प्रतिभा शुक्ला की कहानी - अंत का प्रस्थान

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अंत का प्रस्थान प्रतिभा शुक्ला उस दिन बाबू शिव प्रसाद के छोटे से परिवार में ख़ुशी की लहर थी। क्योंकि उनकी छोटी बिटिया आशा की सगाई थी। मुझे...

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अंत का प्रस्थान

प्रतिभा शुक्ला

उस दिन बाबू शिव प्रसाद के छोटे से परिवार में ख़ुशी की लहर थी। क्योंकि उनकी छोटी बिटिया आशा की सगाई थी। मुझे इस बात की पहले से जानकारी न थी। मै तो सितार सिखने की इच्छा से मिलने चला गया था। दर-असल शिव प्रसाद जी एक अच्छे सितार वादक थे और इसे सिखने की मेरे मन में लम्बे समय से इच्छा थी। मुख्य द्वार से लेकर लान और पूरे पूरा भवन खुद दुल्हन बना हुआ था। हालनुमा कमरे में बहुत ही व्यवस्थित तरीके से सोफे और रखी थीं। जमीन पर कालीन बिछा था। सामने एक तख़्त पर सितार और तबला रखा हुआ था। हालांकि ऐसे मौके पर किसी बातचीत की उम्मीद न थी, फिर भी सोच लिया कि भेंट हुई तो शुभकामना जरूर जता दूं।

अभी दीवारों पर टंगी पेंटिंग्स और संगीत के चित्र देख ही रहा था की एक बुजुर्ग भीतर से निकले। सौम्य चेहरा गंभीरता से भरा हुआ लेकिन भीनी मुस्कान बरबस अपनी और खींच रही थी। लगा हो न हो यही शिव प्रसाद जी हों। आगे बढ़कर पूछा, मुझे शिव प्रसाद जी से मिलना है।

उन्होंने मुस्कुराते हुए कुर्सी की ओर इशारा किया और खुद सोफे पर बैठ गए। बोले, बताइये क्या खिदमत कर सकता हूँ। मै ही शिव प्रसाद हूँ। फिर पलट कर दरवाजे की ओर पुकारे, आशा बेटी, ज़रा दो कप चाय भेज देना तो।

थोड़ी देर ही बीते थी कि चाय हाजिर। लेकिन गुलाबी साडी में लावण्य से भरी हुई जो युवती सामने आई, जाने क्यों मन में एक विचित्र सा अपनत्व बोध हुआ। जैसे इस युवती को लम्बे समय से जानता होऊ। चाय रखी ही थी कि किसी ने खबर दी, लडके वाले आ गए। हमने जल्दी से चाय खत्म की और शुभकामना देते हुए मै निकल पड़ा।

कुछ दिन ही बीता कि सितार सिखने का मेरा सिलसिला शुरू हो गया। शिव प्रसाद बाबू का स्नेह पिता की तरह दिनोदिन मेरे मन पर घना होता जा रहा था। उनके स्नेह का प्रसाद था की सितार का निपुण तो न हो सका लेकिन, काफी कुछ हुनर जरूर मिल गया। इतना की अपने घर में बैठ कर अभ्यास करता और संगीत की ममतामयी दुनिया में डूब जाता। इसी बीच मेरी नौकरी लग गयी। मै दिल्ली चला गया।

अब शिव प्रसाद बाबू और उनका परिवार मेरी स्मृतियों में तो थे, पर जिंदगी की भागदौड़ में कभी संपर्क न हो पाया। कई साल गुजर गए। पत्नी और बेटी के साथ अपने घर आया। मेडिकल स्टोर पर दवाएं ले रहा था की आशा दिख गयी। यह क्या उसका चेहरा बुझा हुआ क्यों है? पास पहुंचा और नमस्ते-दुआ की। कुशल-क्षेम पूछा। बोल, आओ तुम्हे अपनी पत्नी से मिलवाता हूँ। आशा ने उत्सुकता की बजाय बहुत से काम करने की बात कह मुलाक़ात टाल दी। पर चलते-चलते मैंने उसे बेटी के जन्मदिन का निमंत्रण दे दिया।

दो दिन बीते पूरा घर बेटी के जन्मदिन पर मेहमानों से भर गया। पर मेरी निगाहें पता नहीं आशा को खोज रही थीं।। समय ख़त्म हो रहा था और परिजनों का केक काटने का दबाव बढ़ने लगा तो हार कर चाकू उठाया। अभी काटना ही चाहता था कि पीछे से आवाज आई, माफ़ कीजियेगा, मुझे देर हो गयी। आशा सामने आ गयी। मन को बड़ी शान्ति मिली। लेकिन यह क्या आशा अकेली। न तो शिव प्रसाद बाबू और न ही उसके ससुराल का कोई व्यक्ति!

मेहमानों के विदा हो जाने के बाद हम चार लोग रह गए। पत्नी सामान व्यवस्थित करने चली गयी। बेटी को नीद आ रही थी, इसलिए वह भी सोने चली गयी। आशा कहीं खोई थी। मैंने उसकी तन्द्रा भंग की, अकेली क्यों आई?

उसने सूखी मुस्कान के साथ कहा, अब ये न कहना की इस दुनिया में क्यों अकेले आ गयी। अरे भाई, जब अकेले पैदा हुए हैं तो भीड़ का सहारा क्यों लें।

नहीं, मेरा मतलब पापा या फिर पति से था।

एक रहा नहीं और दूसरे के लिए मै कोई मूल्य नहीं रखती थी। सो फिर अकेले रह गयी।

जिस बात को वह सहजता से कह रही थी, उससे मै आवाक रह गया। मुह से निकला, क्या शिव प्रसाद बाबू नहीं रहे? कब? कैसे? और क्या हो गया यह सब?

होठों को भींचते हुए उसने आंसू रोकना चाहां, पर बरबस ही दो बूँद कोरों से ढुलक गए। बोली, हाँ।

क्या हुआ था उन्हें? मै सहम गया।

आशा ने खुद को जब्त करते हुए बताना शुरू किया, पापा ने तो हमेशा मेरे भीतर अपना बेटा ही देखा। समाज का लिहाज न करते तो ब्याहते भी नहीं। अनंत पीड़ा मन में समेटे उन्होंने उम्मीदों के सहारे मुझे विदा किया। ससुराल की दहलीज से ही कुछ अपशकुन जैसा महसूस हुआ। घर में महिलाओं की भीड़ थी। हर कोई दुल्हन देखने को उतावली थीं तभी एक कोने से एक कर्कश आवाज कानो को चीर गयी, हाँ हाँ देखो। देख लो कि सूरत कैसी है। बाकी बाप ने तो जो दिया है वह तो आप लोग देख ही रहे हैं। इसके देह के सारे जेवर तो मेरे हैं।

फिर जैसे उनके भीतर कोई शैतान जाग गया। सबके सामने ही उन्होंने मेरी देह से सभी गहने एक-एक कर उतरवा लिए। अब कैसे बताऊँ कि मुझे कैसा महसूस हुआ। बस इतना जान लीजिये कि इस बार जैसे द्रोपदी महिलाओं के बीच निर्वस्त्र कर दी गयी हो।

रात के दस बजे मुझे पति के कमरे में पहुंचा दिया गया, पर उनके दर्शन न हुए। सुबह जाने कहाँ से लौटे और घुसते ही लापरवाही से "सारी" बोल कपडे उतारने लगे। उन्हें देखकर मन में बैठा अपमान आंसुओं के रूप में निकल पड़ा। उन्होंने कारण पूछा तो मैंने प्रवेश के साथ होने वाली घटना सुना दी।

उन्होंने बड़े प्यार से सर पर हाथ रख ढाढस बधाया, कोई बात नहीं। मै तो तुम्हारा हूँ न।

घर में कौन सा सच चल रहा था, मुझे क्या पता। पर कुछ न कुछ रोज ऐसा होता, जिसे सामान्य नहीं कहा जा सकता। एक रिश्ते के देवर ने एक दिन मेरा हाथ पकड़ लिया। नीचता पर उतारू हो गया। भाग कर मुश्किल से बची। पति को बताया तो उखड गए, मजाक का रिश्ता है। कोई अपराध तो कर नहीं दिया।

पिता की खबर न मिलती थी। मैंने अपने पति करन के हाथ कितने ही पत्र भेजे, पर कोई जवाब न आया। एक दिन करन अपनी अटैची भूल गए थे। आलमारी में रखने लगी तो वह खुल गया और चिट्ठियां भरभरा कर जमीन पर गिर पड़ीं।

घोर विश्वासघात। पति आते ही अटैची में ढूढने लगे। भीतर का क्रोध उमड़ आया। बोली, मै आपकी मदद करूं?

वे विफर पड़े। बोले, यदि जान ही गयी हो तो यह भी समझ लो कि मै तुम्हारे बाप से नफ़रत करता हूँ। सीनियर थे मेरे, इसलिए ब्याह कर लिया। पर क्या पता था की इकलौती बेटी को भी कुछ नहीं देगा। अब तुम अपने बाप से जाकर पचास हजार रुपये ले आओ। नहीं तो यह दरवाजा हमेशा के लिए बंद।

मेरे सामने अब सब कुछ साफ़ था। पापा की सेवानिवृत्ति के बाद के हालात और विपन्न दशा आँखों में तैर उठी। साथ में अपना अकेला भविष्य भी।

रात बीत गयी। पति ने ही अटैची तैयार की। कलेजा मुह को आ रहा था, पर कोई विकल्प न था। घर से बाहर कदम बढाया ही था कि पापा सामने से आते दिखे।

करन ने पापा को देख एकदम से रवैया बदल दिया। दौड़ कर पाँव छुआ। कुशल-क्षेम लेने के बाद क्षमा माँगते हुए ऑफिस चले गए।

पापा मिले तो गले लगा लिए। चेहरे को हथेलियों में भर बोले, बेटी तुम्हे कोई तकलीफ तो नहीं?

पापा का स्पर्श मिला तो भीतर से पीड़ा उमड़ने को हो आई। पर, बताने की हिम्मत न हुई। टूट जाते वे। पूरा नियंत्रण रखते हुए सब कुछ छिपा ले गयी।

शाम को करन देर से आये। भोजन के बाद कमरे में आये तो पहला सवाल यही किया, पैसे के बारे में बात की?

नहीं। नहीं कर सकती मै। एक पेंशन ही तो उनकी आजीविका का सहारा है। आप लोग अत्याचार कर रहे हैं।

पति विफर गए, तो रहने दो मै कहूँगा बुद्धे से। यदि पैसा न मिला तो तुम भी अपने बाप के साथ चली जाना।

उस रात आँखों में नीद न आयी। मेरी दशा दशरथ सुमंत की हो गयी थी। क्या कहे पिता से!

सुबह देख रही हूँ तो पापा घर में नहीं हैं। वे जा चुके थे। फिर एक सप्ताह बाद पचास हजार का चेक डाक से आ गए। करन के व्यवहार में फिर बदलाव आया। अब वह पहले से भी ज्यादा प्यार करने लगे। समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। चेक मेरे ही नाम था। एक दिन व्यवसाय की बड़ी-बड़ी योजनायें बताकर करन ने बैंक में हमसे दस्तखत करा लिया। पैसे निकाल लिए गए।

इसके बाद सब कुछ बदल गया। करन रात-रात घर से बाहर रहते। घर में पापा के पैसे से मौज होने लगी। करन और उनके दोस्त अब शराब के नशे में धुत हो घर भी आने लगे। एक दिन मेरी सहनशक्ति जवाब दे गयी। साफ़-साफ़ कह दिया, बाबू जी के पैसे से यही व्यवसाय कर रहे हो? वह उनकी गाढ़ी कमाई का हिस्सा है। मै इस तरह से पैसे बर्बाद होते नहीं देख सकती।

इसके बाद तो करन उन्मत्त हो गया। उसने मुझे पीटना शुरू किया। चीखते हुए बोल गया, साला बुड्ढा गया ऊपर। अब तुम ठीक से रहना हो तो रहो, नहीं तो तुम्हे भी तुम्हारे बाप के पास पहुंचा देंगे। उसकी पिटाई से मुझे जितनी चोट पहुँचती, उससे लाख गुना चोट पिता के ऊपर जाने की खबर सुनकर हुई। आँखों के आगे अँधेरा छा गया। मै बेहोश हो गयी। रात भर वैसे ही पड़ी रही। सुबह उठी तो मेरी पूरी दुनिया उजड़ गयी थी। दरिंदों के बीच रह पाना अब मुमकिन न था।

बस उसी दिन लौट आई यहाँ। मालूम हुआ कि पिता ने लौटने के बाद दुसरे दिन ही मकान बेच दिया और सारा पैसा ड्राफ्ट के माध्यम से भेज दिया। उसी दिन उनको हार्ट अटैक हुआ था। पड़ोस के लोग अस्पताल ले गए। करन को भी खबर दी गयी। लेकिन उसने छिपा लिया।

आशा के जबड़े भिचे हुए थे, बस उस दिन से ही मैंने नौकरी ढूढ़नी शुरू की। एक सहेली की मदद से एक अस्पताल में नर्स की नौकरी कर रही हूँ।

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पुलिस अस्पताल के पीछे, तरकापुर रोड

मिर्ज़ापुर, उत्तर प्रदेश।

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रचनाकार: प्रतिभा शुक्ला की कहानी - अंत का प्रस्थान
प्रतिभा शुक्ला की कहानी - अंत का प्रस्थान
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