मैं ही क्यूं ? हर काम मैं ही क्यों करूँ? तुम्हारे कपड़े धोऊँ। तुम्हारे लिए खाना बनाऊँ। घर का सारा काम मैं ही तो करती हूँ। तुम कुछ करते हो ...
मैं ही क्यूं?
हर काम मैं ही क्यों करूँ? तुम्हारे कपड़े धोऊँ। तुम्हारे लिए खाना बनाऊँ। घर का सारा काम मैं ही तो करती हूँ। तुम कुछ करते हो ? क्या मैंने तुम्हारे सारे कामों का ठेका ले रखा है? मैं नहीं करूँगा, तुम्हें ही करना पड़ेगा क्योंकि तुम नारी हो और तुम्हारे मम्मी पापा ने इसीलिये तुम्हारी शादी की है। मैंने भी तुमसे केवल इसलिये शादी की है कि तुम मेरे सभी कामों को कर सको। घर का हर काम तुम्हें ही करना पड़ेगा। रो कर करो या हँस कर करो। पर मैं ही क्यों करूँ शादी मेरे अकेले की तो नहीं हुई है न, तुम्हारी भी शादी मुझसे हुई है तो तुम क्यों नहीं मेरे कामों में हाथ बँटवाते हो। मैं नहीं बँटाऊंगा और मुझे हर काम समय पर चाहिए समझ गयी न।
अब ज्यादा मुझसे मूड मत मारो और चली जाओ यहां से। दोस्तों यह किसी फिल्म की स्क्रिप्ट और डॉयलाग नहीं है। यह हर उस विवाहिता नारी की दुःख भरी कहानी है, जिन्हें शादी की कसौटियों पर कस कर हम मर्द नौकरानी की तरह सदियों से इस्तेमाल करते आ रहे हैं। आती तो हैं वो दुल्हन बन कर लेकिन घर में नौकरानी के रूप में जिन्दगी गुजारती हैं। न जाने कितने अरमानों को दिल में सजों कर एक जाने पहचाने घर से रिश्ता तोड़ कर उस घर की चौखट लांघ कर प्रवेश कर जाती हैं जहां दीवारों से लेकर एक पक्षी भी उससे अनजान होते हैं। ना कोई चेहरा जाना पहचाना और ना ही किसी से खून का रिश्ता। फिर भी सभी हालातों से समझौता कर अनजाने घर में किसी की बहू और किसी की पत्नी की रूप में आ जाती हैं।
विश्वास तो सिर्फ उन मंत्रों का जिन्हें साक्षी मानकर एक अनजान व्यक्ति के साथ वैवाहिक बंधन में बंध गयी हैं। भरोसा तो उस अग्नि का जिसे प्रत्यक्ष साक्षी मानकर एक अनजान मर्द के साथ सात फेरे लेकर एक अनजान घर की दहलीज पर आकर खड़ी हो गयी हैं। इसके अलावा उसके आस पास कोई भी ऐसी वस्तु नहीं जिसे वो पहचानती हो। जिसके नाम से वो वाकिफ हो। हर कुछ नया। कुछ भी ऐसा नहीं दिखता जिसे देखकर वो कह सके कि अरे तू यहां कैसे ? न जाने कितने अनजान दिलों को अपने दिलों से मिलाने की कोशिश और एक नये घर को बसाने की तमन्ना लेकर कर आखिरकार एक नारी एक अनजाने घर की हो जाती है।
उसे इस बात से सरोकार नहीं होता है कि उसने बचपन कहां गुजारा है? इस बात से कोई मतलब नहीं होता है कि उसके घर वाले कैसे हैं? त्याग की लक्ष्मण रेखा को पार कर एक भाई की बहन, एक पिता की बेटी और दादा-दादी की पोती एक बेपहचाने मर्द की पत्नी हो जाती है और स्वीकार कर लेती है कि मेरे वर्तमान और भविष्य यही हैं। यह मानकर वो अपने नये जीवन की शुरुआत कर लेती है कि इसी घर के लिये मैं बनी हूं। सबको खिलाने के बाद अगर कुछ बच जाता है, तो खा लेती हैं और नहीं बचता है तो भूखे पेट सो जाती हैं। फुर्सत मिलती है तो नहा लेती हैं, नहीं तो घर के कामों में भूत की तरह दिन-रात लगी रहती हैं। विहौती जोड़े के घूँघट में घुट -घुट कर तमाम परिस्थितियों से समझौता करती रहती हैं। उसकी जुबान पर कभी वोह भी नहीं आता। जिस पति को परमेश्वर मानकर वो दिन-रात दर्द की पीड़ा से कराहती है, अगर उसने भूल से भी अपने दर्द का दुखड़ा अपने पति को सुना दिया तो न जाने कितने आग के गोले उसके दिल पर बरस जाते हैं।
बेचारी विवश होकर घर के किसी कोने में बैठकर अमृत रूपी अनमोल आंसुओं को बहाती रहती हैं, जिन्हें कभी बचपन में पिता जी और दादा जी बेटा-बेटा कहकर पोंछा करते थे आज वो आंसू भी खुद के पोंछने वाले फरिस्ते के इंतजार में निकलते जाते हैं, लेकिन उन्हें पोंछने वाला तो दूर की बात सांत्वना देने वाला भी कोई नहीं आता है। जो नन्हीं सी गुड़िया किसी राजमहल की राजकुमारी के नाम से जानी जाती थी, जिसकी एक पुकार पर परिवार में हलचल मच जाती थी, जिसके एक आंसू को जमीन पर टपकने से पहले जाने कितने हाथ उसे रोकने के लिये नीचे आ जाते थे। जिसके एक मांग को पूरा करने के लिये मां-बाप जमीन-आसमान एक करने को तैयार हो जाते थे और आज वही नन्हीं-सी गुड़िया जब बड़ी हो गयी तो उसे समाज की भेंट चढ़ना पड़ा और उसने भी संस्कृति और सभ्यता को अपना सब कु छ मानकर शादी के जोड़े में किसी की पत्नी बन गयी। जो गुड़िया अपने पापा-मम्मी के हाथ से दूध और रोटी खाकर कर सोती थी आज उसे पानी पी क र सोना पड़ा रहा है।
विलासिताओं की जिन्दगी तो उसके लिये दूर की बात हो गयी, रहगुजर भी करना उसके लिये मुश्किल हो गया। अरमान फूट-फूट कर आंसुओं के आगोश में समा गये। शम्मा जलने की उम्मीद न दिखी तो चिंगारी को भी उसने बुझा दिया। उसे अंधेरे में रहने की आदत हो गयी। कुछ कह पाने की हिम्मत नहीं बची और कहे भी तो किससे सब उसके अनजान जो ठहरे। सब नामों से तो परिचित है वो लेकिन पुकारे किसे इस बात से घबराती है। मानो शादी के बाद उसकी जिन्दगी की नयी शुरुआत नहीं बल्कि अंत का सफरनामा शुरू हो गया हो। तमाम खामियों का हरजाना उसे ही भुगतना पड़ता है क्योंकि वह एक नारी है। नारी को दबा कर रखना हम मदरें की मर्दानगी है। आखिर ऐसा क्यों ? ससुराल आते ही उसके अरमानों को क्यों कुचल दिया जाता है? क्या उसे अपनी जिन्दगी जीने का हक नहीं ? या फिर वो जीने के काबिल नहीं है।
हर हालातों में उसे ही समझौता करना पड़ता है ? जन्म लेने के बाद बेटी के रूप में एक पिता घर में अपने उम्र के एक पड़ाव को गुजारती है और फिर शादी के बाद दूसरे पड़ाव की शुरुआत किसी और घर से करती है, जिसे वो जानती तक नहीं। इस दौर में न जाने कितने दुःख के दुखड़ों को झेलती है। और हम मर्द क्या करते हैं ? जो नारी हमें जन्म देती है उसे मां का दर्जा देते हैं। जो नारी हमारी कलाईयों पर राखी बाँधती है उसे बहन का दर्जा देकर आजीवन उसकी रक्षा की बात करते हैं और वही नारी जब पत्नी बन जाती है तो उसे नौकरानी का दर्जा देते हैं। क्या यही रसूल है हम मर्दों का। आखिर कब तक नारी को ही समझौता करना पड़ेगा। दोस्तों दौर बदल रहा है। मौसम बदल रहा है। दिन बदल रहे हैं। हमें भी बदलना होगा।
एक नारी के प्रति सम्मान का भाव मन में समाहित करना होगा। नारी को नारी के दृष्टिकोण से देखना होगा। और कहा जाता है कि जब हम किसी को सम्मान देते हैं तो हमें भी सम्मान मिलता है। इस तरह की भाषा में लिखकर पुरुष वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुंचाना मेरा उद्देश्य नहीं है बल्कि मैं इस युग कि उस गहरायी पर प्रकाश डालने की कोशिश कर रहा हूँ जो हमारे आस पास चल रहा है।
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विनय कुमार सिंह
ग्राम- कबिलासपुर
पोस्ट- कबिलासपुर
कैमूर भभुआ
बिहार- 821105
विनय कुमार जी ,
जवाब देंहटाएंलड़की को आपने गलत नजरिए से बयान किया है । गृह प्रबंधन उसका जन्मजात अधिकार है ,।आज की प्रगति शील नारियो ने यह साबित कर दिया है की घर और बाहर ,देश ,और विदेश दोनों संभाल सकती है वह
। मगर उसका प्रथम प्यार परिवार ही होता है ,परिवार मे वही धुरी है उसी के इर्द गिर्द सम्पूर्ण पारिवारिक गतिविधियां सम्पन्न होती है ,बिना स्त्री का पुरुष और बिन माँ के बच्चे यह बात आपको अच्छी तरह समझा सकते है।परिवार स्त्री को अनदेखा कर ही नहीं sakata
mai apke sujhaw ka samman karta hnu.lekin mahoday saiyad apne ne thik se meri story ko pada nahi hai .mai parkash dalna chah raha us dincharya par jo ajj gatit ho rahi hai hai
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