आलेख दलित कविता प्रयोग की नई पहचा न अरविन्द कुमार आज वर्तमान समय में दलित साहित्य या यूं कहे कि ‘दलित-विमर्श' की चर्चा जोर-शोर से च...
आलेख
दलित कविता प्रयोग की नई पहचान
अरविन्द कुमार
आज वर्तमान समय में दलित साहित्य या यूं कहे कि ‘दलित-विमर्श' की चर्चा जोर-शोर से चल रही है, वहीं पर दलित साहित्य के समकक्ष स्त्री-विमर्श भी अपने पांव पर खड़े होने की लगातार मांग कर रहा है। आज हिन्दी की कोई भी ऐसी पत्र-पत्रिकाएं न होंगी जिसमें दलित साहित्य को स्थान न दिया जा रहा हो। पर क्या सचमुच दलित साहित्य के साथ न्याय किया जा रहा है ? एक अहम सवाल है इस सवाल पर दलित साहित्यकारों को कदम ताल मिलाकर चलना होगा। भविष्य में उसके साथ किये जा रहे खिलवाड़ से निपटने के लिए तैयार होना पड़ेगा।
तार-सप्तक में अज्ञेय का वक्तव्य दृष्टव्य है, ‘‘प्रयोग सभी कालों के कवियों ने किये हैं, ' यद्यपि किसी एक काल में किसी विशेष दिशा में प्रयोग करने की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक ही है। किन्तु कवि क्रमशः अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं, उनसे आगे बढ़कर अब उन क्षेत्रों का अन्वेषण करना चाहिए। जिन्हें अभी नहीं हुआ गया जिनको अभेद्य मान लिया गया है।''[1]
‘‘नयी कविता' की पहली शर्त है नवीनता-दृष्टिकोण और विषय वस्तु की नवीनता, रचना विधान और सृजन शिल्प की नवीनता। समसामयिक युग के यथार्थ से अनुप्रमाणित नयी भावभूमि और नये रचना-शिल्प की दृष्टि से भी नितान्त नवीन दिशापन्थों का सन्धान करती है और उन पर अग्रसर होने के लिए सचेष्ट रहती है। प्राचीन प्राणहीन, दृष्टिगत, जर्जर संस्कारों का ध्वसं और नये मूल्यों की प्रतिष्ठा नयी कविता के प्रधान उद्देश्य हैं। कहने के लिये तो प्रत्येक युग की कविता नयी रही है किन्तु भावभूमि, रचना शिल्प और नये मूल्यों की दृष्टि से किसी भी युग में ऐसे नवीन क्रान्तिकारी कदम शायद कभी नहीं उठाये गये।''[1]
‘‘प्रयोगवादी सौन्दर्य-दृष्टि छायावादी सौन्दर्य-दृष्टि से भिन्न थी। यह अतीन्द्रिय और वायवी न होकर ऐन्द्रिक, वस्तुगत और मूर्त थी। इसमें कोमल और अधुर की ही नहीं, भदेस और अनगढ़ की भी अभिव्यक्ति थी। दर असल, तत्कालीन मूल्यगत अराजकता में रोमानी सौंदर्य दृष्टि का चित्रण वायवी न होकर मांसल और दैहिक हो गया था। प्रेम और सौन्दर्य की इन कल्पनाओं पर फ्रायड और युग के मनोविश्लेषण का पर्याप्त प्रभाव था। प्रयोगवादी कविता का एक पक्ष प्रेम और सौन्दर्य को यौन- वर्जनाओं और कुठाओं के प्रसंग में देखने का रहा है। यह पक्ष प्रेम के जटिल स्वरूप को प्रस्तुत करता है। इस पक्ष के प्रतिनिधि कवि ‘अज्ञेय' हैं। दूसरा पक्ष है प्रेम और सौन्दर्य के ताजा और मांसल रूपों के चित्रण । यह पक्ष अधिक एन्द्रिय, रागात्मक और रमाने वाला है। इस पक्ष के प्रतिनिधि कवि गिरिजाकुमार माथुर हैं।''[1]
इन बिन्दुओं से यह निष्कर्ष निकलता है कि दलित कविता का रचनात्मक विधान परंपरागत शिल्प संरचना से बिल्कुल अलग क्योंकि उसकी अपनी अलग भाषा है। अपनी ‘स्व' की पीड़ा उसका अपना शिल्पगत वैशिष्ट्य भी।
दलित साहित्य कथ्य की भाँति शिल्प में भी परिवर्तन करता है। रस शास्त्रीय खाँचों में न फिट बैठने वाला कथ्य ऐसे सांचों और खांचो का करता भी क्या, जो उसे या तो बौना बना देते या तराश कर रूपाकार ही बदल देते हैं। इसलिए दलित साहित्य कथ्य और दोनों स्तरों पर परिवर्तन का भी है।
वह शिल्प में नवीनता और सादगी दोनों का पक्षधर है। इस नवीनता के चलते भाषा से लेकर मिथकों और रूपकों तक को नए सिरे से गढ़ा गया है। पुराने और परंपरागत मिथक, प्रतीक और रूपक विधान पारंपरिक साहित्य के अंग थे जो प्रारम्भ और नियति की लय से थे। प्राचीन काव्य रूढ़़ियाँ भी इसमें कुछ काम आने वाली न थी। इन्हीं वजहों से दलित साहित्य को नए सिरे से अपने प्रतिमान गढ़ने आवश्यक हो गए थे। यद्यपि शिल्प के स्तर पर इस साहित्य में सायास कुछ भी नहीं किया गया है। फिर भी परंपरागत साहित्य से इस शिल्प की भिन्नता स्पष्ट है। वह इसलिए कि दलित संवेदना सृजनशीलता व संघर्ष की हिस्सेदारी वाले साहित्य की भाषा हो ही नहीं सकती। कोमलकांत पद घूंघट के मार के साथ तो थिरक करते हैं पर सिर पर रखी टोकरी के भार के साथ कदापि नहीं अतः ‘‘साहित्य के मानदण्ड नए बिम्ब व मुहावरे जरूरी है।''[1]
भाषा के सन्दर्भ में भी दलित साहित्यकार संजग हैं। वह दलित के घर जवाकर की भाषा को कहीं खड़ी बोली का कहीं-कहीं हूबहू उसी देशज शब्द का रूप प्रस्तुत करने में करता है। वह छद्म की भाषा और भाषा के छद्म दोनों से समान दूर बनाए रखते हुए इनके समान्तर आपनी संरचना के साथ सृजनरत हैं। यह सम्प्रेषण चाहे उसका सपाट बयानी ही क्यों न हो वह अपनी बोली को नया आयाम देना चाहता है-
शब्द चेतना है
शब्द अन्याय के विरूद्ध
भँवरी की न्यायिक वेदना है
शब्द किसी निर्गुण संत के कानों
गूँजता हुआ
अनहद नाद है
शब्द वर्तमान में
महज दलित संवाद है
शब्द चेतना है
शब्द वेदना है
शब्द नाद है
शब्द संवाद है। (जयप्रकाश कर्दम)
दलित साहित्यकार शिल्प का आग्रही नहीं इसलिए वह पहले लिखता है और फिर शिल्प की सोचता है। अगर शिल्प ठीक बन गया तो ठीक अन्य था कबीर की तरह कह देने को ही अपनी कला मान लेता है। शिल्प के अभाव में जैसे पहले कबीर को कोई उपेक्षित नहीं कर सका, वैसे आज का दलित साहित्य भी अपना महत्त्व रेखांकित कर रहा है।
दलित साहित्य शिल्प के स्तर पर कतई प्रयोगशील नहीं है। यथार्थ की भाषा और शैली अपनाता है। इससे हटकर और कटकर उसे प्रयोगवादी बनने का शौक है ही नहीं। सवर्ण संस्कारों को भले ही दलित साहित्य की भाषा में अश्लीलता दिखे पर वह उनका यथार्थ है। जो दलित को अछूत, अँत्यज मानकर जरा-सा छू जाने पर उसकी माँ, बहन तक पहुँच जाते हैं, वही अपनी शब्दावली की साहित्यिक, अप्रत्यक्ष वापसी भी नहीं सह पाते और उसे अश्लील विशेषण का तमगा पहना देते हैं। वह इस लिए कि वे नहीं सुन पाते चीखती हुई। चिमनी की आवाज।
‘‘हमारी धड़कने
हमारे विचार
हमारे संचार
हाथी और घोड़ों के पाँव तले कुचल दो
फिर
सूरज न डूबा
और चीख उठी मील की चिमनी।''[1]
सवर्ण संसार की अलंकृत भाषा वाली समृहित यहाँ खोजना वस्त्राभरण से रहित ईंट ढोती मजदूरनी के कर्मरत, अर्धावृत्त सौन्दर्य का अपमान है। इस कविता की भाषा में पारंपरिक सौन्दर्य भले न मिले पर दलित सौन्दर्य की अभिव्यक्ति की एक भाषा यह भी है।
इस भाषा का सौन्दर्य और रूप विधान पारंपरिक भाषा के सौन्दर्य विधान से नितान्त भिन्न है। सढ़ी हुई रोटी की फफूँद का सौन्दर्य एक हफ्ते से भूखे को दिखेगा कि अपच के शिखर व्यक्ति को- ‘‘सड़ी हुई रोटी की फफूँद कहो। कि मरूभूमि के नंदन वन। निगल जाता है सारी उपमाएं। एक ही साँस में लट्ठे की तरह। फुटपाथ के किनारे धूल में रगड़ खाता ढ़ेड़ वाड़ा।'[1]
मैं-
विद्रोह करूँगा
उन सारे शब्दों के खिलाफ
जिनसे गढ़े गए तुम्हारे धर्मशास्त्र, और
झूठ भरे इतिहास।[1]
यहाँ दलित आक्रोश की भाषा है चुप नहीं रहूँगा, (चुप नहीं रहूँगा ः सुदेश तनवर) परम्परा से चली आ रही बैदकीय भाषा का सीधा सा नकार है। अपनी भोगी हुई भाषा को कवि सुदेश नतवर ने दी है।
यहाँ उपमा रूपक, प्रतीक और बिम्ब सभी निषेध के बावजूद मौजूद है। बदले तेवर में आए हुए ये सौन्दर्य विधान कविता को कविता नहीं रहने देते उसे धारदार हथियार बना देता है।
शिल्प का आग्रह न होते हुए भी दलित साहित्य शिल्पविहीन साहित्य नहीं है। निर्माणधीन अवस्था में सौन्दर्य बाहर नहीं भीतर होता है। एक साधारण व्यक्ति और शिल्पी में यही भेद है कि एक किसी शिल्पी खण्ड को देखकर उसे पाषाण खण्ड ही रहने देता है और दूसरा कला की संभावनाएं उसे सुन्दर सी कलाकृति में बदल देता है। दलित साहित्य के शिल्प की भी यही स्थिति है। वह अभी निर्माण की प्रक्रिया में है। अभी कला के प्रथम चरण का ही आरम्भ हुआ है। धीरे-धीरे दलित साहित्य अपने शिल्प में बेहतर होता हुआ सुन्दर रूपाकार लेगा।
कई भाषा, नए मुहावरे, नए रूपक, नए मिथक की तलाश करता हुआ दलित साहित्य पारंपरिक शिल्प के मिथक को तोड़ना हुआ शिल्प के क्षेत्र में अपनी नई जमीन तैयार कर रहा है। परंपरागत कुछ ले रहा है तो बहुत कुछ छोड़ भी रहा है। अपनी नई विशिष्ट और अलग पहचान की कोशिश में पंरपरा की दूसरी खोज में है। अपनी दूसरी नई परंपरा के निर्माण में रत दलित साहित्य के शिल्प को अभी बहुत कुछ जोड़ना घटाना है। प्रयोगवादियों की तरह दलित साहित्यकार घोषणाएं तो नहीं करता पर प्रमाण यही करता है कि वह बासी हो चुके हुए रूपक, बिम्ब, प्रतीक, अलंकार, रस और छन्द की सढ़ी गली केचुल को पूरी तरह उतार दे। वह कह के नहीं करके दिखाने में भरोसा करता है।
दलित कविता में सौन्दर्य, आनन्द और प्रेम की जब बात उठती है तो उसके भाषिक सौन्दर्य पर टिप्पणी की जाती है, किन्तु यह सौन्दर्य आनन्द और प्रेम परम्परा से चले आ रहे साहित्य में विल्कुल भिन्न पा यूं कह सकते हैं। सत्यम्, शिवम् एवं सुन्दरम के विपरीत है, तभी तो कंवल भारती की कविता ‘प्रीत की रेखाएं'। ये स्पष्ट झलकला है-
वह चन्दन-सी उसकी महक
खिलखिलाते मोतियों सी मुस्कान
गुलाबी होठ और उभरे वक्षों का स्पर्श
मैं अब भूल गया हूँ।
हाँ, मैं भूल गया हूँ
क्योंकि एक अदद सहज-सरल जीवन
मेरे पास नहीं था।
मेरे पास संतप्त जिजीविषाएं थीं
अभाव-चक्र से उत्पन्न विद्रूपताएं थीं
और मैं एक टुकड़ा सुख जीने के लिए भी
टुकड़े-टुकड़े हो रहा था।
यों मैं अब भी चूम लेता हूँ
उसके होठ, जो काले पड़ गए हैं
आलिंगन में भर लेता हूँ
उसकी समर्पित देह को
जिसमें अब मिट्टी का सौंधापन भर गया है।
यह स्वाभिमान और आह्वान की भाषा है। इसमें ओज की उपस्थिति अनिवार्य है-
‘‘क्रान्ति
किसी उल्लू के पट्ठे की
माँ, बहन या लुगाई नहीं है।''[1]
यह आक्रोश और क्षोभ की भाषा है। इसमें प्रसाद या माधुर्य गुण की खोज फिलहाल निरर्थक है। संभव है कि इस आक्रोश के थमने पर भाषा रूप में परिवर्तन हो पर अभी जल्दी इसके रूप परिवर्तन की संभावना कम है-
‘‘आपराधिक क्रान्ति के
कुत्त्ो, विल्ले और सुअर तक
मन्दिर में जाएंँ
दलित केवल बाहर से
मन्दिर का कलश देख
मन को शान्ति दिलाएं।''[1]
अपराधियों, राजनीतिक माफियाओं देश के गुप्त दस्तावेजों को बेचने वालों घोटालेबाजों और मक्कारों के साथ-साथ गंदे पशुओं और पक्षियों तक को मन्दिरों में प्रवेश प्राप्त है, पर ईमानदार, कर्मठ और शान्ति प्रेमी दलित को नहीं। निश्चय ही ऐसे अन्याय को देखकर भाषा का स्वर और स्वरूप दोनो के बदल जाने की बात अस्वाभाविक नहीं-
‘‘मैला ढोइए, घूरे पर रोइए, फुटपाथ पर सोइए।
आबरू अस्मिता खोइए
गंदे कपड़े धोइए
पशु चराइए, मृतक पशु उठाइए,
बाजरे की रोटी खाइए
बाल बनाइए, पालकी उठाइए
शंख नहीं, रमतुला बजाइए
एक बात बताऊँ समझौता कीजिए
आरक्षण आपस में बदल लीजिए
आप मैला ढोइए, कपड़े धोइए, गंदगी में सोइए
जूठन खाइए, झाडू लगाइए, बाल बनाइए
पालिश कीजिए। फुटपाथ पर सोइए
अपना तिलक, तराजू और जनेऊ दे दीजिए।''[1]
दलित कवि भाषा को नित नए संस्कार दे रहे हैं। यहाँ भी कबीर की तरह कविता का माध्यम भर है भाषा। यहाँ कविता भाषा के लिए नहीं अपितु भाषा उसके लिए प्रयुक्त हुई है। इस लिए दलित की भाषा सतत् सजग है, जीवन्त।
मानवीकरण का एक दृश्य-
‘‘भूख
आदम के बेटों को
आदमीयत का जामा
पहनाने की कोशिश में
कई बार पकड़ी गई
कानून में जकड़ी गई।''[1]
नए शिल्प और सौन्दर्य का काव्य-आधुनिक हिन्दी दलित साहित्य का वास्तविक विकास आठवें दशक (बीसवीं सदी) से ही आरम्भ होता है। उसके पूर्व न तो वह आन्दोलन के स्तर पर शुरू हुआ था न ही उसे इस रूप में प्रतिष्ठा मिली थी। आज यह प्रतिष्ठित संज्ञा बन चुका है। साहित्य में इसने आपको महत्त्व को रेखांकित कराया है इसने पुराने बिम्बों, रूपको और प्रतीकों तक चुनौती दी है। उन्हें और सार्थक और जीवन्त बनाने की कोशिश की है। साथ ही काव्य की आत्मा को किसी भी प्रकार क्षति भी नहीं होने दी है। नवीन उपमाएं और रूपक योजना आधुनिक दलित कविता में नवीन उपमाएं शब्द को न केवल अर्थ देती है बलिक उन्हें सजीव करती हुई दिखाई देती है।
‘‘फटे जूते-सी जिन्दगी सीने के लिए
चमड़ा काटता है, वह
किसी की जेब नहीं काटता।''[1]
वेदना और आक्रोश का काव्य-नामदेव ढसाल अपनी जाति की उपेक्षा और उसके द्वारा मिलने वाली उपहारी घृणा का दस्तावेज रखते हुए कहते हैं-
‘‘जाति
ना समझ था तभी समझा था
बाप को मारी थी लात पटेल ने
माँ को गाली
उन्होंने उठाए नहीं सर ऊपर
लेकिन मेरे कलेजे में दर्द..........''[1]
निष्कर्षतः दलित कविता दलित समाज की समग्रतम पीड़ा स्वानुभूति है। जो परंपरा से चली आ रही मिथकीय चेतना को तोड़ती है। स्वयं के नए शिल्प को गढ़ता है।
पठनीय आलेख
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया आलेख। किन्तु अंत में संदर्भ सूची भी होती तो बेहतर होता ।
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