जयशंकर प्रसाद के समग्र साहित्य पर लेख - 76 वीं जयंती पर विशेष भारतेन्दु के उपरांत जयशंकर प्रसाद की प्रतिभा ने साहित्य के अनेक क्षेत्रों...
जयशंकर प्रसाद के समग्र साहित्य पर लेख - 76वीं जयंती पर विशेष
भारतेन्दु के उपरांत जयशंकर प्रसाद की प्रतिभा ने साहित्य के अनेक क्षेत्रों को एक साथ स्पर्श किया है। करूण मधुर गीत, अतुकान्त रचनाएं, मुक्त छंद, खंडकाव्य सभी उनके काव्य के बहुमुखी प्रसाद के अंतर्गत है। लघुकथा के वैचित्र्य से लंबी कहानियों की विविधता तक उनका कथा साहित्य फैला है। नागरिक यथार्थ पर आधारित उपन्यास ‘कंकाल' से लेकर भावात्मक ग्रामीणता पर आधारित उपन्यास ‘तितली' तक उनकी औपन्यासिक प्रतिभा का विस्तार है। एंकाकी, प्रतीक रूपक, गीतिनाट्य ऐतिहासिक नाटक आदि में उन्होंने नाटकीय स्थिति का संचयन किया है। उनका निबंध साहित्य किसी भी गंभीर दार्शनिक चिन्तन को गौरव देने में समर्थ है।
महादेवी वर्मा ने ‘पथ के साथी' में जयशंकर प्रसाद के संबंध में लिखा है कि ‘‘बुद्धि के आधिक्य से पीड़ित हमारे युग को, प्रसाद का सबसे महत्वपूर्ण दान ‘कामायनी' है।
‘कामायनी' जैसे महाकाव्य के रचियता जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में अंतर्द्वंद्व का जो रूप दिखाई देता है वह प्रसाद के लेखनी का मौलिक गुण है। अंतर्द्वंद्व को आपके अन्य काव्यों- यथा ‘प्रेमपथिक, ‘काननकुसुम', ‘चित्राधार', ‘झरना', ‘आंसू', ‘करूणालय', ‘महाराणा का महत्व' एवं ‘लहर' में भी दृष्टिगोचर होता है। आपके नाटकों यथा ‘चंद्रगुप्त', ध्रुवस्वामिनी', ‘राज्यश्री', ‘प्रायश्चित', ‘सज्जन', ‘कल्याणी परिणय', विशाख', ‘कामना', ‘स्कंदगुप्त', ‘एक घूंट', ‘जनमेजय का नागयज्ञ' तथा कहानियों का संकलन यथा ‘छाया', ‘प्रतिध्वनी', ‘इंद्रजाल', ‘आंधी', ‘आकाशद्वीप' में भी अंतर्द्वंद्व गहन संवेदना के स्तर पर उपस्थित है। आपके उपन्यास यथा ‘ कंकाल, तितली व अधूरी इरावती मेें भी अंतर्द्वंद्व की स्पष्ट रेखा इंगित होती है। ‘चंद्रगुप्त के आरंभिक दृश्य में अलका सिंहरण से कहती है, ‘‘देखती हॅूं कि प्रायः मनुष्य दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रूक जाता है और अपना चलना बंद कर देता है।'' सूत्र शैली में कहा गया यह वाक्य एक बड़े अंतविरोध को अपने में समाहित किए हुए है और इस द्वंद्व प्रक्रिया में अर्थ की अनेक परतें उघारता है। प्रसाद का सर्जनात्मक गद्य यहां अपने पूरे वैभव पर है।
जयशंकर प्रसाद की अधिकांश रचनाएं कल्पना तथा इतिहास के सुदंर समन्वय पर आधारित है तथा प्रत्येक काल में यथार्थको गहरे स्तर पर संवेदना की भावभूमि पर प्रस्तुत करती है। आपकी रचनाओं में शिल्प के स्तर पर भी मौलिकता दृष्टिगोचर होती है जिसके भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण है। आपकी अनुभूति और चिंतन के दर्शन आपके चित्रात्मक वस्तु-विवरण से संपृक्त रचनाओं में भली भांति होता है। जयशंकर प्रसाद हिन्दी साहित्य की सभी महत्वपूर्ण विद्याओं में रचनाओं का सृजन किया जो उनकी प्रखर सृजनशीलता का प्रभाव है एवं हिन्दी साहित्य की अमूल्य थाती है। हिन्दी साहित्य में छायावाद के आधार स्तंभ रहे प्रसाद साहित्याकाश में अनवरत चमकने वाले नक्षत्र माने जाते है। महादेवी वर्मा ने ठीक ही कहा है कि ‘‘छायावाद युग में भाव में जिस ज्वार ने जीवन को सब ओर से प्लावित कर दिया था उसके तट और गन्तव्य के संबंध में जिज्ञासा स्वाभाविक थी और इस जिज्ञासा का उत्तर कामायनी ने दिया। प्रसाद को आनंदवादी कहने की भी एक परम्परा बनती जा रही है पर कोई महान कवि विशुद्ध आनन्दवादी दर्शन नहीं स्वीकार करता क्योंकि अधिक और अधिक सामंजस्य की पुकार ही उसके सृजन की प्रेरणा है और वह निरंतर असंतोष का दूसरा नाम है। ‘आनंद अंखड़ घना था' विश्व जीवन का चरम लक्ष्य हो सकता है परंतु उसे चरम सिद्ध तक पहुंचाने के लिए कवि को तो निरन्तर साधक ही बना रहना पड़ता है। सितार यदि समरसता पा ले तो फिर झंकार के जन्म का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि वह तो हर चोट के उत्तर में उठती है और सम विषम स्वरों को एक विशेष क्रम में रखकर दूसरों के निकट संगीत बना देती है। यदि आघात या आघात का अभाव दोनों एक मौन या एक स्वर बन गए है तब फिर संगीत का सृजन और लय संभव नहीं। प्रसाद का जीवन, बौद्ध विचारधारा की ओर उनका झुकाव, चरम त्याग, बलिदान वाले करूण कोमल पात्रों की सृष्टि उनके साहित्य में बार-बार अनुगुंजित करूणा का स्वर आदि प्रमाणित करेंगे कि उनके जीवन के तार इतने सधे और खिंचे हुए थे कि हल्की सी कंपन भी उनमें अपनी प्रतिध्वनी पा लेती थी।''
जयशंकर प्रसाद की प्रांरभिक शिक्षा घर पर ही हुई, बाद में वाराणसी के क्विंस इंटर कॉलेज में अध्ययन किया परंतु इनका विपुल ज्ञान इनकी स्वाध्याय की प्रवृति से हासिल हुई तथा अपने अध्यवसायी गुण के कारण छायावाद के महत्वपूर्ण स्तंभ बने एवं हिन्दी साहित्य को अपनी रचनाओं के रूप में र्क अनमोल रत्न प्रदान किया। सत्रह वर्ष के उम्र में ही अपने माता-पिता एवं बड़े भाई के देहावसान के कारण गृहस्थी का बोझा आपके कंधे पर आ गया। गृह कलह में खानदानी समृद्धि जाती रही परंतु आभाव में एवं गरीबी क परिस्थितियां आपमें कवि व्यक्तित्व को उभारा। नौ वर्ष की उम्र में आपने कलाधर उपनाम से ब्रजभाषा में एक सवैया लिखा था। आरंभिक रचनाएं ब्रजभाषा में लिखी जिसे छोड़कर बाद में हिन्दी में आ गये। जयशंकर प्रसाद के मामा अम्बिका प्रसाद गुप्त द्वारा संपादित ‘इन्दु' पत्रिका में आपकी प्रथम रचना प्रकाशित हुई थी। प्रसाद का पहला संग्रह ‘चित्राधार' है तथा ‘कानन कुसुम' आपकी खड़ी बोली का प्रथम संस्करण है। ‘कानन कुसुम' में प्रसाद अनुभूति और अभिव्यक्ति की नयी दिशा तलाशने की चेष्टा की है। ‘प्रेमपथिक' का ब्रजभाषा स्वरूप सर्वप्रथम ‘इन्दु' पत्रिका में छपा जिसे बाद में कवि ने खूद खड़ी बोली में रूपान्तरित किया था। प्रेमपथिक एक भाव मूलक कथा है जिसके माध्यम से आदर्श प्रेम की व्यंजना की गयी है। ‘करूणालय' की रचना गीति नाट्य के आधार पर हुई है। ‘महाराणा का महत्व' 1914 ई. में ‘इन्दु' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। ‘झरना' का प्रथम प्रकाशन 1918 ई. में हुआ था। इसमें आधुनिक काव्य की प्रवृतियां को अधिक उजागर देखा जा सकता है। कवि के व्यक्तित्व को पहली बार स्पष्ट रूप से ‘झरना' में देखा
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जा सकता है जिसमें कवि ने छायावाद को प्रतिष्ठित किया। ‘आंसू' प्रसाद की एक विशिष्ठ रचना है जिसका प्रथम संस्करण 1925 ई. में छापा गया था। ‘आंसू' को एक श्रेष्ठ गीतिकाव्य कहा जाता है जिसमें कवि की प्रेमानुभूति व्यंजित है। इसका मूल स्वर विषाद का है पर अन्ततः इसमें आशा और विश्वास के स्वर है। ‘लहर' प्रसाद की सर्वोत्तम कविताएं संकलित है। बाल्यावस्था से ही प्रसाद का संपर्क कलाविदों, कवियों और संगीतज्ञों से रहा, जो आपके कवि प्रतिभा को विकसित होने का प्रचुर वातावरण दिया। कवि समाज में समस्या पूर्तियों से अपनी कविता का आरंभ किया। वेद उपनिषदों के गहन अध्ययन ने प्रसाद को चिन्तनशील और दार्शनिक बना दिया तथा बौद्ध धर्म का प्रभाव के कारण आपके काव्य में करूणा की भावना का समावेश पाया जाता है। शिव भक्त होने के कारण ‘कामायनी' महाकाव्य के रहस्य और आनंद सर्ग शैव दर्शन से पूर्ण रूप से प्रभावित है। प्रसाद छायावादी काव्य के जनक और पोषक होने के साथ ही आधुनिक काव्यधारा का गौरवमय प्रतिनिधित्व करते है। प्रसाद का सबसे बड़ा हिन्दी साहित्य को योगदान यह है कि आपने जहां रीतिकालीन को अफीमची ऋृंगारिकता से कविता-कामिनी को निकाला वहीं आपने द्विवेदी युग के इतिवृत्तात्मकता के नीरसता के शुष्क रेगिस्तान में उसके सूखते हुए कंठ को मधुर रस धारा प्रदान किया।
उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद के सहयोगी जयशंकर प्रसाद थे। काव्य में जीवन के चरम आदर्श आनंद को रूपायित करने वाले कवि प्रसाद अपने तीन उपन्यासों, दो पूर्ण, ‘कंकाल' एवं ‘तितली' और एक अपूर्ण ‘इरावती' में सामाजिक यथार्थ का चित्रण ही चुनते है और इसके लिए कंकाल और तितली में आपका गद्य-विधान भी कम-बढ़ प्रेमचंद की तरह ही रहता है। अपने अंतिम अधूरे उपन्यास ‘इरावती' में अवश्य आप एक भिन्न भाषिक स्तर पर रचना करते है। यहां कथानक शुंगकालीन है और रचना समस्या भी सामाजिक यथार्थ के बीच से लेखक की प्रिय जीवन साधना आनंद की भाव भूमि तक पहुंचने की है तब स्वभावत भाषा का रूप, उनके नाटकों की तरह, तत्सम शब्दावली पर आधारित काव्यात्मक लक्षणा के निकट है। प्रसाद की इस अंतिम अधूरी रचना में जैसे आपकी कविता, नाटक और उपन्यास तीनों रचना पक्षों का एक विराट समागम हुआ हो और ‘इरावती' के अधूरेपन ने तो शायद उसकी कलात्मकता और उन्मुकता को कुछ बढ़ाया ही है। प्रसाद के आधे गाए गान के प्रिय बिंब की तरह। ‘इरावती' के गद्य का कुछ अंश उदाहरणार्थ प्रस्तुत है - ‘‘इरावती ने कहा - क्या बिना मुझसे पूछे तुम रह नहीं सकते ? अग्नि ! मैं जीवन-रागिनी में वर्जित स्वर हॅूं। मुझे छेड़कर तुम सुखी न हो सकोगे। मुझसे मिल मुझे बचाना चाहते हो। यह तुम्हारी अनुकम्पा है। परंतु मेरे उपर मेरा भी कुछ ऋण है। मैंने भी अपने को इतने दिनों से संसा से सार लेकर, भीख मांग कर, अनुग्रह से अनुरोध से जुटा कर कैसा कुछ खड़ा कर दिया है। उस मूर्ति को क्यों बिगाडूं ? स्त्री के लिए जब देखा कि स्वाबलम्ब का उपाय कला के अतिरिक्त दूसरा नहीं, तब उसी का आश्रय लेकर जी रही हॅूं। मुझे अपने में जीने दो।'' प्रेमचंद से कुछ अलग प्रसाद के कहानी गद्य में था। प्रसाद की ऐतिहासिक कहानियों में वैभवपूर्ण गद्य और सामाजिक कहानियों में निरीह जैसा गद्य, दोनों प्रेमचंद के सम से अलग है जिनके यहां आरोह-अवरोह का वैविध्य अपेक्षकृत कम है। प्रसाद के तत्समाग्रही गद्य का प्रवाह देश-काल परिस्थिति के संयोग से बनता है, इतिहास और दर्शन दोनों रूपों में जिसका बड़ा सघन अध्ययन नाटकार ने कर रखा था जैसा कि उनकी नाट्य भूमिकाओं और कुछ स्वतंत्र निबंधों से भी प्रकट होता है। सभी साहित्यों के इतिहास में नाटक का माध्यम अंशत और कभी पूर्णत कविता रही है। समूचे नाटक का लेखन गद्य में स्पष्ट ही बहुत बाद का विकास क्रम है। प्रसाद का अन्य नाटकों, ‘एक घूंट' को छोड़कर, का गद्य लेखन न सिर्फ आपके समकालीनों से बल्कि आपके अपने अन्य गद्य लेखन से अलग है। प्रसाद का नाटकों में जनमेजय परीक्षित से लेकर बौद्ध, मौर्य काल होते हुए गुप्त और हर्षवर्धन तक का संसार को देखा जा सकता है परंतु नाटकों के माध्यम से प्रसाद सिर्फ गड़े मुर्देंनही उखाड़ते अपितु अपने कथा संकेतों और चरित्रों के माध्यम से वर्त्तमान से जोड़ते है। इन नाटकों की भाषा अतीत और वर्त्तमान को जोड़ते चलती है और इस क्रम में जातीय-प्रादेशिक-सांप्रदायिक द्वन्द्वों के उपर राष्द्रीय भाव बोध को स्थापित करती है। इस रूप में प्रसाद का नाट्य-गद्य हिन्दी साहित्य के लिए एक विलक्षण उपलब्धि है। प्रसाद के नाटकों की भाषा यदि ग्रहीता के मन में ऐतिहासिकता अंतराल को जन्म देती है तो कथा-भाषा आत्मीयता की अनुभूति उत्पन्न करती है। ‘अजातशत्रु', ‘स्कंदगुप्त', ‘चुद्रगुप्त' और ‘ध्रुवस्वामिनी' में प्रसाद का बुनियादी नाट्य गद्य इसी प्रकार का है।
आलोचकों द्वारा प्रसाद की काव्यात्मकता और तत्समाग्रही भाषा को लेकर यह प्रश्न उठाया जाता रहा है कि क्या यह गद्य श्रोता-पाठक के लिए तात्कालिक रूप से संप्रेषणीय है क्योंकि गद्य प्रकार संप्रेषण प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है। आलोचकों के उक्त प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि संभव है कि एक लेखक की भाषा सरल हो पर प्रवाह न हो तथा दूसरी ओर भाषा कठिन काव्यात्मक और तत्समाग्रही हो जैसा कि प्रसाद की है परंतु उसमें प्रवाह हो। इसे एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है। ‘अजातशत्रु' नाटक के प्रारंभ में महाराजा बिम्बसार अपनी रानी वासवी से पूछते है, ‘‘देवी, तुम कुछ समझती हो कि मनुष्य के लिए एक पुत्र का होना क्यों इतना आवश्यक समझा गया है ?'' उत्तर से संतुष्ट न होकर महाराज अपनी ओर से समाधान देते है, ‘‘संसारी को त्याग, तितिक्षा या विराग होने के लिए पहला और सहज साधन है। पुत्र को समस्त अधिकार देकर वीतराग हो जाने से असंतोष नहीं होता क्योंकि मनुष्य अपनी ही आत्मा का भोग उसे भी समझता
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है।'' ऐतिहासिक नाटक के माध्यम से उत्तराधिकारी की समस्या का ऐेसा संक्षिप्त और मर्मस्पर्शी विवेचना प्रसाद को छोड़कर शायद ही कहीं और मिले, जो एक ही साथ जितना दार्शनिक विवेचना है उतना ही व्यावहारिक भी। प्राय सत्ता से लेकर गृहस्थ तक में उत्तराधिकारी की समस्या कैसे परिव्याप्त है,इसका संप्रेषण हर दर्शक वर्ग को अपने-अपने स्तर पर हो जाता है। प्रसाद का सिर्फ एक नाटक ‘एक घूंट' ही रोजमर्रा के बोलचाल की भाषा में है तथा इसी भाषा में प्रसाद के बाद के नाटक प्राय लिखे गये है। जयशंकर प्रसाद की काव्यभाषा दो स्तरों, एक बिंब भाषा और दूसरा वर्णन की भाषा में गतिशील होती है। बिंब भाषा जहां पूर्णत व्यवस्थित है वहीं वर्णन की भाषा में कुछ ढ़िलाई देखने को मिलती है। प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों का काल मानव संस्कृति के आरंभ से, जनमेजय का नागयज्ञ सम्राट हर्षबर्धन तक, राजश्री माना जाता है। इस विस्तृत काल अवधि की भाषा में संस्कृत तत्सम शब्दावली का प्रचुर प्रयोग दो प्रयोजनों, यथा, प्रथम तो तत्कालीन संस्कृति की झलक और द्वितीय नाटक काल समकालीन जीवन व्यवस्था से बहुत पूराना है, को सिद्ध करता है। प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों का गद्य विधान संवाद प्रवाह की बुनियादी समस्या उत्पन्न नहीं करता है। उदाहरण के लिए नाटक ‘चंद्रगुप्त' में चाणक्य का लंबा स्वगत कथन, ‘‘समझदारी आने पर यौवन चला जाता है। जबतक माला गुंथी जाती है तबतक फूल कुम्हला जाते है।'' इन संवादों में कुछेक शब्दों का ठीकठाक अर्थ भले ही न समझ में आए परंतु काव्यात्मक प्रसंग पूरे के पूरे ग्राहय है। ऐसा ही एक उदाहरण जब सिंहरण कहता है, ‘‘अतीत सूखों के लिए सोच क्यों, अनागत भविष्य के लिए भय क्यों और वर्त्तमान को मैं अपने अनुकूल बना ही लूंगा, फिर चिंता किस बात की ?'' ‘स्कंदगुप्त नाटक में देवसेना के भूख से नारी जीवन को रेखांकित करते ये संवाद कि ‘‘संगीत सभा की अंतिम लहरदार और आश्रयहीन तान, धूपदान की एक क्षीण गंध-रेखा, कुचले हुए फूलों का ग्लान सौरभ और उत्सव के पीछे का अवसाद, इन सबों की प्रतिक्रिया मेरा क्षुद्र नारी जीवन।''
जयशंकर प्रसाद का महत्वपूर्ण चिंतन छायावाद और रहस्यवाद की पृष्ठभूमि को लेकर अधिक है। रहस्वाद को उन्होंने वैदिक परम्परा के स्वास्थ-सहज विकास के रूप में देखा जो अपने अद्वैत चिंतन में इस संसार को स्वीकार करता है तथा विवेक के स्थान पर आनंद को महत्व प्रदान करता है। आपका अधूरा उपन्यास ‘इरावती', कहानी ‘सालवती' और ‘रहस्वाद' विषयक निबंध का गद्य रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन का सुंदर उदाहरण है। अपने अधूरे उपन्यास ‘इरावती' में प्रसाद अग्निमित्र के समय यानी 155 ई.र्पू. के आसपास परवर्ती बौद्ध समाज में व्याप्त विधि निष्ोधों के माध्यम से आधुनिक हिन्दू समाज की विषमताओं का अतिसुदंर चित्रण किया है। अपनी पुस्तक ‘प्रसाद का गद्य' के समापन में सूर्यप्रसाद दीक्षित ने ठीक ही लिखा है कि ‘‘गद्य की अनेक विधाएं प्राय प्रसाद द्वारा उत्कृष्ठ रूप में अविष्कृत हुई है।'' प्रसाद के उपन्यास के गद्य में तद्भवता और तत्समता अपने-अपने ढ़ंग से कैसे नियुक्त है इसे दो उदाहरणों से समझा जा सकता है, पहला ‘तितली' उपन्यास के आरंभ का एक वर्णन इस प्रकार है ‘‘संध्या गांव की सीमा में धीरे-धीरे आने लगी। अंधकार के साथ ही ठंड़ बढ़ चली। गंगा की कछार की झाड़ियों में सन्नाटा भरने लगा। नालों के करारों में चरवाहों के गीत गूंज रहे थे।'' यह वर्णन आधुनिक गांव की संध्या का है जो जितना सामान्य है उतना ही आश्वस्तिकर भी है। दूसरा उदाहरण ‘इरावती' उपन्यास के आरंभिक वर्णन से लिया जा सकता है जो इस प्रकार है, ‘‘महाकाल के विशाल मंदिर में सांयकालीन पूजन हो चुका। दर्शक अभी भी भक्ति भाव से यथास्थान बैठ रहे थे। मंडप के विशाल स्तंभों से वेले के गजरे झूल रहे थे। स्वर्ण के उंचे दीपाघरों में सुंगधित तैलों के दीप जल रहे थे। कस्तूरी अगुरू से मिली हुई धूप-गंध मंदिर में फैल रही थी।'' यह वर्णन प्राचीन विशाल मंदिर का है जहां की भव्यता आशंका को उकसाती है। प्रसाद का अन्य दो उपन्यास ‘कंकाल' और ‘तितली' समकालीन समाज का चित्रण करते है। आपकी पांच कहानी संग्रहों में कुल सत्तर कहानियां है जिसमें कुछेक कहानियां ऐतिहासिक और ज्यादातर कहानियां समकालीन समाज, धर्म और आर्थिक स्थितियों का चित्रण है।
साहित्य चिंतन के विषयों में तो प्रसाद और भी सुदृढ़ भूमि पर स्थित दिखते है। ‘रहस्यवाद' शीर्षक निबंध में अद्वैत, रहस्य और आनंद का पक्ष लेते हुए उन्होंने विवेक के पक्ष में बड़ा सूक्ष्म पर करारा व्यंग्य किया है, ‘‘इस पौराणिक धर्म के युग में विवेकवाद का सबसे बड़ा प्रतीक रामचंद्र के रूप में अवतरित हुआ, जो केवल अपनी मर्यादा में और दुख सहिष्णुता में महान रहें। किंतु पौराणिक युग का सबसे बड़ा प्रयत्न श्रीकृष्ण के पूर्णावतार का निरूपण था। इनमें गीता का पक्ष जैसे बुद्धिवाद था वैसे ही ब्रजलीला और द्वारका का ऐश्वर्य योग आनंद से संबद्ध था।'' प्रसाद के इस चिंतन में पूरा तारतम्य है। भारतीय पुनर्जागरण के चिंतन में आनंद बनाम विवेक का विवेचन करते हुए प्रसाद ने आनंद के पक्ष को बड़ी क्षमता के साथ ‘कामायनी' काव्य, ‘इरावती' अधूरा उपन्यास, ‘सालवती' कहानी और ‘रहस्यवाद' शीर्षक निबंध में प्रतिष्ठित किया है। यह कहने में कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी कि जयशंकर प्रसाद की तरह संश्लिष्ट रचनाकार व्यक्तित्व आधुनिक भारतीय साहित्य में कठिनाई से ही मिलेगा।
भक्तिकाल के बाद जिस छायावाद को आधुनिक हिन्दी कविता का स्वर्ण युग माना जाता है जयशंकर प्रसाद इसके प्रमुख स्तम्भों में से एक विशिष्ट स्तंभ थे। हिन्दी नाटक के विकास में प्रसाद के विशिष्ट योगदान को देखते हुए ‘प्रसाद युग' की स्थापना की गयी। प्रसाद के महत्ता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता
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है कि ‘रामचरितमानस' के बाद महाकाव्य के रूप में इनकी ‘कामायनी' प्रतिष्ठित हुई। 75 वर्ष बीत जाने के बाद भी ‘कामायनी' जैसा उत्कृष्ट और उदान्त महाकाव्य कोई कवि नहीं लिख सका है।
‘कामायनी' इतिहास और कल्पना का सुंदर समन्वय है किंतु अतीत के गौरवशाली वैभव के चित्रण में उन्होंने वर्त्तमान से भी अपने को जोड़े रखा है।
प्रसाद ने रूपक कथात्मक शैली से ‘कामायनी' को प्रारंभ किया है, ‘‘हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर
बैठ शिला की सुंदर छांव
एक पुरूष भींगें नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह
नीचे जल था, उपर हिम था
एक तरल था, एक सघन।
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन ''
आलोचकों के अनुसार यह महाकाव्यातमक आरंभ है। सूक्ष्म और स्थूल, लाक्ष्णिक और चित्रात्मक शैली का इन पक्तियों में मणिकांचन संयोग है। यहां प्रसाद ने बड़ी कुशलता से स्थूल के लिए सूक्ष्म उपमान दिया है। ‘कामायनी' की ये प्रारभ्भिक पक्तियां एक करूण छाप छोड़ जाती है। जल प्लावन को यदि प्रतीक समझे तो यह प्रत्येक ह्दय का प्लावन है। जिसमें उसके सुख का संसार करूणा जल में डूब जाता है और फिर उसका एकाकी जीवन सुख तलाशने लगता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कामायनी में प्रसाद मानवीय चित्रवृतियों का मानवीकरण कर उसे अपना स्वतंत्र रूप देने के प्रयास में अत्यंत सफल रहे है। डा. प्रतिपाल सिंह ने कामायनी में श्रद्धा के चरित्र के संबंध में लिखा है कि ‘‘श्रद्धा महाकाव्य की प्राण है एवं स्फूर्तिदायिनी शक्ति है जो चिंताग्रस्त मनु को मंगलमय एवं कल्याणकारी पथ का पथिक बनाती है। वास्तव में श्रद्धा ने मनु के व्यक्तित्व को एक महामानवीय आकार दिया है। प्रश्न उठता है श्रद्धा क्या है ? सारा संसार जिस समय आपसी विवादों, कलहों के कारण भयानक कोलाहल में अपना अस्तित्व खो रहा था, श्रद्धा कहती है कि मैं उस विशेष स्थिति में ह्दय की बात हॅूं, ‘‘तुमुल कोलाहल कलह में
मैं ह्दय की बात रे मन !
विकल होकर नित्य चंचल
खोजती जब नींद के पल
चेतना थक सी रही तब
मैं मलय की बात रे मन !''
इस गीत के माध्यम से प्रसाद ने मस्तिष्क पर हृदय को स्थापित कर दिया जो बहुत ही महत्वपूर्ण साहित्यिक घटना है। मस्तिष्क मरूभूमि की ज्वाला में भटकने के लिए है। वह धधकती हुई ज्वाला जिसमें चातकी स्वाति नक्षत्र की एक बूंद की प्यासी रहती है, ठीक इसी प्रकार आत्मा हृदय से निसृत प्रेम कणों पर ही जीवित रहती है। इस लाक्षणिक प्रयोग से यही अर्थ निकलता है कि बुद्धि के चक्कर में मनुष्य का जीवन मरू ज्वाला में घिर जाता है परिणामस्वरूप मनु के सौम्य सुखद प्रेममय जीवन की सारी शीतलता सारा सुख इड़ा के नगर में खो जाता है और वे मूर्च्छित आहत मैदान में पड़े रहते है। श्रद्धा का गीत वर्षा की भांति उनके जीवन सरसता लाता है, ताप मिटाता है और फिर जीने की रमणीय दिशा देता है। अनेक उपनिषदों, पुराणों एवं धर्मग्रंथों के गहन अध्ययन के पश्चात प्रसाद ने श्रद्धा का चरित्र गढ़ा है। श्रद्धा आस्तिकता, आस्था और विश्वास का प्रतीक है। वास्तव में आज के आदमी की बुद्धि ही उसकी त्रासदी है। वह हृदय से दूर होता जाता है और असीमित दुख का भागी बनता है। श्रद्धा तो हर हृदय में आनंद देने को तत्पर है परंतु आनंद मनु की भांति बुद्धि के सारस्वत नगर में ढूंढ़ रहा है। इस गीत का कामायनी में महत्वपूर्ण स्थान इसलिए भी है क्योंकि कवि ने इस गीत के माध्यम से जीवन में थके, निराश, हारे मनु को जीवन दिया है।
जयशंकर प्रसाद बहुत ही सरल और उदार व्यक्ति थे। उन्होंने अपने किसी भी रचना के लिए पुरस्कार के रूप में एक पैसा भी नहीं लिया। हिन्दुस्तानी एकेडेमी और काशीनगर प्रचारिणी सभा से उन्हें जो पुरस्कार मिला था वह भी उन्होंने नगर प्रचारिणी सभा को दान कर दिया था। किसी संस्था का सभापति होना या किसी कवि सम्मेलन में कविता पाठ करना उन्हें स्वीकार नहीं था। प्रसाद के साहित्य में अनुभूति और शिल्प दोनों दिशाओं में सतत जागरूकता का प्रयत्न दृष्टिगोचर होता है। यही कारण है कि वे ‘चित्राधार' जैसी साधारण कृतियों की साधारण भूमि से उठकर ‘कामायनी' जैसे ऋंग तक उठ सके। प्रेम, सौंदर्य की अनुभूतियाँ उनकी मानवीयता से संबंध रखती है। नाटकों में सांस्कृतिक दृष्टि अधिक मुखर है। इनकी कविताओं में मनोवैज्ञानिकता, दार्शनिकता तथा सांस्कृतिक भूमि का समावेश देखा जा सकता है। प्रसाद ने ऐतिहासिक कथाओं के माध्यम से राष्द्रीयता और आध्यात्मिकता का वर्तमान युग को संदेश दिया है। सौंदर्य वर्णन करने में प्रसाद भौतिक जगत में ही रहे परंतु उनका सौंदर्य वर्णन रीतिकाल के कवियों की तरह कहीं भी ऐन्द्रिकता के भार से बोझिल नहीं होता है। उदाहरणार्थ,
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‘‘विछल रही है चांदनी, छवि मतवाली रात
कहती कंपित अधर से, बहलाने की बात''
कवि की काव्य प्रेरणा प्रकृति है जिसे उन्होंने कई रूपों में पेश किया है। प्रसाद के कविताओं में मानवीय भावनाओं, काव्य में कला और कल्पना की उड़ान देखने को मिलती है। प्रसाद ने संक्षिप्त छंद में जितना कह दिया है उतना अन्य कवि विस्तृत वर्णन में भी नहीं कह पाते है जैसे, ‘‘ तुम्हारी आंखों का बचपन,
खेलता जब अल्हड़ खेल''
हिन्दी काव्य की वह धारा जिसमें स्थल रूपात्मक चित्रणों के स्थान पर सूक्ष्म भावनाओं और निर्भय कल्पना का उन्मुक्त उपयोग होता है, आलोचकों द्वारा छायावाद के नाम से प्रतिष्ठित हुआ है। जयशंकर प्रसाद छायावाद के पोषक कवि थे जिन्होंने द्विवेदीकालीन काव्य की इतिवृतात्मक तथा नैतिक नीरसता के स्थान पर नवीन भावनाओं, आंकाक्षाओं, चेतना और अभिव्यक्ति के काव्य का एक नया रूप तैयार किया। नन्द दुलारे बाजपेयी ने लिखा है कि ‘नवीन युग की हिन्दी कविता की बृहत्यत्री रूप में श्री जयशंकर प्रसाद, श्री सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और श्री सुमित्रानंदन पंत की प्रतिष्ठा मानी जाती है। इसमें ऐतिहासिक दृष्टि से जयशंकर प्रसाद का कार्य सबसे अधिक विशेष तथा समन्वित है। उन्होंने कविता के विषय को रसमय बनाया और कल्पना एवं सौंदर्य के नए स्पर्श कराए। प्रसाद को अग्रगण्य छायावादी कवि के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले काव्य संग्रहों में ‘लहर', ‘आंसू' और ‘कामयानी' है। इनकी प्रतिभा ने छायावादी काव्य को ‘कामायनी' की अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ भेंट दी है।
प्रसाद एक चिंतक कवि थे, उन्हें भारत के प्राचीन अध्यात्मकवाद का बड़ा ध्यान था। कवि ने उन ऋषियों की अर कृतियों का अध्ययन किया जिसके ज्ञान से मनुष्य सांसारिक सरिता को पार करके मानसिक शांति की अनुभूति करता है और आध्यात्मिक सुख प्राप्त करता है। कवि के प्रेम से ओत-प्रोत ह्दय ने संसार को ही प्रेम के रंग में रंगा हुआ देखा है, उदाहरणार्थ,
‘‘मानव जीवन वैदी पर, परिणय है बिरह मिलन का
सुख-दुख दोनों नाचेंगे, है खेल आंख, मन का''
हम पाते है कि प्रसाद का प्रेम परक काव्य शुद्ध आध्यात्मिक है। उसमें इंद्रिय लिप्सा नहीं है, वासना नहीं है, मोह नहीं है, स्वार्थ नहीं है क्योंकि प्रेम ही ईश्वर है। प्रेम में निष्क्रियता नहीं वह अनन्त प्रगति का प्रतीक है। छायावादी होने के कारण कवि का यह मानना है कि जिस प्रेम को हम मानव जगत में ढूंढ़ते है वह प्रकृति के मूक संसार में बहुतायत में मिल सकती है। अतः प्राकृतिक दृश्यों का स्वाभिवक और सूक्ष्म चित्रण कवि के काव्य में सर्वत्र बिखरा मिलता है। इनके काव्य में जो सौंदर्य का वर्णन हुआ है उसमें प्रेमिका का नख-शिख वर्णन भी है परंतु उसके अंगों का वर्णन मात्र न होकर कल्पना विलास है। प्रसाद की कविताएं सूक्ष्म कल्पना और गंभीर भावों से भरी हुई है जिसमें अनुभूतियों का समावेश, वेदना का करूण क्रन्दन, आशा और उल्लास का मार्मिक व्यंजना आदि गुण समान रूप से विद्यमान है। अनुभूति एवं कल्पना प्रधान काव्य कृतियों में ‘आंसू' सर्वश्रेष्ठ है, इसमें एक सौ चौबीस छंद है जिसमें वेदना, पीड़ा और मधुर भाव का चित्रवत अभिव्यंजन है। आंसू में कवि ने आध्यात्मिक और सौंदर्यविष्ठ असंतोष को प्रकट कर काव्य में चिरमंगल का संदेश दिया है। कवि की दृष्टि में दुख का कारण है मन में संकल्प का अभाव। सुख-दुख को मन का खेल समझकर समभाव बने रहने से ही मनुष्य मन का कल्याण है। इसके अतिरिक्त कविता ‘हमारा देश' या ‘भारत वर्ष' राष्द्रीयता और सांस्कृतिकता से भरी भाव भूमि का ज्वलंत उदाहरण है। कविता के माध्यम से प्रसाद ने अपने सांस्कृतिक व्यक्तित्व की झांकी प्रस्तूत की है। बीणा की झंकार, दधीची की दानशीलता, बुद्ध का शांति संदेश और ऋषिमनु का सामाजिक आदर्श हमारे देश की आध्यात्मिक और नैतिक पृष्ठ भूमि का आधार रचते है।
अंततः जयशंकर प्रसाद पर किए गए आलोचना का जिक्र करते हुए जहां मुक्तिबोध ने कामायनी महाकाव्य पर कटु आक्षेप करते हुए लिखा है कि प्रसाद की कामायनी में मनु की समस्या स्वयं कवि प्रसाद की समस्या है। इसमें वर्णित प्रलय उनके परिवार में घटित प्रलय, मृत्यु आदि की व्यावर्त्तक घटना, की ही छाया है। वहीं कामायनी को एक शालेय ग्रंथ कहते आलोचक नहीं थकते। विश्वबुक्स द्वारा प्रकाशित ‘कामायनी' में सुदर्शन चोपड़ा ने तो यहां तक लिख डाला है कि हिन्दी छात्रों का मानसिक विकास अवरूद्ध करने का सारा दायित्व कामायनी जैसे कालजयी ग्रंथों पर ही है। आलोचक चाहे जो कहें परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि रामचरितमानस के बाद दूसरा महाकाव्य जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित कामायनी ही है। इनके बाद आजतक कोई हिन्दी के मठाधीशों ने महाकाव्य की रचना नहीं की और यह भी सत्य है कि कामायनी की आलोचना करते-करते लब्ध प्रतिष्ठित जरूर हो गए।
इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि महाकवि जयशंकर प्रसाद आधुनिक हिन्दी साहित्य के सर्वांगीण विकास में सबसे अधिक योगदान देने वाले साहित्यकार थे। काव्य, कथा साहित्य, नाटक, आलोचना, दर्शन, इतिहास सभी क्षेत्रों में उनकी प्रतिभा अद्वितीय है। साहित्य जगत हमेशा ऐसे महान कवि, लेखक, कहानीकार, नाटककार, गीतकार का ऋणी रहेगा।
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राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंड़ा, गिरिडीह, झारखंड़ 815301 मो. 9471765417
ईमेल से प्राप्त सुरेश कुमार सौरभ की टिप्पणी -
जवाब देंहटाएंजयशंकर प्रसाद जी का जन्म 30 जनवरी सन् 1889 ई को हुआ था तथा मृत्यु 14
जनवरी सन् 1937 ई (या 15 नवम्बर सन् 1936ई) को हुई मानी जाती है। इसके
हिसाब से
इस लेख में '76वीं जन्मदिन पर विशेष' ठीक नहीं लगता। बल्कि '76वीं
पुण्यतिथि पर विशेष' होना चाहिए था।
Suresh Kumar Sauravji aap prasadji kay sahitya ka anand lijey, Unke janmdin ya mirtyu din sahiytik dristikon sey bemani hai...Rajiv Anand.
जवाब देंहटाएंHar Insaan ko apni kamiyo ko accept karna chahiye kyoinki Hindi ko samradhsheel banana hai to Hume pug badhane se pahle yuwa peedhi ki manodasa ko samajhkar kaam karna hai yah bhi samajhna hai baki aapke dwara Jo yaha update Kiya gaya hai wo kafi sarahneey prayas hai.....Sonu Sultanpuri lyric writer from Mumbai
जवाब देंहटाएंAapka lekh bahut achcha laga. Main kamayani ko samjhne ka bheeshan mushkil prayas mein lagi hui hoon. Par koi kitaab ya resource nahin mil raha. Kripiya upaay batayen.
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