बानो अरशद एक चैलेंज घर में सब बहनों से बड़ी होने के कारण मुझमें जिम्मेदारी की भावना भी बहुत थी। अम्मा को तो सदैव बीमार देखा, इसलिए घरे...
बानो अरशद
एक चैलेंज
घर में सब बहनों से बड़ी होने के कारण मुझमें जिम्मेदारी की भावना भी बहुत थी। अम्मा को तो सदैव बीमार देखा, इसलिए घरेलू कामों में भी उनका हाथ बटाती। घर का ऐसा कौन सा काम था जो मुझे न आता हो, हर वक्त घर संभालते-संभालते कुशलता मेरी दूसरी आदत बन गई थी। अब्बा को समय पर भोजन देना, उनका बटुआ भरना, बहनों को तैयार करना, बस। अम्मा भी निश्चित रहती परंतु कभी-कभी पड़ोस से आने-जाने वालियों से यह अवश्य चर्चा करती, “मेरी बेटी बहुत नेक और आज्ञाकारी है, खुदा उसको ससुराल अच्छी दे।” अब्बा भी ढेर सारी दुआएँ दिया करते। छोटी सी थी जब से हंटर कलिया पकाना और गुड़िया खेलना, उनके कपड़े सिलना मेरा काम था। अब्बा के हठ पर स्कूल में दाख़िला लिया परंतु छः सात कक्षा से अधिक न पढ़ा सके क्योंकि फिर छोटे भाई-बहनों को कौन देखता। रेहाना, फ़रज़ाना भी बड़ी हो रही थी और मुन्ना जो घर में हम सब का लाड़ला था। उसकी देखभाल भी मेरे ही जिम्मे थी। उसे समय पर स्कूल भेजना, कपड़ों पर इस्त्री करना, यह सब काम करके मुझे बहुत मज़ा भी आता था। शाम को घर में बड़ी चमक-दमक होती। सब साथ खाना खाते, अब्बा चुटकुले सुनाते और फिर बारी-बारी करके हम लोगों से कहा जाता एक शेर और एक चुटकुला प्रतिदिन सुनाने के लिए। अम्मा को शायरी में रूचि थी वह प्रायः बातों-बातों में कोई न कोई शेर सुना दिया करती। हम लोग फटेहाल तो नही थे लेकिन धनवान भी न थे। धीरे-धीरे हम सब युवा हो रहे थे। कभी-कभी अब्बा को मैं देखा करती कि वह खालाओं में खो जाते। मैं पूछती “अब्बा क्या बात है?” कुछ नही कुछ नहीं बोलकर फिर कहते “तुम्हारी माँ की जिंदगी की दुआ माँग रहा हूँ।”
क्योंकि वह दिन-प्रतिदिन कमज़ोर होती जा रही थीं मगर सदा मुस्कुराती रहती और यही स्वभाव हम सबने उनसे सीखा था। एक-दूसरे को छेड़ना बात-बात पर हँसना। अब्बा प्रायः संध्या के समय कार्यालय से वापसी पर कभी तरबूज़ कभी ख़रबूजे और कभी आम लाया करते। जब भी किसी फल का मौसम आता हमारे घर में वह सब से पहले खाए जाते। हमारा छोटा सा संसार था, जिसमें पत्रिका, पुस्तकें, अख़बार, रेडियो, टी.वी. पर भी तर्क-वितर्क होता, सब का प्रयास होता कि कोई न कोई पहले नई खबर सुना दे। सर्दियों में मूली और शलजम का अचार होता। अम्मा ने मुझे अचार डालना भी सिखा दिया था कि बेटा गृहस्थी के लिए और पति को प्रसन्न रखने के लिए पत्नी को स्वादिष्ट खाना पकाना अवश्य आना चाहिए। मैं सब कुछ लगन के साथ सीखती शबे-बरात का हलवा हो या ईद पर शीरखुरमा या मुहर्रम पर हलीम पकाना, क्या था जो अम्मा ने मुझे नहीं सिखाया था। खानदान वाले बल्कि दादी माँ जब भी आतीं कहती “अरी बिटिया तुम पूरी रसोइया हो गई हो।” यह नन्हीं ने अभी से इतनी छोटी सी लड़की को गृहस्थी में डाल रखा है। फिर स्वयं ही मुँह लटकाकर कहतीं” गरीब डरती है कि कहीं आँख न बंद हो जाए तो बड़ी बेटी को सब कुछ सिखा दूँ। और मैं फौरन दादी माँ के मुँह पर हाथ रख दिया करती खुदा न करे। वह भी आप की तरह पोते-पोतियाँ देखेंगी। लड़कियाँ तो बढ़ती ही गाजर मूली की तरह हैं। अब दिन गुजर रहे थे, हम लोग बड़े हो रहे थे।
रेहाना और फ़रज़ाना तो बिलकुल गुड़ियाँ लगती थी। इधर मुन्ना भी युवा हो रहा था। अब घर में रिश्ते आना प्रारंभ हो गए। कभी चुड़ी वाली मनिहारिन रेहाना का रिश्ता लाती तो कभी धोबन फरज़ाना के ब्याह की बात करती। अम्मा हँसकर टाल दिया करती कि अभी तो हम बड़ी का रिश्ता देख रहे हैं। इसके लिए देखो पहले तो हर तरफ से जवाब मिलता “बेटा आजकल तो लोग पैसा देखते हैं या फिर शिक्षा, यदि लड़की बहुत सुन्दर हो तो फिर शिक्षा की परवाह नहीं करते। परंतु रूखसाना बीबी के लिए कोई धनवान या राजकुमार मिलना तो कठिन है। कहीं उचित रिश्ता देखा तो बताएँगे। ये बातें सुनकर पहले तो मैं हँसकर टाल दिया करती, परंतु जब रेहाना, फरज़ाना के रिश्ते धड़ाधड़ आने शुरू हुए तो मेरी उलझन भी बढ़ी और अब्बा भी चिंतित नजर आने लगे। जो भी आता वह या तो रेहाना का रिश्ता माँगता या फिर फरज़ाना पर दृष्टि पड़ती। मेरे बालों में चाँदी के तार आना शुरू हो गए। अब्बा के बाल भी सफेद होते जा रहे थे। अब्बा भी ये कह-कह कर विवश हो गए थे कि हम पहले बड़ी बेटी का ब्याह करेंगे। कभी रेहाना की पढ़ाई का बहाना, कभी फ़रज़ाना के मेडिकल कोर्स का बहाना। मगर समय कहाँ रूकता है वह तो की रफ्तार से भी आगे निकल जाता है। मेरे भी कान पकने लगे और धीरे-धीरे मेरे दिल में उदासी की जड़ें फैलने लगीं। जब अब्बा ने मेरे यौवन की शाख के पीले पत्ते बिखरते देखे तो वह और भी चिंतित एवं शांत रहने लगे। अम्मा को गले (कंठ) का कैंसर डॉक्टर ने बताया इधर उनकी बीमारी उधर अब्बा की परेशानी। अंततः एक दिन मैंने बड़ी हिम्मत की और आकर अम्मा से कहा “ अब्बा से कहिए जिस का भी उचित रिश्ता पहले आए उसके उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाएँ।” अम्मी की आँखों में नमी थीं परंतु उन्होंने मुस्करा कर माथे पर बीसा दिया। “अल्लाह तुझे अवश्य इसका फल देगा।” ये बात थी भी वैसे मुनासिब। अम्मा-अब्बा की समझ में आने लगी। उन्होंने फ़रज़ाना के हाथ पीले कर दिए और राजकुमार अपनी दुल्हन को ले गया।
दो साल बाद हमारे ख़ालाज़ाद भाई मंसूर अमरीका से आए हमारे घर में जब उन्होंने रेहाना को देखा तो बस निछावर। आगे पीछे खालाजान को लेकर हाथ में मिठाई का डिब्बा। छुट्टी पर आए थे बल्कि ब्याह की ही नीयत से, वह भी परी कोलेकर परिस्तान यह जा वह जा। बस घर में मुन्ना था और मैं थी। मुन्ना तो अभी फर्स्ट ईयर में कॉलेज में था परंतु मैं तो अब शादी की उम्र को लांघ रही थी। अब्बा को यह चिंता हर समय बनी रहती, परंतु कहीं दूर-दूर से आशा की किरण न नजर आती। लड़कों की माताएँ सभाओं में कहती सुनाई पड़ती कि लड़की सुदंर हो दहेज में ये हो वो हो। यदि लड़की शिक्षित हो तो वह भी अच्छा है और यदि कोई लड़का बाहर से आता तो उसकी माँग और भी बढ़ जाती। माँ कहती कि हम को नगद दे दें, दहेज नहीं चाहिए। बस ये बातें सुनकर अब्बा तो बिल्कुल ही उदास हो जाते थे। अम्मा तो खैर किसी दिन भी हमसे बिछड़ने वाली थीं। उनके कंठ (गले) का कैंसर ऑप्रेशन के बावजूद काबू से निकला जा रहा था। अब्बा मानसिक कैन्सर का शिकार होते जा रहे थे।
एक दिन मुन्ने ने एक जटिल समस्या खड़ी कर दी कि वह पढ़ाई छोड़कर दुबई जा रहा है, उसका एक दोस्त उसको निमंत्रण दे रहा है। शहर की दशा देखकर अब्बा ने शांति के साथ स्वीकृति दे दी। भैया चले परदेश, अम्मा तो दूसरे ही परदेश की डोली में बैठने वाली थीं। बस भैया का जाना इधर अम्मा का दिल टूटना। फिर मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी बीमार के लिए जलते पर तेल का काम करता है। अम्मा भी सिधारी अब अब्बा थे और मैं।
रिश्तेदारों ने आकर और दबाव डालना शुरू किया कि लड़की के उत्तरदायित्व से मुक्त हो और कहीं निकाह कर लें। अब्बा बेचारे अम्मी का वियोग इधर बुढ़ापे की कमजोरी। बस बुढ़ापे से चिड़चिड़े भी रहने लगे। मुझे अपना भार स्वयं ही भारी लगने लगा। फिर अब्बा मेरे कारण बाहर नहीं निकलते कि जवान लड़की घर में अकेली कैसे रहेगी। यदि मर्द नौकर रखते हैं तो समस्या औरत रखे तो ये डर कि लोग क्या कहेंगे। बस मैं उनके लिए साँप के मुँह में छछूँदर सी हो गई थी। मेरा अधिकतर समय रसोईघर में ही गुजरता बर्तन धोने, और थालियाँ चमकाने में कुशल होती जा रही थी। एक दिन मैंने अख़बार में खबर पढ़ी की पचपन वर्षीय तलाकशुदा ब्रिटिश नेशनल के लिए तीस से पैंतीस साल तक की अच्छे स्वभाव वाली नेक चरित्र की लड़की की आवश्यकता है। रिश्ते के इच्छुक लोग पूरे ब्यौरे के साथ एक हफ्ते के अंदर-अंदर रवाना कर दें। लड़के को वापस जाना है और पत्नी को साथ लेकर जाएगा। मैंने तुरंत ही अब्बा की तरफ से खत लिख दिया कि वह संबंध स्थापित करे। बस वह तो जैसे प्रतीक्षा ही में था।
वह हमारे घर अपने किसी मित्र के साथ आया। उसने अपने परिवार और अपने बारे में अब्बा को बताया। देखने में ठीक-ठाक, चाय-नाश्ता लगा दिया गया। अब्बा ने मुझे भी बुला लिया और कहा कि आप लोग आपस में भी बातचीत कर सकते हैं। दो-चार बार वह श्रीमान तशरीफ लाए और मुलाकातें बढीं, परंतु उन्होंने बातों-बातों में मुझे बताया कि उनकी पत्नी मौजूद है मगर उसके कोई बच्चा नहीं है। वह हर दशा में उसको छोड़ना चाहते हैं। उनकी बनती नहीं है। पहले अब्बा को ये बात बिलकुल पसंद नहीं आई, परंतु जब उन्होंने दबाब डाला और कहा कि “मैं ऐसा अन्याय नहीं करूँगाा कि एक की मौजूदगी में दूसरी लाऊँ। ये दोनों पर अत्याचार है।” बातों से वह बहुत उचित लग रहे थे। अब्बा ने कहा कि अगर आप तलाक़नामा ले आएँ तो हम अवश्य विचार करेंगे। परंतु अब्बा से मैंने अस्वीकार कर दिया कि ये कोई चाल न हो। इससे मैं दो-चार बार अवश्य मिलुँगी। चूँकि अब्बा, तो मुझे सेल पर लगाए बैठे थे कि बस औने-पौने दामों में बेच कर अपनी दुकान बंद करे। माना Closing down Sale की अंतिम बकरी मैं हूँ। इधर वह श्रीमान भी बहुत चिंतित थे, श्रीमती की आवश्यकता का विज्ञापन बने हुए थे।
मैंने एकांत में उनसे पूछा कि अपनी पत्नी को छोड़ने का कोई उचित कारण बताइये। चलिए, तो सुनिए, वह मुझे सब लोगों में बदनाम करती है कि मैं संतान पैदा करने के योग्य नहीं हूँ और उनको मैं ये साबित करना चाहता हूँ। मैं आपको ये भी बता दूँ कि मैं उस औरत से बहुत प्रेम करता हूँ, परंतु मेरे स्वाभिमान और मर्दानगी (पुरूषत्व) को वह और चैलेंज कर रही है।
यदि दूसरे विवाह से भी संतान न हुई तो फिर? आप एक दूसरी ओरत की जिंदगी से खेलना चाहते हैं, मैं चकरा गईं।
अब आप जो भी समझ लें, मैंने तो तय किया है कि मैं उस औरत को मज़ा चखाऊँगा, यहाँ नहीं तो कहीं और।
मुझे ऐसा लगा कि ये खरीदार यदि हमारी दुकान से सौदा नहीं लेगा तो कहीं और से लेगा। मैंने सोचा मैं भी तो तंग आ चुकी थी इस उलझन भरी जिंदगी से। चलो जुआ खेल ही लो। फिर मैंने कहा कि उस औरत की आह लग जाएगी आपको और साथ मुझे भी जला डालेगी। उसने कहा नहीं आप सोच लें।
अब्बा ने भी निर्णय मुझ पर छोड़ दिया। मैंने कहा ठीक है, आप जब तलाकनामा ले आएँगे मैं तैयार हूँ फिर।
हमारा निकाह जल्द ही हो गया। शादी सादगी से हो गई। मैं जीवन के नए सफर पर बढ़ गई थी। हवाई जहाज मुझे ऐसी मंजिल पर उड़ा रहा था कि सिवाए बादलों के मुझे कुछ नजर नहीं आ रहा था। नया देश, लंदन देखने की इच्छा ने थोड़ा सा दिल को बहलाए रखा था। सारे रास्ते वह व्यक्ति मेरे आव-भगत में लगा रहा। उसके चेहरे पर जीत का प्रभाव था और ये मेरे लिए स्वप्नफल की तरह था। मुझे उसने दो-चार दिन तो खूब सैर कराई घर नहीं था एक फ्लैट था, जिसका एक कमरा बंद था जैसे कहानियों में होता है कि चौथे खोट नहीं जाना है। बार-बार मेरा जी चाहता कि उस कमरे को खोल कर देखूँ कि उसमें क्या है। लेकिन सुहेल मुझे टाल देते। अब्बा ने चलते समय सलाह दी थी कि बेटी इस घर से तुम्हारी डोली जा रही है, अब वहाँ से तुम कर कर ही निकलना। ‘देर आयद, दुरूस्त आयद' लड़का शरीफ है। मुझे तुमसे आशा है कि एक आज्ञाकारी पत्नी बनोगी क्योंकि तुम एक पूर्वी लड़की हो। जाने क्या-क्या अब्बा ने कानों में डाला था। हमारी इच्छा पूरी हो गई, तुम्हारी माँ की आत्मा को भी शांति मिली होगी। मरते समय तुम्हारी चिंता थी उनको।
यहाँ यह दशा कि विवाह होते ही मैं गर्भवती हो गई। सुहेल का प्रसन्नता के कारण अजीब हाल था जैसे वर्ल्डकप किसी देश ने जीत लिया हो। कभी मछली लिए चले आ रहे हैं, और कभी फल। मेरा ध्यान अधिक रखने लगे। समीना मछली खाओ बच्चे बुद्धिमान होते हैं। कभी कलेजी कि उसमे आयरन होता है। परंतु प्रायः शाम को देर से आते। और वह दरवाजा मेरे लिए रहस्मय कभी न खुलता। प्रायः सुहेल मुझसे कहते देखा वह मुझे नामर्द कहती थी, अब पता चला उसको। मुझे हर समय ताना देती थीं दिन में दो-चार बार तो अवश्य ही वह समीना को याद करता। कभी कहता तुम भी हरे रंग का कपड़ा पहना करो, वह हरा रंग ही पहनती थी। कभी कहता तुम शामी कबाब बना तो लेती हो परंतु वैसे नहीं, कोशिश करो। और हाँ थोड़ा सा अपने को दुबला कर लो वह बहुत कोमल सी थी। कभी मेरे लिए परफ्यूम लाता। लो यह परफ्यूम लगाओ ये उसे भी पसंद था। और मैं समीना बनन के प्रयास में हर वह काम करती जिसकी सुहेल माँग करता। कपड़ों के रंग लिपिस्टिक के शेड सुगंध हर वस्तु वह मुझे वही लाकर देता जैसी समीना के पास होती थी।
एक दिन मैंने खींझ कर कह दिया कि मैं समीना नहीं हूँ, मैं रूखसाना हूँ। आप होश में आएँ क्योंकि कभी-कभी वह विवेकहीन होकर मुझे समीना कहकर संबोधित (पुकारता) करता।
वह धीरे-धीरे देर से आने लगा और कभी-कभी उसके मुँह से शराब के भभके आते। एक दिन मैंने ज़िद (हठ) करके पूछा कि उस कमरे में क्या है? उन्होंने कहा कि जब हमारा बच्चा जन्म लेगा तब उसको खोलेंगे, उसका उद्घाटन करेंगे। अच्छा मैंने टाल दिया। अब हमारे यहाँ मुन्ना आ चुका था। सुहेल की शराब की लत न छूटी बल्कि वह बढ़ती चली गई। नौकरी से भी निकाल दिए गए। मैं अब्बा को भी ये नहीं लिखती अक्सर उनके दोस्त बताते कि यह हमारे पास बोतल लिए बैठे होते हैं। पहले तो मैं उनके दुख दर्द में भागी रहा करती परंतु उनकी नशे की आदत बढ़ती गई। ससुराल वालों को पता होता तो वह पत्र में लिखते, यदि पत्नी चाहे तो शराब और सिगरेट छुड़ा सकती है परंतु मैं तो एक कमज़ोर ज़माने की ठुकराई हुई औरत थी जिसे उस मर्द ने सहारा दिया था। एक दिन मेरा हाथ पकड़कर मुझे उस कमरे में ले गया। लो देखो ये, वह कमरा खुला जिसमें बोतलें और ग्लास टूटे हुए थे और सामने फ्रेम में अनगिनत समीना की तस्वीरें लगी थीं। उन्होंने कहा देखो समीना ये बच्चा देखो मैं नामर्द नहीं हूँ। मैं शांतिपूर्वक कमरे से बाहर आ गई। वह अकसर जाकर उस कमरे में बैठ जाते। घंटो सिगरेट के धुएँ में समीना की तस्वीरों से बातें किया करते। वह समीना को अपने दिल से न निकाल सके और हमारे यहाँ दूसरा बेटा पैदा हो गया। मैं एक कठपुतली थी जिसको बचपन से धुन में लगी रहने की आदत थी। सुहेल को न घर में रूचि थी न बच्चों से।
कभी-कभी मुड में आकर कहता “तुम समीना नहीं बन सकती” ओर फिर कहते- “तुमको एक पति की खोज थी उसने तुमको पति दिया, तुम्हारे माता-पिता का भार हल्का हो गया और मैं समीना के सामने सिर उठाने के योग्य बन गया, शुक्रिया रूखसाना शुक्रिया” और फिर बिलख-बिलख कर बच्चों की तरह रोता। मैं उसको गले से लगाती। परंतु शराब और समीना तो उसकी रग-रग में बस चुकी थी।
कुछ समय के बाद पता चला कि समीना ने भी दूसरा ब्याह कर लिया हो और एक दिन खबर आई कि समीना के घर बेटी पैदा हुई है। यह खबर सुहेल के दोस्त ने उसको दी। वह घर आकर बहुत चिल्लाया। तुमने मेरी समीना मुझ से छीन ली, वह भी इस योग्य थी, बांझ नहीं थी मैं तुम्हारे बाप की बातों में आ गया और उसको तलाक दे दी। उफ् ये क्या हुआ। अब तो सुहेल की शराब ने सोचने-समझने की शक्ति भी छीन ली। वह मुझे अपशब्द भी कहने लगा। मुझे ओर मेरे बाप को बुरा-भला कहता। मैं सोचा करती मैं इससे तो कुँवारी भली थी। परंतु अपने दो फूल से बच्चों को देखकर आँसू पोंछ लिया करती। एक दिन मैंने गुस्से से उसको घर से बाहर निकाल दिया। वह सड़कों पर मारा-मारा फिरता, जाने रात कहाँ गुजारता। फिर पता चला कि शासन ने उसको ‘होमलेस' समझ कर फ्लेट दे दिया। वह अकसर नीचे चक्कर लगाता, पुकार-पुकारकर मुझे अपशब्द बकता। लोग खिड़कियों से सिर निकाल कर उसका तमाशा देखते। और फिर कहता तेरे बाप ने मुझ पर अत्याचार किया, तूने मुझसे समीना को छीन लिया और फिर फूट-फूट कर रोने लगता। मैं चिंतित हो जाती, परंतु बच्चे मुझे रोक देते कि यह शराबी हैं, आप को मार देंगे निकट मत जाइएगा। शराब ने उसका जिगर और लीवर बिल्कुल खराब कर दिया था। पता चला कि वह अस्पताल में पड़ा है। हम लोग साहस करके अस्पताल पहुँचे, वहाँ भी मुझे देखते ही उसने फल और फूल जो हम ले गऐ थे ज़मीन पर दे मारा। और कहा “तुमने मुझसे समीना को छीन लिया, और अब मैं अपने आपको तुमसे छीनता हूँ।” यह कहकर उसने वह गुलदान अपने सिर पर दे मारा। अचानक नर्सें दौड़ी आई नाक से खून बह रहा था और वह अंतिम साँस ले रहा था। धड़ाम से बिस्तर से गिरा प्राण-पखेरू उड़ गए।
मैं घर आई, मैंने सिजदे में पड़कर खुदा से प्रार्थना की “ये खुदा मुझे कठोर कारावास से छुटकारा मिला। अल्लाह मुझे साहस दे कि इन दो फूल से बच्चों को पाल सकूँ।” फिर उठकर दो फोन किए कि अब्बा जिस तरह मुझे बिदा करके आपने संतोष की सांस ली थी। आज सुहेल को संसार से विदा करके मुझे भी लगा जैसे मेरी बेटी की बारात गई है, और एक फोन समीना को किया। सुहैल की अंतिम सांसों पर तुम्हारा अधिकार है। वह वहाँ भी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा होगा। वह केवल तुम्हारा था, तुम्हारा अपना, मेरा कभी नहीं हो सका। रहा तुम्हारा चैलेंज, तो वह जीत गया और तुम हार गई।
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