाह योग्य कब हो गई? यह उन्हें पता ही न चला। अब रागनी देवी को उसकी शादी की चिंता भी सताने लगी। किन्तु,समाज में फैले कोढ़ रूपी दहेज के दानव की वजह से उनकी रातों की नींद उड़ गई। जहां भी प्रिया के शादी की बात चलती, भारी दान-दहेज की मांग आड़े आ जाती। कहीं-कहीं तो बाकी साजो-सामान के साथ मोटरकार तक की मांग भी की गई।
उस अभागन की मदद के लिए तिवारी जी का कोई भी नजदीकी मित्र या रिश्तेदार आगे न आया। पुत्री के विवाह की बात सुनते ही लोग उन्हें उलटे ताने मारने लगते। वे उस बेचारी को कुत्ते की तरह फटकारते। उन्हें अभागन कहकर पुकारते। वह जिस किसी के पास जाकर मदद की गुहार लगातीं, वही दुत्कार देता। वह कहने लगता-चली जाओ यहां से। तुम औरत नहीं, चुडै़ल हो। जवान मर्द को खा गई। अब क्या सारी दुनिया को खाओगी?क्या तुम्हें इतना भी नहीं मालूम कि अब तुम्हारा मुँह देखना भी हमारे लिए पाप है? तुम्हारे बच्चों के शादी-विवाह का कामकाज हमसे न होगा। ऐसे फालतू कामों की खातिर हमारे पास फुर्सत ही कहां है? बेटी के घर-वर की तलाश तुम खुद ही कर लो न। इधर-उधर क्यों भटक रही हो? अब दुबारा यहां आने की जरूरत नहीं है।
समाज का यह बदला हुआ रूप देखकर लाचार तिवराइन की आंखों से आंसू छलक जाते। एक निरीह और मजबूर विधवा स्त्री भला किसी का क्या बिगाड़ सकती है? यह सोचकर वह मन मसोसकर रह जातीं। किसी की बात का जवाब देने का उनके पास साहस ही न था। मन मारकर सबकी उलूल-जुलूल बातें सुनने को विवश थीं। कभी-कभी सोते-बैठते बह कहतीं-वाह रे समाज! नारी पर विपत्ति पड़ते ही यह दुनिया झटपट कैसा किनारा कर लेती है? जो कल तक हमारा अपना होने का दम भरते थे पति की आंख बंद होते ही सब पराए हो गए। यह सोचकर उनका हृदय सदैव गम के सागर में डूबता-उतराता रहता।
नाजों पली अपनी बेटी के के लिए एक अच्छे वर की तलाश में पंडिताइन ंने रात-दिन एक कर दिया। मगर कहीं बात बनती नजर न आती। अगर कहीं एकाध काबिल लड़का मिल भी जाता तो एक विधवा मां की पुत्री का नाम सुनते ही वह अपनी नाक-भौं सिकोड़कर मुँह फेर लेता। बेझिझक तुरंत यह भी कह देता-अजी, एक विधवा की बेटी के संग भला कौन इज्जतदार व्यक्ति विवाह करेगा? यह विवाह करने पर समाज हमें जीने न देगा। लोग तरह-तरह के ताने मारेंगे। कल को किसी के दरवाजे पर मैं कौन सा मुँह लेकर जाऊंगा? यह सुनते ही तिवराइन का कलेजा कचोट उठता।
काफी दौड़-धूप के बाद आखिरकार कुशल बाबू के अजीज मित्र मदनलाल की मदद से किसी तरह एक शिक्षित,सरकारी नौकरीशुदा और नेक लड़का ढूँढ़ने में पंडिताइन को सफलता मिली। बात पक्की होते ही उन्होंने फलदान और तिलक की रस्में भी बखूबी पूरी कर दिया। कन्या और वर पक्ष की रजामंदी से शादी की तारीख तय हो गई। नियत समय पर उनके दरवाजे पर बारात भी आ गई। बड़ी धूमधाम से प्रिया और जयवीर का विवाह हो गया। रागनी देवी का कुशल इंतजाम देखकर बराती बड़े हर्षित हुए। उन्हें किसी शिकवे-शिकायत का मौका न मिला। पर, बड़े अफसोस की बात है कि यह सब तिवराइन की आंखों को देखना नसीब न हुआ। सामाजिक कुरीतियों के आगे वह मन मारकर रह गईं। उन्हें नतमस्तक होना पड़ा। वह न तो अपनी लाडली को दूल्हन बनते ही देख सकीं और न ही दूल्हे के रूप में अपने दामाद जयवीर को ही देख पाईं। वह सारे दिन और सारी रात एक अंधेरी कोठरी में बैठकर किसी बड़े गुनहगार की भांति सिसकियां भरती रहीं।
उनके कुछ रिश्तेदारों ने चेतावनी भरे लहजे में साफ-साफ दो-टूक कह दिया कि देखो रागनी! इस शुभ काम से तुम एकदम दूर रहो। इसी में लड़की-लड़के की भलाई है। अब तुम सुहागन नहीं बल्कि एक बेवा स्त्री हो। ऐसे कामों में विधवा स्त्रियों को शामिल करना शास्त्रों कें विरूद्ध है। समाज इसकी इजाजत नहीं देता है। तुम विवाह के पावन कार्य में हरगिज शरीक नहीं हो सकतीं। ध्यान रहे, कोई भूल से भी तुम्हारी परछाई तक न देखने पाए। इतना ही नहीं, तुम किसी सामान वगैरह को हाथ भी न लगाना। वरना देवगण रूठ जाएंगे। शादी में विध्न पड़ने से बड़ा अनर्थ हो जाएगा। तुम ऐसे रहो कि किसी को तुम्हारे बारे में कोई जिक्र करने का अवसर ही न मिले। यदि फिर भी कुछ गड़गड़ हुआ तो समझ लो कि हमसे बुरा कोई न होगा। तुम इस पुनीत काम से बिल्कुल देर ही रहो। तुम्हारी तनिक सी भूल से सब किए-कराए पर जरा सी देर में पानी फिर जाएगा। सारी मेहनत मिट्टी में मिल जाएगी। प्रिया के विवाह में रोड़े अटकने से उसकी शादी रूक सकती है।
यही नहीं, अगली सुबह विदाई के वक्त वह प्रिया को अपने गले भी न लगा सकीं। मजबूर बछिया बेचारी गाय से मिलने को तड़प् उठी। गाय विवश होकर दहाड़ें मार-मारकर रंभाती ही रह गई। लेकिन बहरे समाज में किसी ने भी उसका रंभाना न सुना। मां-बेटी दोनों एक दूसरे के दीदार को तरसकर रह गईं। मरता क्या न करता? बिना अड़चन के अपनी बेटी के हाथ पीले करने की लालसा में रागनी देवी ने मन मसोसकर अपने सगे-संबंधियों की सारी शर्तें सहर्ष मान लिया। विवाह की सारी रस्में प्रिया के धर्ममामा-मामी बाबू बृजभानु और उनकी पत्नी सारिका ने निभाया। लगुन और कन्यादान भी उन्होंने ही किया। उनके मित्रों और सगे-संबंधियों को एकत्र किया। कितने नेक,परोपकारी और सज्जन थे बृज बाबू? क्योंकि प्रिया के वास्तविक मामा-मामी इस दुनिया में पैदा ही न हुए थे। तिवराइन अपने माता-पिता की इकलौती औलाद थीं। उनके मां-बाप कई साल पहले ही दुनिया छोड़ चुके थे। यही उनकी सबसे बड़ी लाचारी थी।
शादी के बाद प्रिया का पति जयवीर और उसके घर वाले बृजभानु बाबू और उनकी धर्मपत्नी सारिका को ही अपना रिश्तेदार समझ बैठे। जयवीर उन्हें अपना सगा ससुर और अपनी सगी सासु मान लिया। क्या कब और कैसे हो गया? उसे कुछ पता ही न चला। उसे यह मालूम ही न था कि रागनी देवी कौन हैं और कहां रहती हैं? विवाह के कुछ रोज बाद जब वह अपनी पई-नवेली पत्नी प्रिया को लेकर सासु-स्वसुर से मिलने फिर ससुराल गया तो उसकी आंखें मानो पथरा गईं। वह अभी तक रागनी देवी को देखा तो था नहीं। घर की दहलीज पर पहुँचकर उसने रागनी देवी का नम्रतापूर्वक अभिवादन करके फौरन पूछा-माताजी अम्मा और बाबूजी कहां हैं? घर में कोई और नहीं है क्या? यह सुनते ही तिवराइन के हाथों के तोते उड़ गए। वह आंसुओं का घूंट पीकर रह गईं। उनके मन में एक बार आया कि लाओ जी भरकर फूट-फूटकर रोऊं और समाज के ठेकेदारों से पूछूं कि आखिर मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था? मुझे किस अपराध् की सजा दी जा रही है? मगर वह ऐसा करने का साहस न जुटा सकीं।
वह सोचने लगीं-विवाह के बाद मेरा एकलौता दामाद पहली बार मेरे द्वार पर आया है। मेरे राने-धोने से कहीं यह दिग्भ्रमित न हो जाय। इस समय रोना-धोना कतई ठीक न रहेगा। बेटी की जिंदगी का मामला है। आहिस्ता-आहिस्ता सब ठीक हो जाएगा। यह सोचकर अंदर ही अंदर उनका दम घुटने लगा कि नए-नए दामाद से अब मैं क्या कहूँ? फिर आंचल में मुंह छिपाकर फफक पड़ीं। उनके नेत्रों से बरबस ही आंसुओं की धारा बहने लगी। वह जयवीर के आगे हाथ जोड़कर चुपचाप घर के अंदर चली गईं। कुछ बोलीं नहीं। उनके मुख से कोई आवाज ही न निकली।
जयवीर आधुनिक और खूब पढ़ा-लिखा एक शिक्षित नौजवान था। वह बेझिझक तुरंत बोला-क्या बात है? आपने मेरे प्रश्नों का कोई जवाब नहीं दिया। आप कुछ बोलती क्यों नहीं? कृपया इतना तो बता दीजिए कि मेरे सासु-ससुर घर पर हैं या नहीं? तब रागनी देवी स्वयं को कुछ संभालकर बोलीं-बेटा! पहले तसल्ली से बैठो। घबराओ मत। चाय-पानी पीओ। अभी मैं तुम्हें सब कुछ बता दूंगी। जयवीर कुर्सी खींचकर धम्म से बैठ गया। इसके बाद प्रिया अपनी जन्मदायिनी मां के गले मिलकर खूब रोई। तिवराइन ने आनन-फानन में अपनी बेटी-दामाद के लिए अच्छे-अच्छे पकवान तैयार किया।
भोजनोपरांत वह जयवीर से कहने लगीं-बेटा! मैं ही हूँ तुम्हारी अभागिन सासु। एक बात ओर तुम्हारे ससुरजी अब इस संसार में नहीं हैं। आज दस वर्ष गुजर गए। वह हम सबको छोड़कर दूसरी दुनिया में चले गए। उनके जिंदा न रहने से तुम्हारे संग गुड़िया का विवाह भी बड़े मुश्किल से ही हुआ। सब कुछ खुद खर्च करके भी मैं तुम दोनों की शादी में कुछ भी न देख पाई। लोग कहते हैं अगर विधवा किसी सुहागिन बनने वाली लड़की और उसके दल्हे को दूर से भी देख ले तो बड़ा अनर्थ हो जाता है। देवता नाराज होकर बड़ा अनिष्ट कर डालते हैं। उनके क्रोध से बना-बनाया काम तहस-नहस हो जाता है। बेटे! तुम्हारे विवाह वाले रोज दिन एक और एक रात मैं एक कैदी बनकर पागल जैसे अकेले इस कमरे में बंद पड़ी रही।
हृदय को झकझोर देने वाली तिवराइन की हृदय विदारक पीड़ा सुनकर जयवीर ने कहा-एक पढ़ी-लिखी सुशिक्षित महिला होकर क्या आप भी इन ढकोसलों को मानती हैं? अम्माजी अब साइंस का जमाना है। पढे-लिखे लोगों को कुसंस्कारों के आगे घुटने टेकना बहुत ही अनुचित है। इन पाखंडों के मकड़जाल में फंसे रहने से समाज का कोई कल्याण नहीं होने वाला। आप बे-खटके इन अंधविश्वासों को तत्काल त्याग दीजिए। जो लोग आज भी इनसे मक्खी की तरह चिपके हुए हैं वे समाज के दुश्मन है। हितैषी कदापि नहीं। जयवीर की बुद्धिमानी देखकर रागनी देवी की आंखें नम हो गईं। वह बड़े ताज्जुब में पड़ गईं। वह ममतामयी स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं-लालाजी! तुम्हारे जैसा विद्वान दामाद पाकर मैं धन्य हो गई। वरन, मेरा जीना मोहाल ही हो गया था। ईश्वर करे तुम जैसा ही दामाद सबको मिले। समझो, आज मेरे दिल पर से एक बड़ा बोझ उतर गया। मेरा मन अब एकदम हलका हो गया।
तभी जयवीर ने तिवराइन से फिर पूछा-अच्छा माताजी एक बात और बताइए। हमारी शादी में खासतौर से जो अंकल और आंटी हर काम में अन्य सभी से अधिक बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे, वे लोग कौन थे? पंडिताइन ने जयवीर को सब कुछ सच-सच बता दिया। यह सुनकर जयवीर दंग रह गया। वह बोला-कोई बात नहीं अम्मा जी! पर, समाज की ये रूढ़िवादी बातें निरर्थक हैं। आप ऐसे आडंबरों से हमेशा दूर रहें। आडंबर समाज के विकास में सबसे बड़े बाधक हैं। आपने समाज की इतनी जिल्लत झेलते हुए जिस धैर्य, अक्लमंदी और हिम्मत से काम लेकर सब कुछ किया, वह बहुत ही सराहनीय है। बाकी बेबस महिलाओं के लिए यह वाकई एक बेहतर मिसाल है। देश की सभी असहाय स्त्रियों को ऐसे ही निर्भीकता से कुरीतियों का डटकर सामना करते हुए जिंदगी गुजारनी चाहिए। यही शास्वत स्त्री धर्म है।
अगर हर विधवा नारी अदम्य साहस का परिचय देते हुए इसी समझदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने लगे तो पुरूष के न होने पर भी उसे मर्द के न होने का अहसास भी न होगा। क्योंकि आज कोई स्त्री भी इतनी निरीह और कमजोर थोड़े ही है कि उसे हर बात की खातिर सदा दूसरों का ही मुँह देखना पड़े। माताजी! मर्द की तरह औरतों में भी अपार सहनशीलता और शक्ति होती है। उसे अन्याय के आगे कदापि न झुकना चाहिए। आप खुद ही देखिए न कि घर हो अथवा दफ्तर, अब वे हर क्षेत्र में पुरूषों के साथ उनके कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। विधवा हो सौभाग्यवती, तब जाकर कहीं उन्होंने राहत की सांस ली। तभी से उन्होंने ऐसे सामाजिक घिनौने अंधविश्वासों को जड़ से मिटाने का बीड़ा उठा लिया और समर्पित भाव से दबी-कुचली औरतों को शिक्षित करने में जुट गईं। वह अवसर मिलते ही गांव-गांव घूमकर समाज में फैले नाना किस्म के पाखंडों के विरूद्ध लगातार आवाज बुलंद करने लगीं।
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