डॉ. कर्मानंद आर्य की दलित कविताएँ : अर्थी उठाने वाले मेरे खुरदरे हाथ हँसो जितना हँस सकते हो मुझसे उतनी ही नफरत करो जितनी मौत से मुझ...
डॉ. कर्मानंद आर्य की दलित कविताएँ :
अर्थी उठाने वाले मेरे खुरदरे हाथ
हँसो जितना हँस सकते हो
मुझसे उतनी ही नफरत करो जितनी मौत से
मुझे कविता से प्रेम नहीं
नहीं जानता मैं संगीत, साहित्य, कला
तुम्हारे पशु बाड़े में मेरा नाम लिखा है असभ्य
हाँ, मैं दोपाया
जानवर ही तो हूँ
मेरे लिए देश की सीमाओं से चौड़ी है भूख की नली
तुम्हारी चौहद्दी मेरी दुनिया
तुम्हारे कुत्ते और मेरे बच्चों में नहीं कोई अंतर
दोनों अपने व्यक्तिगत कारण से स्कूल नहीं जाते
नींद में खनकती है तुम्हारी गाली
मेरे दांतों से रिसता है मरे गोरू का लहू
संवेदना तो उसी दिन मर गई थी मेरे भीतर
जब बीमार बाप को पीटा था तुम्हारे लठैतों ने मरने तक
भय फैल गया था पूरे मुहल्ले में
सहम गई थीं नई पीढियां
तोड़ डाली थी बूढी कमर
दिन-दिन रोया था मैं काम गई माँ के इन्तजार में
भय का व्याकरण, छुपा है सात ताले डाल
असभ्य बर्बर पंजों में
तुम मुझे संस्कृत का हन्ता मानते हो
मैं भी तुमसे उतनी ही नफरत करता हूँ
जितना तुम करते हो मुझसे
मरी नहीं है मेरी आत्मा
बस अर्थी उठाने वाली मेरी हथेलियाँ
खुरदरी हो गई हैं
सपनों के जुलाहे
चमर जुलाहों की यंत्राश्रित / पनियाई आँखों में
अब नहीं उतरता ताना बाना
सूख गए हैं स्रोत
रो रही है गाभिन नदियाँ
महाजनों की कारस्तानी बीते दिन की बात हो गई
शोर मचने वाली मशीने, खामोश रखती हैं उन्हें
आश्वासन के पंख लगाती है राजनीति
ढेले चुगाते हैं उन्हें नेता के चमचे
सपनों के जुलाहे बुनते हैं
कपड़ो की आहट, जो आती है अतीत की दुनिया से
नववधू सी घूँघट खोले
सपनों के जुलाहे चले जाते है मजदूरी करने दूरदेश
सपने बुनते हुए
पटना, ११/१२
आजादी नए अर्थों में
उनके जुवाठे पर / मेरे बैल का कन्धा
दुखता है / जम जाता है शिराओं का खून
नथुनों से निकलता है स्याह फेन
बांस के डंडे से पीली पड जाती हैं /कमजोर हड्डियाँ
समय का साक्षी पथरा जाता है आसमान
हवा को घुन लग जाता है
सूख जाती है रह्टें / खो जाती हैं पगडंडीया
और हम हैं की नध जाते हैं
असमय
नीली रातों के बियाबान होने तक
हमें मालूम नहीं विद्रोह की परिभाषा
हमने सोचा नहीं हरम में खलल डालना
हम सदा ही रहे वफादार
हम सब जोतते रहे अपना समझ कर
अपने पसीने से सीचते रहे हरी फसलें
सिवाय हिकारत गाली एक जून रोटी के
मिला सदियों का संताप
महगाई बढ़ रही है धीरे धीरे
सोचता हूँ मालिक से थोड़ी चालाकी उधार लूँ
और आजाद कर दूँ कमजोर बैल को
विजेता जैसे योद्धा वे
ठीक सुबह के सात बजे हैं
टोलियाँ तैयार हो रही हैं
आज उन्हें अंतिम युद्ध लड़ना है
वह सब कुछ / जो उनके खिलाफ है
वह सारी साजिस / जो उनका हक़ छीनती है
आज उन्हें दुःख का मातम नहीं मनाना है
सिर्फ हथियारों को पैना करना है
जो हथियार उनके खिलाफ शामिल थे दमन में
उन्ही हथियारों से करना है पलटवार
पीढ़ियों बाद पता चला है उन्हें
संघर्ष के खूंटे से बधी उनकी गाय
भाग गई बाड़ा तोड़कर पण्डितबाड़ी
आज वो सीख रहे हैं
सभी स्तरों पर युद्ध लड़ना
सुबह के सात बजे हैं
उनकी टोलियाँ निकल पड़ी हैं
उनके हाथों में लड़ने का सामान मौजूद है
ओ आज आम आदमी की तरह लड़ने जा रहे हैं.
आजमगढ़ की लड़कियां
कुछ खास नहीं है
और न ही खास होने की चाहत है
उनकी छोटी किन्तु आसमान भरी आँखों में
न ही कोई मिथक पलता है
घास ले जाते, गोबर पानी करते
धान काटते हुए
आजमगढ़ या दूरदराज के गांवों में
जवान होती लड़कियों के भीतर
यह पूर्वी उत्तरप्रदेश का पिछड़ा जिला है
विकास की राहों से अमूमन दूर
भारत के अन्य गांवों जैसा दलित और दबा हुआ
पढने की चाहत है उनमें
और बला की सोंधी खुशबू भी
उनकी माटी गोबर भरी जिन्दगी में
कटिया निराई गुड़ाई से उबरे समय में
वे गाती हैं बिरही प्रेमियों के गीत
बन्नी बन्ना या कजरी
देखती हैं खुली आँखों से हरियाये दिन
एक दिन खुशनुमा हो जायेगा उनके आसपास का दियारा
बच्चे स्कूल जायेंगे
पढ़ेगें तो बढ़ेगें
हो जाएँगी पक्की सड़कें
घोड़े पर सवार होकर आएगा राजकुमार
जिसे ढूंढा होगा मामा मासियों ने
आजमगढ़ की लड़कियां
छोड़ देगीं रास्ता
आने वाली लड़कियों के लिए
हरिद्वार ०६/०१/१०
वो मेरी तुम
मैं तुम्हे प्यार करना चाहता हूँ
जैसे छूती हैं झुकी डालियाँ नदी का मुख
जैसे पछुआ छूती है तुम्हारी नर्म देह
छूना चाहता हूँ तुम्हारी आहट
तुम पकाती हो पकवान
गर्म साँसों से उठाती हो खुसबू
हथेलियों का प्यार उड़ेलता है अमृत
तुम जानती हो मुझे खुसबू से प्यार है
तुम जानती हो ठीक-ठीक प्यार का मतलब
करती हो निराई गुड़ाई
खिले पेड़ो पर नर्म हाथों से करती हो गर्म मालिश
सहलाती हो बालियाँ
गदराई फसलें देख खिलती है छाती
शाश्वत प्रेम की चाहत में
तुम खिलाती हो फूल
गाय के थनों से निकालती हो दूध
तुम जानती हो काम से प्रेम
तुम से प्रेम करना है
तुम तिल-तिल जलाती हो खुद को
ताकि उजाले में रहे घर
आधुनिक एकलव्य कथा
तो क्या-क्या बताऊँ महाराज!
असगुन कथा सी
लम्बी उसांस भारती है कंक्रीट
मेरा जन्मना
है एक पथभ्रस्ट शहर की तरह
जो देखने में तरक्कीपसंद
किन्तु परंपरा में दकियानूस है
कंगूरे की नीव पाटते-पाटते
जहाँ दबी हैं मेरे पूर्वजों की अस्थियाँ
माँ के खून से जहाँ रंगी गई हैं दीवारें
सफ़ेद ग्लोब में
जहाँ मेरे बचपने ने अपना घर होने का सपना देखा है
महामहिम ! मालिक के लालगुझौवा अमरुद पेड़ों पर
लटकी हुई है मेरी भूख बैताल सी
चमरौधे जूते की फटी बिवाईयों में झांकती रही है गरीब सर्दी
मैंने जीने के सारे हक़ अदा किये हैं
डरे पिंजड़े की बंद काया भीतर
क्या करूँ महाराज!
मर जाती है संवेदना, बौने हो जाते हैं शब्द
कुत्ते रोते हैं अँधेरी गलियों भीतर
जब मूल्यांकन होता है मेरे अस्तित्व का
जब जाति का शेर दहाड़ता है
पैरवी में ऊपर से चिट्ठी आती है
जातीय परंपरा में प्राप्त, सिर्फ क्षणिक आक्रोश होता है
संवेदना में समझाते हैं मेरे डरे पुरखे
कोई नई बात नहीं, कहे जाने वाले भगवान?
पुरषोत्तम राम ने जातीय छल किया था
ओढ़ी थी धर्म की चादर
निरीहों को मारा था जातीय छल से
आज समय पत्थर हो गया है
दर्द दुखता है नीली धमनियों में
आरक्षण मध्यमवर्गीय सवर्णों के विमर्श का विषय है
वो उसी तवे पर अपनी रोटी सेंक रहे हैं
जिसकी आग बुझी नहीं है
धर्म जल रहा है, राख हो रही है संवेदनाएं
उन्हें बनाना है पैसा
क्योंकि सारी शक्ति उनके हाथों में है
उनकी मजबूत साजिस सफल है, नॉट फाउंड सूटेबल के बाद
और भी कई बहाने हैं
एटोटाईज, री एटोटाईज
सरकारी नौकरी में सिर्फ दो प्रतिशत
आरक्षण मेरे लिए नौकरी है
क्योंकि मैंने भोगी है आरक्षित होने की पीड़ा
स्वयं को स्थापित कर पाना कठिन है
यह कोई विद्रोह नहीं
स्वयं पर कविता लिखने की साजिस है
स्वयं की मूर्तियाँ बना हँस रहे हैं हम
किये कराये की लम्बी सूची दर्ज है महाजनी खाते में
कैसे सुनेंगे आप अधूरी कथा बिना भोगे दुःख
एक मिथकीय संवेदना के साथ
उनके बनाये जाल, मेरी जिन्दा साँसों के लिए
अंगूठा नहीं, कैसे काटी गई हैं मेरी पांचो अंगुलियाँ
यदा-कदा रिसता है उनमें खून
पर मैं हारा नहीं हूँ महामहिम
मेरे जबड़े अभी भी सलामत हैं
स्टेशन पर खाली रिक्शा
इस काली पथरीली रात में
जब ठिठुर कर शांत हो गई है आग
ठंडे पड़ गए है चूल्हे
आसमानी घड़ियों की सुइयां तीन बजा रही हैं
ठीक एक घंटे बाद
जब कुछ लोग चले जायेंगे खबरें बेचने
स्टेशन के सामने खड़ा होगा एक रिक्शा
इसी काली पथरीली रात में
एक मोटा आदमी करेगा हुज्जत
देर तक घुमायेगा, किसी चकाचौंध घर की तलाश में
हेकड़ी मार देगा चवन्नी
गरीबी को गाली देगा जाते हुए
परती खेत की पहली जुतान के बड़े ढेले जैसे
बड़े बड़े उसके सपने,
चरमरायेगें दूसरी जुतान पर
पाटों से चकनाचूर होगी जिन्दगी
सुबह उठकर जुन्झलायेगा बेटा किताब के लिए
उड़ाएगा शिक्षा के अधिकार का माखौल
यह पटना शहर है
कहते हैं कभी इसी जगह पसीजी थी बुद्ध की आत्मा
बहुत रोई थी उनकी करुणा
आज रिक्शे पर सवार भूख, भटकती है गली दर गली
रिक्शा फिर-फिर खड़ा हो जाता है
बुद्ध की तलाश में
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Dr. Karmanand Arya,
Assistant Professor,
Center for Indian Language-Hindi,
School of Foreign and Indian language,
Central University of Bihar,
(Founded by GoI under Central Universities Act, 2009)
Camp Office: BIT Campus-Patna
P.O-B.V. College, Patna 800014,
Bihar, India
Email: karmanand@cub.ac.in; karmam1984@yahoo.co.in
Fax: +91-612-2226535
Mobile: +918092330929,+919236544231
आज 11/02/2013 को आपकी यह पोस्ट (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
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