अर्जुन प्रसाद की कहानी - खून का स्वाद

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खून का स्वाद देवरिया जिले के ठाकुर देवेन्द्र सिंह के बड़े पुत्र आनंद वन विभाग के हाकिम थे। मां-बाप ने उन्हें अच्छी तालीम देकर काबिल बना दिया।...

खून का स्वाद

देवरिया जिले के ठाकुर देवेन्द्र सिंह के बड़े पुत्र आनंद वन विभाग के हाकिम थे। मां-बाप ने उन्हें अच्छी तालीम देकर काबिल बना दिया। वैसे तो ठाकुर साहब भी खूब पढे-लिखे थे। बदलते परिवेश में शिक्षा का महत्व भलीभांति समझते थे। वह बखूबी अपना फर्ज पूरा किए। कहीं कोई जरा सी दिक्कत न आने पाई। आनंद की नौकरी लगते ही उनके मानो पौ बारह हो गए। उनकी पांचों उंगलियां घी में ही डूब गईं।

अपनी ढलती उम्र देखकर देवेन्द्र सिंह सोचने लगे-अब मैं जवान तो रहा नहीं। बड़ा बेटा कामयाब हो गया। हमें और क्या चाहिए? मेरी सारी चिंता दूर हो गई। बुढ़ापा सुख-चैन से कट जाएगा। हमारी मेहनत रंग लाई। आखिर, जीवन में हमने किसी का कुछ बिगाड़ा थोड़े ही है कि सब कुछ यूं ही निष्फल चला जाता। मनुष्य का अधिकार कर्म पर होता है उसके फल पर नहीं। अब कामयाबी आनंद के चरण चूमेगी। इससे हमारा नाम भी रोशन होगा।

ठाकुर साहब का घर एकदम भरा-पूरा था। खूब जमीन-जायदाद थी। कहीं कोई कमी न थी। बाप-बेटे कृषि कार्य ही करते तब भी कोई हर्ज न था। सरकारी नौकरी तो बस इसलिए जरूरी थी कि आज के जमाने में लोग उसे कुछ अधिक ही महत्व देते हैं। खेती-बाड़ी अब दबे-कुचले और पिछड़े लोगों का पेशा बनकर रह गया है। बार-बार बाढ़ और अकाल आने से खेती की ओर से लोग विमुख होते जा रहे हैं।

क्योंकि, मेहनत और ईमानदारी से काम करने पर गवर्नमेंट की नौकरी एक ऐसी फसल है जिसमें सर्दी-गर्मी हो या बरसात, कोई जोखिम नहीं रहता। कपड़े भी हमेशा लकालक वह भी स्त्री किए हुए। यही सोचकर ठाकुर साहब की दिली ख्वाहिश थी कि उनके लाडले को कहीं सरकारी ओहदा ही मिले। सो वह मिल गया।

आखिर,वह दिन आ ही गया जिसका उन्हें बड़ी बेसब्री से इंतजार था। कलेजे के टुकड़े को बड़ा पद मिलते ही उनके मन की मुराद पूरी हो गई। यह देखकर ठाकुर साहब और उनकी धर्म-पत्नी फूले न समाते। वे मारे खुशी के बल्लियों उछल पड़े।

देवेन्द्र सिंह अपनी पत्नी सुधा देवी से कहते- जानती हो, आनंद को वनाधिकारी बनने से मेरे दिल से एक बड़ा बोझ उतर गया। इसे ही कहते हैं, ईश्वर जब देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। हम सच में बड़े किस्मत वाले हैं। परमात्मा के घर देर अवश्य होती है पर, अंधेर कभी नहीं। मैं हर्ष से कहीं पागल न हो जाऊं। अब कितना खुश हूं इसका तुम अंदाजा भी नहीं लगा सकती हो।

यह सुनकर सुधा देवी कहतीं-हां हां ठीक है। लेकिन, इतना भी प्रसन्न होने की जरूरत नहीं कि मेरे लाल को किसी की नजर ही लग जाए। अब उसके सादी-विवाह के बारे में भी जरा सोचिए। वह हट्टा-कट्ठा और जवान हो गया है। मुझसे भी पहले जैसा काम-धंधा नहीं होता। मेरी आंखें भी बूढ़ी हो गई हैं। इन हड्डियों में अब वह ताकत न रही। इसके बाद ठाकुर साहब एक सुघड़ और सुशिक्षित लड़की देखभालकर बड़ी धूम-धाम से आनंद पाल का विवाह कर दिए। समय धीरे-धीरे पंख फैलाकर उड़ता रहा। व्याह के दो-ढाई साल बाद आनंद पाल एक बच्चे के बाप बन गए। उनकी पत्नी आंचल की गोद में एक स्वस्थ और सुंदर बालक आ गया। नवजात शिशु के आने से परिवार में खुशियां छा गईं।

बाबू आनंद पाल बड़े पराक्रमी और साहसी पुरुष थे। कद लंबा और छाती शेर की तरह चौड़ी थी। चेहरे पर घनी और बड़ी-बड़ी मूछें उनकी पहचान बन चुकी थीं। वह वन के हाकिम थे ही। जंगल में रहते-रहते वन्य प्राणियों से आहिस्ता-आहिस्ता उनकी घनिष्ठता हो गई। जंगल के भांति-भांति के पशु-पक्षियों से खूब गहरी मित्रता हो गई। शेर,चीता जैसे खूंखार और नरभक्षी प्राणी भी देखते ही देखते उनके दोस्त बन गए।

ठाकुर साहब की आवाज सुनते ही उनके कान खड़े हो जाते। वे आपस में इतने घुल-मिल गए कि नन्हे-मुन्ने बच्चों की भांति खूब धमा-चौकड़ी मचाते। जी भरकर उछलते-कूदते। आनंद बाबू ज्योंही कहते- चलो, आ जाओ। वे फौरन भागकर उनके पास आ जाते। अगर वह कहते-हटो अब जाओ। बिना एक पल की देर लगाए तुरंत दुम दबाकर इधर-उधर चले जाते।

बड़े से बड़े खतरनाक जीव की भी क्या मजाल कि कभी भूलकर भी उनके हुक्म की ना-फरमानी करने की जुर्रत करे। सर्दियों में खुले आसमान के नीचे जब ठाकुर साहब सूर्यदेव की रोशनी में धूप सेंकते तो सभी वनचर भी झुंड बनाकर उनके इर्द-गिर्द बैठ जाते। गर्मियों में जब धूप और गर्मी से बचने के वास्ते जब आनंद बाबू किसी वृक्ष की सघन छाया में हवा खाते तब वन के सारे जानवर भी उनके चारों ओर सभा लगाकर आराम करते।

कभी किसी वन्य प्राणी की तबीयत खराब होने पर ठाकुर साहब एक पारिवारिक सदस्य की तरह तत्काल उसका इलाज कराते। वन्य जीवों का कोई दुश्मन उन्हें कोई नुकसान न पहुंचा सके। बाबू साहब उनके हत्यारों और तस्करों से सदैव बड़े चौकस और सजग रहते। क्या मजाल कि कोई बाहरी परिंदा वहां पर भी मार सके। उन्हें वनचरों से इतना लगाव था कि उनकी हर हाल में रक्षा करना वह अपना सबसे बड़ा कर्तव्य समझते। आखिरकार वह वन के साहब जो ठहरे। फर्ज से मुंह मोड़ना मुनासिब न था।

एक बार की बात है। एक युवा शेरनी प्रिया ने एक नर शावक को जन्म दिया। उसके नर जोड़े का नाम था उदय। अपने नन्हे शावक विपुल को देखकर दोनों बड़े प्रसन्न हुए। पर, उनकी यह खुशी बहुत ज्यादे दिनों तक कायम न रह सकी। हवा के तेज झोंके के समान उनकी सारी खुशियां आईं और गई हो गईं।

ठाकुर साहब अपने पुत्र नीरज को दुश्यंत और शकुंतला-पुत्र भरत के समान गजब के हिम्मती और शूरवीर बनाना चाहते थे। उनकी लालसा थी कि मेरा बेटा ऐसा साहसी बने कि कोई शत्रु भूलकर भी उसकी ओर आंख उठाकर देखने की जुर्रत भी न करे।

वह एक रोज प्रिया और उदय से बोले-देखो भई, तुम दोनों की तरह ही मैं भी तुम्हारे प्रिय बेटे विपुल से बहुत प्यार करता हूं। उसके जैसा ही मेरे पास भी एक छोटा सा बेटा है। लेकिन, मेरी हार्दिक तमन्ना है कि मेरा पुत्र नारज और विपुल भी हमारे जैसा ही आपस में मित्र बन जाएं। इसलिए अगर आप दोनों को कोई ऐतराज न हो तो मैं विपुल को अपने घर ले जाना चाहता हूं। दोनों बच्चों की दोस्ती कराने की खातिर मैं बड़ा लालायित हूं। प्रिया और उदय भला क्या कहते।

यह सुनकर पुत्र-मोह में उनकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। वन के अन्य पशु-पक्षियों ने भी ठाकुर साहब का ही पक्ष लिया। वे सब एक सुर में कहने लगे- हां ठीक है, ठीक है। बाबू साहब ठीक कह रहे हैं। इनके पास विपुल की परवरिश अच्छी होगी। सबकी राय सुनकर बाबू साहब गदगद हो गए। वह विपुल के माता-पिता को तसल्ली देकर बोले-मेरे पास विपुल को कोई कष्ट न होने पाएगा। हम उसका पूरा ख्याल रखेंगे। समय-समय पर उसे यहां सबसे मिलाने भी लाते रहेंगे। ठाकुर साहब की विनम्रतापूर्ण जिद के आगे प्रिया और उदय को आखिर झुकना ही पड़ा। विवश होकर स्नेह के आगे वे एकदम चुपचाप नतमस्तक हो गए। जबकि यदि वे चाहते तो उनका खुलकर विरोध कर सकते थे। उनसे जीवन भर का वैर मोल ले लेते। मगर उन्होंने ऐसा कुछ भी न किया जिससे बाबू साहब के दिल को कोई ठेस लगे।

विपुल के मां-बाप की हामी सुनते ही आनेद पाल खुशी से उछल पड़े। वह बड़ी सावधानी से विपुल को अपनी फटफटिया पर बिठाए और दनदनाकर फटाफट घर पहुंच गए। मोहल्ले में विपुल के आने की खबर लगते ही वहां लोगों का मजमा लग गया। उसे देखकर लोग चकित रह गए। उन्होंने दांतों तले उंगली दबा लिया। वे बड़े आश्चर्य से विपुल को घूर-घूरकर देखने लगे। मानो उनकी नजर में वह दुनिया का कोई अजूबा हो। सनैः- सनैः देखते ही देखते यह खबर जंगल की आग की भांति पूरे इलाके में फेल गई। विपुल को देखने वालों की वहां काफी भीड़ एकत्र हो गई। कुछ देर बाद ठाकुर साहब एक कटोरे में दूध भरकर विपुल को पिलाने की कोशिश करने लगे। किंतु, वह बेचारा पीना तो दूर उसका स्वाद भी न चख सका। भूखा का भूखा ही रह गया और क्षुधा पीड़ा से बिलबिलाने लगा। यह देखकर आनंद बाबू बड़े दुखी हुए। विपुल को भूखा देखकर उन्हें कोई उपाय ही न सूझ रहा था कि क्या करूं और क्या न करूं?

वह सोचने लगे-विपुल को किसी तरह घर तो ले आया लेकिन, अब उसकी भूख कैसे मिटाऊं? प्रिया और उदय को दिया उनका वचन टूटता हुआ नजर आने लगा। उन्हें चिंतित और विकल होते देखकर आंचल देवी ने कहा-अजी, आप कैसे वनाधिकारी हैं? एक तो इस बेचारे को पैदा होते ही इसके मां-बाप से अलग करके घर उठा लाए। दूसरे अब यहां लाकर भूखों मार रहे हैं। इसके खाने-पीने का जुगाड़ कौन करेगा? इसकी देखभाल करना भी आपका फर्ज है। बच्चे की भूख-प्यास एक मां ही महसूस कर सकती है। यह काम कोई बाप थोड़े ही कर सकता है। मां के बगैर आप ही सोचिए, यह जिएगा कैसे? मेरी मानिए तो इसे दुबारा वहीं जंगल में वापस भेज दीजिए। इसके माता-पिता इसके बिना विलख रहे होंगे। इसे अभी कुछ ज्ञान तो है नहीं। वरना, खा-पीकर अपना पेट भर लेता। बेचारा अभी बच्चा है। इसे सब कुछ सिखाना ही पड़ेगा।

तब आनंद पाल ने कहा-आंचल मेरी बात सुनो। अब मैं विपुल को जंगल में वापस हरगिज न जाने दूंगा। इसे यहां पालने की खातिर लाया हूं। अगर हो सके तो इसे कुछ दिनों तक तुम अपना दूध पिलाकर पालो। समझो, नीरज की तरह यह भी अपना ही बच्चा है। धीरे-धीरे यह खाना-पीना खुद ही सीख जाएगा। लोग कुत्ते-बिल्ली पालते हैं। हम शेर पालेंगे। चार-छः महीने के बाद दोनों बच्चे साथ-साथ खेला करेंगे।

मां की ममता ने आंचल देवी को विवश कर दिया। हार-थककर उन्होंने डरते-डरते विपुल को दूध पिलाना शुरू कर दिया। पलते-बढ़ते एक दिन विपुल लंबा-तगड़ा गबरू जवान हो गया। घर में उसे हमेशा निरामिष भोजन ही दिया जाता। कभी भूलकर भी किसी व्यक्ति ने मांसाहार का जायका न लेने दिया। दूध-ब्रेड और दाल-रोटी उसका मुख्य आहार था। कभी-कभी मक्खन और पनीर भी नसीब हो जाता। विपुल जब भलीभांति चलने-फिरने लगा तो वह पिल्ले जैसे बाबू साहब की बाइक के पीछे-पीछे भागने लगा। वह हाट-बाट में तो जाता ही था, बाजार और मेले में भी जाने लगा। ठाकुर साहब का कोई भी मित्र या रिश्तेदार ऐसा न था, जहां विपुल न गया हो। मगर कभी किसी को मामूली सा भी नुकसान न पहुंचाता। बस, चुपचाप दरवाजे के बाहर बिना तनख्वाह के चौकीदार बनकर बैठा रहता। मेहमानदारी में उसे जो कुछ भी नसीब होता, खा-पीकर मस्त हो जाता।

आठ-साढ़े आठ फीट लंबा-चौड़ा कद होने पर भी विपुल एक पालतू कुत्ते के समान स्वभाव का हो गया। ठाकुर साहब के पूरे परिवार को उस पर बड़ा नाज था। उसे जो भी देखता, आनेद बाबू की तारीफ करने लगता। वह कहता-अरे वाह, ठाकुर साहब क्या गजब के मर्द हैं। वनराज को भी पिल्ला बना दिए। बेचारा दुम दबाए पड़ा रहता है। परंतु उसे देखकर उनका कलेजा दहल ही उठता। किसी शत्रु की क्या मजाल कि बाबू साहब की मर्जी के बिना उनके द्वार की ओर मुड़कर भी देख ले।

विपुल की दहाड़ सुनकर लोगों को पसीना छूटने लगता था। उसकी एक गर्जना से भी सारा इलाका थर्रा उठता। फिर भी नाहर-पुत्र विपुल सबका चहेता बन गया था। लोगों को उससे बड़ा लगाव और अपनापन हो गया था। वक्त गुजरता गया। विपुल ने किसी को शिकायत का कोई अवसर ही न दिया। उस पर सबका बड़ा अटूट प्रेम था। जानबूझकर उसने कभी कोई गड़बड़ न किया।

जाड़े का मौसम था। बड़े जोर की सर्दी पड़ रही थी। आनंद पाल विपुल के संग बाजार गए थे। घर लौटते समय अचानक उनकी मोटर साइकिल फिसल गई और उनका एक्सीडेंट हो गया। वह बुरी तरह जख्मी हो गए। उनके घुटनों और जांघों से खून बहने लगा। इतने में रक्त की कुछ बूंदें जमीन पर भी टपक गईं। ठाकुर साहब के हटते ही विपुल उसे चाटने लगा। बचपन से अब तक मात्र शाकाहारी व्यंजन ही करने वाले केहरि-पुत्र के मुख खून लगते ही उसकी जीभ का स्वाद एकाएक बदल गया। उसमें अजीब सा परिवर्तन हो गया। आनंद पाल जैसे-तैसे बड़े मुश्किल से संभलकर उठे और गिरते-पड़ते घर पहुंचे।

सर्दी का मौसम था ही। वहां जाते ही चारदीवारी के अहाते में पड़ी कुर्सी पर धम्म से बैठ गए। कुछ देर बाद वह उठकर जब अंदर की ओर जाने लगे तो विपुल ने उनका रास्ता रोक लिया। हमेशा बाबू साहब से दूर बैठने वाला विपुल न जाने क्यों उस दिन उनके निकट ही बैठ गया। आनंद बाबू चोटिल तो थे ही। लापरवाही वश वह जरा चूक गए। उन्हें विपुल का ध्यान ही न रहा। वह उसके सामने ही अपने जंघों का जमा हुआ लहू साफ करने लगे। विपुल चुपचाप देखता रहा। तब तक उनका रक्त रंजित बदन देखकर उस के मुंह में पानी आ गया। वह बार-बार अपनी जिह्वा लपलपाने लगा।

बाबू साहब के खून का स्वाद तो उसके मुख लग ही चुका था। खून से लथपथ शरीर देखते ही मुंह से लार टपकने लगी। उसने सोचा-लाओ, मालिक का रक्त साफ करके उनका दर्द कम कर दूं। उनकी सेवा करना मेरा फर्ज है। यह सोचकर वह अचानक खड़ा हुआ और अपने स्वामी का हमदर्द बनकर उनके घाव को चाटना शुरू कर दिया। उसकी जबान पर मानो कांटें ही कांटे उग आए हों। ठाकुर साहब की टांग पर उसकी जीभ लगते ही मांस का एक बड़ा लोथड़ा चिपककर उसके मुंह में चला गया। बाबू साहब जोर से चीख पड़े। विपुल की हरकत उन्हें बड़ी नागवार गुजरी। देखते ही देखते वह हैरान हो गए। फिर कुछ हिम्मत जुटाकर वह उसे डांटकर दूर भगाने का प्रयास करने लगे। उनकी डांट-फटकार सुनकर विपुल भी गुस्से से आंखें लाल-पीली करके गुर्राने लगा। वह जोर-जबरदस्ती करने पर उतारु हो गया।

प्राण संकट में फंसा देखकर आनंद पाल के होश ही उड़ गए। वह विपुल से प्राणों की भीख मांगने लगे। पर, वह कुछ भी सुनने को तैयार न था। अब उसकी नजर में बाबू साहब एक शिकार के सिवा और कुछ भी न थे। वह मरने-मारने पर उतर आया। उसका अड़ियलपन देखकर उन्हें जान के लाले पड़ गए। मजबूर होकर वह सोचने लगे-यदि किसी प्रकार मैं यहां से उठकर मकान के अंदर चला जाऊं तो इस पाजी से मेरा पीछा छूट जाएगा। तब यह हमारा बाल भी बांका न कर सकेगा। लेकिन, विपुल भी आखिर जंगल का राजा था। लोग उसे नाहर कहते हैं। आनंद बाबू उठकर ज्योंही घर में जाने का यत्न करने लगे, विपुल अड़कर खड़ा हो गया। उसने बेधड़क निडरता से उनकी राह रोक लिया। जान मुशीबत में फंसी देखकर वह अपने नौकर राजन से कराहते हुए बोले-राजन, इस विपत्ति में विपुल मेरे जान का दुश्मन बन गया है।

इसलिए तुम एक काम करो। बरामदे में खूंटी पर मेरी बंदूक टंगी है। उसमें गोली भरी हुई है। उसे जरा सी भी भनक न लगे। तुम होशियारी से तनिक उसे उठा लाओ और इसकी टांग में गोली मार दो। हां, इतना अवश्य ध्यान रहे कि कहीं चूक न जाना। वरना, हम दोनों के जान की खैर नहीं। चोटिल होते ही यह नरभक्षी बन जाएगा।

ठाकुर साहब का हुक्म पाते ही अपने अन्नदाता को बचाने की गरज से राजन दबे पांव अंदर गया और ओट से ही छिपकर विपुल पर निशाना साधकर धांय से गोली चला दिया। गोली लगते ही विपुल मानो ढेर हो गया। उसके गिरते ही बाबू साहब की जिंदगी किसी तरह बच गई। उन्होंने अन्य वनाधिकारियों को खबर देकर फौरन उन्हें वहां बुला लिया। यह खबर फूस की आग की तरह तनिक देर में पूरे एरिया में फैल गई। वहां लोगों की काफी भीड़ लग गई। यह सुनते ही वन के अफसरों के कान खड़े हो गए।

कुछ देर मे ही वन विभाग के हाकिम आनन-फानन में तुरंत बाबू साहब के घर पहुंच गए।वे घायलावस्था में ही विपुल को एक पिजड़े में डालकर जंगल की ओर लेकर चले गए। वहां विपुल का इलाज किया गया। वह कुछ दिनों में ही पुनः स्वस्थ हो गया। अपने बिछड़े मां-बाप को दुबारा पाकर वह प्रसन्न हो गया। उनके साथ खुशी-खुशी रहने लगा। परंतु, ठाकुर साहब इस हादसे को फिर कभी भुला न सके। वह मन में बोले- यह सच है कि भ्रष्ट और रिश्वतखोर नेताओं की भांति एक बार खून का स्वाद मुंह लग जाने पर प्राणी खूंखार और खतरनाक बन जाता है। न तो नेता को ही अपना बनाया जा सकता है और न ही जंगली जीव-जन्तुओं को ही जोर-जबरदस्ती करके पालतू बनाया जा सकता है। मौका मिलते ही ये जान के दुश्मन बन जाते हैं। इनसे बचकर रहने में ही सबकी भलाई है।

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: अर्जुन प्रसाद की कहानी - खून का स्वाद
अर्जुन प्रसाद की कहानी - खून का स्वाद
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