कुछ नहीं होने की तरह हाड़ तोड़ मेहनत कर जब पस्त होकर लौटते घर मिलतीं एकदम हँसती-बिहँसती उतर जाती सारी थकान परोसतीं गर्म-गर्म रोटियाँ और च...
कुछ नहीं होने की तरह
हाड़ तोड़ मेहनत कर
जब पस्त होकर लौटते घर
मिलतीं एकदम हँसती-बिहँसती
उतर जाती सारी थकान
परोसतीं गर्म-गर्म रोटियाँ
और चुटकी भर नमक
इस नमक के साथ
चुटकियों के बीच से
झरता उनका प्रेम
और भोजन में भर जाता
छप्पन भोग का स्वाद
आँखों ही आँखों में
बता देतीं दिन भर का हाल
स्कूल की फीस
बच्चों का अपमान
कनस्तर के पेट की गुड़गुड़ाहट
फिर भी भरपेट के बावजूद
मनुहार की रोटी जरूर परोसतीं
अड़ोस-पड़ोस की इतनी खबरें
होतीं उनके पास
अखबार को उठाकर
रखना ही पड़ता एक तरफ
लौटना ही पड़ता देश-दुनिया से
अपने एक कमरे के घर में
रात की भयावहता के खिलाफ
वे जलती रहतीं लगातार
और हम उनकी आग चुराकर
मसाल बने फिरते
हम प्रेम भी अपनी पत्नियों से चुराते
और प्रेमिकाओं पर करते न्यौछावर
सबकुछ होते हुए भी
कुछ नहीं होने की तरह
वे उपस्थित रहतीं हमारे जीवन में
सबकुछ होने के तुनक में
हम अनुपस्थित रहते उनके जीवन से
जब जीवन की झँझावातों से
उखड़कर गिरते
तो हमारे सिर के नीचे
उनकी वही गोद होती
जहाँ से उठकर बच्चे
निकलते हैं जीवन की तरफ।
ऋतुओं का राजा
ठहरो पृथ्वी / ठहरो ऋतुएँ
ठहरो हवाएँ / ठहरो और
इस रचनाकार से मिलकर जाओ
यह ऋतुओं का राजा बसंत है
इसके बिना अधूरी है
तुम्हारी सारी सुन्दरता
सृजनशीलता तो असम्भव
यह बसंत है
जिसने अपने पीठ पर लाद रखा है
टेसू के फूलों की तरह
सुलगते विचारों
और मदमाती हवाओं में
भीनी हुई भावनाएँ
जिनको उतार कर जब रखता है वह
धरती पर
चुपके से सारे ग्रह-नक्षत्र समा जाते हैं
धरती के गर्भ में
जिनके अंकुरण के साथ-साथ
नए-नए ब्रह्माण्ड फोड़ते हैं कोंपल
नए-नए ब्रह्माण्ड रचनेवाला रचनाकार बसंत
हमारे हृदय में कुलांचे भर रहा है
प्रेम हमारे नथुनों से निकल रहा है
सुगंध बनकर
बिन बोले ही
सुन रहीं हैं प्रेमिकाएँ
दिलों की आवाज़
कुछ रचने को दिल बेचैन है
बसंत आ गया है।
ठहरो पृथ्वी
ठहरो ऋतुएँ
ठहरो हवाएँ।
भाषा
बोलते बोलते एकाएक
मुझे अपनी भाषा दासों की तरह लगने लगी
गिड़गिड़ाने की तासीर से मुँह कसैला हो गया
हमें तो लगता था कि
यह हमारी आजादी की भाषा है
आधी रात के अँधेरे में
हुई थी बहुत बड़ी चूक
हमारी आजादी की भाषा
फैसलों की भाषा नहीं थी
फैसले तो उसी शासक की भाषा में लिखे गए थे
जिसके खिलाफ हम लड़े थे
महत्वाकांक्षाओं के मायालोक में कहीं नहीं थी हमारी भाषा
कहीं दूर कोने-कुचालों से कभी-कभी सुनाई पड़ती थी
उसकी बहुत धीमी और पराजित आवाज
बिना लड़े ही हम हार रहे थे अपनी लड़ाई!
और जीतने जा रहे थे
एक ऐसी दौड़ जो
एक खाई में समाप्त होती है।
मेघराज
(एक)
गृहणियों ने घर के सामानों को
धूप दिखाकर जतना दिया है
छतों की मरम्मत पूरी हो चुकी है
नाले-नालियों की सफाई का
टेंडर पास हो गया है
अधिकारी-नेता-क्लर्क सबने
अपना हिस्सा तय कर लिया है
और तुम हो कि
आने का नाम ही नहीं ले रहे हो
चक्कर क्या है मेघराज
कहीं सटोरियों का जादू
तुम पर भी तो नहीं चल गया
क्रिकेट से कम लोकप्रिय तुम भी नहीं हो
आओ मेघराज
तुम्हारे इंतजार में बुढ़ा रही है धरती
खेतों में फसलों की मौत का मातम है
किसान कर्ज और भूख की भय से
आत्महत्या कर रहे हैं
आओ मेघराज इससे पहले कि
अकाल के गि( बैठने लगें मुँडेर पर।
(दो)
मेघराज!
तुम पहली बार आए थे
तब धरती जल रही थी विरह वेदना में
और तुम बरसे इतना झमाझम
कि उसकी कोख हरी हो गई
मेघराज!
तुम आए थे कालीदास के पास
तब वे बंजर जमीन पर कुदाल चला रहे थे
तुम्हारे बरसते ही उफन पड़ी उर्वरा
उन्होंने रचा इतना मनोरम प्रड्डति
मेघराज!
तुम तब भी आए थे
जब जंगल में लगी थी आग
असफल हो गए थे मनुष्यों के सारे जुगाड़
जंगल के जीवन में मची हुई थी हाहाकार
और अपनी बूँदों से
पी गए थे सारी आग
मेघराज!
हम उसी जंगल के जीव हैं
जब भी देखते हैं तुम्हारी तरफ
हमारा जीवन हराभरा हो जाता है
आओ मेघराज
कि बहुत कम नमी बची है
हमारी आँखों में
हमारा सारा पानी सोख लिया है सूरज ने
आओ मेघराज
नहीं तो हम आ जाएँगे तुम्हारे पास
उजड़ जाएगी तुम्हारी धरती की कोख।
फिर तानकर सोएगा
खटर ... पट ... खटर ... पट
गूँज रही है पूरे गाँव में
गाँव सो रहा है
जुलाहा बुन रहा है
जुलाहा शताब्दियों से बुन रहा है
एक दिन तैयार कर देगा
गाँव भर के लिए कपड़ा
फिर तानकर सोएगा
जिस तरह चाँद सोता है
भोर होने के बाद।
पहाड़ी नदी की तरह
सदियों से
मैदानी नदी की तरह बहती हुई
लड़कियों को
कुछ दिनों तक
पहाड़ी नदी की तरह भी बहना चाहिए।
उम्मीद
आज फिर टरका दिया सेठ ने
पिछले दो महीने से करा रहा है बेगार
उसे उम्मीद है पगार की
हर तारीख पर
पड़ जाती है अगली तारीख
जज-वकील और प्रतिवादी
सबके सब मिले हुए हैं
उसे उम्मीद है
जीत जाएगा मुकदमा
तीन सालों से सूखा पड़ रहा है
फिर भी किसानों को उम्मीद है
बरसात होगी
चूक जाएगा कर्ज
आदमियों से ज्यादा लाठियाँ हैं
मुद्दों से ज्यादा घोटाले
जीवन से ज्यादा मृत्यु के उद्घोष
फिर भी वोट डाल रहा है वह
उसे उम्मीद है,
आएँगे अच्छे दिन भी
उम्मीद की इस परम्परा को
हमारे समय की शुभकामनाएँ
उनको सबसे ज्यादा
जो उम्मीद की इस बुझती हुई लौ को
अपने हथेलियों में सहेजे हुए हैं।
आज सोमवार है
साथ
उस चमक का
जो पहली मुलाकात पर ही
भर गयी निगाहों में
हुलास
उस पतवार का
जिसने मझधार में डगमगाती नइया को
किनारों के आगोश तक पहुँचाया
प्रकाश
उस किरण का
जो अँधेरे के खिलाफ
फूटी पहली बार
आस्वाद
उस हवा का
जो ऐन दम घुटने से पहले
पहुँच गयी फेफड़ों में
विश्वास
उस स्वप्न का जो नींद टूटने के बाद
उड़ गया आकाश में
सबकुछ
शामिल है मेरी टूटी बिखरी नींद में
मेरी नींद जहाँ स्वप्न मंगलमय हैं और
आज सोमवार है।
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वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
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जीवन की सार्थक अनुभूति और भावपूर्ण रचनायें----बधाई
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