बाद दुआ के मालूम हो नजमा उस्मान इमरान की उंगलियाँ बड़ी तेज़ी से की बोर्ड पर चल रही थी और वो उसकी उंगिलयों के साथ स्क्रीन पर उभरते हुए शब...
बाद दुआ के मालूम हो
नजमा उस्मान
इमरान की उंगलियाँ बड़ी तेज़ी से की बोर्ड पर चल रही थी और वो उसकी उंगिलयों के साथ स्क्रीन पर उभरते हुए शब्दों को बड़े ध्यान और आश्चर्य चकित नज़रों से देख रही थी
दादी ः- “ऐ बेटा, वो सब कुछ लिख दिया है ना जो हमने कहाँ”
“कहा है?”
“जी दादी जाना! सारा मैसेज लिख दिया है”परे सफ़ाई से न चाहते हुए झूट बोल गया अब दादी जान भी तो न जाने क्या-क्या लिखवा रही थी। बहुत से वाक्य, बहुत सी बातें वो हज़ार कोशिश के बावजूद अंग्रेजी में ट्रान्सलेशन नहीं कर पा रहा था इधर दादी के ताबड़ तोड प्रश्न जारी थे।
दादी ः- ये मशीन भला कितनी देर से पत्र हमारी फ़िसा तक पहुँचा देगी और हाँ! ये कैसे पता चलेगा कि हमने उसे पत्र भेजा है? इमरान ने नये सिरे से उन्हे इन्टरनेट और ई-मेल के विषय में आसान भाषा में समझाया।
इमरान ः- देखे दादी जान, यहाँ जो कुछ मैंने लिखा है वो बिल्कुल उसी तरह नफ़ीसा फूफू के कम्प्यूटर तक पहुँच जायेगा ये देखें मैंने बटन दबाया और यहाँ पर ये बाक्स आ गया कि हमारा खत फूफू के कम्प्यूटर तक पहुँच गया अब वो इसे अपने स्क्रीन पर पढ़ लेगी।
दादी जान अब भी चिंति थीः
दादी और अगर किसी कारण से नफीसा ने अपनी मशीन को न ही खोला तो हमारा ख़त तो उन मशीनों के पुरज़ों में खो गया कभी न मिलने के लिये अब देखो डाक वाले भी गड़बड़ कर देते है तो ख़तवापस आ जाता है इन, निगोड़ी मशीनों का क्या भरोसा पूरे-पूरे पत्र निगल जायेंगी और हम कुछ नहीं कर सकेंगे।
वो सांस लेने को रुकी तो इमरान जल्दी से बोल पड़ा
इमरान डल क्मंत क्ंकप रंंद अगर उन्हे ख़त नहीं मिला तो इसका मैसेज भी यहाँ आ जायेगा।
दादी तुम जानो बेटा! मुझे तो ये टाइप राइटर जैसी मशीन पर टिप-टिप और टी.वी. पर भागते दौड़ते, निशान और शब्दों का खेल अजीब सा लगता है इंसान के अपने हाथ में कागज क़लम हो तो और ही बात होती है लिखने और पढ़ने वाले दोनों को शान्ति मिलती है दिली सुकून मिलता है। भावनाओं की ज़बान ये मशीन क्या समझेगी? और वो निगोड़ी अंग्रेज़ी में कितनी बाते हम अपनी नफ़ीसा को लिख़वाना चाह रहे थे, मगर तुम हर वाक्य पर टोक देते थे कि रुकें पहले टिप-टिप कर लूँ... फिर सोच में पड़ जाते थे कि उसे अंग्रेजी में कैसे लिखूँ इस रोका-रोका में हमार दिमाग़ से कई ज़रूरी बाते निकल गई।
इमरान ने उन्हें दिलासा देना चाहा
इमरना कोई बात नहीं, आप अगले ख़त में लिखवा दी जियेगा। दादी जान की नज़रे अब भी स्क्रीन पर टिकी हुई थी...।
इमरान अब कम्प्यूटर आफ़ कर दूँ।
दादी “अभी से?” दादी जान की अभी भी संकोच में थी।
इमरान यहाँ लन्दन में रात के नौ बजे रहे है तो कराची में एक बजा होगा सब सो रहे होंगे कल कॉलेज से आकर चेक कर लूँगा।
दादी “बेटा” तुम्हारी मशीन ने हमें सशंय और भ्रम में डाल दिया हो सकता है नफ़ीसा को नींद न आ रही हो और वो कम्प्यूटर खोल कर बैठ जाये। वो अक्सर देर रात तक लिखती पढ़ती रहती है आख़िर स्कूल की हेड मास्टर जी है बहुत काम करना पड़ता है हमारी बिटिया को क्या पता जवाब अभी लिख दे
दादी अगर हम डाक से ख़त भेजते, तो कम से कम दो सप्ताह बाद जवाब की उम्मीद तो रहती और इतना समय सुकून चैन से गुज़र जाता ये झटपट की डाक तो हमारे लिये तो परेशानियों का कारण बन गई ख़ैर तुम जा कर सो जाओ, सुबह कॉलेज जाना है। दादी जान ये कहते हुए उठ खड़ी हुई। उन्हे उठता देखकर इमरान की जान में जान आई बेचारी दादी जान नफीसा फूफू को कितना याद करती थीं इसीलिये वे पिछले तीन महीनों से पाबंदी से हर महीने उनकी ओर से फूफू को ख़त लिखा करता था इस तरह उसकी उर्दू लिखने की प्रैक्टिस भी हो जाती थी। वो इस वर्ष दूसरे विषयो के साथ उर्दू में भी एन्लेवल कर रहा था बचपन से अब तक वो कई बार पाकिस्तान जा चुका था घर में मम्मी-पापा उर्दु में बात करते थे, इसलिये ज़बान समझने की कोई समस्या नहीं थी वो तो जब दादी जान अपने पत्रों में नफ़ीसा फूफू को विचित्र प्रकार के निर्देश लिखवातीं तब इमरान के उर्दू शब्दों को भण्डार कम पड़ जाता एक बार उन्होंन लिखवाया “मेरे निवाड़ के पलंग को अच्छी तरह कसकर धूप दे देना और मचा न पर रखी हुई हरे गोटे वाली रज़ाई में रुई धुनवा कर भरवा लेना” उसने अपने ढंग से ये शब्द ज्यूँ के त्यूँ लिख कर भेज दिय मगर इमले की ग़ल्तियों तो होना ही थी फिर नफ़ीस फूफू ने मज़े ले लेकर उन सारी ग़ल्तियों की तरफ़ ढके छिपे शब्दों में इशारा करते हुए जवाब दिया था कि माशा अल्लाह बहुत अच्छी उर्दू लिखने लगे हो पै्रक्टिस करते रहो।
हर बार वो निश्चय करता था आ इन्दा दादी जान के लिये पत्र नहीं लिखूँगा मम्मी-पापा भी तो हैं उनसे लिखवा लिया करें मगर दादी जान जब उसे आवाज़ देकर अपनेकमरे में बुलातीऋ और सिहाने की तरफ़ रखी टेबल पर से अपने काले बैंग के अगले पाकिट से मुड़ा तुड़ा ऐरोग्राम निकालकर उसे देते हुए कहती
दादी मेरा बच्चा, मेरा चाँद जब भी फुर्सत मिले ज़रा दो लाइने तो लिख दे अपनी फूफू को कुशलता की “...हफ़्तो से कोई ख़बर नहीं मिली उसकी”।
एक तो दादी जान का जब जी चाहता किसी भी बात को अनायास बढ़ा-चढ़ा कर या घटा कर प्रस्तुत करतीं उनकी दो लाइनें दो पृष्ठों के बराबर होती और एक दिन पहले मिली हुई ख़बर महीनो पुरानी हो जाती। वो उन्हे याद दिलाता,
इमराना “अभी पिछले हफ़्ते जो पत्र भेजा है, उसका जवाब तो आने दें और पिछले हफ़्ते फ़ोन पर भी तो बात हुई”।
दादी “लो बेटा, ये फ़ोन पर बात करना भी कोई बात थी। ठीक से आवाज़ भी नहीं सुन पाये कि लाइन कट गई और ख़त तो शायद ही मिला हो वहाँ पाकिस्तान में आये दिन डाकिये हड़ताल पर रहते हैं”। तब वो हार कर कहाता “अच्छा दादी जान कल छुट्टी है जरूर लिख दूँगा”।
दादी (दुआए देती) “जीते रहो मेरे बच्चे, दीन दुनिया की खुशियाँ मिले माँ-बाप का कलेजा ठण्डा है” वो उनकी दुआ ये समेटता कॉलेज रवाना हो जाता।
कम्प्यूटर का ज़माना आया, फ़िर इन्टरनेट, और ई-मेल का सब से ज़्यादा खुशी इमरान को इस बात से हुई कि नफ़ीसा फूफू ने भी इन्टरनेट ले लिया। अब उसे लम्बे चौड़े उर्दू के ख़त नहीं लिखना पडेंगे उर्दू लिखने की प्रैक्टिस तो कई और तरीकों से भी की जा सकती थी। मगर दादी जान के ख़त तो उर्दू डिक्शनरी की मदद से भी मुश्किल से लिखे जाते थे फिर हर ख़त में लम्बों-चौड़े शब्दावली जैसे जान से प्यारी बेटी आँखों का नूर सलामत रहो बाद दुआ के मालूम हो कि वगैरा क्या मालूम हो ये पत्र की अन्तिम लाईन तक पता नहीं चलता था कभी-कभी तो ख़त पूरा हो जाता और उसमें जानकारियाँ देने वाली कोई बात नहीं होती हाँ सवालों की भरमार होती कभी-कभी दादी जान लन्दन की ज़िन्दगी के बारे में छोटी से छोटी बात इतने विस्तार से लिखवाती कि इमरान को मानना पड़ता कि उसकी दादी कितनी बारी की से चीज़ो का अध्यन करती हैं-
आज ई-मेल पर दादी जान का पहला ख़त भेजकर उसे बहुत खुशी हो रही थी- कितने शार्ट-कट मारे थे बहुत सी बातें कम कर दी थीं और कुछ तो सिरे से ग़ायब।
इधर दादी जान की सोच के धारे किसी और तरफ़ बह रहे थे कहीं ऐसा तो नहीं कि नफ़ीसा के पति कम्प्यूटर खोल ले और उनका ख़त पढ़ले बहुत से बाते ऐसी थी जो वो माँ के तौर पर बेटी को लिख देती थी नफ़ीसा के पति उनकी नज़रों में निखट्टी कामचोर और एक बेकार कि�स्म के इंसान थे नफ़ीसा के पति या बच्चे अगर उनका ये ख़त पढ़ लें तो क्या होगा? तीन बार लाहौल पढ़ कर उन्होंने तस्बीह के दाने फिराना शुरू कर दिया-
दूसरे दिन इमरान कॉलेज से आया तो दादी जान सर से पैरों तक इन्तिज़ार बनी बैठी थीः हालाँकि उन्हे अपनी बहू के साथ कहीं जाना था।
इमरान अरे दादी जान आप मम्मी के साथ नहीं गई? वो चिंतित होकर पूछने लगा।
दादी नहीं बेटा “दुल्हन ने बहुत कहा, मगर मेरा दिल नही चाह रहा था”। वो हँसते हुए बोला-
इमरान “मैं समझ गया आप को नफ़ीसा फूफू की ई-मेल का इंतजार है”। दादी जान के चेहरे पर रौनक़ दौड़ गई बोली
दादी बेटा तुम कुछ खा पी लो, आ राम कर लो फिर जरा मेरा बच्चा अपनी वो मशीन खोल कर तो देखो शायद नफ़ीसा ने जवाब लिखा हो। इमरान कपड़े बदलकर और कुछ खा पीकर अपने कमरे में आया तो दादी जान को कम्प्यूटर के सामने कु�र्सी डाले बैठी और स्क्रीन को तकते हुए पाया उसने मशीन आन की और फिर इन्टरनेट लोड करने के बाद नाराल गया।
“ये लीजिये नफ़ीसा फूफू का जवाब आ गया”
स्क्रीन पर अक्षर चमके और वो मज़े ले लेकर उन्हे ट्रान्सलेटकर के सुनाने लगा लिखती है यहाँ सब कुशल मंगल है और जो काम आपने बताये थे सब हो जायेंगे... ओर विस्तार से बात फिर करेंगी इस समय जल्दी में हैं स्कूल जा रही हैं फूफा सलाम लिखवाते हैं फरह और सलमान दोनों आपको बहुत याद करते हैं दादी जान खाली नज़रो से स्क्रीन की ओर देख रही थी “बस यही लिखा है?”
“जी हाँ आप ख़ुश नहीं हुई दादी जान? हैरानी से इमरान ने पूछा वा कुर्सी से उठीं और स्क्रीन के पास जाकर उसके चमकते हुए अक्षरों पर धीमे-धीमे हाथ फेरने लगीं वो अक्षर जो काग़ज़ पर उगिलयाँ लिखती हैं, उनकी चमक दमक जज़्बो की गहराई पर आधारित होती हैं कटे-फटे पुराने काग़ज़ लिखे हुए मिटे-मिटे से शब्दों में वो चमक और गरमी होती है कि तन और आत्मा तृप्त हो जायें- अभी पिछले दिनों नफ़ीसा का पत्र दो भागों में बंटा हुआ था आधार ख़त लिखने के बाद बच्चों के किसी काम के लिये उठकर चली गई फिर आकर लिखना शुरू किया तो कलम भी दूसरा था और स्याही का रंग भी अलग था उन रंगों में एक रूपता का न होना उन को शादी शुदा ज़िन्दगी को व्यवस्थ और बच्चों के हर कार्य को प्राथमिकता देने का जज़्बा ज़हिर था दादी ने एक माँ के रूप में इस दो रंगे ख़त से बेटी की खुशहाल ज़िन्दगी को देखा और महसूस किया, और उन रंगो की ठन्डी-ठन्डी फुहार से उनका बूढ़ा तन भीगकर ताकत महसूस करने लगा और उस दिन शायद नफ़ीसा की पति से कुछ खटपट हो गई थी ख़त लिखने बैठीं तो शब्द जैसे आँसूओं से लथपथ थे डब-डबाई हुई आँखो लिखे हुए शब्दों को काग़ज़ तक के रास्तों का सफ़र धुँधला-धुँधला था, तभी तो वाक्य एक रूप नही थे और बात छुपाते-छुपाते भी सब प्रकर ज़ाहिर हो गई थी।”
पहले मशीनों पर बोलते थे, अब लिखने भी लगे ये दूरियाँ, ये मजबूरियाँ भी तो मानव को बेबस बना देती हैं अरे हज़ारों मील दूर ला फेंका हमें अपनी बिटिया से बस बेटे की मुहब्बत में आ गये... अब हम अपनी नफ़ीसा को कैसे देखेंगे कैसे महसूस करेंगे।
“दादी जान, आप कहाँ खो गई?” इमरान पूछ रहा था। “अरे! हम कहाँ जायेंगे? बस बेटा ख़ुशी का साघन तो हम से छिन गया वो काग़ज़... वो लिफ़ाफ़ा उसके हाथों के लिखे हुए शब्द जिनमें उसके स्पर्श की खूशबू बसी हुई मिलती थी... वो कहाँ हैं इस मशीन पर उभरे हुए शब्दों में” मशीन के कलपुर्ज़ो और मानवी जज़्बो में बहुत अंतर है... मगर... तुम नही समझ सकोंगे येबाते... वो धीमे-धीमे कदम उठाती कमरे से बाहर चली गईं।
इमरान थोड़ी देर हक्का-बक्का बैठा रहा फिर उनके कमरे की तरफ़ आया दरवाज़ा बंद था वो परेशान सा लौट आया- दो तीन दिन दादी जान चुप-चुप सी रहीं फिर इमरान को अपने कमरेमें बुलाया नफ़ीसा के पुराने पत्र उन के सिरहाने रखे थे और एक मुड़ा तुड़ा ऐरोग्राम हाथ में था देखो बेआ वो ठहरे हुए लहजे (स्वर) में बोली जब भी तुम्हें फ़ुरसत हो दो लाइनें हमारी तरफ़ से अपनी फ़िसा फूफू को लिख देना कि जब भी उन्हें फरसत मिले हमें अपने हाथ से ख़त लिख कर भेज़ें और रही तुम्हारी ये टिपटिप वाली मशीन, तो इसके द्वारा अपनी कुशलता बता दिया करें।
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