मैत्रेयी पुष्पा जवाबी कागज़ मैं पिता को धोखा दे रही हूँ, यह बात पापा को कैसे पता चली? उन दिनों मुझे दम लेने का भी अवकाश नहीं था। रिक्रयूट्...
मैत्रेयी पुष्पा
जवाबी कागज़
मैं पिता को धोखा दे रही हूँ, यह बात पापा को कैसे पता चली?
उन दिनों मुझे दम लेने का भी अवकाश नहीं था। रिक्रयूट्स में अफरा तफरी मची थी। मैं कहाँ रहूँगी आज, कैसे बता सकती थी? हमारे सीनियर ही में डरा रहे थे। अगर मैं अपने घर बता देती कि मैं अपने साथियों के साथ काम से जा रही हूँ, तो आगे सवाल उठता कि साथी लड़का या लड़की? काम, मतलब सिनेमा या सैर सपाटा? नवयुवाओं के काम ऐसे ही होते हैं, बड़ों के लिये। अनकहे ही उसमें अय्याशी और जोड़ दी जाती है। मगर कौन विश्वास करेगा कि ऐसे मनोरंजन के लिये हमें छूट नहीं है यहाँ। पुलिस में आकर घर से अलग होने पर मान लिया कि आजादी मिली है और यह भी सच है कि हम इसे एन्जॉय करना चाहते हैं कि देखें तो सही इस उम्र की लड़कियाँ किस-किस तरह के लुत्फ उठाती हैं। सिनेमाहॉल भी यहाँ बीच शहर में है, जहाँ सम्भ्रान्त लोग रहते हैं ओर पुलिसवाली वर्दीधारी लड़कियों को अजूबों की तरह देखते हैं। बिगड़ी हुई लड़की मानते हैं।
पैसे के मामले में हमारे घर की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं रही है, तभी तो मुझे कोठियाँ, बंगले, अमीरों के शाही निवास लगते हैं। लेकिन इतना तो है कि हम तीन बहनों और एक भाई के माता-पिता ने अपने बच्चों के लिये पैसे की तंगी की उस परेशानी का दबाव हमारे ऊपर नहीं होने दिया, जिसे उन्होंने खुद झेला है। खराब आर्थिक स्थिति के चलते भी हमारे स्कूल का खर्च उदारता के साथ उठाया है। आज मैं अपनी मर्जी से पुलिस विभाग में...
इस तरह मैं एक कार का यहाँ इंतजार कर रही थी, जो मुझे लेने आने वाली थी। मगर तभी मैंने अपने भाई को उसके किसी दोस्त के साथ सड़क क्रॉस करते देखा। जैसे ही हम दोनों की नजरें मिलीं, ऐसा महसूस हुआ उसने मुझे खोज निकाला है। मैं अपने काम के लिये उद्विग्न थी और देखकर भी भाई को देखना नहीं चाहती थी। हमारे बीच से कितने लोग गुजर गये, सच मैं उन्हीं में गुम हो जाना चाहती थी, लेकिन भाई था कि चुँधियायी हुई सी आँखों से निशाना बाँधकर मुझे देख रहा था, जैसे वह अँधेरे में से निकलकर रौशनी में आया हो।
वह पास आया, और पास।
वह ऐंठी हुई सी मुस्कान के साथ मानो विश कर रहा हो। मेरा ध्यान अपनी ओर खींचने के लिये वह अक्सर ऐसे ही तेवर अपनाता है और मेरा ध्यान अब पूरी तरह भाई पर केन्द्रित था। भूल गयी कि उसे तो मैंने उसके दोस्त के साथ आते देखा था, मगर अब दोस्त कहाँ है? मैं देख रही थी तनाव से भरे उसके गाल, चेहरे पर प्रश्न, उत्तर पाने की जल्दबाजी, भोलापन, विश्वास और फरेब की निराशा, हाँ ऐसे सभी भावों ने मिलकर उसके अंदर सनसनी भर दी थी। अठारह साल का नवयुवा मेरा भाई अभय सिंह!
उसने फुसफुसाकर कहा-‘गुलशन शर्मा'
इस शख्स का नाम...‘हाँ, हम एक दूसरे से परिचित हैं' यह जुमला मेरे भाई की आत्मीयता ने मुझसे कहलवा लिया। मैं जैसे फिर सिरसा शहर में लौट गयी। शहर, जो हमारे नारों से गूँज उठा था और हमें बच्चे की तरह समझाया जा रहा था कि अपनी यह उजड्ड जिद छोड़कर बड़ों से आदर से कैसे पेश आया जाता है।
‘कुछ पता है तुझे तनुश्री?' उसने कहा और एक कागज निकाल कर मेरे सामने कर दिया, जैसे वह मेरे लिये एटम बम हो। हाँ, उसी भयानक तरीके की मुस्कान उसने अपने चेहरे पर जुटा ली कि उसकी बड़ी बहन थर्रा जाये। एक भय, जिसने कागज के आदान-प्रदान को बहुत विशेष बना दिया। उफ्, मैं जिस कार का इंतजार कर रही थी, वाहन के साथ अपना काम भी मेरे दिमाग से गायब हो गया। भाई से मुलाकात के ये क्षण बहुत भारी थे, जबकि मैं इन्हें अपने बूटों तले रौंद कर चूर-चूर कर देना चाहती थी। बड़ी सफाई से ऐसी स्थितियों को फलांगने की कला मुझे आती है। बीच राह में उठ खड़े हुए झंझटों को खत्म न करती जाती तो यहाँ तक कैसे पहुँचती? गैरसरकारी संगठनों में जुड़ने का लाभ यही है कि वहाँ स्त्रियों में गजब का आत्मविश्वास आ जाता है। ‘ए ड वा' को मेरा सलाम।
‘‘ये लैटर्स!'' वह दिखा रहा था।
‘‘तेरे पास कहाँ से आये?''
‘‘मम्मी ने दिये हैं।'' मम्मी... मम्मी और भाई के मिले जुले स्वरों की प्रतिध्वनि मेरे कानों को घेरने लगी। मम्मी की नपी तुली सलाह होगी इन पत्रों के साथ, या सजा की भी आशंकाएँ जताई होंगी। मम्मी की हिम्मत अपनी बेटी के लिये इतनी ही है। अब मन को मैं अपनी ताकत के हिसाब से साध रही थी और भाई को देख रही थी कि वह घर से किन स्थितियों में आया है? जल्दी-जल्दी या इत्मीनान से? अभय जींस और टीशर्ट पहने था। गुलाबी रंग की टीशर्ट मेरी ही है, जींस उसकी अपनी। मेरी जींस उसे बड़ी बनेगी। वह 5 फीट 6 इंच का है और मैं पांच फीट आठ इंच। इस परेशानहाल स्थिति में अपनी लम्बाई के बारे में सोचकर सुकून मिला। मैं सब लड़कियों जैसी लड़की नहीं हूँ। हाँ मुझ पर किसान की बेटियों जैसे छाप जरूर है, हालाँकि मेरे पापा फौजी हैं। पापा ये सारे लक्षण अभय में देखना चाहते थे।
गुलशन शर्मा! मैं इस नाम के शख्स को अच्छी तरह जानती हूँ। यह जो पीला टॉप मैंने पहना है, उसी ने मेरे जन्मदिन पर पार्सल करके भेजा था। पहले सोचा- वापिस कर दूँ, लेकिन यह लेनदेन उलट फेर का खेल करना मैं चाहती नहीं थी। मेरा सिद्धान्त रहा है- भोजन और कपड़ा, दोनों चीजों का अपमान नहीं करना चाहिये, यह हमारी बेसिक नीड्स यानी जरूरी जरूरतों की चीजें हैं। मैंने गुलशन शर्मा का विचार झटक दिया कि मुझे कुछ याद न आये, मगर अभय उसके पत्रों को ऐसे हाथ में लिये था, जैसे हिनहिनाते घोड़े की लगाम पकड़े हो।
मैंने पत्रों को उससे ले लिया और कह दिया-‘घर जाओ तुम। मम्मी ने ये पत्र दिये हैं, पापा ने पढ़ लिये हैं, बस!'
कार आई होगी, उसमें मेरे कौन-कौन से साथी बैठकर गये होंगे, मैंने कुछ भी तो नहीं सोचा। सीधी बस में बैठकर वहाँ आ गयी, जहाँ आजकल मेरा बसेरा था। एक सहेली का कमरा। मैंने खुद को कमरे में कैद कर लिया। अपनी सुरक्षा से लैस मैं बुरी तरह सहमी हुई थी क्योंकि इस बंद कमरे में गुलशन शर्मा पत्रों के रूप में मेरे सामने था।
मेरे सामने ही नहीं, वह मेरे पिता से मुखातिब हो रहा था-
पत्र ः
यह पत्र मैं आपको सोच समझकर लिख रहा हूँ। मैंने आपको पहले भी पत्र डाले हैं क्योंकि मैं आपसे मिल चुका हूँ। आपके घर आता रहा हूँ, इसलिये अजनबी नहीं हूँ। और इसलिये ही सोचता रहा हूँ कि मैं एक शुभचिंतक के नाते आपको एक पिता की तरह बदनाम और तबाह होते नहीं देख पा रहा। और आप हैं कि अपनी बेटी तनुश्री की बातों में आकर अपने आपको ही धोखा दिये जाते हैं। मैं जो बातें यहाँ पर लिख रहा हूँ, अगर आप उनको ध्यान से सोचेंगे तो समझ जायेंगे कि आपकी बेटी आपको लगातार धोखा दिये जा रही है।
मैं तो वे ही बातें इस पत्र में लिख रहा हूँ, जो मैंने उसे करते खुद देखी हैं या खुद की हैं। उसके ‘मिलने वालों' की लाइन लगी रहती है। वह एक-एक करके उनके साथ जाती है। समझ गये न अब तो? यह भी जान लीजिये कि एक दिन ऐसा आयेगा कि इसके सारे आशिक इकट्ठे हो जायेंगे और इसके लिये मार-काट मच जायेगी। उसका नतीजा किसी का कत्ल होना ही होगा, जिसकी जिम्मेदारी आपकी बेटी की होगी। आप क्या सोचते हैं, आप बच जायेंगे? आप और आपके बेटे अभय की जान को पूरा खतरा है। यह न हुआ तो कोई न कोई इसके चेहरे पर तेजाब अवश्य फेंकेगा। इससे इसकी नौकरी और अभय की शादीशुदा जिन्दगी बरबाद हो जायेगी। वह अपने पिता भाई और माँ को बेवकूफ बनाती है, झूठ बोलती है, फरेब देती है, वह किसकी सगी होगी? मैं आपसे मिलना चाहता हूँ। आपके घर का नमक खाया है, इस लड़की की अय्याशियाँ देखी नहीं जातीं। उफ्... इसका सैक्स!
शभचिंतक आपका - गुलशन शर्मा
उफ्... गुलशन शर्मा... मैं उसके पत्र को ऐसे मसलने लगी, जैसे उसी की गर्दन मेरे हाथ में हो और उसका आकार कागज से ज्यादा न हो। मेरे मुँह से गालियाँ निकल रही थीं, जिनपर मेरा जोर न था-
साले, तू हरियाणा सिविल सर्विस का कुत्ता निकलेगा मैं उस समय नहीं जानती थी क्योंकि वह समय हम पर इतना भारी था कि सिर उठाने नहीं देता था। हम सैकड़ों रिक्रयूट्स हरियाणा पुलिस एकेडमी मधुबन करनाल से केवल सात महीने की ट्रेनिंग के बाद निकाल दिये गये थे। क्या बीती थी हमारे ऊपर? वह सब ढह रहा था, जिसे लेकर माता-पिता गौरवान्वित हो रहे थे, यह तो हम ही जानते हैं कि वह अनपढ़ों का अहंकार नहीं था, वह तो था अपने गांव से अपने ही जैसे किसान की लड़की के ऊपर पहुँचने का भाव। वह कैसे प्राप्त किया था, तुम जैसे लुच्चे लफंगे क्या जान पायेंगे? तुम्हारा दिमाग तो सैक्स के परे जाता ही नहीं।
गुलशन शर्मा... तू मिला था हमें, जैसे डूबते हुओं को जिनके का सहारा। तू यह क्या जानता नहीं कि जब हमें नौकरी से हटाये जाने का फरमान आया और हम इस हुक्मनामे को मानने के लिये तैयार नहीं हुए तो क्या देखा कि हमारे इस मधुबन के ही उस्ताद हमें चोटी पकड़ पकड़ कर इस एकेडमी से बाहर निकाल रहे थे। हमारे ऊपर लाठियाँ चलाई जा रही थीं और उन उस्तादों, जो अनुशासन की सीख देते नहीं थकते थे, ने गालियाँ बकनी शुरू कर दीं। लड़कियों से कहा- कहाँ से भर ली हैं, ये रंडियाँ- गुलशन शर्मा, तुझे तो पता है फिर क्या हुआ था?
दो लड़कियाँ नहर में कूद गयीं। उस्ताद भी समझ गये होंगे कि उनका स्वाभिमान किसी पुरुष से हल्का न होकर, ज्यादा गहरा था। हमारे देश-प्रदेशों की सरकारों का चलन इस लोकतंत्र पर कितना भारी पड़ता है, जो स्वतंत्रता के बाद स्वदेशियों ने यहाँ लागू किया है। ये ही बातें हमने तब भी बोलनी चाही थीं, लेकिन तब हमारे गले कबूतरों की गर्दनों की तरफ फूल गये थे। अपनी आवाजों पर हमारा नियंत्रण नहीं रह गया था। केसे रहता, यहाँ भविष्य की अनिश्चितता हमारा गला दबाये हुए थी। नई सरकार का हुक्त जारी था कि हम पुरानी सरकार द्वारा चुने गये रिक्रयूट्स अब गली के कुत्तों की दर पर हैं। अत्यंत भयानक लाठी चार्ज की उस स्थिति से बाहर आने की कोशिश में बस क्या कर गये हम? सिर इधर-उधर हिलते रहे, दर्द आंसुओं के साथ हवा में उछलता रहा।
पता लगा कि नहर में डूबने वाली एक लड़की मर गयी। दूसरे मरने वाली है, जिसे साथियों ने अस्पताल में भर्ती करा दिया है। एक लड़के ने आत्महत्या की कोशिश में शरीर जला लिया है। वह शरीर, जो उसने माता पिता के यहाँ गरीबी में भी मेहनत करके दूध घी जुटाते हुए कसरत के आधार पर पुलिस विभाग के लिये बनाया था। भ्रष्ट नेताओं के लिए धन जुटाने की खातिर पिता ने पांच बीघे में से दो बीघे खेत बेचा था। ऐसे कितने थे हमारे बीच, इस दुर्दमनीय हालत में पता चला था। जब किसी के पिता मरे दिल के दौरे से, किसी की माँ ने प्राण त्यागे सदमे के कारण।
दूसरी लड़की भी मरणासन्न... और हम निकाले खदेड़े हुए सिपाही, मधुबन के आगे सड़क पर पड़े थे। हमारे कारण ट्रैफिक जाम हो रहा था, इसी कारण लाठी चार्ज जायज था। और हम एक दूसरे से विचित्र अटपटे भाव से जुड़े हुए... हमारा सामान सड़क पर लुढ़क रहा था। वाहन उन चीजों के ऊपर से कुचलते हुए निकल रहे थे। यह महकमा कितना पसंद था हमें... आज अपनी बंद पलकों के पीछे आँसू नहीं, खून महसूस हो रहा है और हम उसी खून की रौ में... सच यही था कि उस खून का पाट जल की तरह निरंतर चौड़ा होता जा रहा था। हमने एक दूसरे से क्या कहा? कुछ नहीं। फिर भी लग रहा था हम एक दूसरे को सुन रहे हैं। इतना अन्याय, इतनी नाइंसाफी... क्या एक सरकार द्वारा टूटने वाली सरकार द्वारा यिे गये फैसलों को इतनी क्रूरता से रौंदा जाता है? हम इस भयानक विस्थापन को पहचान रहे थे कि कुर्सियों की हुकूमत क्या होती है? जनता इन कुर्सियों के दमघोंटू हाथी जैसे पाँवों के नीचे केसे पिसती है? चुनाव में जीते हुए लोग सीटों पर बैठते ही वोटरों को केसे उजाड़ते हैं। हम हरियाणा सरकार के मुजरिम... क्या कसूर था हमारा? हम लड़कियाँ लड़कों का ही डिमोंस्ट्रेशन फॉलो कर रहे थे। ऊँचे कदम उठाने के कारण हम विशेष थे क्योंकि प्रशिक्षण में कदमों को खास तौर पर देखा जाता है। यह प्रशिक्षण अत्यन्त कठिन था, सच यह भी था कि यहाँ से लड़के भगोड़ा हो गये थे, लड़की एक भी नहीं भागी। छः सौ लड़कियों का दल आज बेवजह सड़क पर खड़ा कर दिया गया तो यह भी ज्ञान हुआ कि यहाँ भावनाएँ नहीं असर दिखातीं, हुक्म चला करते हैं। वही हुक्म, जैसा कि अंग्रेजों के जमाने में हुआ करता था।
हमें पुलिस वैन सामान की तरह भरने लगीं। पता नहीं कि हमें जेल जाना था या किसी लावारिस जगह पटक देना था। चंडीगढ़ जेल में एक दिन रखकर जब हमें रिहा किया गया तो फिर हम सड़क पर थे। निश्चित ही यह निर्वासन एक आन्दोलन की जरूरत महसूस कर रहा था। और मैं खुद को उन दिनों पारिवारिक बातों तक सीमित पा रही थी। पापा कह रहे थे-‘तनु, यहाँ लौट आ। हमें नहीं करानी नौकरी। अब और इंतजार नहीं। तुम्हारी मम्मी कितनी चिन्ता कर रही है। मम्मी से फोन पर बात करो।'
मैंने अपना मोबाइल कान से लगा लिया, मम्मी की बातें सुनीं, जिनमें अपनी बेटी की सुरक्षा की बात जोर देकर कही गई थी।
और इस घरेलू व्यवधान से मैं दुखी हुई। मैं कुछ कह नहीं पाई। न यह कि बाद में बताऊँगी कि अठारह साथी, अभी भी बंद हैं। मुझे वहाँ पहुँचने में एक घंटे की भी देर नहीं होनी चाहिए।
और ठीक वक्त पर तुम आ गये थे गुलशन शर्मा। अपनी सफेद सेन्ट्रो कार लेकर तुम मेरे सामने खड़े थे। जब मैं कार में बैठी और द्वार बंद किया, कार चलने लगी। सच मानो मुझे लगा मैं हवा में उड़ रही हूँ और अब सिर्फ वक्त इतना ही रह गया है कि उड़कर ही पहुँचा जा सकता है। मैंने तुमसे रिक्वेस्ट की थी-‘तेज, और तेज चलाइये सर।'
संकट की विकट स्थिति के बावजूद मैं यह नोटिस लेना नहीं भूली थी कि ‘तेज और तेज' कहने पर तुम्हारी आँखों में शिकारी जैसा उत्तेजक भाव उभर आया था। मैंने यकायक गौर से देखा, तुम पचास साल से कम नहीं। लेकिन वहशी आँखों वाले को उम्र का क्या लिहाज? यों तो मेरा स्वभाव शायद आग से बना है। अखबार पढ़ते समय औरत के प्रति अत्याचार देखती, खून खौल उठता। लगता ऐसे कि समाज को जला डालूँ। लेकिन देख लो कि आज स्थितियों ने मेरे भीतर उठते शोलों को कैसा दबाकर रखा है, मैं तुम्हारी निगाह को ऐसे बर्दाश्त कर रही हूँ, जैसे तुम्हारा यह अधिकारपूर्ण देखना हो। और मेरा कर्त्तव्य है इस समय आधिकारिक प्रतिनिधि मंडल की सदस्य के रूप में प्रदेश के सर्वोच्च नेतृत्व में आये मुख्यमंत्री से मिलना। हम दोनों की स्थितियों में कितना अंतर था मिस्टर गुलशन शर्मा।
अपने पिता को आज ये स्थितियाँ बताऊँ तो क्या वे मेरा विश्वास करेंगे? उनका सपोर्ट तो मुझे वैसे भी कभी नहीं रहा। पापा का स्वभाव कड़ा था और उन्हें लगता रहा है कि मैं उनकी तीनों बेटियों से अलग क्यों हूँ? मैं घर के कामों में मन नहीं लगाती, फ्रेंड्स के साथ रहती हूँ। मैं कपड़ों में शलवार कुर्ता दुपट्टा न पहनकर स्कर्ट या पेंट क्यों पहनती हूँ? मैं तब भी सोचा करती, पापा फौजी हैं, बाहर रहते हैं। भाई छोटा है, वैसे भी उसका हाथ कट गया है। मैं घर के सारे मरदाने काम करती हूँ, तब पापा को बुरा क्यों नहीं लगता? कैसी मजे की बात है, कपड़े जब नये बनते हैं, मुझे नहीं गिना जाता। आटा पिसाना हो, मेरी पुकार पड़ती है। सब्जी लाना, गैस का सिलेंडर लाना और लगाना, मेरे जिम्मे... क्या मैं घर के लिये गधा हूँ?
मैं अपने पिता को कुछ न समझा पाऊँगी गुलशन शर्मा, तुम्हारा तीर निशाने पर लगेगा, मत घबराओ। जो रास्ता पापा ने बताया, मैंने माना नहीं, जिसके लिये मुझे डांट पड़ती, अच्छी तरह पीटा जाता। मेरे पापा मेरे स्कूल भी नहीं आये, मैं ‘टीचर्स पेरेन्ट्स डे' पर इंतजार ही करती रह जाती। तब से अब तक, मैंने अपना डॉमीसाइल, एलेजीबिल सर्टीफिकेट्स खुद ही बनवाये हैं क्योंकि पापा पूरे परिवार के सामने यह घोषणा कर चुके थे- तू अपनी जिन्दगी में कुछ नहीं कर सकती। तेरा काम है रोज सौ रुपये खर्च करना और दोस्तों के साथ घूमना... पापा विश्वास कर लेंगे गुलशन शर्मा, जो कुछ तुमने बताया है कि मेरे मोबाइल फोन का खर्च ही रोजाना का 100 रुपया है और तुमने आशंका जताई है कि ये रुपये मेरे पास कहाँ से आते हैं? सच, मैं जाटों की लड़की अपनी जीवनशैली के लिये गुनहगार तो हूँ। इतनी शिक्षा सभ्यता और आगे बढ़ने की इस तरह हिम्मत उनके लिये नहीं होती, भले खेतों में अकेली ही दो मर्दों के बराबर काम करें। हाँ, मैंने घर परिवार की बाड़ें लाँघी, नहीं तो शॉर्ट पुट, लांग जम्प, हाई जम्प और रेस का अभ्यास क्यों करती? मुझे बराबर पापा का डर रहता था क्योंकि वे मुझे लोअर और टी शर्ट में मैदान के बीच देखकर आगबबूला हो जाते थे। मगर मैं वहाँ डटी रहती, बेशक घर लौटकर भी सामान्य स्थिति नहीं बना पाती। जब मुझे अपनी तरह से नहीं रहने दिया गया तो मैं चिड़चिड़ी हो गयी। लड़की और चिड़चिड़ाये, कौन बर्दाश्त करेगा मिस्टर गुलशन शर्मा? मुझे तो तुम भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे, जबकि मेरा तुम्हारा वास्ता ऐसा घनिष्ठ नहीं, जैसा तुम मान बैठे। बस ऐसा ही होता है, घर के पुरुष लोग भी यह मानने को तैयार नहीं होते कि वे लड़की के विकास को रोक रहे हैं, जैसे उसका विकास रोकना ही परिवार के लिये आदर्श स्थिति हो। मैं अब अपने दादाजी से झगड़ा करने लगी थी।
दादाजी से झगड़ा! घर की मर्यादा का क्या होता? चली आ रही परम्परा को झटका लगा था, मैं आज समझ सकती हूँ। उस समय पापा और बड़ी बहन ने मिलकर मेरी पिटाई की थी, इतनी कि मेरे हाथ पाँव सूज गये। मैं स्टेडियम नहीं जा सकी।
‘चुड़ैल' मेरा यही नाम हो गया घर में। दादाजी को जब घर से ताऊ जी के पास भागना होता ‘चुड़ैल' का बहाना लेकर वहाँ पहुँचते कि वे मेरे कारण हमारे यहाँ नहीं रह पा रहे। वे मम्मी से भी यही कहते - चुड़ैल को खाना बनाना तक तो आता नहीं नहीं, यह तुम्हें डुबोकर छोड़ेगी।
मैं समझ गयी, लड़कियों के गेम को महत्व नहीं दिया जाता। मैं कबड्डी खेलती थी, छोड़ दी। स्कूल लेबिल की फाइनल प्लेयर को घर के अनुशासन ने कच्ची उम्र में झुका लिया। मैंने लड़कों से बातें करना छोड़ दिया तो घरवालों को लगा, लड़की का आवारापन खत्म होने लगा। अब वह अच्छी और शालीनता के साथ शीलवती भी लगती है। मैं भी अब उछलती कूदती या खिलखिलाती नजर नहीं आती थी। उन दिनों ही मैंने एक पोस्टर पर अनगढ़ सी ड्राइंग बनाई। एक आकृति अपने ऐंठे हुए हाथ फैलाये हुए संघर्ष सा करती हुई... उस पर जगह-जगह लाल रंग छिड़क दिया। तनी आँखें और बाँहों पर घाव। चेहरा सूजा हुआ, बाल एकदम उलझे हुए, आँखों से ढलकते लाल आंसू। आकृति के नीचे लिखा था- चुड़ैल।
मैं इसी मनःस्थिति में पुलिस में भर्ती हुई थी मिस्टर गुलशन शर्मा और इससे भी ज्यादा कठिन हालात पार करके आ रही थी। कठोर सजा भुगतने का मुझे अनुभव था, तुम थे कि आशिकी की मौज में...
हाँ, जब मैं धरने पर बैठ गयी थी (छूटती हुई नौकरी के लिये अनशन पर) तो तुम मुझसे मिलने आते थे। मुझे अच्छा भी लगता था क्योंकि तुम्हारी दिलासायें विश्वास भरी हुआ करती थीं। विश्वास भी उसका, जिसके लिए हम प्यासे से तड़प रहे थे। एक बूँद ही मिल जाये, हमारे पपड़ाये होंठ और सूखा रेतीला गला कहीं तो नम हो। नहीं तो तुम देख ही रहे थे कि हमारे आसपास क्या बचा था? पुलिस की डरावने हॉर्न वाली गाड़ियाँ और हमें गालियाँ देते पुलिसकर्मी। एकदम अंग्रेजी राज, गुलशन शर्मा, एकदम फिरंगी हुकूमत कि अपनी ही नस्ल के लोग अपनों को मारें। अपने ही देशवासी नेटिवों की फौज का रूप। इन सिपाहियों ने हमें वहाँ से बराबर खदेड़ा, जहाँ कोई दीवार या छत न थी। और हम सोच रहे थे कि यही वह जमीन है, जिसपर हमने जन्म लिया है। वहाँ जूते चप्पल पड़े थे, उनके जो भूख प्यास सहन नहीं कर सके और बेहोश होने लगे। मैं देखती रह जाती अपने कैरियर के विनाश के विरुद्ध हम बस एक दावा ही तो पेश करना चाहते हैं। मगर यहाँ शासक और नागरिकों में आपसी संवाद की गुंजाइश नहीं, तभी तो वे राजा हैं और हम प्रजा।
गुलशन शर्मा, तुम देवदूत की तरह रोज ही प्रकट होते और एक दिन तुम खुद देवता की दिव्यवाणी सुनाने लगे।
‘तुम चाहो तो मैं उन मंत्री जी के बेटे से मिलवा दूँ, जिन्होंने तुम लोगों को नियुक्त किया था। और अच्छा खासा पैसा वसूला था। वे कुछ तो करेंगे। कोई रास्ता अवश्य निकालेंगे। केन्द्र को भी लिख सकते हैं, इस नाइंसाफी के लिये।'
और तभी मुझे यह खबर मिली थी कि फिरोजशिखा नाम की लड़की ने कुछ खा लिया, वह पागल हो गयी है। उसकी माँ ने डेढ़ लाख रुपये दिये थे इस नियुक्ति के लिये।
मेरी भूख हड़ताल का नवां दिन था। तुम्हारा आश्वासन हमारे लिये पौष्टिक खुराक की तरह था, मगर तभी पुलिस आ गयी। फिर लाठी चार्ज हुआ और वे लोग हमें उठाकर, खींचकर चंडीगढ़ ले गये। मगर चंडीगढ़ में हमने फिर अपनी जिद की। नतीजा यह कि खून खराबा हुआ।
गुलशन शर्मा, तुमने तो अपने खत में मेरे पिता के लिये बहुत कम लिखा है। लिखो कि दिन रात फोन कॉल आते थे। प्यार का इजहार होता था। फिर कहीं मिलने की मनुहार। अब तुम्हीं बताओ कि लाठियाँ खाती लड़कियाँ, जेल जाते हम खफा हो जायें या मुस्कराकर उनका न्यौता कबूल करें? या यह उम्मीद करें कि इस विनाश से हम कुछ निकालकर लायेंगे, जो हमारे लिये होगा। हम तो उस समय अपने लहूलुहान बदरंग हाथ झुलाते हुए खड़े थे और बेहद थके भाव से अपने बालों को जब मुँह पर आने से सम्भालते तो माथे के गूमड़ों से उंगलियाँ टकरा जातीं, लगता आँखें भीग रही हैं।
उम्रदार अफसर हमें देखते, आँखें कैसी कैसी हो जातीं! लगता होठों से लार टपक रही है। कितने दयालु होते हैं अफसर भी, हर भाव तरल है, हर मुद्रा लपकती हुई... हम जहाँ भी पकड़ में आ जाते।
सच ऐसी अवस्था में कहीं भी विश्वास जमाना कठिन था। जब एस.पी. सुभाष यादव आये तो हमने उन्हें भी शक की नजर से देखा। और डी.सी. आर.एस. दून भी जब सहयोग के लिये तैयार हुए, हम दुविधा में पड़ गये। हमारा काम आगे बढ़ेगा, समस्या सुलझेगी, एक बार सोचें, तो दूसरी बार यही कि ये भोली भेड़ के रूप में भेड़िया तो नहीं?
सच मानो गुलशन शर्मा, उनकी आकृति में हमें वह भाव दिखाई देने लगा, जिसे मनुष्य का चेहरा किसी सत्य के रूप में प्रकट करते हुए प्रस्तुत करता है। जो कुछ वे हमारे लिये सोच रहे थे, हमें विचित्र लगा और फिर उसी विचित्र के सामने हमारा कंठ खुल गया। यह सही अवसर हमारे हाथ लगा था। हाँ, अब हमें रास्ते से हटाने के वास्ते खदेड़ा नहीं जा सकता। लाठी चार्ज करके हमें नष्ट नहीं किया जा सकता। कोई प्रताड़ना हमें रोक नहीं सकती, क्योंकि मैं अब दून सर और यादव सर की सलाह से आगे बढ़ रही थी। मंत्री जी से मिलने के अवसर आयेंगे, एक बार नहीं, बार बार।
अरे! गुलशन शर्मा, तुम्हें एक और खत पापा को लिखना पड़ेगा कि मैं यहाँ खासी बदनाम हो गयी हूँ। मुझे पर लांछन दागों की तरह चिपके हुए हैं। मैं लड़कों के साथ रहती खाती हूँ। रात में हम एक ही हॉल में सोते हैं। ओढ़ने और बिछाने के कपड़े कहाँ हैं, जितने थोड़े से हैं मिल बांटकर या एक साथ इस्तेमाल करके गुजारा हो रहा है। हमारे आन्दोलन में न सुरक्षा है न मर्यादा। अभाव ही अभाव हैं, फासला कैसे रखूँ? सच गुलशन शर्मा, मैं बिगड़ी हुई लड़की... मेरी शादी का अब क्या होगा? बुरा होगा न? मेरी शादी नहीं होगी या शाद के बाद पति मुझे कुल्टा कहकर निकाल देगा, यही न? ऐसा ही होता है, समाज की मान्यताओं के अनुसार।
मगर मिस्टर गुलशन शर्मा तुम अभी तक यह क्यों नहीं समझ पाये कि हमने ऐसी ही मान्यताओं को तोड़ा है, जिनके डर से हम घरों में बंद रह सकते थे और ताउम्र अपने पति को अपनी वफादारी का यकीन दिलाने के लिये अपनी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को क्रमशः हुक्म की गुलाम या सुन्नत के हवाले कर देते।
तुम कितने नादान हो, पुरानी दुहाइयाँ दे देकर नई लड़कियों को धमकाने की कोशिश कर रहे हो। नई लड़कियाँ इसलिये कह रही हूँ कि जिसको तुम बदनाम करके खुश होना चाहते हो, ऐसी एक मैं ही नहीं, मेरे पीछे एक कतार है, किस किस को धमकाओगे?
मेरी बात का यकीन न हो तो चले जाना मिजाज कौर के पास, उसे मैं उदाहरण के तौर पर पेश कर रही हूँ। वे पाँच बहनें एक माई हैं, अपने परिवार में। मैंने खुद देखा है, वहाँ जाकर। पिता जैसे पिता, जो लड़कियों पर ध्यान नहीं देते। फौजी रहे हैं, शराब का शौक पाल लिया है। अब वे रिटायर हैं। चार लड़कियाँ पढ़ाई नहीं गयीं। वे मर्यादा के साथ घर में रहीं। मां के साथ भैंसे पलवाती थीं कि घी दूध बेचकर घर का खर्च चले। चारों की शादियाँ हुईं। दहेज का चलन भी समाज का आदर्श चलन है क्योंकि लड़की कम दहेज में भी टरकाई जा सकती है और उसका पूरा हिस्सा उसके भाई का हो जाता है। सम्पत्ति बचाने का कैसा नायाब तरीका है। बहनें चारों दुहाजू वरों को गयीं। उनको पहले से ही तीन तीन चार चार बच्चे मिले। सस्ते में निपट गयीं। बाप ने अपना धर्म बेटियाँ ब्याह कर निभा दिया। अब गंगा नहाकर दारू पिओ मौज से।
और यह पाँचवीं मिजाज कौर? अलग निकल गयी। हाथ ही नहीं आई, न माई के न पिता के। घर से भागकर बी.ए. में दाखिला लिया था। मिस्टर गुलशन शर्मा, हम किसी यार के लिये घर से नहीं भागे, हमारा जुनून शिक्षा था, गेम थे। और यह लड़की भी अपनी सहेली के साथ गेम करने लगी। पिता से कितनी पिटी है, इसका हिसाब उसने रखा नहीं। यों तो बॉलीबॉल खेलते हुए भी भयानक चोटें आ जाती हैं। घर में पड़ने वाली मार को नजरअंदाज करने के बाद ही लड़की इण्टरयूनीवर्सिटी और ऑलइंडिया लेबिल की प्लेयर बनती है सो वह बनी। अगर पिता के गुस्से और मार को गले लगाकर बैठ जाती, जैसा कि उसने सोचा था कि पापा नाराज हैं, कहीं वह गलत ही तो नहीं कर रही, तो क्या होता? कैसा मखौल है यह भी हमारे जीवन के साथ कि जो लड़कों के लिये सही बताया जाता है, वही हमारे लिये गलत सिद्ध कर दिया जाता है। इसी गलत के आधार पर उसके पिता उससे बोलते नहीं थे।
बहनें ससुराल चली गयीं, लड़की अकेली। बहनें मायके आती भी नहीं, जीजा लोग भेजते ही नहीं। डटकर मेहनत कराते हैं। वैसे भी किसी शराबी के घर शराबी के सिवा कौन आना चाहेगा?
साहस के मुकाबले इंसान का इस दुनिया में कोई साथी नहीं। मिजाज ने जब दसवीं पास की थी, तब मुख्यमंत्री जी के यहाँ चैम्पियनशिप के लिये प्रतियोगिता हुई थी। यह लड़की उसमें चली गयी, अब यह किससे आज्ञा लेती? यह तो प्लेयर थी, फीस सदा माफ रही। किसी का सहारा लिया ही नहीं। यह चैम्पियन चुनी गयी, इसके बाद इसका पुलिस में सेलेक्शन हुआ क्योंकि मुख्यमंत्री का बेटा इसे देखते ही पहचान गया था, उसने इसकी सिफारिश भी की। यह मेरे साथ थी, मिस्टर गुलशन शर्मा। लिख दो इसके घर भी कि इसने पता नहीं कितनों को फँसाकर यह नौकरी ली है। एक नहीं, दो दो बार। तुम्हें याद होगा, बहुत ही चुस्त लड़की, धरने के समय चंदा उगाया करती थी कि हमारा आन्दोलन चले। तुम्हारे पास तो सारी सूचनाएँ विस्तार से होंगी।
मेरे पास भी कुछ यादें हैं गुलशन शर्मा, जिनके लिये मुझे किसी को खत नहीं लिखना पड़ेगा। मैं तो तुम्हें ही याद दिलाना चाहती हूँ क्योंकि उस बात को तुम भी तो जानते हो और वह वाकया भूलने लायक भी नहीं है। मैं मानती हूँ कि राजनीति से ताल्लुक रखने वाले पुरुष यह मानकर चलते हैं कि ढलती उम्र में भी जवान हैं और उनका समय औरतों के साथ बिताने के लिये है। तुम अफसर थे, मगर अपनी अफसरी का मुँह राजनीति से जोड़े हुए... कितने चालाक चतुर हो तुम, इस तरह खुद को पेश करके कहीं से भी सुरक्षित निकल जाते हो।
अपनी सुरक्षा पर यकीन करते हुए तुमने मुझसे कहा था-
‘क्यों दो महिने से धरने पर बैठकर अपने आपको कष्ट दे रही हो? तुम्हारे साथियों को भी क्या मिलेगा? एक दिन धरना उठाना पड़ेगा। धरनों की यही नियति होती है।' कहते हुए तुम्हारे शब्दों में दृढ़ता थी।
‘फिर क्या करें?'
‘मैं मुख्यमंत्री के बेटे से तुमको मिलवा देता हूँ, चलो मेरे साथ।'
‘मैं! अकेली नहीं, टीम के साथ जाऊँगी।'
‘देख लो। टीम को देखकर तो नेता जी खुद ही बिदक जायेंगे।'
‘नहीं, समूह की अपनी ताकत होती है। बात एक की नहीं, हम सबकी होगी।'
‘मैंने इतने सारों की बात नहीं की।'
इसके बाद बात आई गई हो गयी थी। मगर शायद तुमको मुझे अकेली को लेकर जाने में सुविधा थी। बराबर फोन करते रहे, आज चलो, कल चलो, परसों...
मैं आश्चर्य में पड़ गई कि क्या हर दिन मुख्यमंत्री जी का बेटा, जो खुद भी मंत्री है, मुझसे मिलने के लिये फ्री रहता है? मुझे संदेह होने लगा था इस हाईकमान के अफसर पर। इसलिये जब तुम्हारा फोन आता गुलशन शर्मा, मैं फोन काट देती।
‘जरूरी, बहुत जरूरी बात है तनुश्री' तुमने फोन किया और थोड़ी देर बाद ही मैंने पाया कि तुम गाड़ी लेकर मेरे सामने हाजिर थे। तुम अकेले नहीं, मैंने देखा गाड़ी में दो जने और बैठे हैं।
धरने की व्यस्तता के बीच ही तुमने बताया कि मुझे मुख्यमंत्री के बेटे ने ऐसे प्रतिनिधि मंडल में शामिल किया है, जो नई सरकार से जवाब माँगने के लिये बनाई गयी है। और अब मुझे विचार-विमर्श के लिये रोहतक बुलाया गया है। तुमने मुझे एक टाइप किया हुआ कागज भी दिखाया था जिसमें ग्रुप के छः सदस्यों के नाम थे।
उसी समय मेरे मौसा जी मुझसे मिलने आये हुए थे। वे देख रहे थे, तुम मुझ पर बड़ा दबाव डाल रहे हो। फिर से नौकरी बहाल होने का विश्वास दिला रहे हो। मौसा जी तुम्हें गौर से देख रहे थे, मैं सोचने लगी, मौसा जी आखिर ऐसे क्यों देख रहे हैं?
तुम चले गये खाली हाथ क्योंकि मैं चलने के लिये तैयार नहीं हुई। मौसा जी ने मुझे बताया था-‘यह आदमी फ्रॉड है। यह एक बार हमारे बैंक में लोन लेने आया था, फ्रॉड नाम से। इससे बचकर रहना।'
अब मैं चौकन्नी हो गयी। तुम्हारा फोन आता, चौंक ही जाती। कैसी मुश्किल थी हमारी भी, एक ओर नौकरी के लिये लड़ो, दूसरी ओर तुम जैसे औरतबाजों से बचो। मगर यह बात तो है कि न जाने मैं क्या-क्या सोचती, विचलित होती, फिर भी मेरे भीतर आत्मविश्वास अत्यंत महत्वपूर्ण भाव की तरह रहता था। लगता कि एक दिन इंसाफ के लिये इंकलाब बोलना पड़ेगा फटते हुए बम की तरह। इन लोगों की धूर्तता, चालाकियाँ, स्वार्थ और घनघोर लिप्सायें जल जायेंगी।
तभी मेरा मोबाइल बोलने लगा। मैंने देखा-‘तुम्हारे नाम की रिंग थी। मैंने स्पीकर ऑन कर दिया, आवाज तुम्हारी थी-तनु तुम नहीं आईं मेरे साथ! मैं सोचता हूँ, बता ही दूँ। जबसे तुम्हें देखा है, मेरा किसी काम में मन नहीं लगता। जब तुम्हारी आवाज सुनता हूँ, मुझे कुछ-कुछ होने लगता है। मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, इसलिये कुछ भी करना चाहता हूँ, तुम्हारे लिये। मुख्यमंत्री जी के बेटे से मिलवाने का समय मैंने दिल्ली में उनके फार्म हाउस में लिया है। हाँ करो तो अभी गाड़ी भेज दूँ।'
गुलशन शर्मा, उस समय मेरे साथी तुम्हें पीटने के लिये तैयार हो गये थे, ऐन तुम्हारे ऑफिस में आकर। मैंने ही उन्हें रोका क्योंकि हम इस समय अपने महत्वपूर्ण मिशन पर थे। मगर मैं किससे कहती कि मैं कितनी परेशान हूँ। लगा कि जब से हमने हरियाणा पुलिस एकेडमी के मधुबन को छोड़ा है, तब से मैं इन सिरसा रोहतक जैसे शहरों की मरी हुई सांसों को ताजा हवा समझकर अपने अंदर खींच रही हूँ। और तुर्रा यह कि यहाँ कानून द्वारा नागरिकों की स्वाधीनता की रक्षा की जाती है।
एस.पी. साहब ने कहा था-‘तुम किस नौकरी के लिये लड़ रही हो, पुलिस की नौकरी क्या नौकरी है?'
मुझे लगा कि कहूँ- यदि आप यह मान रहे हैं तो मेरे सामने वर्दी पहनकर क्यों खड़े हैं?
तो गुलशन शर्मा जी, आपकी आशनाई अपने जुनून पर थी। और हमारा धरना तरह-तरह की समस्याओं से जूझ रहा था- रोटी, कपड़ा और सिर पर छाया, साथ ही पुलिस से बचना।
इन्हीं दिनों तुम्हारा पत्र व्यवहार कुछ ज्यादा ही मचलने लगा। इतना कि मेरी आँखों से घायल होने का भाव तुम इस तरह दिखा रहे थे, जैसे रायफल की गोली लगी हो। और छर्रा अभी तक बदन में ही घुसा हो। तुम्हारे पत्र मेरे शरीर के विभिन्न अंगों को मारक हथियारों की तरह एक एक करके प्रस्तुत करते। शिनाख्त कराने के लिये तुम्हें और कोई नहीं मिला सिवा मेरे पिता और भाई के। जाहिर है मैंने तो अपना सिम कार्ड बदल ही दिया था। शायद इसलिये ही छटपटाहट ज्यादा बढ़ गयी।
चारों ओर से हमला!
इधर तुम्हारी लड़की, तुम्हारा लड़का, तुम्हारी पत्नी को लेकर मेरे पास तक आये, जब मेरी मम्मी मेरे पास रोहतक में थी। तुम अफसर, वह भी राजनीति के गलियारों के धुरंधर, अपने घर में तरह तरह से मात खा रहे थे। इन लोगों ने मोबाइल फोन के आउटबॉक्स में वे मैसेज पढ़ लिये थे, जिनसे परेशान आकर मैंने अपना सिम कार्ड बदल लिया कि फोन नम्बर तुम्हारे पास न रहे।
गृहस्थ लोगों के यहाँ यही तो सुविधा होती है कि वे अपने बच्चों की उम्र की लड़की फसायें और घरवाले मानें कि लड़की ने उनके घर के उम्रदार पुरुष को फांसा है। मुझे लगा तुम्हारे घर में मेरे नाम का प्रवेश मैटल डिटेक्टर से गुजर रहा है और उस नाम में गड़बड़ी मिली है क्योंकि वे लोग मुझे धमकाने लगे।
इतने पर भी संतोष नहीं मिला तो वे मेरे पापा के पास गये, बड़ी बहन से मिले। तुम्हारी पत्नी ने अब साफ कहा- आपकी लड़की मेरे पति को फँसा रही है।
क्या मैं तुमको फँसा रही थी? मैं तो सोच रही थी, तुम्हारे आश्वासन का यकीन कर लेने की यह सजा है तो तुम्हारे साथ जाने पर मेरा क्या हाल होता? यह मत सोचो कि मैंने तुम्हारे साथ जाना ही नहीं चाहा, सचमुच मैं उन दिनों बड़ी दुविधा में रही थी। मिजाज कौर से तो मेरा झगड़ा भी हो गया था। मैं कहती, चली जाऊँ। वह कहती- ऐसे हमने बहुत देखे हैं। मैं कहती, मैं भी तो देखूँ। वह कहती- क्या होगा, मैं बताये देती हूँ। ये लोग कहेंगे, राजनीति में आ जाओ और आज रात उस उसके कमरे में...
गुलशन शर्मा तुम्हारी लड़की को पता नहीं था कि तुम मेरे घर आते रहे हो। पापा पर अच्छा प्रभाव कायम कर लिया था तुमने। जिसके घर चोरी करनी होती है, उस घर के किसी सदस्य से दोस्ती जरूरी होती है। तो उन दिनों तुम जैसा शुभचिंतक कोई नहीं था पापा के लिये। अधेड़ पुरुषों पर लड़की के लिये संदेह भी देर में ही जाता है क्योंकि वे एक वाक्य में लड़की को चार बार बेटा-बेटा कहकर सम्बोधित करते हैं।
वह तो तुम्हारा लड़का ही खुल गया आवेश में कि उसने मेरे पास आई चिटि्ठयों को तुम्हे टाइप करते पकड़ा है।
परन्तु क्या किया जाये, लड़के के लिये घर की इज्जत बाप से भी बड़ी थी। उसका युवा चेहरा पीड़ा से तन गया। हम क्या बोलते, चारों ओर मौन ठहरा हुआ था। मैं भी क्या कहती, सामाजिक कार्यों से जुड़ी हुई महिला की अलग ही प्रतिष्ठा होती है, लेकिन उसके लिये प्रतिष्ठा कदम कदम पर भारी पड़ती है। मैं तो यही सोच रही थी, तुम्हारी तरह के न जाने कितने पुरुष होंगे, जो घर से गद्दारी करते हुए पकड़े भी जायें और बाइज्जत बरी करने पड़ें।
क्योंकि तुम में अपने दोषों को अपराधों को स्वीकार करने का हौसला नहीं, इसलिये गुपचुप ढंग से अपनी गतिविधियाँ चलाते हुए मस्त रहते हो। ओ सिविल सर्विस द्वारा सेलेक्ट हुए अफसर, तुमसे तो वह लड़की बेहतर और साहसी थी, जो एक रात मेरे सामने आई। सुनो, क्या किया था उसने? उसने अपनी रूममेट के बक्से से रुपये चुराये थे- पूरे सात हजार। हमारी बैरकों में हलचल हुई। वार्डन ने सब जगह ढुँढवाये रुपये, मगर कहीं नहीं मिले। लड़की रो रही थी क्योंकि उसे पैसे अपनी विधवा माँ के लिये भेजने थे। सी.डी.आई. इंक्वायरी कर रहे थे। जब कुछ नहीं हो पाया तो लड़कियों को साढ़े ग्यारह बजे तक बाहर मैदान में खड़ा रखा। मुश्किल यह थी कि हमें साढ़े तीन बजे सबेरे उठना पड़ता था, परेड के लिये। बैरकों की तलाशी ली गयी।
अगले दिन जब जी.आर.सी. (जनरल रोल कॉल) हो रहा था, मैंने सी.डी.आई. से कहा- आप लड़कियों को डरा दो कि फिंगर प्रिंट लिये जायेंगे। कुत्ते बुलाये जायेंगे। तभी ये बता सकती हैं।
सर ने मुझे ही स्टेज पर बुला लिया और बोले-‘सुनिये सब लोग, तनुश्री कुछ कहना चाहती है।'
यह क्या? मैं तो अचानक गूँगी सी हो गयी। साथ ही यह भी सोचा कि मेरी बात का असर लड़कियाँ मितना लेंगी?
अब क्या कहती मैं? शुरुआत में तो चोरी पर लानत देने लगी और फिर कहा कि यहाँ दस हजार रुपये भी रख दिये जायें और यहाँ से तमाम लोग गुजरें, रुपये ज्यों की त्यों रहेंगे। इतनी ईमानदारी तो यहाँ है।
लड़कियों में ऐसा सन्नाटा था, जैसे कि मैदान में कोई न हो। बुत देर बाद एक लड़की बोली-‘हम इस लड़की की तनख्वाह चंदा करके पूरी करेंगे।' हाँ, इसके अलावा चारा भी क्या था? लड़की समझदारी की बात कर रही थी। वह तो मैंने ही कहा-‘फिर एक तनख्वाह नहीं, दो तनख्वाहों का इंतजाम करो। एक तो उसकी, जिसकी गुम हुई है, दूसरी उसकी जिसका अपनी तनख्वाह से पेट नहीं भरता। हर महिने दूसरों के रुपये के रुपये चुरायेगी।'
आगे कहा-‘सुन लो सब अगर एक दिन में तनख्वाह नहीं मिली तो कल रात से मैं इस चोरी की सजा खुद भुगतूँगी। पीठ पर पिट्ठू (बोरी में इंट भरकर) लादकर पूरे दस दिन एक्स्ट्रा परेड करूँगी।' यह सब कहते हुए मैं कांप रही थी। फिर भी आवाज में दृढ़ता थी। सजा खुद ही तो कबूल की है। जब लड़कियाँ अपनी बैरकों में जाने लगीं तो हँसते हुए बोलीं-‘इस गांधीगिरी से रुपये मिल जायेंगे?'
मैंने कहा, जरूर मिलेंगे। अनशन और सत्याग्रह से आजादी मिली थी। रुपये मिलें न मिलें, मेरा विश्वास फिर भी रहेगा।
मैं अपनी बैरक में तख्त पर लेटी थी। सात लड़कियाँ कमरे में मेरी रूम मेट थीं। रुपयों पर बात करने से हम सब कतरा रहे थे। लड़कियाँ सोने लगीं। मुझे नींद नहीं। यही सोच रही थी रुपये न मिले तो? सजा क्यों ली?
आधे घंटे बाद फोन आया। मैंने समझा सी.डी.आई. का है। मगर उधर से एक लड़की बोल रही थी-
‘दीदी, मैं आपको उस लड़की के बारे में बताना चाहती हूँ, जिसने रुपये लिये हैं। आप आ जायें।' सुनकर मैं स्तब्ध रह गयी।
‘कहाँ?' मैं एकदम उठकर बैठ गयी।
‘मैं चौथी बैरिक के ऊपर वाले पोर्शन में खड़ी हूँ।'
मैं फुर्ती से उठी और तेज कदमों से बाहर निकल गयी, ऐसे जैसे बाथरूम जा रही हूँ। लड़कियाँ सो रही हैं, जाग न जायें। आखिर क्या होने वाला है?
अब मैं और वह लड़की आमने-सामने खड़े थे। वह कह रही थी- ‘दीदी, वह लड़की बहुत दुखी थी। उसके घर में पैसों की बहुत जरूरत थी। उसके पिता का ऑपरेशन होना है। वह जब उस लड़की के कमरे में गयी तो बक्सा खुला हुआ था। ऊपर ही पर्स रखा था। बस मन डगमगा गया। पहले तो सोचा नहीं ले। बक्सा ही बंद कर दिया। फिर मन किया ले ले। जरूरत बहुत है। बस पैसे निकाल लिये।'
इतना कहते ही वह मेरे गले लगकर फफक फफककर रो पड़ी। रुलाई में ही यह कि-‘दीदी, वह लड़की मैं हूँ, मैं। मैं क्या करूँ अब?'
‘तू भूल जा कि तू है। यह भी कि भूल जा कि तेरे सामने मैं हूँ। तेरा नाम मैं भूले से भी नहीं लूँगी। और समझ ले कि मैं तेरा नाम भूल गयी।'
सच कहती हूँ कि उसी लड़की से प्रेरित हुई थी मैं। सी.डी.आई. ने जब उसका नाम पूछा, मैंने कहा - वह लड़की मैं हूँ, समझ लीजिये।
सब लोग स्तब्ध थे। मैंने तो इतना ही कहा सबके सामने-‘जो अपनी गलती मान ले, उसे हमें इज्जत देनी चाहिये। अब उसके लिये तालियाँ बजाओ।'
मिस्टर गुलशन शर्मा, तालियाँ बजाने का तो मेरा तुम्हारे लिये भी मन करता है। पुलिस डंडों के बली पर, आँसू गैस के जोर पर या दूसरी तरह की सख्तियों के कारण हमारा धरना हमसे नहीं तुड़वा पाई, लेकिन मैं मान गयी तुम को कि तुम और तुम्हारे साथ रहने वाले शोहदों ने हमारे इरादे अक्सर ही कमजोर कर दिये। मैं सोचा करती, अपने आन्दोलन की लड़कियों को तुमसे कैसे बचाऊँ? तुम्हारे साथ पैसा और पावर है और हम हैं निहत्थे।
मैं अपने पिता से नहीं हारी, उन्होंने मुझे घर देखकर कहा था- ‘अब जायेगी तो मेरी लाश के ऊपर से जायेगी।'
मैंने कहा था- कहीं से जाना पड़े, मुझे जाना तो होगा।
मैं अपने भाई से नहीं हारी। कहता था, तू चली आ। किसी भी कीमत पर चली आ। मैंने आने से इनकार कर दिया- इस समय भाई से ज्यादा मेरे लिये मेरे साथी हैं, जो घायल पड़े हैं। मैं उनकी तीमारदारी में हूँ। मैं किसी की बेटी नहीं, बहन नहीं... जो कुछ है, यह संघर्ष है। हम हैं सक्रिय कार्यकर्ता।
मगर मैंने तुम जैसों के कारण धरना उठाने की सोची। तुम्हारी कामुकता ने हमको कितना डराया, लेकिन फिर भी कुछ था, कोई दबा छिपा रहस्य या स्त्री की जिद। तभी तो यह सोच लिया, तुम क्या करोगे, बलात्कार करोगे? हम तो सिपाही हैं, युद्धक्षेत्र में डटे हुए, पीठ दिखाना कायरता होगी। तभी तो फिर फिर आन्दोलन किये कि ठान लिया- छेड़ो मुक्ति का राग।
और आखिर मुख्यमंत्री ने हमें बुला ही लिया। वादा भी दिया कि तुरंत ही पच्चीस प्रतिशत लड़के लड़कियों को वापिस लिया जायेगा और फिर इसी तरह साल दर साल नियुक्तियाँ जारी रहेंगी।
मिस्टर गुलशन शर्मा, क्या तुमने नये मुख्यमंत्री को मेरे चरित्र के बारे में कुछ नहीं लिखा? लिख देते तो शायद फिर से मेरी नौकरी... मगर इतना याद रखना कि मैं चुप्पा औरत नहीं हूँ, जो बिना सोचे समझे हुक्म निभाती जाऊँ। लेकिन ऐसी लड़की भी नहीं, जैसे कि तुम मर्द हो। इतनी सी उम्र में मैं किसी के बारे में तुम्हारी तरह सोचने का समय नहीं पाती। क्या तुम इतने फालतू हो कि तुम्हारा दिमाग ‘खाली घर शैतान का अड्डा' हो गया है।'
मेरे पिता को पत्र लिखने का क्या फायदा होगा तुम्हें? लिखना हो तो मेरी शादी के बाद मेरे पति को इससे भी ज्यादा गंदा, कामुक और डराने वाला खत लिखना, बताना कि मैं कितनी सैक्सी हूँ और तुमने मेरे साथ क्या क्या किया है। सबूतों के साथ डॉक्टर का सर्टीफिकेट लगाकर भेजना कि मैंने कहाँ कहाँ गर्भपात कराया क्योंकि तुम्हीं तो हो, जिसे मैं अपने सारे राज बताती रही हूँ और तुम्हारे बिना एक कदम भी अपने आप नहीं चल सकी। इस सौदेबाजी में तुम मुझसे क्या वसूल करना चाहते हो, मैं जानती हूँ। तुम पचास साल के बुड्ढे, तुम्हारी युवावस्था के समय लड़कियाँ इन हथकंडों से डर जाती होंगी। मगर तुमको मैंने बता ही दिया है कि ऐसे कामुक संकेत मैंने तुम्हारी आँखों में शुरुआत में ही पढ़ लिये थे। और तुमसे निपटने का जो तरीका मैं अपना रही हूँ, उसका अंदाजा तुमको होना चाहिये था। अब यह समझ लो कि मैंने हमेशा जो कुछ सोचा है, वही किया है, इसलिये जो कुछ हुआ, उसके पीछे निश्चय ही कोई बड़ा कारण होगा।
अब इतना और सीख लो कि जमाना बदल रहा है। औरत ही औरत की दुश्मन वाली बात सिरे से गायब है क्योंकि यह साजिश भरा नारा तुम जैसे लोगों ने ही लगाया था। अब तो स्त्री स्त्री की मित्र है। क्या तुमने रोहतक के स्कूल वाला कांड नहीं सुना?
तुम जैसा ही था उस स्कूल का टीचर, जो लड़कियों के साथ, उन्हें प्यार में लेकर अपनी हवस पूरी करता रहा। बाद में डराने धमकाने लगा कि कहीं कहोगी तो बदनामी तुम्हारी होगी। लड़कियाँ, जिनके माँ-बाप गुलशन शर्मा तुम्हारी ही उम्र के हैं, अपनी बेटियों को चुप रहना सिखाते हैं। अपने आदर के लिये उन्हें विनम्र और लज्जाशील बनाते हैं। नहीं समझते कि ये गुण लड़की की जिंदगी के लिये सबसे बड़े अवगुण हैं। लाजवंती की तरह तीन लड़कियाँ गर्भवती हो गयीं। अब क्या करें माता-पिता? गर्भ तो किसी लाज या पर्दे को नहीं मानता। पेटों में शिशु बढ़ने लगे। एक उपाय, जो सदियों से चला आ रहा है- गर्भवती का गर्भपात। अगर गर्भपात नहीं होता तो गर्भवती लड़की की हत्या। हत्या का निर्णय लेने वाले गाँव के मूँछ वाले, जाति बिरादरी में हुक्का की आन रखने वाले पुरुष थे। ऐसे फैसलों में औरतों को नहीं पूछा जाता।
लेकिन उनको क्या पता था कि औरतें बिना पूछे बिना बुलाये ही आ जायेंगी। महिला संगठन ने उन तीनों लड़कियों को बचा लिया। जब महिलाओं ने उन्हें गिरफ्तार कराने की धमकी दी तो वे खुद को बचाने के लिये इधर-उधर भागने लगे। अब कोई किस मुँह से कहेगा, औरत ही औरत की दुश्मन होती है। गुलशन शर्मा, संवेदनाओं को क्रूरता नहीं जीत सकती। मैं जब शादी करूँगी, तुम्हें भी निमंत्रण दूँगी। सच कहती हूँ, हमें किसी के द्वारा दी गयी सुरक्षा नहीं, अपनी सामर्थ्य चाहिये कि कोई गुलशन शर्मा हमारे चेहरों पर तेजाब फेंके या फिंकवाये, उससे पहले हम उसे तेजाब के कुंड में डुबो-डुबोकर खत्म कर दें।
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ख्याल बहुत सुन्दर है और निभाया भी है आपने उस हेतु बधाई, सादर वन्दे,,,,,,
जवाब देंहटाएंशानदार
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