"अपना गम देखा है। हमने कितना कम देखा है" "सेज पर संस्कृत के" बहाने समीक्षक - डा0 रमा शंकर शुक्ल मै मधु कांकरिया को न...
"अपना गम देखा है। हमने कितना कम देखा है"
"सेज पर संस्कृत के" बहाने
समीक्षक - डा0 रमा शंकर शुक्ल
मै मधु कांकरिया को नहीं जानता। दिल्ली से भारी थकान देह और दिमाग में भरे लौटा तो उनका उपन्यास "सेज पर संस्कृत" पत्नी के झोले में मिल गया, जिसे वे मेरी शोध विद्यार्थी से मांग ले गयी थीं। इस किताब को पढ़ते हुए मैंने पूरी यात्रा काट दी। साथ ही काट दी मन की अनेक गुत्थियाँ। और अब कह सकता हूँ मै "सलाम मधु कांकरिया".
दो साल पहले जब मैंने शिव प्रसाद सिंह का नीला चाँद पढ़ा था, तो लगा था कि हम कितना कम देखते हैं। अब कह सकता हूँ कि लोग दुनिया को कितना कम देखते हैं। इसलिए कि मधु जी ने अपने उपन्यास के माध्यम से जो दिखाया, वह समकालीन उपन्यासकारों के लिए एक चेतावनी है। कि लेखन में भी फ़ैल कर देखो। यद्यपि यह उपन्यास नारी जीवन को केन्द्रित कर बुना गया है, पर इसका फलक समकालीन जीवन को अपनी समग्रता में इस तरह लपेटता है कि किसी के पास उसे फिर छुड़ा ले जाने का माद्दा नहीं रह जाता
जैन सम्प्रदाय से सम्बद्ध पांच सदस्यी एक परिवार की दुरभिसंधियों को लेकर रचा गया उपन्यास न तो कहीं से नारी स्वातंत्र्य के लिए उन्मत्त होता है और न ही अपनी बात थोपने के लिए कोई चेष्टा। कथा की बुनावट जिस सुघड़ शिल्प से की गई है, वह पाठक को विचारों के अनेक भूमियों पर खड़ा कर देता है। इसे पढ़ते समय न तो कहीं से नारी स्वातंत्र्य को लेकर कुंठा है और न ही किताब की प्रसिद्धि के लिए किसी प्रकार का सेक्सुअल उपक्रम। जो कुछ भी है, बेहद चिंतनपूर्ण और चिंताजनक।
घर के इकलौते चिराग ऋषि के बाद प्रगतिशील शुद्ध मानवीय पिता के गुजर जाने के बाद विधवा माँ के मन में जो असुरक्षाबोध उत्पन्न होता है, वह परिवार के अस्तित्व को ही नष्ट कर दम लेता है। एक स्त्री अपने सदियों से मिली दासता के कारण भविष्य के प्रति अधीर और भीरु हो जाती है। वह जैन सम्प्रदाय की उपशाखा हजारी सम्प्रदाय की दीक्षा को ही अपने और अपनी बेटियों के भविष्य के कवच के रूप में चुन लेती है। अबोध ग्यारह साल की बालिका छुटकी और नवयुवा संघमित्रा के जीवन के फैसले खुद ले लेती है।
मधु कांकरिया ने यही से महिला चिंतन और संघर्ष का एक नया अध्याय शुरू किया है। वह पराजित और हताश मानसिकता से ग्रसित माँ में दम और जोखिम का साहस भरने की कोशिश करती तो है, पर हताशा का अन्धकार इतना घना ज्यादा है की माँ के लिए अपने निर्णय से वापस लौटना नामुमकिन है। छुटकी आज्ञाकारी और माँ के प्रति समर्पित अबोध बालिका हताश माँ और धार्मिक कुंठाग्रस्त धार्मिक नरपिशाचों के क्रूर ब्यूह में धंस जाती है। माँ के साथ वह भी साध्वी हो जाती है। लेकिन उम्र के स्वाभाविक प्रवाह में जब वह देह और आत्मा की प्राकृतिक अवस्था में पहुचती है तो वह बगावत कर उठती है। लेकिन वह बगावत भी उसे गर्त में ही ले जाती है। उसका अंत होता है एक अभय मुनि के कुंठित वासना पतन के बाद वेश्यालय की शरण गहने से। संयम और शील की प्रतिमूर्ति छुटकी यानी देवी दिव्यप्रभा का कैंसर के कारण बेहद अमानवीय अंत धर्म और मानवता से घृणा पैदा कर देता है।
कथा के विस्तार में लेखिका बेहद मितव्ययी रही हैं। उन्होंने कही भी अप्रासंगिक सूत्रों को जगह न दी। उन्होंने जिस विषय और घटना को उठाया, बड़े इत्मीनान से हर पहलू की पड़ताल की। इसी पड़ताल में उन्होंने धर्म के मूल स्वर को व्यवस्थित तौर पर न केवल खोजा, बल्कि उसके स्वरुप को भी यथार्थ पृष्ठभूमि भी प्रदान कर दी। संभव है कि हजारी सप्रदाय के लोग अपने धर्म के पाखण्ड के चीर-फाड़ पर नाराज हों, लेकिन वह नाराजगी हर हाल में तर्कहीन, धर्महीन, मानवता विहीन और अध्यात्म विहीन ही होगा। मधु जी ने छुटकी के बहाने विश्व के प्रायः सभी सप्रदायों की गहरी पड़ताल कर डाली। और साथ ही इन सम्प्रदायों के उस साजिशों की भी असलियत परत दर परत खोल कर सार्वजनिक कर दिया, जो निजी स्वार्थों को पोषित करने के लिए प्रायोजित तौर पर रचा गया है।
सौभाग्य से पुस्तक पढने के पहले मैंने अक्षरधाम की यात्रा भी कर ली थी। दिल्ली के इस महान निर्माण को देख लेने के बाद मन में नारायण स्वामी के प्रति श्रद्धा और उनके अनुयायियों के घोरतम घृणा का भाव मन में पहले से ही घर कर बैठा था। नारायण स्वामी के जीवन में जो पाया था, वह यह था कि उन्होंने मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्था में घर का त्याग इसलिए कर दिया था कि संसार को अपना सकें उन्होंने आजीवन एक विरक्त और सृष्टि असम्पृक्त संत का जीवन जीते हुए मानव को ईश भक्ति का सन्देश दिया था, लेकिन हर पंथ की तरह यह पंथ कालान्तर में अनुयाइयों की कुत्सित घर जोड़ो अभियान की भेंट चढ़ गया यानी यहाँ भी जो गंगा से पूत निर्मलता लेकर निकली थी, वह प्रयाग तक पहुंचते- पहुंचते मैली हो गई। किसने किया मैला? अपनों ने। अपने अनुयायियों ने। जैसे कबीर, बुद्ध, जैन के मूल विचारों की ह्त्या की गई।
मधु जी ने कहीं भी इस पूरे कथा शिल्प में नारी संघर्ष को बढाने के लिए पुरुष साथी का सहयोग नहीं लिया। जरूरत पड़ी तो उन्होंने एक महिला सहयोगी मालविका को बनाया। दोनों ने कही भी हार नहीं मानी। लड़ती रहीं लड़ती रहीं। कहीं हारीं तो कहीं जीती। पर यह हार उनकी जीवटता की नहीं थी। हार थी समूची मानवीय अस्तित्व का। सच का। आखिर में संघमित्रा जैसी गंभीर चिंतनशील युवती के भीतर का मानवीय संयम एक क्रूर निर्णय लेने के लिए बाध्य करता है। उसने अभय मुनि की उसी कामना को लक्ष्य बनाया और उसकी ह्त्या कर दी। यहाँ भी वह पलायन नहीं करती। वह पुलिस में आत्मसमर्पण करती है। उसे आजीवन कारावास होता है, लेकिन उसे संतोष होता है की उसने समाज के और धर्म के ठेकेदारों को आइना दिखा दिया है।
इस पूरे कथाक्रम में एक नारी संघमित्रा का पूरा जीवन ही निकल गया। एक दिन भी वह अपनी जिंदगी नहीं जी पाई कहीं माँ के लिए लड़ती रही, तो कहीं छुटकी के लिए। कहीं नारी समुदाय के लिए लड़ती रही तो कहीं धर्मों के पाखण्ड से। इस लड़ाई में उसके जीवन की रसमयता की उम्र निकल गई। कभी सोच ही नहीं पाई उसके लिए।
पूरे उपन्यास में मधु कांकरिया ने जिस व्यवस्थित चिंतन के साथ कथा सूत्र रचा है, वह पुरुष लेखकों द्वारा लगाए जा रहे नारी आंदोलनों और महिला विमर्श पर आरोपों को वज्राघात के साथ उत्तर है। न तो यहाँ नारी ने जीवन संघर्षों में हार कर पुरुष की बांह गही, न अपने जीवन की उद्दाम कामनाओं को तर्क सांगत ठहराते हुए उसे अंजाम दिया। मुनि समाज से भी ज्यादा सात्विक और संघर्षशील जीवन जीते हुए नैतिकता के मानवीय मानदंड गढ़े। साबित किया कि स्त्री पुरुष के बिना न तो अधूरी है और न ही सेक्स के लिए मरी जा रही है। वह मन की मुक्ति उद्दंडता के साथ, देह की मुक्ति चरित्रहीनता के साथ, अर्थमुक्ति लालसाओं की तृप्ति के निमित्त चाहती है। वह साबित करती है कि वह एक अदद आदमी है। उसका दिल धड़कता है और उसमे एक स्वाभिमान है मानव का। उसमे एक संघर्ष है जो किसी भी पुरुष से कहीं भी कमतर नहीं है। मधु ने नारी विमर्श को एक अति दृढ, सम्मानित, सुव्यवस्थित, पूर्ण मानवीय गरिमा के साथ प्रस्तुत किया है। यह सम्पूर्ण उपन्यास नारी लेखन का आदर्श और तपोपूत चिंतन का समकालीन उज्जवल दस्तावेज है।
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