बालपन विद्यालय में क्विज प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था गणतंत्र दिवस के अवसर पर। सांस्कृतिक कार्यक्रम में बढ़चढ़ कर छोटे-छोटे बच्चों ...
बालपन
विद्यालय में क्विज प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था गणतंत्र दिवस के अवसर पर। सांस्कृतिक कार्यक्रम में बढ़चढ़ कर छोटे-छोटे बच्चों ने भाग लिया, कोई नेता, कोई फौजी, कोई किसान का भेष बनाकर दर्शकों का मन जीत लिया। आखरी में क्विज प्रतियोगिता का आयोजन हुआ और उसके बाद पुरस्कार वितरण।
क्विज में विद्यालय का चौथी वर्ग का होनहार छात्र गौरव भाग लेने स्टेज पर आया। उससे क्विज मास्टर ने पूछा गणतंत्र दिवस क्यों मनाया जाता है ? संविधान के प्रस्तावना में कौन सा दर्शन निहित है ? संविधान में कितने अनुच्छेद है ? संविधान का पिता किसे कहा जाता है ? भारत स्वतंत्र कब हुआ ? भारत के प्रथम प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति कौन बने ? सभी प्रश्नों का उत्तर गौरव सही-सही देता गया। विद्यालय के प्रधानाध्यापक, गौरव के माता-पिता बहुत खुश थे गौरव के हाजीरजवाबी से। प्रधानाध्यापक ने आखरी प्रश्न पूछा गौरव से कि वह बड़ा होकर क्या बनना चाहता है, गौरव का उत्तर था डाक्टर।
गौरव के बुद्धिमता से खुश होकर क्विज मास्टर ने घोषणा किया कि गौरव ईनाम के तौर पर जो मांगेगा उसे दिया जाएगा। गौरव से पूछा गया वह ईनाम के तौर पर क्या चाहता है ?
गौरव थोड़ा असमंजस में पड़ गया और सोच कर दो मिनट बाद बोला मैं जो मांगूगा मुझे मिलेगा। हां-हां, मांगो, क्विज मास्टर ने कहा। सब दिल थामे बैठे थे और सोच रहे थे पता नहीं इतना बुद्धिमान बालक क्या मांग बैठे। गौरव के माता-पिता भी कुछ देर स्तब्ध से थे।
गौरव ने कहा कि मुझे ‘टेडी बीयर्स' चाहिए। आयोजन में उपस्थित प्रायः सभी निराश से हो गए थे परंतु गौरव के पिता खुश थे यह सोचकर कि उनका पुत्र इस यांत्रिक होती शिक्षा व्यवस्था का अभी शिकार नहीं हुआ है। बालपन अभी बचा हुआ है उनके पुत्र में।
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आंखें जीवित रही
राहुल अभी बीस-बाईस वर्ष का रहा होगा जब उसके पिता की अचानक मृत्यु एक अस्पताल में तब हो गयी जब कार दुर्घटना के बाद उन्हें अस्पताल लाया गया था। पिता को चिकित्सकों द्वारा मृत घोषित किए जाने के बाद राहुल के आंखों के आगे अंधेरा सा छा गया था, सोचने-समझने की शक्ति खत्म होने लगी थी।
अभी रोते-रोते वह ठीक से चुप भी नहीं हुआ था कि अस्पताल में ही बगल के बार्ड से एक महिला राहुल के नजदीक आयी और झिझकती हुयी राहुल से पूछा कि क्या तुम अपने पिता के आंखों को जीवित रखना चाहते हो, राहुल सिर्फ ‘जीवित' शब्द सुन पाया और चौंका। मन ही मन राहुल सोचने लगा था कि महिला तो ठीक ही कह रही है, पिता के पार्थिव शरीर के साथ उनकी आंखें भी तो जला दिए जाएगें क्यों नहीं पिता के आंखों को सदा जीवित रखा जाए। उसने अपने बड़े पुत्र होने का हक अदा करते हुए चिकित्सकों को फौरन अपने मृत पिता के आंखों को निकालने के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिया।
चिकित्सकों का एक मेडिकल टीम फौरन ऑपरेशन थियेटर में राहुल के मृत पिता की दोनों आंखें निकाल कर उस महिला के अंधे पति के आंखों में प्रत्यारोपित कर दिया।
राहुल जब अपने पिता के दाह-संस्कार व क्रियाकर्म कर बारह दिन बाद लौटा तो उसके पिता की आंखें राहुल को देख रही थी। राहुल खुश था कि वो अपने पिता के आंखों को देखते हुए देख रहा था।
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मन की मौत
दीवान सिंह अपने दस वर्षीय बेटे राजू के साथ अकेले ही रहता था। एक कमरे और शौचालय के साथ चालनुमा घर को दीवान की पत्नी अपनी एक बेटी को लेकर छोड़ चुकी थी। दीवान गैंस सिलेंड़र डिलवरी करने का काम किया करता था। अपने काम से संतुष्ट नहीं था दीवान, बढ़ते हुए बेटे और बेटी का खर्च, स्कूल की फीस का बोझ, घर का राशन एक साथ मिलकर उसके कंधे को बोझिल कर दिया था। चाह कर भी अपने कंधे पर घर खर्च का बोझ सह नहीं पा रहा था दीवान। अपने काम से बुरी तरह असंतुष्ट रहने के कारण चिड़चिड़ापन और तनाव दोनों उसके जीवन का अभिन्न अंग बन चुके थे।
असंतुष्टि के कारण उसके स्वभाव में आए चिड़चिड़ापन के कारण आए दिन दीवान को उसकी पत्नी से किचकिच हुआ करती थी। पत्नी अपने बेटे-बेटी को खूब पढ़ाना-लिखाना चाहती थी क्योंकि वह जानती थी पढ़ने से ही उसके बाल-बच्चों का जीवन सुधर सकता है और आजकल निजी स्कूल में बच्चों को पढ़ाना कितना बड़ा बोझ है वैसे माता-पिता के लिए जिनकी माहवारी कमाई चार-पांच हजार रूपए हों। दीवान की पत्नी ने चादर से ज्यादा पांच फैला दी थी नतीजतन पैसे की कमी के कारण हर रोज अपने पति से लड़ना-झगड़ना नियम सा बन गया था। एक दिन दीवान की पत्नी ने बच्चों को लेकर घर छोड़ने का फैसला कर लिया था लेकिन दीवान ने उसे रोका नहीं सिर्फ इतना ही कहा कि तुम बेटी को लेकर जा सकती हो। दीवान की पत्नी अपनी बेटी को लेकर मायके चली गयी।
चार-पांच वर्ष बीत गये दीवान अपनी पत्नी से बातचीत नहीं करता था। बेटा को उसने एक निजी स्कूल में कक्षा तीन में डाल रखा था। रात को ही उसे अपने बेटे राजू से भेंट होती थी। सूबह दीवान काम पर निकल जाता था और राजू स्कूल। दोपहर को स्कूल से लौटने के बाद दीवान का बेटा राजू बहुत अकेलापन महसूस करता था। उसे माँ की और अपने छोटी बहन की बहुत याद आती थी। ये उम्मीद करना कि स्कूल में बिना माँ के बेटे पर कोई ध्यान देने का नियम भी हो, बेकार है। राजू अकेला क्या करता, वह होमवर्क करने व अतिरिक्त गतिविधियों में पिछड़ता जा रहा था और स्कूल प्रबंधन, क्लास टीचर राजू के बैकग्राउंड पर बिना ध्यान दिए उसे सहानुभूति की जगह अवहेलना करता था और सजा देता रहता था। राजू स्कूल में प्रताड़ित होने की बातें जब अपने पिता को बताता, तो वह नशे में चूर या तो सुनता नहीं था और अगर सुनता था तो सुनने के बाद अपने मासूम बेटे को किसी वहशी की तरह पीट देता था। दर्द से कराहता राजू को रात में सोना भी मुहाल हो जाता था। पीटने के भय से राजू अब अपने पिता को कोई बात नहीं बताता था। धीरे-धीरे राजू को पढ़ाई से नफरत सी होने लगी थी और स्कूल जाने में उसे सजा का भय सताने लगा था। जिस दिन स्कूल में सजा की संभावना ज्यादा होती उस दिन राजू घर से निकलता जरूर था पर स्कूल जाता नहीं था। कुछ दिनों के बाद स्कूल प्रबंधन ने दीवान को राजू की शिकायत करने लगे। दीवान को और कुछ तो आता नहीं था वह हर मरज का इलाज सिर्फ मारना-पीटना को ही समझता था। किसी मनोव्यथा से भी उसका बेटा राजू पीड़ित हो सकता है या वह खूद भी अवसादग्रस्त हो चुका है यह समझ से उसके बाहर था नतीजतन रात को शराब के नशे में उसने राजू को एक दिन इतना मारा की वह अधमरा सा हो गया। राजू का पूरा शरीर जख्मों से भर गया, मन तो पहले ही जख्मों से भरा था।
दीवान को चाहिए था कि वह सबसे पहले जब उसकी पत्नी और बेटी छोड़ गयी थी तो मनोचिकित्सक से मिलता, अपना इलाज करवाता, अपनी पत्नी और बेटे का इलाज करवाता तो शायद उसका परिवार बिखरने से बच सकता था। पर दीवान ऐसा कुछ नहीं किया था, हां अपने तनाव, अवसाद से बचने के लिए सस्ती शराब रोज जरूर पीने लगा था। खाना उसके लिए उतना आवश्यक नहीं रह गया था जितना शराब पीना।
राजू के स्कूल जाने का भय और घर पर अपने पिता से मार खाने का भय, दोनों मिलकर उसे अवसादग्रस्त कर दिया था। स्कूल में जब टीचर पढ़ा रही होती ब्लैकबोर्ड पर वह ऐसे टकटकी लगाकर देखता रहता जैसे शब्द उसके नजरों के सामने है ही नहीं जैसे कोई शून्य उसके नजरों के सामने छा गया हो। घर पर जब दीवान राजू को बूरी तरह पीटता तो राजू रोते-रोते कहता था कि वह कहीं भाग जाएगा या जान दे देगा। इतनी समझ राजू को हो चुकी थी कि अपने दुखों का अंत वो चाहता था। शारीरिक पीड़ा तो वह देख भी सकता था, मानसिक पीड़ा तो शायद वह महसूस नहीं कर पाता था, बस अवसादग्रस्त रहने लगा था राजू।
एक दिन जब वह स्कूल नहीं जाकर सारा दिन अकेले एक पार्क में बस्ते सहित बैठ कर गुजार कर शाम को घर आया तो दीवान पहले से ही घर आ चुका था क्योंकि उसे आज ही स्कूल प्रबंधन ने राजू की लिखित शिकायत की थी। पीए हुए तो वह था ही, राजू आकर बस्ता रखा ही था कि दीवान ने पास रखे एक लोहे की छड़ से राजू को मारने लगा। राजू के क्रंदन में इतना दर्द था कि आसपास रहने वाले असंवेदनशील पड़ोसी न चाहते हुए भी दीवान के घर के सामने इकट्ठा हो गए और बलात हस्ताक्षेप कर दीवान के हिंसक कृत्य को रोका परंतु किसी ने भी राजू को अस्पताल पहुंचाने की जहमत नहीं उठाया। कौन फंसता है पुलिस और अस्पताल के पचड़े में यही कहते हुए भीड़ अपने-अपने घरों को चली गयी। राजू अपने हाल पर अधमरा सा पड़ा रहा, दीवान नशे में पड़ा-पड़ा सो गया। आधी रात को जब राजू अपने शरीर और आत्मा के दर्द को नहीं सह सका तब शौचालय गया और पास रखे फिनाइल के बोतल को मुंह में लगा लिया और जितना पी सका पी गया और वहीं शौचालय के ही एक कोने में लूढ़क गया।
सुबह दीवान राजू को बेहोशी की अवस्था में देखकर अस्पताल जरूर ले गया परंतु तब तक राजू बहुत दूर जा चुका था, अपने शरीर और आत्मा के दुखों से दूर। राजू के मन की मौत तो उसी दिन हो गयी थी जब उसकी माँ उसकी नन्ही सी बहन को लेकर घर छोड़ चुकी थी। ऐसे माहौल में शरीर उसका कब तक साथ देता। शरीर के मौत के पहले मन की मौत होती है उसे समझना जरूरी है नहीं तो हर रोज कोई न कोई राजू फिनाइल पिता रहेगा।
दीवान को बाद में जेल की सजा हो गयी। अदालत ने राजू के मौत का जिम्मेवार दीवान को बताते हुए उसे कैद की सजा सुनाया।
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राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंडा
गिरिडीह 815310 झारखंड़
ईमेल- rajivanand71@gmail.com
aapkee saree laghu kathae padee
जवाब देंहटाएंlekhan shailee saral aur sandesh sanjoe hai......
abhar
Hi,
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Thanks
Amandeep singh
aman@accu-ratemedia.com
Aapki kahani Man ki Maut to ek satya katha hai jis par Crime Patrol mai Ek episide bhi aaya hai.Bas aapne usi kahani ko likh diya hai.Mere khyal se kahani main originality honi chahiye.
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