सज्जो की वापसी सुबह-सुबह टेलीफोन की घंटी बजी तो नासिर ने लपक कर फोन उठा लिया । कहीं साजिदा जाग न जाये, कल रात भी देर से घर लौटी थी, फिर...
सज्जो की वापसी
सुबह-सुबह टेलीफोन की घंटी बजी तो नासिर ने लपक कर फोन उठा लिया। कहीं साजिदा जाग न जाये, कल रात भी देर से घर लौटी थी, फिर उसे नींद न आने की बीमारी थी। न जाने किस समय आँख लगी होगी- उधर से मरियम बोल रही थी।
“पापा मैं हूँ! क्या मम्मी उठ गई हैं?” नासिर के जवाब देने से पहले ऊपर बेडरूम में साजदा ने फोन उठा लिया था-
“हाँ, बेटी बोलो, क्या बात है, सब खैरियत तो है ना।”
उसकी नींद से बोझिल आवाज़ नासिर के कानों से टकराई।
“नहीं, नहीं सो कहाँ रही थी, बस ऐसे ही लेटी हुई थी।” और ज्यादा बातें सुनने से पहले नासिर ने झल्लाकर फ़ोन का हैंडसेट क्रेडिल पर पटक दिया। कल बेटा माँ को मक्खन लगा गया था कि चलिये आज दिन भर पोती के साथ खेलें, अर्थात् दिन भर बेवी सिटिंग कीजिये। आज सबेरे मरियम का फ़ोन करना इस बात का इशारा था कि अम्माँ की ज़रूरत आन पड़ी थी और नासिर का संदेह सही निकला और साजदा दस मिनिट बाद ही तैयार होकर नीचे आ गई।
“खुदा खैर करे, ये सुबह-सुबहा आपकी सवारी कहाँ चल दी?” नासिर ने हैरान होकर पूछा-“और मरियम के यहाँ सब ठीक तो है ना?”
“कहाँ खैरियत है, मेरी बच्ची किसी न किसी परेशानी से ग्रस्त रहती है”, (साजदा अपना हैंड बैग टटोलते हुए जल्द-जल्दी बोल रही थी। “फ़रीहा को दस बजे बेवी क्लीनिक ले जाना है, ज़ारा को रात से बुख़ार हो गया है। अब दोनों को कैसे लेकर जायें? मैंने कह दिया है मैं आ रही हूँ। ज़ारा को घर पर देख लूँगी सालभर की नन्हीं सी जान और वैसे ही मौसम भी खराब है। अरे, ज़रा देखिये ना मैंने कार की चाबी कहाँ रख दी?” वो अब भी बैग टटोल रही थी।
नासिर ने चिंता से उसे देखा और कहा, “अभी तो तुमने नाश्ता भी नहीं किया है और दवाएँ कल खाओगी? और ये तो तुम हर छोटी-छोटी बात पर बेटे-बेटी के यहाँ दौड़ी-दौड़ी जाती हो। अपने स्वास्थ का सत्यानाश कर लोगी, क्या तुम्हारे बच्चों को इस बात का अनुमान है कि उनकी माँ अब इतनी जवान और तन्दरुस्त नहीं रह गईं जितना वे समझते हैं।”
“बस रहने दें आप! क्या वे आपके बच्चे नहीं हैं? और फिर हम उनका ख़्याल नहीं रखेंगे तो और कौन रखेगा, फिर यही तो एक बहाना है उनके क़रीब रहने का।”
साजदा अभी तक चाबियाँ ढूँढ़ रही थीं- नासिर ने टेलीफ़ोन के पास से चाबियाँ उठाकर उसे पकड़ाते हुए कहा, “ये लें आपकी कार की चाबियाँ, न ढंग से हाथ मुँह धोया, न नाश्ता किया, साजदा बेगम ज़रा अपने आप पर नज़र डालो, तुम्हारे पैरों में तो जैसे किसी ने चक्र भर दिया है। पहले अपनी औलाद की देखभाल की, अब उनके बच्चों की जिम्मेदारी वो भी जबरदस्ती।” साजदा पास आकर बोली, “आप फिर बिना कारण टेन्शन लेने लगे, ऐसा लगता है जैसे आपको अपने बच्चों की कोई परवाह नहीं।”
“मुझे परवाह है, लेकिन तुम्हारी भी चिंता है। बीमार पड़ जाओगी तो कौन संभालेगा। इस उम्र में ये भागा दौड़ी अच्छी नहीं।” नासिर उसे समझाने के ढंग से बोला।
“मैं बिल्कुल ठीक हूँ” साजदा ने खड़े-खड़े बालों में ब्रश फेरा। मुझे शायद देर हो जाये, आप खाना खा लीजियेगा।” यह कहते हुए वो हाल मे टंगे कोट को उतार कर अपने कांधों पर डालती हुई बाहर निकल गई। आज का दिन भी गया, नासिर ने टी.वी. पर नज़रें जमाते हुए सोचा। सेहत और तन्दुरुस्ती पर प्रोग्राम आ रहा था- सबेरे चहल क़दमी कीजिये कम से कम दो मील पैदल चलें, और रात को जल्दी सोने की आदत डालने की कोशिश कीजिये। कैसी सेहत और कहाँ की चहलकदमी? महीनों हो गये थे, साजदा और नासिर को एक साथ वॉक किये हुए उनकी व्यस्ततायें अचानक इतनी अलग कैसे हो गई थीं?” बच्चे जब छोटे-छोटे थे तो वीकएन्ड पर पाबंदी से पार्क या कहीं न कहीं घूमने जाते- बच्चे खेलकूद में व्यस्त हो जाते और वे दोनों एक दूसरे के साथ दुनिया जहान की बातें करते। फिर बच्चे बड़े होते चले गये और उनकी व्यस्तता का (प्रकार ही बदल गया) ढंग ही बदल गया। नासिर और साजदा का फुलटाइम जॉब था। साजदा नर्सरी स्कूल में टीचर थी। इस तरह टर्म टाईम की छुटि्टयों की समस्या तो हल हो गई परन्तु बच्चों की पढ़ाई इर्द-गिर्द इतने काम थे कि अब हफ़्तों साजदा और नासिर को एक दूसरे से अपने लिये बात करने का समय नहीं मिलता। फिर दोनों बच्चियों की शादियाँ भी एक साल के अंतर से हो गई और दोनों के यहाँ बच्चे भी उसी अंतर से हुए- यह छः साल पहले की बात थी। पिछले साल नासिर ने रिटायरमेन्ट ले ले और साजदा ने भी टीचरी को नमस्कार कर दिया। नासिर ने सोचा था बेटा। बेटी अपने अपने घर आबाद रहेंगे और अब वो होंगे और उनकी साजदा। दोनों बूढ़ा-बूढ़ी मज़े से एक दूसरे के साथ समय गुज़ारेंगे। वो वक़्त, वो पल जो इतनी लम्बी जुदाई के बावजूद रिश्तेनातों की इस भीड़भाड़ में कहीं बिखर गये थे उन को फिर से समेटने की कोशिश करेंगे। लेकिन बच्चों ने तो अपनी-अपनी शादी के बाद माँ-बाप को कुछ ज्यादा ही व्यस्त कर दिया था। कभी-कभी नासिर को ऐसा महसूस होता जैसे साजदा खुद ही अपने बच्चों के छोटे-बड़े कामों में आगे-आगे आने का प्रयत्न करती है। और बच्चे आदर के कारण मना नहीं कर पाते।
टी.वी. पर अभी तक सेहत और तन्दुरुस्ती पर प्रोग्राम चल रहा था। नासिर ने बेज़ार होकर टी.वी. बन्द कर दिया। कॉफी पीने की बहुत इच्छा हो रही थी। साजदा होती तो कॉफी भी बनाती और साथ ही केक बिस्किट वग़ैरह भी मिल जाता। उसने समय गुज़ारने के लिये पास वाली टेबल से अल्बम उठा लिया। यादगार पलों के सुंदर ज़िन्दगी से भरपूर गतिमान दिनों के प्रतिबम्ब (अक़्स) सुरक्षित थे।
इन स्थिर तस्वीरों में..... साजदा बाल खोले मुस्कुरा रही है, हँसती हुई साड़ी पहने हुए, तो कहीं सलवार कमीज़ पहने, कभी बच्चों के साथ खेलते हुए, कहीं नासिर के हाथ में हाथ दिये। अपने बाल कितनी ख़ूबसूरती से बनाती थी और लिबास के मामले में उसकी पसंद लाजवाब थी और फिर हर तरह का लिबास उस पर कितना फ़बता था। नासिर अकारण तारीफ़ करने वालों में से नहीं था। न ही नुक्ताचीनी का। बस साजदा उसकी आँखों में पढ़ लेती कि उसे क्या अच्छा लगा... और अब तो एक मुद्दत से साजदा ने उसकी आँखों में झाँकना छोड़ दिया था। अब जबकि ज़िन्दगी में ठहराव आने की उम्मीद थी। शान्ति और सांत्वना का एहसास हावी होने के बजाए एक अजीब प्रकार की बेचैनी और तेज़ रफ़्तारी बिन बुलाये ही इनकी ज़िन्दगी में घिर आई थी। नासिर ने अपने दिल को टटोला... क्या ये हक़ीकत है कि वो अपने बच्चों की घरेलू ज़िन्दगी में साजदा की अत्यधिक दिलचस्पी से जलता है? नहीं इसमें कोई सच्चाई नहीं है... फिर क्या कारण था... ब्रिटेन में पले बढ़े बच्चे बहुत आत्मनिर्भर होते हैं मरियम और ज़ीशान दोनों ने माँ-बाप को फुलटाइम जॉब के साथ बच्चों की परवरिश और देखभाल के लिये कठोर परिश्रम करते देखा था। खास तौर पर माँ के काम पर जाने से उनके घर के बहुत सेे काम बड़े मशीनी ढंग से किये जाते थे। शायद इसीलिये मरियम ने फ़रीहा के जन्म के बाद अपनी जॉब छोड़ दी थी। पति वैसे भी डॉक्टर था और उसकी लम्बी-लम्बी ड्यूटियाँ होती थीं और घर की पूरी ज़िम्मेदारी मरियम पर थी। ज़ीशान ने अपनी पसंद से विवाह किया था, नासिर और साजदा ने ख़ुशी-ख़ुशी इजाज़त दे दी थी। ज़ीशान और फ़ायज़ा की आपस की आपस में बड़ी अच्छी अन्डरस्टेडिंग थी और दो बच्चों की पैदाइश के बाद फ़ायज़ा ने भी घर संभाल लिया था। देखा जाये तो बेटा, बेटी में से किसी को भी माँ-बाप की सहायता की ज़रूरत नहीं थी। लेकिन साथ ही साथ वो अपना और अपने बच्चों का सम्बंध साजदा और नासिर से रखना चाहते थे। दोनों के ससुराली रिश्तेदार भी लन्दन और उसके आसपास ही रहते थे। और उनका आना-जाना भी लगा रहता था। ज़ीशान और मरियम कोशिश करते थे कि महीने में कम से कम एक वीकएंड पर दोनों भाई एक दूसरे से मिलें। साजदा अक्सर कह देती- सब इधर ही आ जाना। फिर दो दिन पूर्व से ही भोजन बनना शुरू हो जाता। हर एक की पसंद का खयाल रखा जाता। जीशान को चिकन कोरमा पसंद है। और फायजा को आलू के कबाव- मरियम को तो बस माँ के हाथ के बने कोफ़्ते मिल जायें। उनके पतिदेव कहते हैं आपकी पकाई हुई बिरयानी का जवाब नहीं- फिर बच्चों के लिये कम मिर्च का चिकन रोस्ट और चावल- नासिर की पसंद के करेले कीमा और लौकी गोश्त बने एक मुद्दत गुज़र गई थी। क्योंकि ये बच्चों में से किसी को भी पसंद नहीं था।
जिस दिन सब एकत्र होते- खूब धूम होती- नातियाँ पोता-पोती, दादी और नानी की आवाज़ लगाते साजदा के चारों ओर मंडराते रहते। और वो गदगद होकर उनपे वारी जाती। बच्चों से मुहब्बत करोगे तो मुहब्बत मिलेगी। वो नासिर से कहती जो बच्चों की उछल-कूद से घबरा कर या तो टी.वी. देखने की व्यर्थ ही कोशिश करता या मरियम के मियाँ के साथ किसी मेडिकल विषय पर बातचीत शुरू कर देता। बच्चे उसके पास कम ही आते थे। आते-जाते समय अपने-अपने गार्जियन के निर्देश पर वो बारी-बारी उसे सलाम करते... जाओ, जाओ दादा को नाना अब्बा को पप्पी दो। माँ-बाप के बार-बार याद दिलाने पर वे झिझकते हुए आगे बढ़ते और उसके गालों पर पुच से पप्पी देकर ऐसे सरपट भागते जैसे नासिर उनसे इस पप्पी का हिसाब किताब करने के लिये उनको पकड़ लेगा। जाते समय साजदा की गोद में कभी पोती लटक जाती तो कभी नाती टाँगों से लिपट जाता। आई लव यू दादी- आई वांट माइ नानी- साजदा ख़ुश हो होकर उन्हें अलग करती। प्यार से दिलासा देती- “अरे फिर आ जाना- आई प्रॉमिस कल मैं स्वयं आऊँगी।” उनके जाने के बाद नासिर शिकायत करता- “तुमने तो मेरे ग्रेन्ड चिल्ड्रन को मेरे ही विरुद्ध कर दिया है। अब मैं तुम्हारी तरह न तो भाग दौड़ कर सकता हूँ न उनकी हर इच्छा पूरी कर सकता हूँ।” साजदा का एक ही जवाब होता- “बच्चों का दिल जीतने के लिये ये सब तो करना ही पड़ता है।”
उस दिन साजदा जो सुबह निकली तो दोपहर तीन बजे घर लौटी निढ़ाल-थकी हारी परन्तु सन्तुष्ट। “शुक्र है ज़ारा का बुख़ार कुछ कम हुआ- मरियम एक बजे तक लौट आई थी- फिर मैंने सोचा एक हन्डिया भी पकाकर रख दूँ। बस इसी में देर हो गई। आपने खाना खा लिया?” वो नासिर से पूछने लगी- “मैंने तो खा लिया है लेकिन मुझे विश्वास है तुमने बस ऐसे ही चलते फिरते खाया होगा औलाद के घर जाकर तुम अपने आपको भूल जाती हो।”
“आपने फिर ताने देने शुरू कर दिये- कहीं अपने बच्चों की ख़ुशी से कोई जलता है? और उनका काम करते हुए थकता है?” साजदा बुरा मानकर बोली। नासिर ने सवाल दाग़ा- “और तुम्हारे बेटा-बेटी तुम्हारे लिये क्या करते हैं? मरियम तो फिर भी कभी-कभी घर आकर कुछ काम कर लेती है, लेकिन ज़ीशान ने तो कभी तिनका भी नहीं तोड़ा। और अपने घर में देखो माशाअल्लाह डी.आई.वाई. बन गये हैं। तुम्हारे लिये तो कभी दीवार पर एक खीला भी नहीं ठोंका।”
साजदा पर थकान का प्रभाव था इसलिये चुपचाप सब सुनती रही। परन्तु नासिर आज जैसे दिल का सारा गुबार निकालने पर तुला हुआ था।
“मैं अपने बच्चों का दुश्मन नहीं हूँ, लेकिन कुछ भी कहूँ तुम्हें बुरा ही लगेगा। क्योंकि तुम एक ही समय में माँ-दादी-नानी का रोल अदा करने पर तुली हो। ये समझने का प्रयत्न ही नहीं करती कि तुम्हारे अपने बच्चों की अब एक अलग ज़िन्दगी है। ये इक्कीसवीं सदी के बच्चे हैं यह हमारा तुम्हारा ज़माना नहीं है। मुझे अक्सर महसूस होता है जैसे मरियम और ज़ीशान तुम्हारा आदर करते हुए बहुत से कामों पर तुम्हें नहीं टोकते वर्ना देखा जाये तो इसके बिना भी उनका गुज़ारा हो सकता है- दोनों के यहाँ क्लीनर आती है, वे चाहें तो बच्चों के लिये गवर्नेस रख सकते हैं। और वक़्त पड़ने पर हमारी भी सहायता कर सकते हैं। लेकिन इस बात का अन्दाज़ा नहीं लगा सकते कि मैं और तुम अपनी उम्र और सेहत के हिसाब से कितनी भागदौड़ कर सकते हैं? ये तुम्हें स्वयं बताना पडे़गा।” साजदा अब ताज़ा दम हो चुकी थी।
“आप फिर बच्चों को लेकर मुझसे उलझने लगे।” नासिर दुखी स्वर में बोला- “यही तो टे्रजेडी है हम बातचीत करते हैं तो बच्चों के लिये, लड़ते हैं तो बच्चों के लिये- हमारी आपस में एक दूसरे के लिये कोई बातचीत नहीं होती- ऐसा लगता है बच्चों की खुशियों को खोजते-खोजते हमने एक दूसरे को खो दिया है।”
“यह आप कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं- वाकई आप सठिया गये हैं।” साजदा हैरान व परेशान थी। नासिर का स्वर गम्भीर था- “बस बहुत हो गया- अब तुम्हें मेरी बात माननी होगी।”
टैक्सी तेज़ी से हीथरो एयरपोर्ट की तरफ चली जा रही थी और साजदा पिछले तीन दिनों में बदलते हुए हालात एवं घटनाओं के बारे में सोच-सोच कर हलकान हो रही थी। नासिर ने ऐलान किया था। “हम दोनों पन्द्रह दिनों के लिये स्पेन जा रहे हैं मैंने सब इंतज़ाम कर लिया है।”
“और बच्चे!” साजदा के मुँह से अनायास ही निकला था- नासिर ने फौरन उसकी बात काट दी था- “बच्चे अब बच्चे नहीं रहे। अपनी जिम्मेदारी स्वयं उठा सकते हैं और तुम इस विषय में कुछ नहीं कहोगी।”
उसके दृढ़ स्वर को महसूस करके साजदा चुप हो गई थी- अपने आप को ये तसल्ली देकर कि मरियम और ज़ीशान कभी भी उसे जाने नहीं देंगे, और बाप को मना लेंगे- उसे आश्चर्य कम हुआ और दुख ज्यादा जब किसी ने भी इस तड़प के बारे में विरोध नहीं किया अपितु अत्यधिक ख़ुशी ज़ाहिर की। ज़ीशान ने तो आफ़र दे दी कि हम आपको एयरपोर्ट छोड़ने जायेंगे।
नासिर ने सबको खूबसूरती से टाल दिया- वीकडेज़ में ख़्वाहमुख़ाह छुट्टी लेने की क्या ज़रूरत है- यद्यपि वापसी की फ़्लाइट रविवार की है। आपस में तय कर लेना जो भी सहूलियत से आ सके, आ जाये। मैं केवल अपना मोबाइल फोन ले जा रहा हूँ। इस पर टेक्स्ट भेज कर अपनी कुशलता का समाचार दे देना। वैसे भी दो हफ़्तों की तो बात है। इस तरह एक दिन पहले सब बच्चे मिल मिला कर चले गये थे। साजदा ने गुप्त रूप से बहुत सा खाना पकाकर फ्ऱीजर में रख दिया था। चुपके से मरियम और फ़ायजा को बता दिया था कि जब ज़रूरत हो आना खाना निकाल कर ले जाना। बेटी और बहू अपनी-अपनी जगह कृतघ्न भी थीं (शुक्र गुज़ार) और शर्मिन्दा भी। उनके बच्चे अब बड़े हो रहे थे, और ज़्यादातर पीज़ा और फास्टफूड पसन्द करते थे। लेकिन यह बात साजदा को कौन बता सकता था। उसका दिल टूट जाता।
टैक्सी में वो ख़ामोश और ख़फा ख़फा सी बैठी रही और नासिर ने भी उससे कोई बात नहीं की- फिर चेकइन से जहाज में बैठने तक उसकी तरफ से तनाव ही रहा।
“अच्छी जबरदस्ती है नासिर की, इस बुढ़ापे में बच्चों को छोड़-छाड़ के हालीडेज़ मनाने जा रहे हैं।” वो सेफ्टी बेल्ट लगाते हुए सोच रही थी।
जहाज रनवे पर दौड़ लगाने लगा और साजदा आँख बंद करके दुआयें पढ़ने लगी। टेकऑफ पर उसका यही हाल होता था। नासिर ने उसका हाथ अपने दोनों हाथों में थामते हुए पूछाा- “डर लग रहा है?” उसने आँखें बंद किये ही सर हिला दिया। थोड़ी देर के बाद साजदा ने आँखें खोलीं- जहाज अब काफ़ी ऊँचाई पर आ चुका था। नासिर अब भी उसके हाथ को बड़े प्यार से सहला रहा था... यह स्पर्श ये नज़दीकी... ये मुहब्बत... वो अन्दर ही अन्दर पिघलकर रह गई। ये बूढ़ा होता हुआ व्यक्ति जिसके साथ उसकी ज़िन्दगी के तीस साल गुज़र चुके थे... ये वही नासिर था जिसकी भुजाओं में झूलकर वो दुनिया आजहान से बेख़बर हो जाती थी। जिसके काँधों पर सर रखकर वो अपना हर दुख-दर्द भूल जाती थी... फिर क्या हुआ? बच्चों के झमेलों में ऐसी घिरी कि वही उसके जीवन का केन्द्र बन गये। फिर नातियाँ-पोते पोतियाँ- वो इन रिश्तों में जुड़ती चली गई और यह एहसास भी नहीं हुआ कि वो महत्वपूर्ण व्यक्ति जिसकी वजह से ये रिश्ते उसे हासिल हुए थे, धीरे-धीरे इन रिश्तों की भीड़ में बहुत पीछे रह गया। इस खुलासे पर वह खुद हैरान सी थी। नासिर उसे बार-बार याद दिलाता रहा अब ये हक़ीकत उस पर ज़ाहिर हो रही थी कि उसका बूढ़ा होता हुआ शरीर उसके भागते दौड़ते मस्तिष्क का साथ नहीं दे सकता... बढ़ती हुई उम्र के साथ-साथ थकान तो लाज़मी है... थकन ... नींद ... आराम... नासिर.... बच्चे सब चीज़ें दिमाग़ में जैसे गुड़मुड़ होने लगीं। उसने खिड़की से बाहर झाँका। जहाज ऊँचाइयों पर आकर समान रफ़्तार से उड़ रहा था। या जैसे रुक सा गया था। उसके हलचल मचाते मस्तिष्क में ठहराव सा आने लगा- “मैं बहुत थक गई हूँ।” वो अपने आपसे कह रही थी। नासिर ने अब भी उसका हाथ थामा हुआ था। धीरे-धीरे उस पर नींद हावी होती गई वो शायद बहुत गहरी नींद सो गई थी।
उसे लगा बहुत दूर से कोई उसे पुकार रहा है।
“सज्जो...सज्जो” - इतना मीठा और प्यार भरा लहज़ा- उसने आँखें खोल दीं- उसका सर नासिर के काँधे पर टिका हुआ था-
“सज्जो उठ जाओ- एयर होस्टेस खाना ले कर आ रही है।”
एक लंबे अन्तराल के बाद नासिर के मुँह से ये नाम सुन कर उसने नज़रें उठाईं और उसकी आँखों में झाँका और बहुत कुछ पढ़ लिया- “आज मैं ये नाम ले सकता हूँ।” नासिर ने उसके कानों में खुसर पुसर की, “मुझे लगता है मेरी पुरानी सज्जो वापस आ गई है।”
बाहर जहाज ऊँचे-ऊँचे बादलों के घेरे में था लेकिन साजदा के मस्तिष्क की उड़ान उससे कहीं ज्यादा ऊँची थी।
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