बिछड़ती धूप पल-पल गुज़रती ठंडी रात सुबह की ओर सफर कर रही है । सर्दी की तीव्रता इतनी ज़्यादा है कि खिड़की से हाथ निकालने पर हाथ शरीर से अलग हो...
बिछड़ती धूप
पल-पल गुज़रती ठंडी रात सुबह की ओर सफर कर रही है। सर्दी की तीव्रता इतनी ज़्यादा है कि खिड़की से हाथ निकालने पर हाथ शरीर से अलग होने का एहसास दिलाता है। हल्का-हल्का हिमपात भी हो रहा है। मैं अपने टैरिस हाउस की लाइब्रेरी में बैठा देखने में कोई किताब पढ़ रहा हूँ लेकिन मेरे कान घर के दरवाज़े पर लगे हुए हैं और वह इस इंतज़ार में हैं कि कब चाबी घूमने की आवाज़ सुनाई दे, दरवाज़ा खुले और सिम्मी प्रवेश करे। फिर वह सावधानी से नपे-तुले कदम उठाती हुई काठ की सीढ़ी तय करके पहली मंज़िल पर पहुँच जाएगी और दायें हाथ घूम कर अपने कमरे में दाख़िल हो जाएगी। उस समय वह अनजाना डर, जो हरदम सीने पर कुंडली मारे बैठा रहता है, एकाएक दूर हो जाएगा और मैं लाइब्रेरी के सोफे पर पसर कर नींद की गोद में चला जाऊँगा। लगभग हर वीकऐंड पर सिम्मी का फ्रेंड्स के साथ, जिनमें ज़्यादातर इंग्लिश लड़के-लड़कियाँ हैं, कोई न कोई प्रोग्राम अवश्य रहता है। कभी डिस्को, कभी म्यूज़िकल नाइट, कभी बर्थडे पार्टी, कभी ड्रिंक पार्टी, कभी लिट्रेरी सेशन, कभी लेट नाइट फिल्म शो और कभी लांग ड्राइव- और मुझे ज़बरदस्ती उसका इंतज़ार करना पड़ता है। ज्यों-ज्यों रात आगे बढ़ती है त्यों-त्यों मेरा डर भी बढ़ता जाता है कई बार तो यूँ भी लगता है कि मैं डर के हाथों अपनी सूझ-बूझ भी खो बैठूँगा और लाइब्रेरी में ही मेरे प्राणपखेरू उड़ जाएँगे और अगले दिन लोगों को पता चलेगा कि मैं दुनिया से चल बसा हूँ।
सिम्मी से मेरा संबंध ठीक एक साल बाद पैदा हुआ था जब मैं अंग्रेज़ों की धरती पर दाना-पानी की तलाश में चला आया था। यूँ तो मैं अपने देश में रोज़गार में लगा हुआ था। सुखी था। शिक्षित होने के नाते इतनी आमदनी अवश्य थी, किसी के आगे हाथ फैलाना नहीं पड़ता था। पर बेहतर ज़िन्दगी की इच्छाएँ, दुनिया भर की सुविधाएँ, दौलत की रेल-पेल और भविष्य की सुरक्षा मुझे यहाँ खींच लाई थी। इस बात को बीते हुए लगभग बीस वर्ष हो चुके हैं, हज़ार मिन्नतें मान कर मैंने सिम्मी को पाया है। उसकी हर छोटी-बड़ी इच्छा को अपनी इच्छा समझ कर पूरा किया है यहाँ तक कि कई बार मुझे अपनी सीमा से बाहर जाना पड़ा है। सिम्मी को इन तमाम बातों का एहसास है, वह यह भी जानती है कि मैं आत्मिक रूप से उससे जुड़ा हुआ हूँ और वह मेरी हर साँस में शामिल है।
हर वीकऐंड पर मुझे वह दिन प्रायः याद आता है जब सिम्मी ने पहली बार अपने फ्रेंड्स के साथ प्रोग्राम बनाया था तो उसने मुझसे उसमें भाग लेने की आज्ञा चाही थी। मैं लाउंज में बैठा टी.वी. पर Dallas देख रहा था। करीब ही राकेश बैठा हुआ था, वह भी प्रोग्राम में बढ़-बढ़ कर दिलचस्पी ले रहा था। गर्मियों में सुहाने दिन थे, शाम ढल चुकी थी और मिटता हुआ उजाला अंधेरे में आत्मसात हो रहा था। बाहर सिम्मी की बेस्ट फ्रेंड जोन्स कार में बैठी उसका इंतज़ार कर रही थी। मैं सिम्मी की बात सुनी-अनसुनी करके प्रोग्राम में खोया रहा पर जब उसने निर्णायक अन्दाज़ में अपनी बात को दोहराया तो मेरे बदन में हज़ार वोल्ट की विद्युत तरंग दौड़ गई थी और जब मैं सँभला था तो वह साक्षात् एक प्रश्न बनी मेरे सामने खड़ी थी जिसका जवाब मेरे पास नहीं था। मैंने जानबूझ कर इधर-उधर की बातें छेड़ कर उसे टालना चाहा था लेकिन उसने आत्म-विश्वास के साथ कहा था- "मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ-मैं कोई ऐसा कदम नहीं उठाऊँगी जिससे आपको सदमा पहुँचे।" विवश होकर मुझे अपनी ज़बान खोलनी पड़ गई थी-
"यूँ तो मुझे तुम पर पूरा भरोसा है- हर बात का बुरा- भला मुझसे बेहतर समझती हो-पर मुझे यहाँ के वातावरण से बड़ा डर लगता है।"
इस पर सिम्मी ने खुल कर ठहाका लगाया और मेरे गले में बांहें डाल कर कहा था, "Oh, Dad आप बिल्कुल ईस्ट्रन हैं, यहाँ इतने साल रहकर भी आपकी सोच नहीं बदली।"
"मैं मजबूर हूँ- मैं जानता हूँ तुम्हारे सोचने का ढंग मुझसे अलग है पर वातावरण किसी को नहीं बख़्शता। वह हर किसी पर अपना असर छोड़ता है। चाहे आदमी का चरित्र कितना की ऊँचा क्यों न हो। बहुत से तो खुली आँख रखते हुए भी गुमराह हो जाते हैं।"
"Listen Dad" उसने मेरी टाई की गाँठ ठीक करते हुए कहा था, "गुमराह वह होते हैं जो वातावरण से परिचित न हों। मैं इस सोसाइटी की ऊँच-नीच से खूब परिचित हूँ फिर फ्रेंड्स के साथ शाम गुज़ारना या उनके साथ घूमना-फिरना कोई बुरी बात तो नहीं?"
"तुम चाहो तो अपने फ्रेंड्स के साथ दिन में घूम-फिर सकती हो- कौन रोकता है तुम्हें?"
"इससे क्या फर्क पड़ेगा। जिसे ग़लत कदम उठाना है वह दिन के उजाले में भी उठा सकता है।"
"यूनिवर्सिटी में पढ़ कर तुम्हारे विचार काफी आज़ाद हो गए हैं।"
उसने मेरे लहज़े का व्यंग्य महसूस कर लिया था। उसके होंठों पर फीकी-सी मुस्कान उभर आई थी। बोली, "यूनिवर्सिटी में पढ़ कर मेरे विचार आज़ाद ज़रूर हुए हैं मगर ख़राब नहीं हुए, फिर एक जवान लड़की को Personal freedom न मिले तो उसे Suffocation होने लगती है।"
"ऊँह।" मैं एक लम्बी ऊँह कह कर ख़ामोश हो गया था, मुझे एहसास होने लगा था कि हमारी बातचीत उस ख़तरनाक मोड़ पर पहुँच चुकी है जहाँ विद्रोह कुछ फासले पर सिर उठाए खड़ा होता है और आदमी उससे आलिंगित होकर विद्रोह पर आमादा हो बैठता है। मैं एक गहरा लंबा सांस भर कर रह गया था।
"मैं तुम्हें जाने से नहीं रोक सकता और न ही तुम पर कोई पाबन्दी लगा सकता हूँ, केवल इतना कह सकता हूँ कि तुम्हारे बाप की इज़्ज़त तुम्हारे हाथ में है।"
उसने मेरे गाल को चूमा और मेरी चिन्ता दूर करने के लिए कहा- " I Wont't be long, I will try to be early."
वह दरवाज़े की ओर बढ़ गई थी और मैं जड़ बना सोच रहा था कि वह उस कीचड़ में पाँव रखने जा रही है जो दूर से कीचड़ दिखाई देता है लेकिन वास्तव में वह दलदल है जहाँ एक बार पाँव रखने से वह अन्दर ही अन्दर धंसता चला जाता है और कोशिश के बावजूद बाहर निकल नहीं पाता। मेरी बीवी कृष्णा जो दरवाज़े पर खड़ी हमारी बातें ध्यानपूर्वक सुन रही थी, सिम्मी के जाते ही उसने घर सिर पर उठा लिया था। उसके चीख़ने-चिल्लाने से दीवारें काँप गई थीं और वह मुझे कसूरवार ठहरा कर कहे जा रही थी-
"तुमने सिम्मी को रोका क्यों नहीं... तुमने उसे जाने क्यों दिया... तुम खुली छुट्टी देकर उसे बर्बाद कर रहे हो... तुम्हें औलाद की ज़रा परवाह नहीं।"
मुझे भी ताव आ गया था पर मैंने खुद को संयम में रखा।
"तुम समझती क्यों नहीं, सिम्मी वयस्क है और स्वाधीन भी- हम उसे किस आधार पर रोक सकते हैं। हम उस पर अनावश्यक दबाव डालेंगे तो वह कोई भी उल्टा-सीधा कदम उठा सकती है और हम कानूनी तौर पर उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।" लेकिन मेरी बात का उस पर कोई असर न हुआ था बल्कि वह घायल शेरनी की तरह गरज उठी थी-
"क्या बात करते हैं? हमने उसे जन्म दिया है, यहाँ के कानून ने उसे जन्म नहीं दिया। वह हमसे पूछे बिना कहीं नहीं जा सकती।" राकेश अपनी माँ की बात सुन कर हँस पड़ा था, ताली बजा कर हँसते-हँसते बोला...
" Mum तुम बड़ी Innocent हो। मैं कई बार कह चुका हूँ यह इंडिया नहीं इंग्लैंड है इंग्लैंड, यहाँ सोलह वर्ष की उम्र में लड़की-लड़का Free हो जाते हैं, फिर वह अपनी मर्ज़ी से कहीं भी जा सकते हैं, कहीं भी रह सकते हैं।"
"तुम चुप रहो, तुम अभी सोलह वर्ष के नहीं हुए।" राकेश फिर हँसने लगा और हँस कर ही बोला-
"Mum केवल एक महीने की बात है। मैं भी सोलह वर्ष का हो जाऊँगा फिर आपको मेरी चिंता करने की ज़रूरत नहीं, मैं अपनी चिन्ता खुद ही करूँगा।"
"लो सुन लो।" कृष्णा ने राकेश की ओर इशारा किया फिर कठोर स्वर में मुझे से कहा- "लड़की तो हाथ से गई सो गई, यह भी निकलने की तैयारी कर रहा है। तुम्हारी आँखें तब खुलेंगी जब औलाद पर हमारा कोई कंट्रोल नहीं रहेगा। तब दीवार से तुम अपना सिर फोड़ना। पाँच वर्ष पहले मेरी बात मान ली होती तो आज यह दिन देखना न पड़ता।"
मुझमें ज़्यादा सुनने की हिम्मत न थी। मैं तेज़ी से बाहर निकल गया था लेकिन कृष्णा की कड़वी-कसैली बातें मेरा पीछा करती रहीं जो कई दिनों तक मेरे कानों में गूंजती रहीं थीं और मेरी मानसिक शांति भंग कर चुकी थी।
मैं किताब का पन्ना पलट कर आगे पढ़ने की सोचता हूँ पर पिछले पन्ने पर जो कुछ मैंने पढ़ा है उसका एक शब्द भी मेरे ज़ेहन में मौजूद नहीं है। मैं पन्ने पर फैली हुई पंक्तियाँ अवश्य पढ़ रहा हूँ पर मेरा ज़ेहन आँखों का साथ नहीं दे रहा है बल्कि वह कहीं और ही खोया हुआ है। किताब को एक और रख कर मैं घड़ी पर नज़र डालता हूँ। छोटी सुई एक पर और बड़ी सुई तीन के अंक पर पहुँच चुकी है। सिम्मी के अतिरिक्त सर्दी भी मुझे परेशान कर रही है। हालांकि सेंट्रल हीटिंग अंतिम डिग्री पर चल रही है लेकिन नारवे से आई हुई हिमानी हवाओं ने सारा इंग्लैंड अपने निशाने पर ले रखा है। सांझ होते ही लोग घरों में दुबके बैठे हैं और इस क्षण बेख़बर सो रहे हैं, लेकिन मैं जाग रहा हूँ और अपनी जवान बेटी का इंतज़ार कर रहा हूँ जो हर शय से निस्पृह दोस्तों की संगति में कहकहे बिखेर रही होगी या खुद बेहतर जानती है किस हालत में होगी? मैं शैल्फ पर धरी हुई किताबों के पीछे से ब्रांडी की बोतल निकाल लेता हूँ और मुँह से लगा कर दो-तीन चुसकियां भरता हूँ। सामने मेज़ पर सिम्मी और राकेश की बचपन की तस्वीरें रखी हुई हैं। बच्चों के शगुफ़्ता चेहरों पर भोलापन, नेकी और शराफत फैली हुई है। वह इतने बेबाक, आज़ाद और एक क्यों हो जाते हैं? केवल यही नहीं, बल्कि दूसरों की नींद और मुस्कान भी ग़ायब कर देते हैं। पिछले कई महीनों से मैं और कृष्णा ज़रा भी नहीं मुस्कराए, बल्कि भूल ही गए कि मुस्कान किस चीज़ का नाम होता है। बुझे-बुझे चेहरों से एक दूजे को देख कर महसूस करते हैं कि अजनबी धरती की बू-बास हमारे बच्चों को भी अजनबी बनाए जा रही है और वह धीरे-धीरे हमसे दूर हुए जा रहे हैं। मैं भारी मन के साथ कुरसी पर आकर बैठ जाता हूँ और बैक पर सिर टेक कर आँखें मूंद लेता हूँ। ज़ेहन के पर्दे पर कुछ परछाइयाँ उभरती हैं जो एक-दूसरे में लीन होने लगती हैं। पाँच साल पहले की वह रात मुझे याद आने लगती है और धीरे-धीरे उसकी रेखाएँ स्पष्ट होने लगती हैं। मैं हड़बड़ाकर आँखें खोल देता हूँ जैसे Nightmare से जाग उठा हूँ। मैं और कृष्णा बेड-रूम में सोने की तैयारी कर रहे थे। बच्चों के इम्तिहान सिर पर थे और वे अपने-अपने कमरों में किताबें खोले पढ़ रहे थे। वह उम्र की उस सीमा में दाख़िल हो चुके थे जब विवेक तेज़ी से जागरूक होने लगता है और बच्चे बुरे-भले की पहचान करने लगते है। यूँ भी यहाँ के वातावरण, मीडिया और शिक्षा ने उनकी बु(ि के कई कोने रोशन कर रखे थे। उनकी हर बात में तर्क आगे-आगे हुआ करता था। कृष्ण ने अप्रत्याशित रूप से मुझसे दो-तीन प्रश्न ऐसे पूछे थे कि मैं धड़ाम से सिर के बल आ गिरा था। उसने गंभीरता से कहा था-
"मैंने जब तुमसे शादी की थी तो तुम्हें देखा तक न था। जहाँ मेरे बाप ने रिश्ता तय किया था, मैंने फर्ज़ समझ कर कबूल कर लिया था- लेकिन क्या तुम सिम्मी से इस बात की आशा कर सकते हो?"
मैं कुछ बौखला गया था पर कुछ सोच कर बोला था-
"ज़माना बदल गया है कृष्णा। सिम्मी अभी बहुत छोटी है। बड़ी होगी तो देखेंगे उसका इरादा क्या है, पर इसमें सन्देह नहीं कि उसका इरादा जानना बहुत ज़रूरी है।"
"मैं मानती हूँ लेकिन जिस ढंग से हमारे बच्चे यहाँ के बच्चों से घुल-मिल रहे हैं और उनकी सोच भी अंग्रेज़ बच्चों की तरह ढलती जा रही है- वह कुछ वर्ष और यहाँ रह गए तो केवल शक्ल से ही हिन्दुस्तानी लगेंगे वरना वह ऊपर से नीचे तक अंग्रेज़ होंगे।"
"यह तुम कैसे कह सकती हो?"
"मैं अपने बच्चों को तुमसे बेहतर समझती हूँ, ज़्यादा वक़्त उनके साथ रहती हूँ- उनकी बोल-चाल, सोच-समझ, खाना-पीना, पहनावा और रुचियों से ज़रा भी पता नहीं चलता कि वह हिन्दुस्तानी बच्चे हैं।"
"आख़िर तुम कहना क्या चाहती हो?"
"मैं। बच्चों की माँ हूँ। मुझे डर लग रहा है- उनके जवान होने पर मैं उन्हें खो बैठूँगी, यही समय है कि हम हमेशा के लिए इंडिया लौट जाएँ।"
"इंडिया...?" मैं लगभग चीख़ उठा था।
"हाँ, इसी में हमारी भलाई है। ज़रा सोचो तो, कुछ वर्ष बाद अगर सिम्मी कोई अंग्रेज़ लड़का लेकर घर पर चली आए और उसे हमारे सामने खड़ा करके बोले कि मैं उससे शादी करना चाहती हूँ तो तुम्हारी क्या हालत होगी...? तुम पर क्या बीतेगी?"
मैं चकित कृष्णा को देखता जा रहा था।
"और भगवान न करे, अगर यही हरकत राकेश कर बैठा तो क्या तुम अंग्रेज़ दामाद और अंग्रेज बहू को दिल से स्वीकार कर सकोगे?"
मेरे पाँव के नीचे से ज़मीन सरक गई थी। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि मेरी पत्नी, जिसकी शिक्षा बस नाममात्र की थी, वह अपने बच्चों के बारे में यूँ चिंतित हो सकती है। आने वाले ख़तरों को इतने करीब से महसूस कर सकती है और मैं, जिसने कई डिग्रियाँ हासिल कर रखी थीं, हज़ारों किताबें चाट रखी थीं, कभी अपनी संतान के बारे में यह न सोच पाया था कि उन पर यहाँ का सांस्कृतिक रंग किस हद तक चढ़ता जा रहा है। उनके पाँव पराई धरती में कहाँ तक धँसते जा रहे हैं और वह भविष्य में कौन-सी डगर चुन सकते हैं। मुझे पर तो दिन-रात पौंड कमाने और जोड़ने की धुन सवार थी। मैं तो आँखें पर पट्टी बाँध जायदाद बनाने के चक्कर में था। दोनों हाथों से सिर थाम कर मैं कृष्णा के पहलू में बैठ गया और सोचने लगा कि अगर बच्चों ने जवान होकर अपनी मर्ज़ी के मुताबिक कदम उठाया और अपनी जाति के बाहर किसी से नाता जोड़ लिया तो मेरी ज़िन्दगी की हर खुशी नष्ट हो जाएगी, जीने का आनन्द जाता रहेगा और मैं कहीं का न रहूँगा। दूसरे ही क्षण कृष्णा का हाथ मेरे कंधे पर था। मैंने पलट कर देखा तो उसका परेशान चेहरा भी हज़ार चिंताओं में डूबा हुआ था। मैं अनायास उससे लिपट गया था।
मैं कई वर्षों के बाद इंडिया लौट आया था। हालात काफी बदल चुके थे, लोगों के सोचने का ढंग भी बदल गया था। वह काफी पश्चिम-ग्रस्त हो चुके थे। मैं बेपनाह खुश था कि मेरा देश आत्म-निर्भर हो चुका था और वह सुई से लेकर हवाई जहाज तक बना रहा है पर दूसरी ओर बढ़ती हुई आबादी, बेरोज़गारी, दिखावा, ग़रीबी और महँगाई देख कर मेरा ज़ेहन सँभल नहीं पा रहा था। मुझे ग़रीबी कुछ ज़्यादा ही दिखाई दे रही थी। शायद इसकी वजह यह थी कि मैं एक अमीर मुल्क से आया था, रात के समय फुटपाथ अनगिनत लोगों से भरे रहते थे, गगनचुंबी इमारतों के नीचे झोंपड़ियाँ थीं, साफ-सुथरे इलाकों में भी गन्दगी देखने को मिल जाती थी। भीड़ का यह आलम था कि सड़कों पर चलना बहुत कठिन था। हर मोड़ पर हर उम्र का भिखारी, गन्दगी और फटे-पुराने लिबास प्रायः दिखाई देते थे। यह सब देख कर मेरा भाग जाने को जी चाहता था। एक ही ख़याल मुझे परेशान किया करता था कि मेरे बच्चे इस वातावरण को देख कर क्या सोचेंगे? वह क्योंकर इस वातावरण को स्वीकार करेंगे? उन्हें तो हर कदम पर घुटन महसूस होगी फिर यहाँ के सामाजिक मूल्य भी उनके लिए अपरिचित साबित होंगे, मौसम उन्हें अलग परेशान करेगा। अब तो मुझसे भी यह गर्मी सहन नहीं होती। उनका तो बदन झुलस कर रह जाएगा फिर महँगाई इतनी बढ़ चुकी है कि ज़िन्दगी के मापदण्ड जो हमने वहाँ स्थापित कर रखे हैं उनसे उतर कर यहाँ बसर करना मुश्किल होगा। मैं और कृष्णा तो ख़ैर इस वातावरण की पैदावार हैं, किसी न किसी रूप से कबूल कर ही लेंगे लेकिन बच्चों का क्या बनेगा? उनमें तो खरे-खोटे का विवेक जागरूक हो चुका है, वह चंद दिन भी यहाँ रह गए तो अवश्य उनकी हालत उन परिन्दों की तरह होगी जिनके पंख उड़ान से पहले ही काट दिए जाते हैं।
अचानक दूर से किसी कार के आने की आवाज़ आती है। धीरे-धीरे कार की रफ्तार कम होती जाती है और वह मेरे घर के बाहर आकर रुक जाती है। मेरे विचारों का सिलसिला टूट गया है। दो बज कर बीस मिनट हो चुके हैं। मैं समझ जाता हूँ सिम्मी आ गई है। मैं लपक कर खिड़की से पर्दा सरकाता हूँ। काँच पर फैली हुई धुंध के कारण कुछ दिखाई नहीं देता। मैं हाथ से धुंध साफ करके नीचे देखता हूँ। बाहर गाढ़ा अंधेरा फैला हुआ है। वह कार जो सड़क पर खड़ी है न तो सिम्मी की है और न ही जोन्स की। वह एक ही झटके से स्टार्ट होकर आगे बढ़ जाती है। सारा इलाका मकबरे की तरह ख़ामोश है। दूर-दूर तक मानव की छाया नज़र नहीं आती केवल आकाश से गिरती हुई बर्फ दिखाई देती है। मेरी निराशा चरम सीमा को छू गई है। मैं कुर्सी पर आकर ढेर हो जाता हूँ और एक लंबी सांस भर कर बाहर को छोड़ता हूँ। नींद से बोझिल आँखें बंद करके सोचता हूँ कि औलाद का इंतज़ार करना पीड़ादायक होता है। जाने यह इंतज़ार कब, कैसे और कहाँ जाकर समाप्त होगा हालांकि कई बार मेरा दिमाग़ मुझसे कह चुका है कि मैं नाहक सिम्मी का इंतज़ार करना रहता हूँ। वह अपने आप बुद्धिमान है, ज़िम्मेदार है, अपनी देखभाल अच्छी तरह से कर सकती है, वह विकसित देश की पैदावार है। आज़ाद वातावरण की पाली-पोसी हुई है जहाँ संतान और माता-पिता का रिश्ता परिन्दों की जीवन-शैली से मिलता-जुलता है। नई उम्र का परिन्दा जब उड़ने के लिए पर फड़फड़ाता है तो उसका जन्मदाता अपने संरक्षण में उसे आकाश की खुली फिजाओं में ले जाता है। अपने बच्चे को उड़ता देख कर जब उसे विश्वास हो जाता है कि वह अपना दाना-पानी खुद तलाश कर सकता है तो वह चुपके से अपने बच्चे को अकेला छोड़ कर अलग हो जाता है लेकिन मैं अपने दिल के हाथों मजबूर हूँ। वह अजीब ढंग से बना है। वह सिम्मी के घर लौटने पर ही शांत होता है, वह डर से घिरा रहता है। सिम्मी का दो-ढाई बजे लौटना नित्य-नियम बन चुका है। शुरू-शुरू में वह जल्द लौट आया करती थी लेकिन धीरे-धीरे समय की कल्पना उसके ज़ेहन से मिटती जा रही है। वह खुद ही समय की मालिक बन बैठी है। मुझे सन्देह गुज़रता है कि उसके देर से आने में जोन्स का पूरा हाथ है जिसका व्यक्तित्व सिम्मी की सोच पर काफी भारी है। मुझे जोन्स से बड़ा डर लगता है, वह बला की ज़हीन, तेज़ और जंगजू है। उसके क्रांतिकारी विचार इतने ख़तरनाक हैं कि उसकी हर बात से वैयक्तिकता टपकती है। वह खुद पर किसी प्रकार का दबाव सहन नहीं कर सकती और हर समय सारे ज़माने से लड़ने के लिए तैयार रहती है। मुझे धड़का लगा रहता है कि सिम्मी उससे प्रभावित होकर उसकी राह पर न चल निकले। अचानक वह धुंधली शाम कहीं से उभर कर मेरी आँखों के सामने फैल गई है कुछ समय पहले की बात है- मैं आरामकुर्सी पर बैठा अख़बार पढ़ रहा था, जोन्स का टेलीफोन आया था, वह सिम्मी को बता रही थी कि उसने अपने Parent से अलेहदगी इख़्तियार कर ली है और रहने के लिए उसने स्टूडियो फ़्लैट किराए पर ले लिया है। सिम्मी मारे खुशी के दीवानी हो गई थी। उसके पाँव ज़मीन पर नहीं टिक रहे थे। वह जोन्स को मुबारकबाद देते हुए कह रही थी- "कितनी खुशकिस्मत हो तुम- अब तुम अकेली रहोगी। बिल्कुल Free bird, कोई कर्फ़्यू तुम पर नहीं होगा, जिस तरह से चाहोगी दुनिया को परखोगी, समझोगी और सच पूछो तो दुनिया की असल समझ तभी आती है जब आदमी हर पाबन्दी से आज़ाद अपनी ज़िन्दगी खुद जीता है और वह किसी पर Depend नहीं होता।"
मैं डर के मारे सिमट गया था। अख़बार मेरे हाथों से छूटते-छूटते रह गया था। ठीक वही डर मेरे मन में बैठ गया था जिसकी कल्पना से ही मैं काँप उठता हूँ। मुझे विश्वास हो चला था कि बहुत जल्द इसी प्रकार का ड्रामा मेरे घर में खेला जाएगा। मैं लाख दलीलें पेश करूँगा, लाख भावनात्मक युक्तियाँ दूँगा लेकिन अवश्य सिम्मी के आगे बाज़ी हार जाऊँगा।
मैं ख़ासा सावधान हो गया था, कई बार मैंने चालाकी से काम लेकर सिम्मी को जोन्स से अलग करना चाहा था लेकिन वह जोन्स को बहुत ज़्यादा पसन्द करती थी। हर सिलसिले में उससे मशवरा लेना ज़रूरी समझती थी बल्कि मुझसे कहा करती थी- "आप जोन्स को बिल्कुल Understand नहीं करते। She got a golden heart. वह बिल्कुल Possessive नहीं है और न ही किसी को अपनी राह पर चलने के लिए मजबूर करती है। हमारी दरमियान बड़ी Deep understanding है। लेकिन मैं सिम्मी की बातों से संतुष्ट नहीं हुआ करता था बल्कि मेरी कोशिशें जारी थीं कि अगर मैं उन्हें अलग नहीं कर सकता तो इतना फासला ज़रूर पैदा कर दूँ कि वह एक-दूसरे से रूठ जाएँ ताकि उनके बीच कुछ रंजिश, कुछ खिंचाव, कुछ मतभेद उभर आएँ लेकिन मैं अपने मकसद में सफल नहीं हो पा रहा था।
मैं मेज़ की दराज़ से सिगरेट का पैकिट निकालता हूँ। यूँ तो मैं सिगरेट पीने का आदी नहीं हूँ। तभी पीता हूँ जब मेरे दिल इर्द-गिर्द धीमा-धीमा दर्द होने लगता है या मेरे दिमाग़ की नसें अधिक बोझ उठाने से इंकार कर देती हैं। सिगरेट सुलगा कर अपने आप मेरी नज़रें घड़ी की ओर उठ जाती हैं। गतिशील सुइयाँ अपने दायरे में घूमकर तीन बज कर दस मिनट पर पहुँच चुकी हैं। मैं सोचता हूँ सुबह होने में देर ही कितनी रह गई है। कुछ ही देर में डबलडेकर बसें सड़कों पर दौड़ती नज़र आएँगी।
अचानक दरवाज़े में चाबी घूमने की आवाज़ आती है। मेरे कान खड़े हो जाते हैं और मैं लपक कर लाइब्रेरी से निकल आता हूँ। सिम्मी दाख़िल होकर दरवाज़ा ज़ोर से बन्द करती है। हाल-वे की बत्ती जला कर वह पहली सीढ़ी पर पाँव रख कर खड़ी हो जाती है, चंद पल के लिए कुछ सोचती है फिर ज़ीने की रेलिंग पर बाँह फैला कर सिर उस पर टेक देती है और सिर को कभी बाएँ कभी दाएँ तरफ झटके देती है। उसकी हालत देख कर मैं महसूस करता हूँ कि वह काफी डिस्टर्ब है। वह कुछ देर उसी अंदाज़ में खड़ी रहती है- निश्चल, मौन, खोई-खोई-सी, फिर डगमगाते कदमों से सीढ़ियाँ तय करने लगती है। उसके बाल बिखरे हुए हैं, चेहरा उतरा हुआ है, आँखें चिंता से भरी हुई हैं। ब्लाउज के दो-तीन बटन भी खुले हैं। मुझे देख कर उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती बल्कि वह हर प्रभावान्विति से ख़ाली, सपाट नज़रों से मेरा जायज़ा लेती हुई मेरे करीब आकर रुक जाती है और थकी-मांदी आवाज़ में कहती है-
"आप कब तक मेरा इंतज़ार करते रहेंगे?"
मैं जवाब देने के बजाए उसकी हालत कुछ और देख कर चिंतित हो जाता हूँ। कुछ कहने के लिए होंठ हिलाता हूँ पर वह मुझे यूँ देखती है जैसे मैं उसकी ज़िन्दगी में एकमात्र रुकावट बना बैठा हूँ। वह कुछ कटुता से कहती है-
"आप रात-रात मेरा इंतज़ार करते हैं, आपको हरदम मेरी चिंता रहती है, अपनी सेहत का आपको बिल्कुल ख़याल नहीं It's not fair at all. बेहतर यही होगा कि मैं कोई दूसरी जगह लेकर..." मैं जल्दी से हाथ बढ़ा कर उसके होंठों पर रख देता हूँ और घबरा कर कहता हूँ, "ऐसा कभी न करना वरना मैं कहीं का न रहूँगा। अब तुम कम से कम घर तो आ जाती हो।"
"तो फिर आप वादा करें आप मेरा कभी इंतज़ार नहीं करेंगे।"
मैं हारे हुए शख़्स की तरह ख़ामोश उसे देखता रह जाता हूँ। कुछ कहने के लिए न मेरे पास शब्द बचे हैं और न ही भावनाएँ।
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