मनसा आनंद बाँझ – कहानी घर क्या था, एक भूतीय बंगला ही समझो। घर बनता है परिवार से, बच्चों की किलकारियों से, इतनी बड़ी हवेली नुमा मकान के ...
मनसा आनंद
बाँझ – कहानी
घर क्या था, एक भूतीय बंगला ही समझो। घर बनता है परिवार से, बच्चों की किलकारियों से, इतनी बड़ी हवेली नुमा मकान के अंदर रहने को जिसमें मात्र एक प्राणी हो, उसे घर कहना कुछ अनुचित सा लगता है। रहने के नाम पर इस समय उस मकान में एक बूढ़ी अम्मा ही थी। कितने चाव से उस हवेली को उसके ताऊ ने बनवाया था, उसकी ऊंची अट्टालिकाएं , जाली दार महराबी । बरांडा जो मकान की शोभा के साथ बरसात को कमरों में झाँकने भी नहीं देता था। और उस बरांडे के मुहाने पर चारों और क़रीने से खड़े पाये प्रहरी जैसे दिखाई देते थे। वे पाये उसकी रक्षा ही नहीं करते थे अपितु कैसे उसकी शोभा और मजबूती ही बढ़ते। बल्कि वे उसके चारों और प्रहरी से खड़े अति सुंदर लगते थे। किले नुमा उसकी शानदार नक्काशी, शीशम और दार का बना लकड़ी का दरवाजा। जिसमें पीतल की कील, कुंडे, कड़े, और सांकल लगी थी। उस बड़े मुख्य गेट का तो बस क्या कहना वो तो उस हवेली के सर का ताज ही था।
जब पचास साल पहले उसे खीमू खाती बना रहा था तो , कैसे आस पास के दस गांव के लोग देखने के लिए आए थे। खीमू खाती महीनों उस दरवाजे पर काम करता रहा, उस पर नक्काशी निकालता रहा फूल फूम्मन बनाता रहा। लाल शीशम की लकड़ी का बना वो दरवाजा, उसे बनाते-बनाते खीमू खाती के हाथ रह जाते थे। थक कर वह एक लम्बी सांस लेता और फिर रन्दा चलाने लग जाता। आराम करने के बहाने जब वह थक जाता तो कहता: ‘’देखना चौधरी अगर सौ साल तक भी इसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। ये लकड़ी नहीं है यह तो लोहा है, तूने भी किस जन्म का बेर मुझ से निकला है। इसे छीलते-छीलते तो मैं बूढ़ा ही जाऊँगा। और हां श्याम को दो सेर दूध और पाव धी जरूर ले कर जाऊँगा। वरना तो कल की नागा ही समझो। बदन टुट जाता है। तब ताऊ निहाल चंद हंस कर कह देता क्यों ना तुझे वह रूढ़ी खार की झोंटी(भेस) इनाम में दे दूँगा। पर तू दरवाजा ऐसा बनाना की दस गांव में देखने को नहीं मिले। और हुआ भी ऐसा ही। जैसा खीमू खाती ने कहा था: कि शायद न आप होंगे और न में परन्तु ये दरवाजा ऐसे ही खड़ा शान से आपके घर की रखवाली के साथ-साथ शोभा भी बढ़ता रहेगा।‘’ सच ही कहां था इतने सालों से रंग रोगन न करने पर भी दरवाजा उतना ही मजबूत था। चाहे उसमें बरसात के कारण पपड़ी बन रंग उतर गया हो और उसकी जगह काले-काले धब्बों ने अपनी पैठ बिठा ली थी। परन्तु क्या मजाल है वो अपनी मजबूती में टस से मस हुआ हो।
मकान के बीचों-बीच एक खुला आंगन था, जिसमें अमरूद, अनार, चीकू, नीबू, के पेड़ बड़े क़रीने से पेड़ बोए गये थे। आज न इन पेड़ो की देख भाल करने वाला कोई प्राणी है, और न इनके फल खाने वाला। अड़ोस पड़ोस के बच्चे ही इन पर हाथ साफ करते हैं। फिर भी ये मूक पौधे आज भी फलों से यूँ लद जाते हैं, मानों किसी मेहमान की आवभगत के लिए सज संवर रहे हो। और बिना नागा अपना प्रत्येक काम इतनी सहजता और तरकीब से करते हैं। मानों कोई किसी को निर्देश दे कर भी भला क्या करवाए। बसन्त से पहले अपने पत्ते उसी तरह से झाड़ देते हैं, और फिर फूल और पत्तियों से नये हो जाते हैं। इतने सालों में यहां क्या कुछ नहीं बदल गया पर उनके लिए जैसे कुछ बदला ही नहीं हो। नए नवेले पत्तों से नहाया ये पेड़ कैसे गर्वित खड़े हो इधर-उधर उस बच्चे की भाति देखते हैं, जिसने अभी-अभी नए कपड़े पहने है और खुशी में आनन्द विभोर हो वो कहना चाह कर भी समझ नहीं पा रहा की क्या कहे, कैसे बताए इस खुशी को। फिर फल लगा कर पक्षियों आमंत्रित कर रहे होते हैंं। हजारों पक्षी उनकी गोद में आ बैठते थे। और जब फल खत्म हो जाते तो सब पक्षी नदारद। पर इस बात की उन्हें कोई चिंता नहीं थी। वह अपना काम क़रीने से सालों निर्विघ्न किये जा रहे थे। और आगे भी ऐसे ही करते रहेगें पर एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो बिना क्यों के कुछ करना नहीं चाहता.....ओर ये क्यों ही उसे भँवर जाल में फँसाय है यही उसके मन का भोजन है।
इतने बड़े घर में प्राणी के नाम पर एक मात्र बूढ़ी अम्मां अकेली रहती थी। शायद दो-दो दिन तक चूल्हा भी जलने के लिए बाट जोहता रहता था, कि कब इसमें आग जले और गर्मी आए। एक जान कितना पसारा फैलाये, हिलती गर्दन, धुँधली आंखे, झुकी कमर अगर डंडे का सहारा न होता तो शायद सर घुटने के ही लग गया होता। वैसे अम्मां कोई अनाथ थोड़े ही है, एक लड़का जो फौज में बहुत बड़ा अफसर था, उसके एक पोता एक पाती, एक बहु कहने को इस संसार में चार प्राणी तो थे ही। परन्तु जब पास न हो तो ये होना भी कोई होना है, न जाने ये घर छोड़ अम्मां जाना नहीं चाहती, या आधुनिकता के इस युग में अम्मां उनके रोब रूतबे में कहीं फिट नहीं बैठती। अब कोने किसी के फटे में पैर डाले भाई घोर कलयुग आ गया है, आपने जरा सा छेड़ा नहीं इन तारों को तो कोन सा तांडव राग आपको सुनना पड़े, इसके लिए तैयार हो जाईये इस लिए आज का आदमी जरूर समझदार हुआ है, या उसका अहंकार आड़े आ गया है, वो पुराने जमाने के लोगो की तरह मुँह फट नहीं रह गया, मानों आपने काले को कला कह दिया नहीं की काने की आँख में उँगली मार दी। भलाई इसी में है सब तमाशा कान बौचे देखते रहो। तभी सब आपको समझदार कहेंगे।
वरना तो आज के जमाने में आप पागल कह लाये जाओगे। सर्दी में अम्मा का चूल्हा जब जलता तीन काम एक साथ करता था, पहला पतीली में एक मुट्ठी चावल-दाल डाल देती, दूसरा चिलम में दो अंगारे डाल हुक़्क़े की गुड़-गुड़ाहट के साथ खासी को भी जैसे गर्मी मिल गई और वो भी भभक कर एक तार चलती मानो अब निकले अम्मा के प्राण कि तब निकले, पर अम्मा इस सब क्रिया कलापों से तो यह महसूस करती थी की अभी वो जीवित है। नहीं तो सारा दिन घर में श्मशान सी शान्ति छाई रहती थी। ये खांसी खर्रा भी आदमी को आपने अकेले पन में कैसा साथी सा महसूस होता था। और तीसरा यहीं जलती आग शारीर की हँड़ियों को गर्म भी कर देती थी । हुए न एक पंत तीन काज, बरना तो रात के समय पैर बर्फ की तरह ठन्ड़े पड़े रहते थे। 80 वर्ष की अम्मां सोन देई अब एक हड्डियों का पिंजर मात्र रह गई थी। अब इन हँड़ियों के किस कोने कतरे में प्राण अटके है, देखने वाले भी ये सब देख कर दंग रह जाते थे। सुखी हुई सहजन की फली भी शर्मा जाये इस अम्मा सोन देई को देख कर। शायद प्राण निकलने के लिए भी अन्दर के प्राणों को सहयोग चाहिए होता होंगे, वरना जर्जर शरीर और जर्जर होता चला जाता है, कितनी लम्बी प्रक्रिया से प्राण निकलते हैं। जवान शरीर के प्राण बड़ी जल्दी और आसानी निकल जाते हैं। और आपने देखा बुजुर्ग और कमजोर शरीर तिल-तिल कर के मरता है।
अम्माँ सोन देई पीछे से भी भरे पूरे घर से आई थी। यहां पर भी इस विशाल हवेली नुमा घर में ठाठ से रहती थी। घर के आंगन में दो भैंसे, दो बेल, पचीस बीघा की क्यारी जिसमें खाने से भी ज्यादा हो जाता था। भगवान ने तीन औलाद दी जिसमें से एक चन्द्र प्रकाश ही जीवित बचा, अम्मां ने मन को समझा लिया दस कपूत निकलने से बेहतर है, एक सपूत निकल जाये जो भगवान को मंजूर अब क्या लिखा है, माथे के भीतर अगर मानव ये जान पाए तो उसे बदल ही न ले। छोटा परिवार था, जेठ निहाल चन्द्र, पति वीर सिंह, लड़का चन्द्र प्रकाश और अम्मां। बड़े भाई निहाल चन्द्र जब 14-15 वर्ष के थे, जब पिता, रामनाथ की अचानक मृत्यु हो गई, पंचायत में 300/-रू का कर्ज दिखा कर एक बैल, दो बछड़े, तीन गायें और एक भेस को खोल कर महाजन को सौंप । सास भूरों भरी जवानी में ही विधवा हो गई, उसने आपने दोनों बच्चों को आंचल में छूपाये टुकुर-टुकुर उस बकरी की तरह से निहारती रही, जिसे काटने के लिए कसाई उसकी तरफ आ रहा हो। एक बेबस लाचार, अबला सी कुछ कर नहीं पाई पंचायत के सामने और उसके छोटे-छोटे बच्चों के मुंह से दूध छिन लिया गया। पर वे फिर भी नहीं हारी, बड़े जीवट की थी सास भूरा आपने बच्चों को पालने के लिए खुद हल चलाया करती थी खेत में सब दांतों तले उँगली दबा कर देखते रह जाते थे। औरतें भी घूंघट की ओट में खुसरफुसर करती रहती कि देखो उस राँड़ को साँड़ की तरह से काम कर रही है।
एक बार जब दादा राम नाथ जीवित था तो कुछ नौजवान चौपाल के चौक पर मुगदर उठाने की कोशिश कर रहे थे। सास भूरों पानी की दौघड़ सर पर लिए आ रही थी। कहते है तनिक रूक कर पल्ले से मुहँ निकाल कर बच्चों से कहा क्या मण भर का (40 किलो) का मुगदर भी नहीं उठा पा रहे हो, तुम क्या जवान होओगे। तब एक नौजवान ने कहां ताई तुम उठा सकती हो इसे...जो उसे बड़ी ही मुश्किल से उठ रहा था। सास भूरों ने उस एक हाथ से उसे उठ लिया और पानी के भरे मटके भी सर पर से नहीं उतारा था। कहते हैं उस दिन के बाद से वो मुगदर किसी मर्द ने नहीं उठाया वहीं चौपाल के कोने पर आज भी ताई भूरों की प्रशंसा के गीत गा रहा है। जिस घटना को आज भी पूरा गांव गर्व से कहता नहीं थकाता। लाख दु:ख उस भूरों ने सहा सब दुखों को अपने सिने में समा लिया और पति के मरने के बाद जहर का घूँट पी लिया था कि अब क्या किया जा सकता है।
अब किसी तरह से इन बच्चों को बड़ा तो करना ही था। ले लेने दो जो ले जाता है महाजन, जो हमारी किस्मत में बदा है उसे हमसे कोई नहीं छिन सकता है। बेचारी मन को मना कर रह गई। वरना महाजन कि क्या मजाल थी। उसने सोचा जो जुबान वाला ही चला गया तो अब क्या जूबान खोलनी। और मनुष्य धन जीवित है, तो सभी धन फिर से आ जायेंगे, वो दिन बहुत कष्ट भरे गुज़रे, पर वक्त तो किसी को भी नहीं छोड़ता आज वहीं भूरों ताई हुक्के की चिलम भी जब उस हाथ से उठाती है तो हाथ कांप जाते हैं। दो साल बिस्तरे में पड़ी रही घर और खेत को देखने वाला भी कोई नहीं था। पर वो चाह कर भी बिस्तरे में पड़ी तो उठ नहीं सकी लोगों के कंधे पर श्मशान ही जाना पडा। बेचारी ने चार दिन सुख के नहीं देखे, अब क्या करे जो भाग्य में लिखवा कर लाई थी वही तो बेचारी को भोगना पडा। चार पाँच साल भर बाद मॉं भूरों भी राम को प्यारी हो गई। उसने उस शरीर से अति मेहनत मशक्कत की दिन रात नहीं देखती थी। बेचारे रह गये दोनों अबोध-अनाथ भाई। इन्हीं सब दुखों के कारण बड़े भाई निहाल चन्द ने शादी नहीं की, किसी तरह दुख सुख पा कर दोनों भाई जवान हुए।
फिर एक दिन छोटे भाई वीर सिंह की एक अच्छी लड़की देख कर शादी की बात पक्की कर दी, छोटे भाई वीर सिंह ने लाख ज़िद्द की मैं शादी नहीं करना चाहता। पहले आप शादी करो पर निहाल चंद ने उसकी एक नहीं सुनी। बड़े भाई के प्यार के आगे वीर सिंह को ही झुकना पडा और घर में लक्ष्मी नहीं सुलक्ष्मी बन कर आई सोन देई जेठ के सामने आज तक कभी ऊँची आवाज में नहीं बोली, ससुर से भी ज्यादा सम्मान दिया सोन देई ने। पूरा गांव कहता था सुने खेत में जैसे धान बो दिया ऐसी बहु आई है रामनाथ के घर पर। घर बसा दिया, कितनी सुलक्षणी और मधुरभाषिणी थी सोन देई। दोनों भाई इतने प्रेम प्यार से रहते थे, मजाल क्या उस घर से कभी किसी ने अपशब्द सुने हो, राम-लक्ष्मण की जोड़ी थी दोनों भाइयों की, बड़ा भाई निहाल चन्द खेत क्यार देखता, छोटा भाई दस क्लास पढ़ कर सी0 ओ0 ड़ी0 में सरकारी नौकरी लग गया था। दोनों भाई दिन रात मेहनत मशक्कत करते, खूब ठाठ से रहते थे। बस यहीं एक मलाल था आज मॉं भी जिन्दा होती तो अपने भरे पूरे घर को देख उसे शान्ति मिल जाती।
शादी के दो साल बाद घर में चन्द्र प्रकाश पैदा हुआ। चन्द्र प्रकाश को बड़े लाड़ प्यार से पाला, मुहँ से मांगने से पहले उसकी हर जरूरत पूरी हो जाती। चन्द्र प्रकाश के बाद एक लड़की हुई जो दो महीने में ही गुजर गई उस के दो साल बाद एक लड़का सुरत हुआ जो आंखों से अंधा हो गया था। वह भी दो साल बाद मर गया। रह गई काणें जैसी एक आँख चंद्र प्रकाश। ताऊ निहाल चन्द्र के तो मानो प्राण ही बन्द थे, चन्द्र प्रकाश में, हल चलाते उसे कैसे पीठ पर बैठाए रहता ताऊ निहाल चन्द्र । सब हंसते तुझे बोझ नहीं लगता इसे सारा दिन पीठ पे बैठाए रहता है, कहते इतना लाड़ मत कर एक दिन इसका सर सातवें आसमान पर होगा, फिर इसे ये जमीन पर चलते फिरते आदमी नजर नहीं आयेंगे। परन्तु मोह ने किसी की एक न सुनने दी। खेल कूद के साथ पढ़ाई-लिखाई में चन्द्र प्रकाश तीव्र बुद्धि था। दिल्ली के हिन्दू कॉलिज से स्नातक की उपाधी ले, फौज में कमीशन मिल गया। भरती भी हो गया मॉं-बाप, ताऊ ने उसकी एक भी बात का कभी विरोध किया है जो वो आज करते। पर वो नहीं चाहते थे कि बेटा उनसे दूर जाये। परन्तु अब करते भी क्या चंद्र प्रकाश के दिमाग में जो ज़िद्द हो गई वो उसने पूरी करनी थी। गांव के लोग ठीक कहते थे बेटा आसमान में उड़ने लगा। पर अब क्या किया जा सकता था बात हाथ से बहुत दूर निकल गई थी। इकलौता लड़का घर से इतनी दुर जा रहा है, इतना पढ़ लिख कर यहां दिल्ली में नौकरियों की क्या कमी है। वो भी फौज की नौकरी करने के लिए। परन्तु तीनों प्राणी मन मार कर रह गये। और चन्द्र प्रकाश कि ज़िद्द के आगे सबने हथियार डाल दिए, सोचा जब लड़का वहां जाकर खुश है, तो हम इसकी जिन्दगी में नाहक रोड़ा क्यों बने, इसे खुश देख कर ही हम खुश हो लेंगे।
बीस गांव में भी किसी का लड़का फौज में आफिसर नहीं हुआ था। सो एक सिपाही के लिए बहुत बड़ी बात थी, आज दोनों भाइयों ने मानों गंगा स्नान किया, लगा आज जीवन की तपिश में एक शीतल हवा का झोंका आया, रात दोनों भाइयों को खुशी के मारे नींद भी नहीं आई। देर रात को जब वीर सिंह घर आया तो भाई निहाल चन्द्र को जागता देख, बड़े अचरज में भर गया, सारा दिन खेत क्यार में खटने पर इतनी देर तक जगना उसकी बढ़ती उम्र के लिए ठीक नहीं था। उसे शक हुआ कहीं भाई कि तबीयत तो खरब नहीं हो गई है,
‘’भाई निहाल कितनी देर हो गी, तू इब तक कोना सोया । तबीयत तो ठीक है थारी।‘’
निहाल चन्द्र--‘’ मेरी तबीयत को कै होरा से, पर आज चन्द्र चला गया घर खान ने दौड़ें से, फिर दुसरी तरफ अंदर एक पश्चाताप है कि वो ऐसा करेगा, पर इस में किसी को कोई कसूर न से, हमने तो अपना फर्ज पूरा किया आगे की राम जाने। जीवन में सब देख लिया और इससे ज्यादा कै खुशी होगी। खेर एक तरफ से खुशी है और दूसरी तरफ देखू तो दु:ख से। मन अंदर से मारे खुशी अंदर कुछ समा ना रहा। फिर तेरा भी मन्न थोड़ फ़िकर था इतनी रात होगी, कीड़ा काट सो बात। भाई इब तू पैदल मत आया कर एक साईकिल खरीद ले। चार पाँव मारे और पहुंचा घर।‘’
ये बात आज बड़े भाई के मुख से सून कर वीर सिंह को बहुत अच्छा लगा। नहीं तो पेट काट-काट कर चन्द्र प्रकाश की पढ़ाई ही पूरी नहीं होती थी। अपनी तो लाख जरूरत यूं ही पड़ी रह जाती थी।
वीर सिंह—‘‘इब मारे दुख के दिन फिर गे भाई, भगवान न तेरी तपस्या पूरी कर दी, पर या फौज की नौकरी मन्य कोना कमल लागती। वो राठ घने के छोरे बाली बात तन सुनी से, फौज में आदमी, का दिमाग ईसा हो जा से वो किसी काम को कोना होता। खेर तू क्यू फ़िकर कर से मैं किसा सु तू मेरे साथ बना रह मन्न कोई फिकर कोना। ले तू सो जा रात घनी होगी, देख हिरणी( सप्त ऋषि मँडल) भी शिखर में आ ली से।’ दोनों भाइयों की जिन्दगी में नया परिर्वतन आया है जिसकी उन्होनें कलपना भी नहीं कि थी क्या मनुष्य जो जीवन में सोचता है वह होता है। वो तो एक कृति है पर के बस में एक गहरे रहस्य की तरह जो बीज अंधेरे में कल उसी का दबाया हुआ है, परन्तु बीज में क्या उसके वृक्ष होने, उसपर पक्षियों का चहकना, उस पर खिले, फूलों-फलों का कोई भान भी होता है। जिसे मनुष्य भविष्य में झांक कर देख सके। वो तो मात्र एक कृति है, कर्ता तो कृति के परे है, प्रकृति में जो होगा कल उसकी परछाई का भी अगर किसी को थोड़ी झलक सी भी मिल जाता है, वह ज्योतिष का विज्ञानी बन हमारे सामने आ कर खड़ा हो जाता है बेजान दारू वाला.... पर ये सब एक अनुमान मात्र है परछाई से बने चित्रों में तुम्हें क्या नजर आ रहा है। ये सत्य नहीं है।
फौज में अफसर भरती होने पर चन्द्र प्रकाश के रिसते भी बड़े-बड़े घरों से आने लगे, लाखों में एक हीरा लड़का बो भी जाट जमादारों में सोने पर सुहागा वाली बात ही समझों। बात टाली भी कितनी जाती, आखिर शादी तो करनी ही थी, न-न करते भी पास झटिकरा गांव के ठेकेदार सरूप किसन की लड़की के साथ हां कर दी। लड़की गोरी, चिट्ठी पढ़ी लिखी भी हाई स्कूल पास थी। चन्द्र प्रकाश जब छुटिटयों घर आया तो लड़की को दिखा कर उसकी हां भरने पर सगाई की बात भी पूरी कर दी। गर्मियों में शादी हुई अपनी औकात से अधिक दोनों भाईयों ने शादी खुब चाव से की, मानों किसी राज घराने की लड़की लें आयें। दहेज में वो सब सामान दिया जो गांव के लोगो ने देख भी नहीं था। टी. वी., फ्रिज, मशीन, कूलर, डबल बेड, अलमारी, और मोटर साईकिल और कपड़े लत्तों की तो दो संदूक भरी थी। टी0 वी0, जब श्याम को चलाया गया तो पुरा गांव आँगन में समाया भी नहीं पा रहा था। पहली बार गांव वालों ने टी. वी. देखा था। ये गांव वालों के लिए अचरज और नई सौगात ही समझो। इतना भरा पूरा आँगन देख कर माँ सोन देई को तो मानों क्या मिल गया चारपाई, पीढ़े, कुर्सी, जो दहेज में सोफा सेट आय था वो भी आने बाले आगंतुक के लिए बिछा दिया। जो घर का दरवाजा सारा दिन ढ़ोर-ड़गरों के लिए बन्द रहता था, अब खुली चौपाल हो गया था। पर अंदर कही एक खुशी थी। हमारे आँगन कोई आया....वो दिन बहुत प्रेम पूर्ण थे। आज तो आपके पास कोई प्रिय मित्र भी आ जाये तो आप बगलें झांकने लगते हैं। आदमी का प्रेम और मन संकुचित होता जा रहा है। इस लिए आज का मनुष्य तनाव और घुटन में एक कैदी की भांति अपने को महसूस कर रहा है। अपनी आजादी के चारों ओर उसने खुद ही मैं की बाड़ खड़ी कर ली है। परन्तु लड़के और बहु को ये भीड़ जरा भी नहीं सुहाई, सोफा वगैरा सब अपने कमरों में रखवा दिए मॉं को हिदायत दे दी गई ये बहुत महंगे हैं, ऐसे रखने से खराब हो जाएंगे। मॉं समझ गई आने बाले दिन अब भारी होने वाले हैं। अपनी खुशियां अपने तक ही सीमित रखी जया तो ही भलाई है। आज का आदमी आपा पोखी हो गया है।
साल भर बाद जब गौना हुआ तब बड़े घर की लड़की के लक्षण मां ने पहले ही दिन से ही देख लिये थे। मां सोन देई समझ गई थी बहु का कोई सुख उसके भाग्य में नहीं है। फिर भी उसने कभी लड़के से या किसी से कोई शिकायत नहीं की। बहु न घर का गोबर पानी, झाड़ू बुहारी, करती थी। देर तक सोते से ही उठती, अब भला कोई नौ बजे तब तक घर का काम किसी का इंतजार करेगा। तब तक तो पचास काम मॉं सोन देई कर चुकी होती। अब मां के हाथ की बनी सब्जी भाजी भी उन लोगों को अच्छी नहीं लगने लगी थी। इतने सालों से जिन हाथों की सब्जी भाजी घी दूध चंद्र प्रकाश खाता आया आज वह बेस्वाद हो गई है। जिन हाथों से उसे पाल पोस कर इतना बड़ा अफसर बना दिया आज वह हाथ चूल्हा चक्की और गोबर के कारण बिवाई फटे और गंदे हो गये है। और चंद्र प्रकाश को चूल्हा चक्की के सामने काम करने के कारण बहु के तन धुएँ की बदबू आती है। और गोबर पानी से उसके हाथ फट जायेगे। फिर भला बहु को चूल्हे चक्की की आदत डाले। ये तो वहीं बात हो गई नहीं साँप के मुहँ में छछूंदर। किसी तरह महीना गुजारना भरी हो गया। अब जब लड़का छुट्टी में घर आता जब ही बहु घर आती, पीछे से यहां क्या काम। सो मां सोन देई सास बनी पर बहु का सुख न लिखा था नसीब में, जीवन जिस लकीर पर पहले चल रहा था, वैसे ही चलता रहा। 1971 का पाकिस्तान के साथ भीषण युद्ध हुआ, लड़का पूंछ में पोस्टिंग था, खबरें आ रही थी वही पर सबसे भयंकर युद्ध चल रहा था। पूरे घर के प्राण अधर में लटके रहते, कई-कई दिन तो चूल्हा भी नहीं जलता था। पूरे गांव का भी यहीं हाल था चन्द्र प्रकाश कोई वीर सिंह का ही लड़का नहीं था पूरे गांव का था। सब रेडियो के कान लगाये पल-पल की खबरें सुनते रहते थे। पूरे गांव में मातम छाया रहता था। ब्लैक आउट के कारण रात के समय ऐसा अँधेरा हो जाता पूरे गांव में की कोई चूल्हा भी नहीं जलता था।
दो चार लोग बैठक में चार-पाँच औरत घर में मदद के लिए आपने काम छोड़, लगी रहती, कैसा प्रेम थी उन पहले के लोगों में, अब वो सब कहां खो गया, कैसा भाव विहीन हो गया मनुष्य, क्या कारण हो सकता है, क्या ज्यादा सुविधा या स्वयं अपने पर निर्भर होने के कारण ऐसा नहीं हो रहा। पहले मनुष्य को एक दूसरे की जरूरत ज्यादा होती थी। पैसे और श्रम से भी खेतों में घरों में किसी और क्रिया काज में, आज साधन के साथ घन भी बड़ गया आज बेटा बाप पर आसरित नहीं रहता पहले कि तरह, इस लिए आदमी का अंहकार भी बढ़ रहा है, मनुष्य आपने होने को दिखाने के लिए कि मैं भी कुछ हूं। कोई कीड़ा मकोड़ा तो नहीं...एक सुखी शान जिसे कोई देखता नहीं। पर उसकी मजबूरी है। जब तुम अंदर से नीरस और सूखे हो बिना प्रेम के तो तुम आपने को बहार से भ्रम पैदा करना चाहते हैं। एक दिखावे की तरह। सार गांव रात दिन यहीं दुआएं माँगता की भगवान चन्द्र प्रकाश की रक्षा करना मानों चन्द्र प्रकाश सोन देई के बेटा न हो सारे गांव का ही बेटा था। कितनी जल्दी समय बदल गया है। आज वो बातें करे तो लोग हंसते हैं। किस सतयुग की बात कर रहे हो बाबा तुम। दुनियां चाँद पर चला गई पता है तुमको....
राम-राम करके किसी तरह युद्ध समाप्त हुआ, इधर लड़के के युद्ध में सही सलामती की खबर आई और दूसरी खुशी घर में पोते ने जन्म लिया। लड़का मायके में ही हुआ क्योंकि वहां अधिक सुविधा थी। घर और गांव ने तो जो ख़ुशियाँ मनानी वो मनाई, गांव भर में मिठाई बंटवाई गई कुआँ पूजन की परम्परा के निभाने की बारी आई अब उसे कैसे मनाए कुआँ पूजन के लिए बहु को यहां आने की बात कहीं तो आने से मना कर दिया। सब के दिलों को ठेस पहुंची, गांव में पहली बार काना फूसी हुई की ये कैसा रिति-रिवाज जो काम जहां है वही शोभा देता है। किसी ने किसी के सामने कुछ नहीं कहां। चन्द्र प्रकाश आया गांव भर के लोग युद्ध के बारे मैं पूछने लगें, चन्द्र प्रकाश ने बताया, दादा भइया की दुआ से ही बच कर आया हूं, वरना मेरे पास मैं ही बहुत बंम्बाड़मैन्ट हुई, मैं एक गहरी खाई में बेहोश हो कर गिर गया पूरी 6 सिख बटालियन के एक तिहाई जवान शहीद हो गये थे। गांव ने कहा गाम खेडे ने लाज रख ली राम..राम...बहुत टेक रखा तूने। ताऊ निहाल सिंह ने बेटे को बहु के कुआं पूजन की बात की लेकिन चन्द्र प्रकाश हां-हूं में जवाब दे कर टाल मटोल कर गया।
समय गुजरता चला गया, तीन साल बाद एक लड़की ने चन्द्र प्रकाश के घर जन्म लिया। इस बार तो बहु चन्द्र प्रकाश के ही साथ ही थी। निहाल चन्द्र के लिए टिकट भेजा की पोती को देखने के लिए आ जाओ। निहाल चन्द्र न लाख मान किया कि मुझे रास्तों का भी पता नहीं है, भाई वीर सिंह चला जाएगा। आखिर निहाल चन्द्र को जाना ही पडा, हिमालय के इतने नजदीक से पहली बार दर्शन किये निहाल चन्द्र ने ‘’योल’’ ( धर्मशाला) में चन्द्र की पोस्टिंग थी, वहाँ ज्वाला मां के दर्शन किये, दलाई लाँबा का मंदिर देखा मकडोलगंज, निहाल चन्द्र ने जब वहां की सुन्दर जगहों का वर्णन गांव में आकर किया तो सारे गांव के लोगों कि आंखें फटी की फटी रह गर्इ। सच तुम पुण्य आत्मा हो निहाल चंद...बड़े भाग पाये जो हिमालय के चरणों में सर टेक आये। मानों निहाल कोई तीरथ कर लोटे थे।
लोग जिज्ञासा से पूछते कैसा लगता है हिमालय पास से जिसपर पांचों पांडव चढ़ते हुए स्वर्ग जाना चाहते थे। धन्य है निहाल तू उस पुण्य भूमि पे हो कर आया है ये सब तेरे पुण्य प्रताप का फल है, जो चन्द्र प्रकाश से सपूत ने तुम्हारे खानदान में जन्म लिया। वहां से आकर ताऊ निहाल चन्द्र ने सारी अपने हिस्से की जमीन पोते के नाम करा दी। घर में तो उसने हिस्सा पहले ही छोड़ दिया था। लेकिन जब से ताऊ चन्द्र प्रकाश के पास से होकर आय है, उदास रहने लगा। वीर सिंह ने लाख पूछा डाक्टर वेद को दिखाया पर वहां कोई बीमारी नहीं, मनुष्य की जीने कि इच्छा ही खत्म हो जाए तो फिर कोई दवा दारू काम नहीं करती। मरने से दो दिन पहले निहाल चन्द्र ने अपने छोटे भाई वीर सिंह को सारे कागज जो जमीन के थे। देते हुए कहने लगा। पोते को देना। और आँखो में पानी भर कर कहने लगा—‘’मारी तपस्या में जरूर कोई कमी रह गई। हमने आम का पेड़ समझ कर जिसको सींचा वो किंकर का निकला। तू अपना ख्याल रखना। वरना मैं बाबू को क्या मुँह दिखाऊंगा़।‘’ और निहाल चंद ने शरीर त्याग दिया।
वीर सिंह ने बेटे को तार किया तू छुट्टी लेकर घर आज जा। अपना भरा पुरा घर है, निहाल कोई बेऔलाद थोड़े ही मरा है। तू मेरा बेटा कम उसका ज्यादा है। पूरे दस गांव का काज (भोज) करना चाहिए। लड़के ने आकर भरी पंचायत में कह दिया ये सब बे पढ़े लिखें लोगों की बातें नहीं है। मरने के बाद जब शरीर ही नहीं रहा तो नाहक भोज के नाम पर पैसा बरबाद करना कोई समझ दारी नहीं है। पैसा कोई इतनी आसानी से कमाया नहीं जाता पैसा कमाने के लिए में इतनी दूर जंगलों में यू ही नहीं पडा रहता। हर समय मौत के साये में हम भूखे प्यासे जीते हैं। इस तरह के फिजूल खर्च मैं नहीं कर सकता। टका सा जवाब सुन कर सार गांव दंग रह गया। इस बात की किसी को भी उम्मीद नहीं थी। गांव के लोगो की आंखे फटी की फटी रह गई कि कम से कम की पढ लिख कर आदमी के अपने संस्कारों को ऐसे दकियानूसी कह कर ठुकरा दे ये कोई शोभा दायक बात नहीं है। कोई और बहाना बना सकता था। नहीं तो अपने मां बाप की खुशी के लिए हां ही कर देता तो उसका क्या जाता। मां बाप भी तो बच्चों की खुशी के लिए अपने सिने पर लाख पत्थर रख लेते हैं। ये बात सही नहीं है ये अहंकार की बातें है...अरे अहंकार रावण का नहीं रहा। तौबा..तोबा.. कुछ तो बातें सोच और सिद्धान्त, और नैतिकता के परे की होती है। जो किसी के लिए प्रेम हृदय से की जाती है। दिमाग से प्रत्येक वस्तु का हिसाब किताब नहीं लगाया जाना चाहिए, कभी-कभी दूसरों की खुशी के लिए भी.... कुछ करने की आदत डालनी चाहिए। पर चन्द्र प्रकाश ने किसी की नहीं सूनी। लोगो ने लाख उसे समझाया। वह टस से मस नहीं हुआ।
आज भाई की मौत का इतना गम नहीं हुआ, वीर सिंह को जितना बेटे की बातों का है। क्यों पूछा उसने उस भरी पंचायत में? इससे अब उससे हाथ भी बंध गये है जिससे वह अब अपने भाई का काज भी नहीं कर सकेगा। परन्तु उसे उम्मीद नहीं चन्द्र प्रकाश से कि वो ताऊ के लिए ऐसा सोचेगा। परन्तु सब आस धरी की धरी रह गई। एक महीने तक उसके भाई के फूलों को सम्हाल कर रखा की चन्द्र प्रकाश के हाथ से गंगा में प्रवाहित कराऊंगा। चिता को तो वह अग्नि न दे पाया क्योंकि वह दूर था। कम से कम फूल तो चन्द्र प्रकाश के हाथों प्रवाहित हो ही जाते जिससे मरने वाले की आत्मा को थोड़ी राहत मिल जाती। कि मैं बेऔलाद नहीं मरा। लोग औलाद होने किस लिए क्या-क्या मन्नत नहीं मांगते हैं। इसी लिए ना कि भगवान बुढ़ापे में सहारा देना, मेरे वंश को चलाएगा, मेरी मरी मिट्टी को गंगा में प्रवाहित करेगा। पर आज वह अंदर तक जम गया, क्या यहीं जीवन है। जिस पर अपना कोई अधिकार नहीं, या हम खुद अपनी डोर दूसरों के हाथों में थमा कर मूक खड़े हो जाते हैं पशु वत...आज उसे अपनी सोच और करनी पर गर्व नहीं ग्लानि महसूस हो रही थी। कि न अपने लिए कभी सोया न कभी अपना पेट भर खाया। इस चन्द्र प्रकाश के लिए भाई और उसने सब दाव पर लगा दिया। जैसे जीवन न हो कोई जुआ बन गया। और अब इनकी बारी आई तो इन्हें जीना है। और देखो इसने पल में सबके सामने यू टका सा जवाब दे दिया।
उस दिन के बाद से वीर सिंह ने लड़के से बात करना ही छोड़ दी। जो उसके भाई वीर सिंह का सम्मान नहीं कर सकता वह मेरा क्या करेगा। दोनों पति-पत्नी गांव में कहीं भी आने जाने से हिचकिचाने लगे। एक प्रकार से आपस में भी अबोले होकर भी एक दूसरे को सब कुछ कह देते थे। लाख समझाने पर भी कभी वैसे चाव से रोटी नहीं खाई वीर सिंह ने, सोन देई देखती रहती, जब से ताऊ गुजरा है मानों घर में सब होने पर भी कुछ खाली-खाली पन सा महसूस होता रहता है। जिसमें रहने और जीने में अब दोनों प्राणियों का दम घुटता था। एक टीस उठती रहती थी उनके दिलों में। पर कोई एक दूसरे को शिकायत नहीं करता था। देखते ही देखते वीर सिंह की बज्र काया भी मुरझाने लग गई और वो भी चारपाई पे पड गया। साल भर के अन्दर ही दूसरा भाई भी चल बसा। अम्मा जब इन बातों को याद करती तो ये बात इतनी पुरानी लगती थी की इनकी धूल-धमास हटाने के लिए भी अम्मा को युगों पीछे जाने जैसा लगता था। लगता किसी और लोक और शरीर पर से ये सब गुजार है। क्या ये सब बातें इसी जीवन की है उसे खुद ही अपने पर यकीन ही नहीं आता था। पर मन कही भूल पता है, दर्द को तुम लाख भुलाओ-छुपाओ वह बार-बार मौके बेमौके झांक ही पड़ता है। हृदय की खिड़की से। आपकी आँखों के सामने ही वो दिन में सपने के समान देखने लग जाते हैं। मानव की यहीं पीड़ा और तीरादसी है।
इतने सालों से अम्मा अकेली रहते हुए ऐसे हो गई है, जैसे दीमक खाई लकड़ी जो न तो कुछ बनाने के काम की और न ही जलाने के काम की, वह जलेगी कम धुंआ अधिक देगी। आज जीवन की संध्या पर पहुंच कर इस भूतहा घर में बैठ कर उस उन स्वर्णिम दिनों को याद करती है। कि कैसे किलकारी मारता चंद्र प्रकाश उसकी गोद से निकल कर दूर आँगन में भाग जाता था, हाथ में लाख काम होने पर भी उसे बार-बार पकड़ना पड़ता था। कैसे दिन पाखी की भाती आता और ऊढ़ जाते हैं, मानो अभी तो पलक ही झपकी है। आज दिन कैसे युगों लम्बे हो गए है। वो सब क्या इसी देह पर से ही गुजरा था यकीन नहीं आता, वो जो हम सफर थे जो उस समय के गवाह थे वो भी तो नहीं रहे, फिर कौन आकर यकीन दिलाए। या मात्र एक छाया थी जो आज भी उसकी गवाह थी......। मन का संतुलन भी अम्मा का बिगड गया था। ये मन भी क्या है, सहने को इतने बोझ को सह लेता है, नहीं तो क्षण में पागल हो जाता है। अम्मा की बातें बिना सर पैर की होती थी। कभी कोई पडोसिन आकर अम्मा का हाल चाल पूछती तो अम्मा की आधी बातें उसकी समझ में आती आधी सर से गुजर जाती क्यों वो कल की बहु बेटी, उसने कितना अम्मा के जीवन को देखा जो सूना वो भी आधा-अधूरा,
अम्मा अपने पेट के हाथ लगा उससे पूछती बेटी तू किसकी बहु है, कितने बच्चे हैं तेरे, फिर आशीष देती, ‘सदा सुहागन रहो दूधो नहाओ पूतों फलों।‘ पर बेटी देख में तो बांझ रहा गई भगवान ने तेरी तो गोद भर दी। बहुत ही अच्छा किया।
‘नहीं अम्मा आपके भी एक बेटा दिया है भगवान ......उसे उम्र दे।‘ वो भूल सुधारने की कोशिश करती। पर शायद अम्मा को ये शब्द नहीं सुनाई देते। वे किसी कि सुनती नहीं केवल कहती है। नहीं वो सब समय के पार है......आज तुम देखती हो, मेरा कोई नहीं है। क्या संतान इसी दिन के लिए पैदा की जाती है। तुझे भ्रम है मेरा कोई संतान नहीं है। तूने गलत सुना होगा। मैं बांझ हूं...अभागिनि हू....पापिन हूं...कलंकिनी हूं..... और आंसुओं से झूरी पड़े चेहरे पर नीर की धार बहने लग जाती।
‘चारों और निभ्रर्म फैली शान्ति फैल जाती वो शांति जो अम्मा के चेहरे पर भी दिखाई दे रही थी, वो केवल अछूती सी देखती जरूर थी पर कही दूर खड़ी होकर देखती सी जरूर प्रतीत होती थी। शायद उस निर्दोष शांति का भी साहस नहीं होता अम्मा के पास जाने का, उसे सहलाने का साहस नहीं कर पा रही थी। मानो आकाश में तूफान से पहले वो शान्त हो और आगे के मंजर को झेलने की तैयारी कर रहा है। अम्मा जब सोचती है तो कैसे कलेजा मुहँ को आता है, क्या बुरा किया था किसी का हमने, एक दिन सुख का नहीं देखा, हजारों में एक औलाद पैदा कि( ऐसा लोग कहते थे), फिर भी क्यों मन और आत्मा का सुख न पा सकी, क्या यहीं प्रकृति है, या एक पर बसता, या अन्याय। हमारे घर में तो सात पीढ़ी तक भी ऐसा बीज नहीं था। किस जन्म में मुझसे भूल हुई और उसकी बूढ़ी आंखे जल से भर-भर आती थी..... पर आंसू नहीं बहते थे। बूढ़ी अम्मा की आँखो से इतना नीर बह चूका था, चाहा कर भी उन सुखी आँखें में नीर खत्म नहीं हो पा रहा था, केवल एक पीड़ा उठती तूफान की तरह, मानों सब के साथ उसका कलेजा भी बहार आ जाएगा, अगर वो अपने पोंपले मुहँ में कपड़ा ठूंस कर उस न रोकती। ऐसा लगता जैसे अन्दर कोई तीखी चीज चीरती चली गई हो, एक असह वेदना, एक घुटन, एक लाचारी, एक बेबसी... पर अब वह सो जाना चाहती है, एक गहरी नींद में, जहां कोई उसे अपने होने का अहसास भी न दिलाए ..... ... ।
कब तक ढोए जाए इन सांसों के बोझ को, जब तक कि चिता न जाना हो.... काश वो जीने का बोझ ढोने कि बजाय मारना सिख लेती, अपने लिए जीना आपने होने पर को जान लेती, तो कितना जीवन धन्य हो जाता....अम्मा ने एक गहरी सांस ले और लिहाफ में मुहँ ढंक कर आंखें बंद कर ली। यही सोचते हुए कि ये उसकी आखिरी रात होगी, पर ये क्रम सालों से यू ही चल रहा है। मानों मृत्यु ने भी अम्मा से मुख मोड़ लिए है और उसे भूल गई है।
बार-बार अम्मा यही रटन लगती रहती चेतन अचेतन से कि काश...कितना अच्छा होता मैं बांझ रह जाती, कम से कम एक भ्रम तो बना ही रह जाता कि मेरा कोई नहीं है, एक आस की लकीर भी नहीं होती जिस पर कुछ लिखा जा सके.......और वो फफक पड़ती। वो सारे दर्द फोड़े फफोले बन, उनके मवाद को आंसू बन कर बह जान चाहता थे। कौन देखने बाला है उन आंसुओं को, दूर क्षितिज पर वो तारे, वो मंदाकिनीय, वो नक्षत्र, या वो शुन्य आकाश, सब मूक मौन केवल अनछुए से देख सकते हैं। शुन्य अंधकार में झुर्रियां पेड चेहरे पर सूखे आंसू भी उबड़-खाबड़ चेहरे पर रेगिस्तान की तरह पड़ी लकीरों में सिमट कर रह जाते थे।
अम्मा को हर रात अपनी आखिरी साध का इंतजार रहता......देखो कब पूरी होती है उसकी साध।
स्वामी आनंद प्रसाद ’मनसा ’
गांव दसघरा,नई दिल्ली–110012,
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