भाईचारा शेर और बकरी का एक घाट पर पानी पीने का अर्थ होता है पूर्ण अमन चैन व शासक की न्याय प्रियता । ऐसा ही अमन चैन हमारे बचपन में मां के ...
भाईचारा
शेर और बकरी का एक घाट पर पानी पीने का अर्थ होता है पूर्ण अमन चैन व शासक की न्याय प्रियता। ऐसा ही अमन चैन हमारे बचपन में मां के राज्य में हुआ करता था। परस्पर विपरीत प्रकृति व एक दूसरे के दुश्मन समझे जाने वाले कुत्ता , बिल्ली, तोता , गिलहरी , कबूतर और मुर्गे-मुर्गियां हमारे छोटे से प्राणि उद्यान में एक साथ रहते थे। मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि हम मनुष्यों ने इन जन्तुओं से कुछ भी नहीं सीखा। तभी तो बहुत से लोग जानवरों के साथ तो बुरा व्यवहार करते ही है, बल्कि आपस में जानवरों से भी बदतर कार्य कर समाज में द्वेष फैलाते रहते हैं। मेरे मन में विचार आया क्यों न मैं कुछ उन दृश्यों का वर्णन करूं जो मेरे बचपन में घर पर हुआ करते थे। छोटे-छोटे घरों और आपा धापी वाली जीवन शैली में इस प्रकार के दृश्य बड़ी मुश्किल से कहीं देखने को मिलेंगे।
कल्पना कीजिए कि कुत्ता सो रहा है और कबूतर उसकी पीठ पर बैठ अपने पंख साफ़ करने में व्यस्त है। तोते के पिंजरे के पास बिल्ली लेटी है और उसकी पूंछ का एक कोना पिंजरे के अंदर पाकर तोते राम उसके साथ कुतर कुतर करने में ऐसे लगे हैं जैसे बिल्ली रानी पूंछ के बाल बनवाने के लिये ब्यूटी पार्लर आयी हैं। गिलहरी, कुत्ते या बिल्ली की पीठ पर दौड़ लगाती चुड़ुक-चुड़क कर रही हैं। मुर्गे राम बिल्ली की पीठ पर बैठ कर बांग दे रहे हैं। किसी भी छायाकार के लिये ऐसे दृश्य दुर्लभ होते हैं और वह सदा इन छोटे-छोटे क्षणों को कैमरे में कै़द करने के लिये सदा आतुर रहता है। उस समय हम लोगों के पास कैमरा नहीं था परन्तु फिर भी वह सारे दृश्य जिस प्रकार आंखों के कैमरे से खींच कर मस्तिष्क की फ़िल्म पर अंकित हुए हैं उन्हे समय का इरेज़र मिटा नहीं पाया है।
कुत्ता हमने कभी नहीं पाला , लेकिन हमारी मौसी का कुत्ता जो घर के पास ही रहती थीं, हम लोगों का ऐसा दोस्त था कि अपने घर से छूट कर भागने का मौका पाते ही सीघा हमारे घर का रास्ता पकड़ता। दरवाज़े पर आकर पंजों से की गयी उसकी खरखराहट से हम समझ जाते की लालू भाई आ गये हैं और दरवाज़ा खोलने भागते। उसके लाल रंग के कारण ही उसका नाम लालू पड़ा था। जैसे ही लालू भाई अन्दर आते कि हमारी बिल्ली का चेहरा ख़ुशी से खिल उठता था और वह लालू भाई के चारों ओर चक्कर लगाने लगती। लालू को यह अच्छा नहीं लगता क्यों कि अपने घर से हमारे यहां तक दौड़ते हुए आने के कारण उन्हें प्यास लगी होती और हमें पहले उनके पानी पीने का प्रबन्ध करना पड़ता। पानी पीकर उनकी मस्ती वापस आ जाती और वह पहले हम सबके पैरों को चाट और एक आध छलांगें लगा कर पूरे मूड में आ जाते। फिर उनका ध्यान बिल्ली रानी जिसका नाम चन्दू था कि तरफ़ जाता। चन्दू इसलिए कि अक्सर वह मां के सिर पर बैठ जाती थी। अब लालू आगे और चन्दू पीछे कभी चन्दू आगे और लालू पीछे। यह खेल देख कर हमारे कबूतर भी खुशी से गुटरगूं करने लगते। लालू और चन्दू जब थक कर बैठ या लेट जाते तो दो चार कबूतर अपना प्यार दिखाने उनकी पीठ पर आ जाते। यह हरकत लालू और चन्दू को अच्छी नहीं लगती और दोनों एक-एक आंख खोल पीठ पर होने वाले अतिक्रमण को देखते जैसे नगर निगम के दस्ते को अभी फ़ोन घुमा देंगे। लेकिन यह पहचानते ही कि यह तो अपने ही घर के दोस्त हैं निश्चिंत हो आंखें बन्द कर लेते और कबूतरों की मौज। कभी गुटरगूं तो कभी परों की सफ़ाई सभी कुछ उन दोनों सोते दोस्तों की पीठ पर होता। ऐसा प्रेम भाव देख हम लोगों के चेहरे मुस्कुराहटों से भर जाते।
जिन दिनों लालू भाई नहीं आते तो चन्दू अपना अकेलापन दूर करने के लिये पिंजरे में बैठे मिठ्ठू मियां कटौने के पास पहुश्च जाते। हमारा तोता सालों हमारे पास रहा लेकिन शायद उसे लालू और चन्दू को बाहर खुला घूमते और ख़ुद को पिंजरे की जाली में बन्द होने का बहुत गुस्सा था। उसने हम लोगों से कभी दोस्ती नहीं की और मौक़ा पाते ही चोंच चला देता था इसीलिए हमने भी उसके गुस्से को देखते हुए उसे कटौना कहना शुरू कर दिया। कटौने को भी खेलने के लिए एक दोस्त चाहिए था और उसके दुख को चन्दू समझता था। अपने शरीर को कोई न कोई अंग पिंजरे से कुछ ऐसे सटा देता कि कटौने की चोंच उसे छू सके। बस फिर क्या था कटौना ख़ुशी से फुदक उसके पास आ जाता। अपनी पैनी चोंच से चन्दू का जो भी अंग पा जाता उसकी चंपी कर डालता। चन्दू मस्त और कटौना भी अपने दुश्मन को दोस्त के रूप में पाकर गर्वित। यह खेल सालों चलता रहा और हम लोग आनन्द लेते रहे।
अब अगर सबसे प्यारे प्रांणी गिलहरी यानि गिल्लू राम की बात न करूं तो यह उसके साथ अन्याय होगा। वह नन्हा जीव हमें बन्द आंखों की हालत में मिला था और उसे हमने रुई की बत्ती से दूध पिला पिला कर पाला और बड़ा किया था। हम लोगों के कंधे पर बैठ कर कान में खुसुर पुसुर करना एक प्रकार से धन्यवाद देना जैसा लगता था। जब तक दुध मुंहा था जाली की अलमारी में रखा जाता था और जब पूरा जवान हुआ तो हमारे पास बिस्तर पर सोता था या ताख़्चे पर अपने बनाये घर में। लालू और चन्दू की पीठ पर कूदना और हम लोगों के कंधे पर बैठ कर अनाज का कोई दाना खाना लगभग उसका नियम था। कभी कभी अपने छोटे छोटे हाथों से मुंह की सफ़ाई भी अपने दोस्तों की पीठ पर बैठ कर लिया करता। एक मुर्गे भाई और आठ दस मुर्गियां ज़्यादा तर अपने बाड़े में बन्द रहते थे। जब कभी खुलते तो सारे घर में दौड़ लगाते और कुछ खिलवाड़ भी किया करते। लेकिन हम लोगों को स्वार्थ वश उनके खिलवाड़ से ज़्यादा उनके अंडे पसन्द थे।
यह सब लिखने का उद्येश्य उन फ़सादी मनुष्यों को प्रेरणा देना है जो अपनी नकारात्मक सोच के कारण समाज में तनाव फैलाते हैं। अगर ज़बान के ग़लत प्रयोग से तनाव फैलता हो तो बेज़ुबान जानवर , ज़बान वाले मनुष्य से अच्छे हैं।
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(उजाला, साक्षरता निकेतन, लखनऊ - फरवरी 2012 में प्रकाशित)
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