आचार्य सरोज द्विवेदी का जन्म 14 अक्टूबर 1946 को ग्राम घुमका में हुआ। रविशंकर विश्वविद्यालय राजपुर द्वारा एम.ए. की शिक्षा। पिता स्वर्गीय पं....
आचार्य सरोज द्विवेदी का जन्म 14 अक्टूबर 1946 को ग्राम घुमका में हुआ। रविशंकर विश्वविद्यालय राजपुर द्वारा एम.ए. की शिक्षा। पिता स्वर्गीय पं. गिरधारी लाल द्विवेदी, माता श्रीमती नर्मदा देवी, अध्यापन 21 जनवरी 1967 से 9 मार्च 1980 तक दुर्ग एवं राजनांदगांव जिले की विभिन्न शालाओं में अध्यापन। 9 मार्च 1980 को शिक्षकीय पद त्यागकर पत्रकारिता की। श्री द्विवेदी विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं का प्रतिनिधि के रूप में कार्य किये एवं आमचर्चा साप्ताहिक समाचार पत्र का संपादन भी किये। 1985 में पत्रकार कल्याण नई दिल्ली द्वारा सम्मान। 1983 से श्री मद् भागवत प्रवचन प्रारंभ किये और अब तक देश के महानगरों से लेकर सुदूर ग्रामीण अंचलों तक सौ से अधिक भागवत प्रवचन कर चुके हैं। 1990 से पूर्ण कालिक ज्योतिष लेखन एवं शोध कार्य में संलग्न। साथ ही साहित्य लेखन भी जारी। राजनीति में 1980 से 1990 तक कांग्रेस पार्टी मं सक्रिय, बीस सूत्रीय समिति के सदस्य रहे किन्तु संगठन के पद ठुकरा कर राजनीति छोड़ दी। धर्म, साहित्य, ज्योतिष और दर्शन की पुस्तकों का सतत अध्ययन।
लेखन : बाल्यकाल से नवभारत एवं सबेरा संकेत में बाल जगत का सतत प्रकाशन। हिन्दी और छत्तीसगढ़ी का प्रायः सभी विधाओं में देश की प्रायः सभी पत्र - पत्रिकाओं में 1970 से 1995 तक सतत लेखन। आकाशवाणी रायपुर से अनेक रचनाएं प्रसारित। अनेक रचनाएं पुरस्कृत। राजनांदगांव से प्रकाशित सबेरा संकेत में दैनिक, साप्ताहिक एवं वार्षिक राशिफल का विगत 18 वर्षोँ से सतत लेखन। ज्योतिष संबंधी शोधपूर्ण लेख विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में 1995 से निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। 1977 में राजनांदगांव जिले के कवियों का काव्य संकलन - राजनांदगांव 77 का सम्पादन। वर्ष 1983 - 84 में लघुकथा संग्रह कलयुगी अमृत प्रकाशित। 1975 से 1985 तक हिन्दी में लघुकथा आन्दोलन के देश के चर्चित एवं सक्रिय लेखक। देश के अनेक लघुकथा संकलनों में लघुकथाएं प्रकाशित, प्रशंसित एवं पुरस्कृत।
पुरस्कार एवं सम्मान : 1985 पत्रकारिता के लिए पत्रकार कल्याण प्रतिष्ठान नई दिल्ली से पुरस्कृत। 1998 ज्योतिष विशारद अंतर्राष्ट्रीय ज्योतिष सम्मेलन रायपुर 2002 ज्योतिष विद्या भारती सम्मान। 2003 छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति रायपुर द्वारा साहित्य सम्मान। वर्ष 2004 राजीव गांधी सम्मान राजीव फेंस क्लब, राजनांदगांव। 2006 दीपाक्षर सम्मान दीपाक्षर साहित्य समिति दुर्ग द्वारा। वर्ष 2007 में सुरति साहित्य मंच सुन्दरा द्वारा दीर्घ साहित्य सेवा के लिए सम्मान। वर्ष 2008 में सृजन सम्मान रायपुर द्वारा आयोजित विश्व लघुकथा सम्मेलन में सर्वोच्च सम्मान लघुकथा गौरव सम्मान दिया गया। इसके साथ ही अनेक साहित्यिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक समारोहों में सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त।
शीघ्र प्रकाश्य पुस्तकें : काम कन्दला माँ बम्लेश्वरी की अमर कथा पर आधारित उपन्यास। नवग्रहों के हिन्डोले पर ज्योतिष के सकारात्मक पक्ष पर पुस्तक। जीवन की सर्वोच्च कला श्रीमद् भागवत तथा श्री कृष्ण की कलाओं पर जीवन प्रबंधन की एक अभिनव पुस्तक।
सम्पर्क : आचार्य सरोज द्विवेदी ज्योतिष एवं भागवताचार्य,
ज्योतिष कार्यालय, मेन रोड, तुलसीपुर, राजनांदगांव छ.ग.
मोबा. : 94062 - 03693
--
मुस्करायइये कि आप नांदगांव में हैं
मुस्कराइये कि आप नांदगांव में हैं
भोरमदेव है पिता हमारे, बम्लेश्वरी है माता रानी,
हम रहते हैं राजनांदगांव छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी।
कला की सेज पर है कविता की छांव में हैं।ॉ
मुस्कराइये कि आप नांदगांव में हैं॥
पदुमलाल का कथाचक्र, बल्देव का तुलसी दर्शन है,
मुक्तिबोध के साम्यवाद का यहां त्रिवेणी दर्पण है।
कुंजबिहारी ने सिखलाई क्रांति और विद्रोह की भाषा,
नन्दूलाल चोटिया ने दी श्रम और रोटी की परिभाषा।
कल्पना की झील में सृजन की नाव में हैं,
गुन गुनाइये कि आप नांदगांव में हैं॥
ठाकुर प्यारेलाल हो गये छत्तीसगढ़ के गांधी,
उनके संग बहुतो ने झेली लाठी, गोली, आंधी।
स्वतंत्रता के महासागर के एक मनोहर ठांव में हैं,
जाग जाइये कि आप नांदगांव में हैं॥
कुंवर दिग्विजय दास ने यहां संस्कारों का किला बनाया,
और किशोरीलाल शुक्ल ने इस धरती को जिला बनाया।
जो भी यहां आया इसके प्रभाव में हैं,
धन्य भाग्य आपके कि नांदगांव में हैं॥
खेलों की दुनिया में साथी इस धरती का बड़ा नाम है,
कला और संगीत साधना इस धरती का बड़ा काम है।
रोज रोज आयोजन होते इस गांव में हैं,
खिलखिलाइये कि आप नांदगांव में हैं॥
माटी के पूत : माटी की कसम
माटी का यह दीप कभी बुझने न पाये
ओ माटी के पूत तुम्हें माटी की कसम
माटी का यह दीप तुम्हें
सिखलाते हैं जलते रहना
औरों को जीवन देने को
स्वयं सदा मरते रहना
परहित में मरने की परिपाटी की कसम
ओ माटी के पूत तुम्हें माटी की कसम
जितना भी बन सके
बांटना है तुम्हें उजियारा
जितना भी हो सके
काटना है तुम्हें अंधियारा
सूरज जिसमें रहता है तुम्हें उसी घाटी की कसम
ओ माटी के पूत तुम्हें माटी की कसम
तुम्हें बधाई बंधु आज
दीपों के इस त्यौहार में
सदा कीर्ति फैलाओं अपनी
जीवन में व्यापार में
हर क्षण साथ तुम्हारा देंगे हमें उसी माटी की कसम
ओ माटी के पूत तुम्हें माटी की कसम
एक पर्व अंगारों का
मेरे देश में आता है, एक पर्व अंगारों का,
हर द्वार चमकने लगता है, यह राजा है त्यौहारों का।
दीपक स्वयं धधकती ज्वाला
दीवाली उनकी कतार
मानव से दिल वालों को
मेरे देश में यह उपहार
बच्चे इस दिन खेल खेलते, सूरज चाँद सितारों का।
दीप मार लेता है बाजी
अमावस की काली रात से
कोयला हीरा बन जाता है
किरणों की बरसात से
यह प्रकाश की पूजा है, बलि है यह अंधियारों का।
कुटियों से लेकर महलों तक
इस रात चमकने लगते हैं
राजा रंक सभी इस दिन
नाना कुबेर के लगते हैं
लक्ष्मी स्वयं नाचती छमछम, और ढेर कलदारों का।
मेरे देश में आता है, एक पर्व अंगारों का॥
साथी तभी रंग रंगोली तभी हुआ करती है होली
हर पहचाना लिख गया बहुरंगा विश्वास,
ये गोरी के गाल हैं, या कोई केनवास।
पगडंडी ने पी लिया देखो कितना भंग,
इठलाती सी चल रही आंचल झरता रंग।
सुबह शाम झरता रहा इतना रंग गुलाल,
ये गोरी के अंग है या टेसू की डाल।
छोरी के आंचल लगे गांव गली चौपाल,
आज न कोई भेद है सब गोपी गोपाल।
भंग चढ़ा रंग चढ़ गया चेहरा हुआ निहाल,
हनुमान से दिख रहे बाबा बंशीलाल।
भेदभाव सब भूल के बोलें प्यार की बोली,
साथी तभी रंग रंगोली तभी हुआ करती है होली।
आदमी
चांद पर जो चढ़ गया वह भी आदमी।
भूख से जो मर गया वह भी आदमी॥
आदमी को नमन करे आदमी की भीड़,
वह कैसा आदमी जो खोज रहा नीड़ ?
गजरों के बीच में खड़ा है आदमी।
फूलों को सींचते पड़ा है आदमी॥
आदमी ने दुनिया का ढंग बदल दिया,
वह भी कैसा आदमी जो रंग बदल दिया ?
भवन को बनाता है वह भी आदमी।
भवन को जलाता है वह भी आदमी॥
आदमी पसीने से सागर भी दे गया,
वह भी कैसा आदमी जो लहर में गया ?
डूबा रंगरलियों में वह भी आदमी।
मांग रहा गलियों में वह भी आदमी॥
आदमी बनो करो कुछ आदमी के काम,
लिख न पायेगा नहीं तो आदमी में नाम ?
बेटा भी भूल गया वह भी आदमी।
जग न जिसे भूलेगा वह भी आदमी॥
हंसी का जन्म
रोते रोते तो सब मनुष्य इस धरती पर आये हैं
पर हंसने का सुन्दर वरदान सभी लोग कब पाये हैं ?
इसका भी है इतिहास सुनो यह स्वर्गलोक से आया है,
बहुत बड़ी तकलीफ उठा मानव ने इसको पाया है।
इसके पहले देवलोक में देव ही हंसा करते थे
साम्य बना प्राणी मानव को दुख से खूब कसा करते थे।
एक बार किसी मानव ने विष्णु आफिस में हड़ताल कर दिया,
खूब खुरापाती करके विष्णु का चेहरा लाल कर दिया।
भगवन बोले, हे मानव, तुम्हें क्या चाहिए बतला दो
क्या तकलीफ है मृत्युलोक में साफ - साफ तुम समझा दो
वह बोला हे भगवन हमको मृत्युलोक में जन्म दे दिया
पाप, पुण्य, दुख, दारिद्र हमको पेट नरक भी साथ दे दिया।
ये सब बुरी बात है प्रभु एकाध तो ऐसी चीज भी दो
सुन्दर सा चेहरा दिख जाये एकाध प्रतिक्रिया ऐसी दो।
भगवन बोले हे मानव, तू तो सचमुच बड़ ज्ञानी है
आफिस अटैच करने लायक है क्या मन में ठानी है।
उसने बोला सर हम यही स्वर्ग में कभी नहीं रह पायेंगे
मिसेज लक्ष्मी को पैर दबाते कभी देख न पाएंगे
मेरे घर पर तुम आओगे वह अन्दर ही घुस जायेगी
परदा करके दरवाजे पर अन्दर से चाय भिजायेगी
पर हम आये पास यहां लक्ष्मी ने पैर नहीं छोड़ा
तुम्हारी पत्नी है जरूर पर तुम हो बड़े छिछोड़ा
इतना कहना था उसका कि प्रभु ने जोर से हांस दिया
बस इसी पाइंट पर विष्णु जी को उस मानव ने फांस दिया।
यह होंठ हिलाकर तुमने जो खल - खल, खिल - खिल किया अभी।
यही प्रतिक्रिया मृत्यु लोक में भगवन पाये लोग सभी।
हुए विष्णु एक बार अचम्भित फिर धीरे से ले मुस्कान
एवमस्तु कह दिये प्रभु हंसने लगे सभी इंसान
तभी नारद आ गये, विष्णु ने परिचय करवाया
ये स्वर्ग के एक्सचेंज आफिसर है, यह मानव हंसने का वर पाया।
नारद बोले प्रभु तुमने ऐसा क्यों अनुदान दे दिया
मानव जाति को हंसने का तुमने क्यों वरदान दे दिया।
ये लोग साधारण प्राणी है ये हंसने के नहीं लायक है
कमा कमा कर पेट भर रहे मूरख है नालायक है
वह हड़ताली मानव नारद पर खूब जोर भन्नाया फिर
भगवन को संबोधन कर नारद को खूब सुनाया फिर।
मृत्युलोक परतंत्र नहीं जाकर देखो हो गया स्वतंत्र
छीर सागर को देख पाये तो पी दो दिन में कर दे अंत
तुमसे लम्बी चोटी वाले गलियां छाना करते हैं
तुमसे अच्छी वीणा वाले गाना गाया करते हैं
इन दोनों का सुन संवाद विष्णु जी घबराये
अंर्तध्यान हुए प्रभु दोनों को बेवकूफ बनाये
आकर के फिर मृत्यु लोक में उसने हास्य प्रसार किया
पाकर परमधाम प्रतिक्रिया , मानव ने सुख व्यवहार किया
रोते रोते तो सब मनुष्य इस धरती पर आये हैं
पर हंसने का सुन्दर वरदान सभी लोग कब पाये हैं ?
इसका भी है इतिहास सुनो यह स्वर्गलोक से आया है,
बहुत बड़ी तकलीफ उठा मानव ने इसको पाया है।
इसके पहले देवलोक में देव ही हंसा करते थे
साम्य बना प्राणी मानव को दुख से खूब कसा करते थे।
एक बार किसी मानव ने विष्णु आफिस में हड़ताल कर दिया,
खूब खुरापाती करके विष्णु का चेहरा लाल कर दिया।
भगवन बोले, हे मानव, तुम्हें क्या चाहिए बतला दो
क्या तकलीफ है मृत्युलोक में साफ - साफ तुम समझा दो
वह बोला हे भगवन हमको मृत्युलोक में जन्म दे दिया
पाप, पुण्य, दुख, दारिद्र हमको पेट नरक भी साथ दे दिया।
ये सब बुरी बात है प्रभु एकाध तो ऐसी चीज भी दो
सुन्दर सा चेहरा दिख जाये एकाध प्रतिक्रिया ऐसी दो।
भगवन बोले हे मानव, तू तो सचमुच बड़ ज्ञानी है
आफिस अटैच करने लायक है क्या मन में ठानी है।
उसने बोला सर हम यही स्वर्ग में कभी नहीं रह पायेंगे
मिसेज लक्ष्मी को पैर दबाते कभी देख न पाएंगे
मेरे घर पर तुम आओगे वह अन्दर ही घुस जायेगी
परदा करके दरवाजे पर अन्दर से चाय भिजायेगी
पर हम आये पास यहां लक्ष्मी ने पैर नहीं छोड़ा
तुम्हारी पत्नी है जरूर पर तुम हो बड़े छिछोड़ा
इतना कहना था उसका कि प्रभु ने जोर से हांस दिया
बस इसी पाइंट पर विष्णु जी को उस मानव ने फांस दिया।
यह होंठ हिलाकर तुमने जो खल - खल, खिल - खिल किया अभी।
यही प्रतिक्रिया मृत्यु लोक में भगवन पाये लोग सभी।
हुए विष्णु एक बार अचम्भित फिर धीरे से ले मुस्कान
एवमस्तु कह दिये प्रभु हंसने लगे सभी इंसान
तभी नारद आ गये, विष्णु ने परिचय करवाया
ये स्वर्ग के एक्सचेंज आफिसर है, यह मानव हंसने का वर पाया।
नारद बोले प्रभु तुमने ऐसा क्यों अनुदान दे दिया
मानव जाति को हंसने का तुमने क्यों वरदान दे दिया।
ये लोग साधारण प्राणी है ये हंसने के नहीं लायक है
कमा कमा कर पेट भर रहे मूरख है नालायक है
वह हड़ताली मानव नारद पर खूब जोर भन्नाया फिर
भगवन को संबोधन कर नारद को खूब सुनाया फिर।
मृत्युलोक परतंत्र नहीं जाकर देखो हो गया स्वतंत्र
छीर सागर को देख पाये तो पी दो दिन में कर दे अंत
तुमसे लम्बी चोटी वाले गलियां छाना करते हैं
तुमसे अच्छी वीणा वाले गाना गाया करते हैं
इन दोनों का सुन संवाद विष्णु जी घबराये
अंर्तध्यान हुए प्रभु दोनों को बेवकूफ बनाये
आकर के फिर मृत्यु लोक में उसने हास्य प्रसार किया
पाकर परमधाम प्रतिक्रिया , मानव ने सुख व्यवहार किया
जीवन है बंदर
तुम मदारी से जो मांगे गाते रहो
जीवन है बन्दर नचाते रहो।
लोग रोयें या गाये तुम्हें उससे क्या
जीवन है तबला बजाते रहो।
लोग नंगे हैं, भूखे हैं रहने भी दो
तुम होली दीवाली मनाते रहो।
लोग जाये तो जाये भले भाड़ में
तुम कुर्सी के पहियें सजाते रहो।
मिला तुम्हें जो छप्पर फाड़कर
जिन्दगी का मजा तुम उड़ाते रहो।
जलना ही काम
जिन्दगी के दीप का जलना ही काम है।
जलना ही तो जिन्दगी का और नाम है।
जल जल कर सूरज ने
पा लिया है नाम
चमक रही गगन बीच
चांदनी तमाम
ध्रुव ने भी खड़ा किया अलग धाम है।
खेल नहीं पर के लिए
जल के खाक हो जाना है
यों तो सहज बात है
जल के राख हो जाना है
स्वारथ में जलकर पतंगा बदनाम है।
अर्थहीन दीपक
घी बाती बेकार है
पा न सका कोई जो
किरणों की धरा है
रोशनी ही दीपक का सही स्वर्गधाम है।
ग़ज़ल
फूलों ने कर दिया शिकायत क्यों अधरों पर शाम हो गई
प्यास बिलखती है पनघट पर और बूंद बदनाम हो गई।
धरती ने पानी की खातिर, आसमान से प्यार किया था
फटने लगी धरा की छाती और प्रीति बदनाम हो गई।
अधरें से बूंदों का नाता, जाने कितना हुआ पुराना
झुलस गई अधरों बूंदों की, और तृप्ति बदनाम हो गई।
नन्हें अंकुर बूढ़े से पेड़ों की, दृष्टि गई अम्बर को
चकवा चकवी ताक रही है, स्वाति बूंद नीलाम हो गई।
बदल बदल परिधान झरोखे, चूम गया अवारा बादल
चमक चमक रह गई अधर में, बिजली भी बदनाम हो गई।
फूल पान के चेहरे ढीले, और डालियाँ नत मस्तक है
कोयल चली गई पर्वत पर, बगिया भी नाकाम हो गई।
ओ देने वाले तन को क्यों, भूख प्यास का श्राप दे दिया
प्यारी सी जिन्दगी हमारी, देखो आज हराम हो गई।
अब हमें क्षमा करो
बहुत चले साथ - साथ हम झुकाये माथ
बहुत ढोंग हो चुका अब हमें क्षमा करो
साथ तुम्हारे रहे
हम लकीर के फकीर
जा चुका था सांप
पीटते रहे लकीर
भ्रम दूर हो चुका, अब हमें क्षमा करो।
बहुत ढोंग हो चुका अब हमें क्षमा करो॥
पत्थरों को खोद - खोद
देवता उभारना
देवी सन्तानों का
रोज भीख मांगना
बहुत कष्ट हो चुका अब हमें क्षमा करो।
बहुत ढोंग हो चुका अब हमें क्षमा करो॥
फोड़ो अंधेरा घर
किरणों तक चलो चलें
जो कुछ है शेष उन्हें
आओ सुधार लें
बहुत नष्ट हो चुका, अब हमें क्षमा करो।
बहुत ढोंग हो चुका अब हमें क्षमा करो॥
एक झपकी लेना है
संध्या आंचल खोल मुझे एक झपकी लेना है
कुछ स्वर लोरी के बोल मुझे एक झपकी लेना है
मैं किरणों से ऊब चुका हूं
लहरों में मैं डूब चुका हूं
बादल ने है बहुत रूलाया
तू कुछ मीठा बोल, मुझे एक झपकी लेना है
कुछ स्वर लोरी के बोल मुझे एक झपकी लेना है
धरती लगती मुझको व्याकुल
हवा परायी फिरती दर - दर
इसमें सौरभ घोल,मुझे एक झपकी लेना है
कुछ स्वर लोरी के बोल मुझे एक झपकी लेना है
दिन की पहचान न चैन से
झर जायेगी रात चैन से
दस्तक बूढ़ी सुबह दे रही
द्वार स्नेह के खोल, मुझे एक झपकी लेना है
कुछ स्वर लोरी के बोल मुझे एक झपकी लेना है
राह तो चुनें
फिर एक चौराहे पर आ खड़े हैं हम
आओ अब जीवन की राह तो चुनें।
हम - हम के बीच बढ़ी दूरियाँ हमारी
कांपती है झोपड़ी तो हंसती है अटारी
मैं भी हम, तुम भी हम, वह भी हम हैं
हम - हम में आपस की दूरियाँ बुनें।
आओ अब जीवन की राह तो चुनें॥
लम्बी - लम्बी कसमें हम सब जो खाये हैं
करके दिखलाने के आज दिन आये हैं
बातों ही बातों के बहुत बुने जाल
आओ फुटपाथों के वस्त्र तो चुनें।
आओ अब जीवन की राह तो चुनें॥
अनुशासित करके मन मेहनत से जोड़े तन
पक्के इरादे से करना है उत्पादन
अपने - अपने दुख तो गाते हैं सब
आओ एक - दूसरे के दुख तो सुनें।
आओ अब जीवन की राह तो बुनें॥
एक समझौता हृदय से
बहुत चाहा हो न पाया एक समझौता हृदय से
लाख धरती चीखती हो
रो रहा हो आसमान
हवा चाहे भीख मांगे
रात हो दिनमान
रोना नहीं, गाना नहीं तुम आर्तलय से।
बहुत चाहा हो न पाया एक समझौता हृदय से॥
सत्य निर्वासित हो चाहे
लाज होवे निर्वसन
शान करले आत्महत्या
भाष होवे कटु वचन
आग लग जाये जगत में कांपना मत तुम प्रलय से।
बहुत चाहा हो न पाया एक समझौता हृदय से॥
गा रही हो अप्सरायें
चाहे मधुघट ढारती हों
जग करें जय - जय तुम्हारी
या तुम्हारी आरती हो
फूट न जाना, नाच न देना तुम तन्मय से।
बहुत चाहा हो न पाया एक समझौता हृदय से॥
धरती का श्रृंगार करें
आज समय है हम सब मिलकर, धरती का श्रृंगार करें।
आज समय है एक ही स्वर में, धरती का जयकार करें॥
अरे हिमालय एक नही है
जुड़े वहां अगनित चट्टान।
छोटे - छोटे शिलाखण्ड मिल,
खड़ा हुआ है ताज महान॥
आओ सब मिल सूरज को, उसके तप का आभार करें।
आज असम्भव अनहोनी को,
इस धरती से दूर भगा दें।
महापुरूष जिस पथ से गुजरे,
उस पथ पर हम जोत जगा दें।
बहुत पी चुके गम के प्याले, जीवन का उद्धार करें।
बहुत दिया देने वाले ने,
हमको जीवन का सामान।
आओ सब मिलकर के ढोवें,
सबसे बांटे यह वरदान।
नहीं भेद है हमको तुमसे, भेदों का उपचार करें।
सब समान है सबको चाही,
जीवन एवं तन - मन - धन।
उपवन कभी नहीं महकता,
महके सहकारी सुमन।
केवल पानी सींच बाग में, गन्धों का संचार करें।
आज समय है हम सब मिलकर, धरती का श्रृंगार करें।
ठहरो
ठहरो मुझे गाने का न्यौता दो अभी
झन -झनझनायेंगे ये तार गाउंगा तभी
रात है किशोरी ठहरो जवान होने दो
मीत बहुत भोली है, प्रीत में भिंगोने दो
जागती दिशायें अभी ठहरो इन्हें सोने से
बात सहज है, नहीं गीत में पिरोने दो
साथी इन होठों के कम्पन मिट जाने दो
चुम्बन के दर्द मैं बताऊंगा तभी
रूप है सलोना पर छेड़ना नहीं
अभी - अभी उतरी है चाँदनी हिंडोले से
धरती के मखमल पर लेटने दो हौले से
घूंघट के बन्द द्वार खुलने तो दो अभी
अंखियों के बोल सुनाऊंगा तभी
सीख रही बोलना, जवानी चहक जाने दो
कलियों को खिलने दो, बाग महक जाने दो
चढ़ने तो दो नशा बहक - बहक जाने दो
पूर है जवानी रे छलक - छलक जाने दो
रूप के सरोवर में डूब - डूब जाने दो
तैरने का सुख मैं बताऊंगा तभी
अभी - अभी आई है जवानी रे द्वार
सोलह बसंतों का होने दे सिंगार।
तब मेरी कविता गाती है
उर गागर सुख दुख से भरता,
अंखियाँ बूंदे छलकाती है।
तब मेरी कविता गाती है॥
कोलाहल से दूर नीड़ पर,
पंछी पंखियाँ सहलाती है।
स्नेही की बांहों में सजनी,
आहें भरती मुस्काती है।
जब भी कृष्णा की धुन में,
कोर्इ्र राधा नृत्य रचाती है।
तब मेरी कविता गाती है॥
और प्रिया जब प्रिय वियोग में,
पलकें राह बिछाती है।
दूर हो गये साजन उनके,
सोच - सोच बिलखाती है।
जब भी उसे विछोह व्यथा,
ले यादों में तरसाती है।
तब मेरी कविता गाती है॥
धरती का कोई लाल कभी,
जब कुछ ऐसा कर जाता है।
प्राणी मात्र कल्याण हेतु,
कुछ करके दुख हर जाता है।
आसमान झुकता आदर में,
धरती राह सजाती है।
तब मेरी कविता गाती है॥
द्विवेदी जी को मै ज्योतिषी के रुप मे जानता था कवि के रुप मे परिचय कराने का धन्यवाद
जवाब देंहटाएं