रूपनारायण सोनकर ः कफ़न का जवाब ‘ कफ़न * कुमार अरविन्द रूपनारायण सोनकर जी बधाई हो । क्या ‘शाट' मारा है । गेंद तो बांउड्री के बाहर जा ग...
रूपनारायण सोनकर ः कफ़न का जवाब ‘कफ़न*
कुमार अरविन्द
रूपनारायण सोनकर जी बधाई हो । क्या ‘शाट' मारा है । गेंद तो बांउड्री के बाहर जा गिरी । फिल्डर चारों खाने चित वाह क्या जवाब दिया है देर ही सही किन्तु उत्तर तो दिया । वह भी ईंट का जवाब पत्थर से । ऐसा जोरदार तमाचा जड़ दिया । चेहरे पर पाँचों अंगुलियों के निशान उभर आये । किन शब्दों से आप की प्रशंसा करूं । संपादक महोदय को पत्रिका में कहानी को स्थान देने के लिए हार्दिक बधाई ।
प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न' उर्दू मासिक ‘जामिया', दिसम्बर 1935 में प्रकाशित हुई । रूपनारायण सोनकर कहानी ‘कफन', ‘अपेक्षा' अप्रैल-जून, 2008 में प्रकाशित हुई । दोनों कहानियों के बीच समयान्तराल लगभग 73 साल का है । प्रेमचंद की कहानी के नायक ‘घीसू' और ‘माधो' हैं स्त्री नायिका बुधिया तो वहीं पर रूपनारायण सोनकर की कहानी के पात्र जीतलाल श्रीवास्तव पुत्री सलिला श्रीवास्तव, संगम सक्सेना, सतनाम सक्सेना और गायत्री देवी। ये तो हुई पात्रों की बात । अब कथावस्तु पर बात की जाय । पे्रमचंद की कहानी पर प्रगतिशील चेतना का आरोप लगाया जाता है । यानीकि यह कहा जा सकता कि प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ 1936 स्थापना के पहले ही प्रगतिशील हो गये । तब उनके लेखन पर आलोचक एक ‘पुछल्ला' लगा देते हैं जिसे यथार्थवाद की संज्ञा देते हैं । किन्तु ऐसा है नहीं । प्रेमचंद यथार्थ के निकट पहुँचने की कोशिश की है पर वे पहुँच नहीं पाये । इस सच को भी नहीं नकारा जा सकता कि बीसवीं सदी की सबसे विवादित कहानी का श्रेय भी कफ़न को ही जाता है । चर्चा और विवाद के अन्तर्द्वन्द पर दृष्टि डालें और कहानी को ब्राह्मणवादी नजरिये से देखें, तो कहानी उत्कृष्ट है । क्योंकि धर्मशास्त्रीय मर्यादाओं का पालन करते हुए कहानी में शूद्रों को चाण्डाल रूप प्रस्तुत हुआ है । प्रगतिशील दृष्टि से देखे तो कहानी निकृष्ट है क्योंकि कहानी में अकल्पनीय मानवीयता का बोध है ।[1]
प्रेमचंद ने ‘घीसू' और ‘माधो' को निठल्ले किसानों का शातिर दिमांग कहा जो काम नहीं करना चाहता । प्रेमचंद कहते हैं, ‘‘जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वो लोग जो किसानों की कमजोरियों से फायदा उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा निश्चिंत थे, वहांँ इस फिल्म की जेहनीयत का पैदा हो जाना कोई तअज्जुब की बात न थी । हम तो कहेंगे, घीसू किसानों के मुकाबले में ज्यादा सूक्ष्म दृष्टा था और किसानों की खाली-दिमाग बिरादरी में शामिल होने के बदले शातिरों की उपद्रवी बिरादरी में शामिल हो गया था । हाँ, उसमें ये योग्यता न थी कि शातिरों के नियमों की पाबन्दी भी करता । इसलिए जहाँ उसकी जमाअत के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उसकी सारा गाँव निंदा करता था । फिर भी उसे ये सन्तोष तो था ही कि अगर वो खस्ताहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जिगरतोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सादगी और बेजुबानी से दूसरे बेजा फायदा तो नहीं उठाते ।''[1] और वे स्वाभिमानहीन हो गये मुझे नहीं लगता घर में लाश पड़ी हो, घर का आदमी यदि आठ दिन का भी भूखा हो ‘कफ़न' के पैसे से शराब पियेगा, और अपनी आत्मा को तृप्त करेगा ।
रूपनारायण सोनकर ने नाम भी गजब का रखा जीतलाल श्रीवास्तव । जिसे जिताने के लिए तीन हुकुम के पत्ते धैर्य रखते हुए फेंकते है । हर बार की चाल (सोनकर) जीतलाल श्रीवास्तव के पाले में पड़ी । पहली ही शर्त में सोनकर ने ‘छक्का' मार दिया । जीतलाल श्रीवास्तव का कथन है,
‘‘हमारी बिरादरी के कुछ नियम कानून हैं, उनको आपको मानना होगा ।''
‘‘आप श्रीवास्तव और मैं सक्सेना हूँ । हमारी और आपकी बिरादरी एक है ।''
‘‘नहीं हमारी और आपकी बिरादरी अलग-अलग है । मैं और मेरा पूरा परिवार अपने-अपने नामों के आगे श्रीवास्तव लगाता है लेकिन हम मेहतर जाति के हैं ।''
यह सुनकर संगम सक्सेना दंग रह गया और सोच-विचार में पड़ गया लेकिन करोड़ों रूपये दहेज के लालच में उसे कुछ सोचने को मजबूर कर दिया ।
‘‘हम लोग जातिवाद पर यकीन नहीं करते हैं ।''
लेकिन यदि आप कुछ दिन बाद हमारी लड़की को ताना देने लगे, मेहतर कहकर गालियां बकने लगे तो हमारा और हमारी लड़की का बहुत अपमान होगा । आप जो दहेज मांग रहे हैं, हम देने को तैयार है लेकिन हमारी कुछ शर्तें हैं ।''
‘‘आप अपनी शर्तें बताइए, हम भी सुने, आपकी क्या शर्तें हैं ?''
‘‘आपको और आपके लड़के को हमारी बिरादरी में बैठना पड़ेगा । हमारी बिरादरी के मुखिया एक ऊँचे मचान घर की छत के ऊपर बैठेंगे । वे लोग सूअर का पका हुआ गोश्त खाएंगे, मचान के नीचे बैठकर उनकी खाई हुई हडि्डयां आप दोनों को चूसना होगा । और उनके द्वारा ऊपर से नीचे फेंका गया जूठा गोश्त भी खाना होगा ।''
‘‘आप ऐसा क्यों करवायेंगे ?''
‘‘हमें यकीन हो जायेगा कि आप हमारी बिरादरी में शामिल हो गए हैं । आप मेहतर बिरादरी के हैं ।'' संगम सक्सेना अपना सर नीचे किए हुए बोला-
‘‘आपको फिर पांच लाख रूपये और देना होगा । इस तरह आपको दहेज में एक करोड़ पाँच लाख रूपये देने होगें ।''
मेहतर जीतलाल श्रीवास्तव गर्व से बोला-
‘‘हमें मंजूर है ।''[1]
यहां पर इतना लम्बा उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं थी फिर भी बात को स्पष्ट करने के लिए आवश्यक था । दूसरी शर्त ‘भिष्ठा' उठाने की है । प्रेमचंद ने घीसू और माधो को अपने ‘शातिर दिमाग' से ‘स्वाभिमान' को कुचल दिया । प्रेमचंद ने घीसू और माधो को झूठे, कामचोर, लापरवाह, निकम्मे, निठल्ले और लालची साबित करार दिये लेकिन वहीं पर अपनी कलम से ‘शातिर-दिमाग' सूक्ष्म दृष्टि का भी घोषित कर दिया । ‘‘प्रेमचंद घीसू और माधो को कफन के लिये भेज कर लोक की खिल्ली तो उड़ाई ही है, गाँव की चमार जाति को निष्ठुर निर्दयी और नकारा साबित करने का दुःसाहस किया है । बाप-बेटे को गाँव के जमींदार के यहाँ बुधिया के कफन के लिये चंदा करने भिजवाते हैं । जहाँ अन्य साहित्यकार जमीदारों को शोषक का पर्याय मान रहे थे, वहीं प्रेमचंद उन्हें दयालु प्रवृत्ति का होना सिद्ध कर रहे थे । यहाँ प्रेमचंद ने जमींदारी का बड़ी श्रद्धा से यशोगान किया है । जमींदार घीसू की ओर दो रूपये फेंक देेते हैं । चंदा बटोरते-बटोरते दोनों के पास पाँच रूपये इक्ट्ठा हो जाते हैं, 70 वर्ष पहले जो एक बहुत बड़ी रकम थी ।''[1] जिससे उनकी कलम पकड़ में न आये । लेकिन वे फिर भी गिरफ्त में आ गये, सोनकर के । रूपनारायण ने अपने तेज दिमांग से ‘शतरंज की चाल' को चित से पट कर दिया । प्रेमचंद जो संघर्ष उत्पन्न किया है वह ‘घीसू' और ‘माधो' के पेट की ‘आग' शांत करने के लिए । ‘‘माधो ने श्रद्धा से सिर झुकाकर पुष्टि की- जरूर होगा । भगवान, तुम अन्तरजामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना । हम दोनों हिरदय से उसे दुआ दे रहे हैं । आज जो भोजन मिला, वो कभी उमर भर न मिला था ।''[1] यह तो एक असम्भव सी स्थिति प्रतीत होती है कि घर में एक ओर लाश पड़ी हो । दूसरी तरफ खाना दारू पी जाय । ऐसा हो ही नहीं सकता । वह भी एक दलित के घर में नहीं बिल्कुल नहीं ।
घीसू और माधो भोजन को लेकर जंग लड़ रहे हैं । पर जीतलाल श्रीवास्तव स्वाभिमान की जंग लड़ रहा है । ‘‘लालच और स्वाभिमान की जंग जारी थी । लालच धनपाने के लिए कुछ भी करने को तैयार था । स्वाभिमान अपना सर उठाने के लिए सब कुछ लुटाने को तैयार था । एक धन को सर्वोपरि मान रहा था दूसरा सम्मान और प्रतिष्ठा को । एक तरफ लालच जितना नीचे जा सकता था जा रहा था, दूसरी तरफ सामाजिक प्रतिष्ठा और दलित अस्मिता आसमान की ऊंचाई को छू रही थी ।''[1] ‘कफ़न' के पैसे से पेट की आग शांत करना । दलित अस्मिता सामाजिक प्रतिष्ठा को गिरा देना है । लेकिन रूपनारायण सोनकर के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा दलित अस्मिता, स्वाभिमान सबसे ऊपर है ।
प्रेमचंद यदि सामाजिक जीवन पर व्यंग्य करते है तो उसमें ‘तलवार-सी धार' नहीं लगती । अपितु ‘गूठल' धार मालूम पड़ती है, ‘‘घीसू खड़ा हो गया और आनन्द की लहरों में तैरता हुआ बोला- हाँ बेटा बैकुण्ठ जायेगी । किसी को सताया नहीं । किसी को दबाया नहीं । मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गई । वो न बैकुण्ठ में जायेगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जायेंगे जो गरीबों को दोनों हाथ से लूटते हैं और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में जाते हैं और मंदिरों में जल चढ़ाते हैं ।''[1] ये कटाक्ष हल्का मालूम पड़ता है । रूपनारायण सोनकर गरिमा की लड़ाई लड़ रहे है, ‘‘जी हाँ, गरिमा सर्वांग होती है । इसे हिस्सों में नहीं बाटा जा सकता । रोटी की गारन्टी देकर किसी की इज्जत नहीं छीनी जा सकती । दलित चिन्तक अपने पूर्ण विकास में हैं । रोटी मिलती है तो इज्जत की रक्षा की लड़ाई ज्यादा अच्छी तरह से लड़ी जा सकती है । गरीब की बहू सब की भाभी क्यों बन जाती है ? यदि दलित ने अपने चिन्तन को आकार नहीं दिया है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसके इतिहास में तारतम्य नहीं है । जब वह भूखा होता है, तब भी, और जब वह भूखा नहीं होता, तब भी, उसे अपनी गरिमा का अहसास रहता है । दलित लेखक इसी बात को अपने लेखन में व्यक्त कर रहे हैं । यह दलित चिन्तन की खास समस्या है ।''[1] यह लेखन पूरे दलित समाज का मानदण्ड बनता जा रहा है । यह मानक अम्बेडकर के मौलिक चिन्तन को आगे बढ़ा रहा है ।
प्रेमचंद तो बुधिया को प्रसव-पीड़ा से तड़पा-तड़पाकर मरवा दिया । साथ ही ‘कफन' के पैसे जो दानस्वरूप मिले थे उन्हें भी खाने-पीने में खर्च कर दिये । घीसू और माधो से कहलवा दिया-
‘‘जो वहाँ हम लोगों से वो पूछे कि तुमने हमें कफन क्यों नहीं दिया, तो क्या कहोगे।''
‘‘कहेंगे तुम्हारा सिर ।''
‘‘पूछेगी तो जरूर ।''
‘‘तू कैसे जानता है उसे कफन न मिलेगा ? तू मुझे ऐसा गधा समझता है । मैं साठ साल दुनियां में क्या घास खोदता रहा हूँ ? कफन मिलेगा और उससे बहुत अच्छा मिलेगा जो हम देते ।''
माधो को यकीन न आया । बोला-कौन देगा ? रूपये तो तुमने चट कर दिये ।
घीसू तेज हो गया-मैं कहता हूँ उसे कफन मिलेगा । तू मानता क्यों नहीं ?
‘‘कौन देगा, बताते क्यों नहीं ?''
‘‘वहीं लोग देंगे जिन्होंने अब की दिया । हाँ, वो रूपये हमारे हाथ न आएंगे और अगर किसी तरह आ जाएंगे तो फिर हम इसी तरह यहाँ बैठे पिएंगे और कफ़न तीसरी बार मिलेगा ।''[1] यहां धार्मिक अंधविश्वास का बढ़ावा भी मिल रहा है । ‘तीसरी बार' कफ़न देने की बात कर रहे हैं जो एक ‘अमानवीय' व्यवहार की परिकल्पना की गयी ।
रूपनारायण सोनकर तीसरी शर्त रखते हैं । जीतलाल श्रीवास्तव पिता-पुत्र से बोला-‘‘मैं आप लोगों द्वारा सुझाई कोई भी शर्त आप लोगों के सामने नहीं रखूंगा । मैं स्वयं शर्त बताऊंगा यदि आप लोग उसको पूरा करेंगे तो मैं उसके लिए आप लोगों को एक करोड़ रूपया दूँगा । कौन इस शर्त को पूरा करेगा, पहले पिता या पुत्र या दोनों साथ यह शर्त पूरी करेंगे ?''[1]
दोनों के मन में लालच ने पांव पसार लिये । शर्त यह थी कि तोहफा में जो बाक्स दिया जायेगा । उसे शादी के एक दिन पूर्व खोला जायगा । शर्त दोनों ने मंजूर कर ली । यह तीसरी शर्त ही ‘कफ़न' का जवाब ‘कफ़न' है । बुधिया मर गई पर उसे कफन नसीब न होने दिया । लेकिन रूपनारायण सोनकर ने उलट कर वार कर दिया । संगम सक्सेना को मृत्यु की नींद सुला दी वह भी कफ़न के द्वारा । गायत्री देवी को विधवा बना दिया । जीतलाल श्रीवास्तव के माध्यम द्वारा रूपनारायण सोनकर कहना चाहते हैं कि देखो बुधिया जीते जी मर गई । कफन उसे नहीं मिल पाया । मैं तुम्हें बाइज्जत कफन भेज रहा हूँ । प्लीज इसे स्वीकार कर लीजिएगा । अंततः संगम सक्सेना ने उसे स्वीकार कर लिया, ‘‘डिब्बे को संगम सक्सेना ने ही खोला । तोहफा देखकर दंग रह गया । उसमें सफेद ‘कफ़न' था । कफन देखते ही उसको दिल का दौरा पड़ा और उसने तड़पते-तड़पते दम तोड़ दिया ।''[1]
वास्तविकता तो यह है कि काल्पनिक यथार्थ को जीती हुई विजयगाथा है लेखक ने इसे बड़े ही संजीदगी से पेश किया है । कहानी में नाटकीयता का चर्मोत्कर्ष है । एक सफल प्रतिबिम्ब भी दिखता है । यह प्रतिबिम्ब जीवन को यथार्थ से स्पर्श करता हुआ चलता है । एक उत्तर आधुनिक दलित विमर्श की नायाब कहानी है ।
सन्दर्भ ः
1ण् कथाक्रम, जनवरी-मार्च 2006, पृ0 114
2ण् दलित जीवन की कहानियाँ, रचना चयन बलराम अग्रवाल, ‘लेखक प्रेमचंद, मनु प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2004
3ण् अपेक्षा, अप्रैल-जून 2008, पृ0 79
4ण् कथाक्रम, जनवरी-मार्च 2006, पृ0 115
5ण् दलित जीवन की कहानियाँ, पृ0 89
6ण् अपेक्षा, अप्रैल-जून 2008, पृ0 79
7ण् दलित जीवन की कहानियाँ, पृ0 90
8ण् प्रेमचंद ः सामन्त का मुंशी, डॉ0 धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21 ए, दरियागंज, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2005ए पृ0 71
9ण् दलित जीवन की कहानियाँ, पृ0 89
10ण् अपेक्षा, अप्रैल-जून 2008, पृ0 80
11ण् वही, पृ0 82
शोधछात्र
हिन्दी विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय
लखनऊ
मो0 9236068978
वाह, वाह..
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