सराब मौसम बदलते ही किश्वरजहाँ के जोड़ों का दर्द नये सिरे से ज़ोर पकड़ता गया । न बैठे चैन, न खड़े करार - नमाज़ तक पढ़ना दुश्वार लगा, रूक...
सराब
मौसम बदलते ही किश्वरजहाँ के जोड़ों का दर्द नये सिरे से ज़ोर पकड़ता गया। न बैठे चैन, न खड़े करार - नमाज़ तक पढ़ना दुश्वार लगा, रूकू से सिजदा में जाते ही घुटने मोड़ने पर दर्द की लहर बिजली की तरह पूरे बदन में सनसना जाती। नीयत टूटने पर अनायास ही चिड़चिड़ा कर सोचता- “मिट्टी पड़े इस साइंसी तरक्क़ी पर, आदमी के मामूली कष्टों का आज भी कोई इलाज नहीं है- नमाज़ में रुकावट डालने को बहके विचारों की पहले कुछ कमी थी कि ऊपर से रही सही कसर अर्थराइटिस ने पूरी कर दी। दुनिया जहान के काम ठीक नमाज़ के बीच ही याद आते हैं- किस ख़त का जवाब नहीं दिया, कौन सा बिल भरना है। फ्रिज़र में मटन के थोड़े ही पैकेट रह गये हैं। जूस भी खत्म हो गया है। कोई मेहमान आ गया तो? फलाँ ने फलाँ की बात कही तो वक़्त पर जवाब क्यों नहीं सूझा।”
आज भी सारा घर बिखरा बेतरतीब सा पड़ा हुआ था और वो नमाज़ समाप्त करके सारे फैलावे को देख रही थीं।
“ये देस बहुत अच्छा, बहुत दयालु है मगर यहाँ आदमी को हमेशा जवान रहना चाहिये। एक समय था, जब इतना सा काम कोई काम ही नहीं लगता था।”
पश्चिमी लन्दन के इलाके में शौक़ से ख़रीदे बड़े से घर का फैलाव इस समय उन्हें खल रहा था।
“लगता है जी.पी. की बात माननी ही पड़ेगी। स्ट्रायड के बगैर गुज़ारा मुश्किल है। यूँ हाथ पर हाथ धरे बेकार बैठना कितना कठिन है।”
पता नहीं क्या ख़याल आया कि अकेले घर में उनकी अचानक हँसी गूंज गई।
“ये मानव भी क्या चीज़ है- आज हमें घर में बैठना अच्छा नहीं लग रहा। एक समय था कि हमारी निगाह में घर से निकलकर बाहर काम करना दुनिया का सब से कठिन काम था।”
गुज़रे हुए महीने और साल फिल्म की तरह जे़हन के परदे पर चलने लगे- चालीस साल पहले ये देस एक मैट्रिक पास उर्दू मीडियम लड़की के लिये इतना दयालू नहीं था।
पहले तो स्थानीय भाषा सिखाने वाली संस्थायें इतनी अधिक संख्या में नहीं हुआ करते थे इसके अलावा जहाँ कहीं थे भी तो वहाँ तक पहुँचना किश्वरजहाँ जैसी अविश्वसनीय लड़कियों के लिए पहाड़ खोद कर दूध की नहर निकालने जैसी बात थी।
पति की कमाई ख़र्चों के मुकाबले बहुत कम होने के बावजूद एक लम्बे समय तक घर में दुबकी बैठी रही। घर से निकलने का मतलब लोगों से बातचीत था। जबकि स्थानीय आबादी उनकी भाषा से अज्ञान थी, और वो स्थानीय जु़बान के लिये अपरिचित थीं- पाँचवी से दसवीं क्लास तक उन्हें जो अंग्रेजी अपने वतन में पढ़ाई गयी, उच्चारण और लहजे के हिसाब से इस पर यहाँ किसी दूसरे ग्रह की ज़्ाुबान का गुमान हुआ। जुबान रखते हुए बेजुबानी का कष्ट सहना आसान नहीं था। अंग्रेजों को दूर से देखते ही उन्हें पसीने छूट जाते थे- कहीं किसी ने बात कर ली तो कैसे जवाब दे पायेंगी? अपने छोटे से कस्बे में शिक्षित मानी जाने वाली किश्वरजहाँ, यहाँ जाहिलों की लिस्ट में शामिल हो कर रह गई। निर्धनता का ये हाल था कि पूरा किराया तक अदा करने का उनका सामर्थ्य नहीं था। एक कमरे के फ़्लैट में मियाँ-बीवी के अलावा एक दोस्त भी भागीदर था- पराये पुरूष के सामने वक़्त बेवक़्त छोटी-छोटी परदेदारियाँ टूटने पर कैसी शर्म आती, कितनी शर्मिन्दगी महसूस होती- शर्म ने ज़िन्दगी का ये तजुर्बा कभी ज़ुबान पर आने नहीं दिया नये ब्याह जोड़े के उमंगों भरे दिल और जिस्मों की चाहत को किस किस तरह डाँट कर चुप कराना पड़ा। कैसे-कैसे आकस्मिक पलों पर पाबन्दी लगानी पड़ी। कभी कभी उन्हें स्वयं पर अपने से पिछली नस्ल की औरत का धोका होता। इन्डो पाक की वो औरत जो ससुर तो क्या पति के सम्मुख भी सारी ज़िन्दगी घूँघट काढ़े गुज़ार देती थी। जिसका तन तो क्या चेहरा तक पति दिन के उजाले में नहीं देख पाता था- चार औरतों की मौजूदगी में बेचारा अटकल और अन्दाज़े से बीवी को पहचानने की कोशिश करता रह जाता।
शादी से पहले वो इस सुनी सुनाई बात पर आँखें बंद किये मासूमियत से यक़ीन किये हुए थीं- लेकिन वैवाहिक जीवन में कदम रखने के बाद अक्सर अपनी कमअक्ली पर अन्दर ही अन्दर मुस्कुराने लगती- शादी के अगले सप्ताह ही विदा होकर इंग्लैंड चली आने वाली किश्वरजहाँ घर के इकलौते कमरे में शरारत से सोचती।
“ऐ लो भला बताओ, इतने परदों में पत्नियों का ये हाल था। अल्लाह रखे कोई बीवी दस बारह बच्चों की पलटन से कम पर राजी न थी।” फिर ख़ुद ही झेंप कर हँस पड़ती।
“अरे! तौबा बहुत चल निकले हैं हम, हमें भी यहाँ की बेबाकी को हवा लग गई है।”
बात जब तक अपनी खुशियों, अपनी इच्छाओं अपनी ज़रूरतों और ख़्वाबों तक सीमित रही- वो सिकड़ी सिमटी, घर के अन्दर दुनिया से कटी बैठी रही। लेकिन जब सिलसिला अपनी ज़ात से हट कर बच्चों की ज़रूरतों तक जा पहुँचा तो प्राथमिकतायें बदले बिना चारा नहीं रहा। गर्म प्रदेश की वासी होने के बावजूद खुद ने बर्फीले मौसम में हीटिंग के बगैर गुज़ारा कर लिया- मगर बच्चों को ठिहुरता दिल पानी होकर आँखों से बह निकलता। इधर गैस या बिजली के मीटर में पैसे डालती, उधर ख़त्म, कमाई वही और खाने वालों की संख्या में प्रतिदिन बढ़ोतरी। खाने को पूरा डालती तो कपड़ों की तंगी का सामना करना पड़ता। पहनने की जरूरतें पूरी करतीं तो खेलने के लिये खिलौनों की फरमाइश ज़ोर पकड़ने लगती।
इतना ख़ुशहाल माने जाने वाले देश में ऐसी गरीबी और निचले स्तर के जीवन का ख़याल ही मुश्किल है- यहाँ आने से पहले वो ऐसा सोच भी नहीं सकती थी। इससे कहीं अच्छी ज़िन्दगी उन्होंने अपने ग़रीब मुल्क में बसर की थी। जहाँ मौसम अपनी तब्दीली (परिवर्तन) का एहसास बाद में और घर में आने वाले मौसमी फल और नये जूते, कपड़े पहले दिलाते थे।
अपने लिये तो ये जन्म छोड़, शायद अगले जन्म में भी वो वक़्त के साथ चलने की हिम्मत पैदा न कर पातीं, उनको जो मिला उसी में गुजर बसर करने की आदत, और शर्मीली फितरत उन्हें कभी भी अपने शिकंजे से बाहर निकलने नहीं देती। लेकिन बच्चों की खुशियों की चाह से बड़ी मुँहज़ोर साबित हुई। पहले तो उन्होंने पति की मदद से ढूँढ-ढांड कर अंग्रेजी बोल चाल सिखाने वाली नज़दीकी संस्था का पता लगाया जो घर से कई मील दूर था फिर इविनिंग क्लास में नाम लिखवा लिया।
उस ज़माने में नेशनलफ्रंट जैसे जातिवादी गिरोह-काले लोगों के साथ मारधाड़ वाला खेल खेलने के लिये आज की तरह संगठित नहीं हुआ करते थे। जातिवादिता, नफरत, दिलों, आँखों या बातचीत तक सीमित थी। रात-बिरात अकेले दुकेले निकलने पर आज की तरह डर नहीं लगता था। इसके बावजूद क्लास अटेन्ड करने निकलती तो पूरे समय लरज़ती और काँपती रहती। बस चलता तो पति की उँगली थाम कर उनकी सुरक्षा में जाया करतीं- लेकिन मजबूरी थी। उन्हें काम से लौटकर बच्चों को संभालना होता। इस मामले में वो ख़ुशकिस्मत थीं पति उनकी कद्र करने वाला और उनकी ख़ुशी में ख़ुश रहने वाला मिला था घर में दुबक कर सिमटे रहना चाहा तब भी कोई आपत्ति नहीं जताई और न ही बाहर निकल कर आर्थिक मददगार बनने की इच्छा पर रोक लगाई।
रोज़गार की तलाश समस्या खड़ी हुई तो सिवाए सिलाई के कोई दूसरा हुनर उनके हाथ में नहीं था। ये हुनर भी शादी से पहले अपने कपड़े ख़ुद सीने की शिक्षा का फल था। हाथ में बहुत सफ़ाई होने के बावजूद खुदा जाने कितने धक्के खाने पड़े तब कहीं जा कर काम मिला- वर्षों की धूल के नीचे दब जाने पर भी वो तकलीफ़ वो यादें, आज भी फाँस बन कर चुभती थीं।
उन्हें पहली बार ‘किचनएप्रिन' बनाने वाली एक फ़ैक्ट्री में इन्टरव्यू हैवीडयूटी कमर्शियल मशीन पर सिलाई का नमूना पेश करने के लिये बुलाया गया था। नर्वस सी, बौखलाई हुई किश्वरजहाँ सारे रास्ते बार-बार भीग जाने वाली हथेलियाँ खोल बंद करती रही- फैक्ट्री के ग्रीक मालिक का उखड़ा उखड़ा अंग्रेजी लहजा सुनकर हिचकोले खाते दिल को धाड़स बँधी।
“ये बेचारा भी हमारे जैसा बाहर का है।”
लाइन से लगी मशीनों पर काम करने वालों में ज़्यादातर औरतें थीं- जिनके काले बाल लम्बूतरे चेहरे, साफ़ सुथरा रंग और तीखे नैन नक़्श पुकार पुकार कर यूनानी सम्प्रदाय होने का ऐलान कर रहे थे। पता नहीं क्यों उन्हें माहौल में अपने लिये एक अजीब सी उपेक्षा का एहसास हुआ। हर व्यक्ति असम्बद्ध दिखाई देने के बावजूद चुपके-चुपके समीक्षात्मक दृष्टि से जायज़ा ले रहा था।
किश्वरजहाँ के तैयार किये गये सेम्पल वहाँ मौजूद तजुर्बेकार वर्कर्स के सेम्पल्स से किसी भी तरह से कमतर नहीं थे। मालिक की आँखों में उनका काम देखकर एक पल को आँखों में तारीफ� के भाव उभरे- मगर चालाक बिजनेसमेन ने तुरंत उन्हें वहीं दबा दिया। शायद इसलिये कि कहीं वो उसके भावों को पढ़ कर ट्रेनी के बजाये तजुर्बेकार वर्कर्स वाले मेहनताने की माँग न करने लगे, इसलिये उनका काम पसंद आने और कामवालों की ज़रूरत होने के बावजूद पक्का जवाब देने के बजाये अगले दिन पर टाल दिया गया।
फैक्ट्री से निकलीं, तो आने वाले चौबीस घंटों के लिये आशा निराशा के झूले में झूमती रहीं। भारी टे्रफिक के शोर में ढीलें कदमों से बस स्टाप की ओर बढ़ते हुए आधा फर्लांग तय किया था कि अचानक फैक्ट्री के सुपरवाइज़र ने पीछे से आकर रास्ता रोक लिया।
“अपनी तलाशी दो।”
“क्या मतलब? क्या कह रहे हो, कैसी तलाशी?” वो सिटपिटा गई।
“अपना हैन्ड बैग खोलो!” ठन्डे स्वर में उसने कहा।
“ मगर क्यों?” उन्होंने रोहांसी होकर पूछा।
“ बैग खोल कर दिखाती हो या पुलिस को बुलाऊँ।” उसने धमकाया।
“पुलिस! लेकिन हम ने किया क्या है?” वो सहम कर रोने लगी।
“जिस मशीन पर तुमने सिलाई की थी उसके क़रीब क्वालिटी कन्ट्रोलर की टेबल पर रखी कीमती कैंची गायब है।”
“तो तुम्हारा मतलब है, हमने चोरी की है! हम चोर दिखते हैं? पागल तो नहीं हो गये?” गुस्से में टूटी फूटी इंग्लिश में गलत सलत कह दिया।
“शटअप! तुम्हारे बराबर वाली मशीन पे करने वाली ने तुम्हें कैंची उठाते देखा है।”
“तो फिर मेरे बजाये उसके बैग की तलाशी लो ना। किश्वरजहाँ ने ये कहना चाहा तो, मगर वाक्य कुछ का कुछ मुँह से निकल गया। सुपरवाइजर ने बदतमीजी से उनके कंध्ो पर टंगे बैग को घसीट कर ख़ुद तलाशी लेना शुरू कर दिया। मारे गुस्से और शर्मिन्दगी के वो अंग्रेजी भूल कर ऊँची आवाज़ में उर्दू में ही उसे भला बुरा कहने लगी। पूरा बैग खंगालने के बाद भी कैंची नहीं मिली तो उसने उनका ऊपर से नीचे तक ऐसी गहरी नज़रों से निरीक्षण किया के वो शर्म से पानी-पानी हो कर रह गइर्ं। शुक्र था जब घर से चली थी तो आकाश साफ़ था इसलिये रेनकोट या कारडीगन नहीं पहना, लेकिन फैक्ट्री से बाहर निकलने पर बादल घिर आये और बरसात होने के लक्षण दिखने लगे। थोड़ी देर पहले मौसम के इस तरह रंग बदलने पर अपनी लापरवाही को कोसती किश्वरजहाँ ने कँपकपा कर सोचा- “अल्लाह, अगर हमने कोट वगैरह पहना होता तो क्या इस वक़्त वो हमारा बदन टटोल कर भी तलाशी लेता?”
यूँ कमीने, यूँ ज़लील- जैसे वाक्य बोलती वो भीड़भाड़ वाले फुटपाथ पर ऊँची आवाज़ में रोने लगी- अगर ये सब खुद के लिये करना होता तो वो सब छोड़छाड़ कर घर बैठना पसंद करती, मगर बच्चों के बेहतर भविष्य के लिये उन्हें ज़हर के कई घूँट पीना भी मंज़ूर था।
वक़्त का काम गुज़रना है वो गुज़रता रहा इस बीच पति ने ज़िन्दगी के सफर में अकेला कर दिया। इधर इन के व्यक्तित्व में आत्म विश्वास ने अच्छी तरह जगह बना ली और अंग्रेजी ज़बान पर अच्छी पकड़ भी हो गई। उधर स्वास्थ ने साथ देना छोड़ दिया- औलाद के फलने फूलने का मौसम अपने यौवन पर आया तो पिताश्री दुनिया से ही चले गये। न ये देख सके कि बड़ी बेटी एकाउन्टेसी करके अपने घर की हुई और ये भी नहीं देख सके कि मँझला बेटा कम्प्यूटर प्रोग्रामर और छोटा बेटा सफ़ल सालीसीटर बन गये।
मँझले बेटे की शादी भी हो गई, वो पत्नी को लेकर हनीमून पर चला गया। सारे मेहमान भी चले गये।
“घर को वाकई, चुस्त जवान हाथों की ताक�त की ज़रूरत है। हमारे लिये तो चार चीजे़ं भी ठिकाने पर रखना माउन्ट एवरेस्ट सर करने के बराबर हो गया है। चलो बहू के लौटने तक की बात है। चन्द दिनों में सब कुछ संभाल लेगी।”
अपने कमज़ोर हाथों से चीज़ें सँवारती खुश और मुतमइन किश्वरजहाँ ने सोचा।
“कितना ख़्याल है हमारे बच्चों को हमारा- ज़िन्दगी भर की थकान उतार दी, उनकी आज्ञाकारी प्रवृति ने, यहाँ तो ये हाल है कि पर निकले नहीं कि बच्चे घोसले बदलने की सोचने लगते हैं। एक हमारे बच्चे हैं- हमें अपने परों में लिये बैठे हैं। काश, उनके बाबा को भी ज़िन्दगी ने ये सुख देखने की मोहलत दी होती। बेचारे हल चलाते बीज बोते चले गये। खेती लहलहाती देखने की हसरत रह गई अल्लाह बख़्शे, देखते तो कितना खुश होते। कमाऊ पूत ने अपनी दुल्हन लाने का पूरा अधिकार हमें सौंपने की शर्त रखी भी तो क्या!” बस नौकरीपेशा न हो। जानता है अब हम से बाहर तो क्या घर का काम भी ठीक से नहीं हो पाता। ये उम्र का तक़ाजा नहीं। अरे हमारे साथ की औरतें आज भी चुस्त-दुरूस्त हैं। बस हमारा ही जिस्म बरसों की जानतोड़ मेहनत ने घुला दिया मँझला इस बात को समझता है। तभी तो हमारी ख़िदमत के ख़याल से बीवी को नौकरी की इजाज़त देने को राजी नहीं है। अल्लाह उसे इस का बदला दे बदले में उसे अपने जैसी नेक औलाद दे।”
हनीमून से वापस आकर मँझला ऑफिस जाने लगा और बहू ने घरदारी का काम संभाल लिया, किश्वरजहाँ के वाकई मजें़ हो गये- बहू ने अच्छी तरह से घर की जिम्मेदारियां संभाल ली। वक़्त पर खाना तैयार करना। कपड़े इस्त्री करना, घर की साफ-सफाई वगैरह। वह बहुत फुर्तीली साबित हुई सब काम जल्दी-जल्दी निपटा कर सास के सामने आ कर खड़ी हो जाती।
“अब क्या करूँ मम्मीजी?”
“अरे बच्ची, कुछ करते रहना ज़रूरी है क्या- आओ आराम से हमारे साथ बैठकर जी.टी.वी. देखो।”
“जी! ओह नो मम्मी, जी नहीं देखना है मेरे को- बहुत बोरिंग लगता है- स्टीरियो स्टूपिड लवस्टोरी फ़िल्मों के सिवा कुछ होता ही नहीं।”
“अच्छा चलो इंग्लिश चैनल लगा लो।”
“एक्च्यूली मेरे को टी.वी. देखना सिरे से पसंद ही नहीं स्पेशली डे-टाइम में तो बिल्कुल भी नहीं फ़ॉर मी इट्स टोटली वेस्ट ऑफ टाइम।”
“कहती तो ठीक हो मगर जी बहलाने को कोई तो बहाना चाहिये। ऐ बेटा, हम कहते हैं घर का काम ज़रा धीरे-धीरे क्यों नहीं करती? ले देकर सब झटपट कर देती हो।”
“ओ मम्मी! यू आर इम्पासिबल।”
“ ऐ बेटा, इम्पासिबिल ही है ना, मिशन इम्पासिबल तो नहीं।” बहू की खिलखिलाहट में उनकी हँसी भी शामिल हो जाती। कई दिन गुज़र जाने पर बहू प्रतिदिन एक जैसे वाक्यों के आदान-प्रदान, एक जैसी दिनचर्या से उकता गई। वीक एंड पति के साथ सैर सपाटे हल्ले-गुल्ले में गुज़ार कर सोमवार की सुबह फिर वही बोर रूटीन। तीन आदमियों का काम ही कितना होता, झटपट ख़त्म हो जाता। उस दिन भी करने को कुछ न रहा, तो वह ठनकती हुई किश्वरजहाँ के सर पर सवार होने पहुँच गई।
“अब क्या करूँ मम्मी?”
“बच्ची! तू इंसान है या बोतल का जिन्न? हर मिनट पर पूछने को खड़ी हो जाती है कि काम बताओ मेरे आक़ा।”
“नो-मम्मी! अब देखो ना, वेदर भी इतना खराब है कि गार्डननिंग भी नहीं कर सकती।”
“इन्डोर प्लांट्स भी तो है।” किश्वरजहाँ दूर की कौड़ी लाई।
“आप मेरे को जॉब की परमीशन दिलवा दो प्लीज़- देखो मैं कितना क्विक काम करती हूँ। प्रामिस, जॉब के बाद भी आपको कोई कमप्लेन नहीं होगी- कर दो ना मेरी सिफारिश प्लीज़।”
“अच्छा तो ये बात है? ठीक है कर देंगे बाबा सिफारिश।”
“ ये आप का बेटा वैसे तो बड़ा ओपन माइन्डेड है- मगर मेरी जॉब के बारे में इतना सेन्सिटिव क्यों है? आपको कुछ मालूम है?” उसने किश्वरजहाँ की तरफ जिज्ञासा से देखते हुए पूछा- जवाब में उन्होंने ठन्डी साँस भरी।
“हम ही कारण है इसका-हमारी ही मुहब्बत में ऐसा कर रहा है। सारी ज़िन्दगी माँ को मेहनत करते देखा है- अब ज़्यादा से ज़्यादा आराम देना चाहता है। मगर तुम चिंता मत करो थोड़ा धैर्य रखो- हम मँझले का मूड़ देखकर उसे राजी कर लेंगे।”
“ओह! मम्मी यू आर ग्रेट- आई लव यू।”
विशेष परिवेश में बढ़ी पली बहू ने किश्वर के बूढ़े कोमल हाथों को अपने हाथ में थाम कर गर्मजोशी से चूमते हुए अपने जज़्बात को प्रकट किया।
मँझला आफ़िस से लौटा तो बात करने का मौका नहीं मिला। रात में जब बाथरूम जाने की आवश्यकता हुई पहले माले पर स्थित बेडरूम और बाथरूम के बीच मँझले का कमरा पड़ता था- बहू बेटे के आराम में विघ्न न पड़े इसलिये दबे पाँव से चलते हुए उन्होंने सोचा- “क्या हल्के पेट के लोगों जैसे लिफ़ाफ़ा घर हैं- इधर की आहट उधर पहुँचाने में देर नहीं लगाते।”
अभी वो और अधिक अंग्रेजी ढंग के बने घरों के बारे में अपने विचारों में वृद्धि करती कि अचानक उनकी सोच सही साबित हो गई। मँझले के बेडरूम से पति-पत्नी की बातचीत की आवाज़ साफ सुनाई देने लगी- बहू की लगावट भरी आवाज़ उभर रही थी।
“आई नो डार्लिंग यू लव योर मदर- डीपहार्टेड शी इज़ रियली आ वेरी नाइस परसन। लेकिन उन्हें कोई आब्जेक्शन नहीं मेरे जॉब करने पर, आई प्रामिस वो बिल्कुल नेगलेक्ट नहीं होंगी।”
“ज़रा भी सब्र नहीं आजकल के बच्चों में। वो सर को हिलाकर हँस पड़ी।” कहा था मौका महल देखकर बात करेंगे- हम समझते हैं अपने बच्चों का मिज़ाज, अब डाँट खायेगी और कुछ नहीं।”
किश्वरजहाँ ने ये सोचते हुए आगे बढ़ना चाहा- मगर काग़ज़ी दीवारों ने एक बार फिर भरपूर शरारत से अपने हल्के पर का सबूत दे दिया।
“अभी-अभी तुमने इतनी अच्छी खबर सुनाई है- अब तो जॉब का सवाल ही पैदा नहीं होता। बच्चे का आगमन हो चुका है।”
“बट डार्लिंग आई टोल्ड यू आई एम नाट श्योर एबाउट माई प्रेगनेन्सी येट- कल जी.पी. के पास जाऊँगी टेस्ट के लिये एन्ड डोन्टवरी मैं इतनी स्टूपिड थोड़ी हूँ। बेबी आने वाला हो, तब कैसे हो सकती अभी जॉब, मगर अफ़्टर डिलीवरी....।”
“एक बात ध्यान से सुन लो।” मँझले ने शुष्क स्वर में बात काटते हुए कहा, “बच्चे के होने के ऐसी मूर्खता के बारे में सोचना भी मत- ज़िन्दगी के बारे में मेरी प्राथमिकतायें अलग हैं- मुझे अपने पैरेन्ट्स की ग़ल्ती दोहराने का कोई शौक नहीं है।”
“व्हाट डू यू मीन? ये अचानक तुम्हें क्या हो गया? ऐसी कौन-सी गलती हुई हम से स्वीट हार्ट कैसी अजीब बात कर रहे हो?” बहू की आवाज़ में आश्चर्य था।
“हाँय मँझले ने ये क्या बात कह दी? ऐसी कौन सी गलती हुई हमसे, जो दोहराये जाने के योग्य नहीं है?” किश्वरजहाँ ने हैरान होकर सोचा।
“अचानक कुछ नहीं होता स्वीट हार्ट - यहाँ तक कि भूकंप भी एक दम से नहीं आते- अन्दर ही अन्दर लावा पकते रहता है फिर फटता है।” मँझले ने गहरी साँस भरते हुए कहा।
“वादा वही नहीं होता जो इंसान दूसरों से करता है अपने साथ किये गये वादे का भी क़र्ज होता है आदमी पर- ये मेरा खुद से किया वादा है- मेरे बच्चों को अधूरी नहीं पूरी माँ मिलेगी।”
“या अल्लाह!” किश्वरजहाँ ने तड़प कर सीने पर हाथ रख लिया मँझले के आवाज़ उनके कानों में तेज़ाब की बूँदे बन कर टपकीं।
“तुम्हारा क्या ख़याल है- अच्छे कपड़े, खिलौने या सुख साधन युक्त घर माँ-बाप के ध्यान और मुहब्बत का बदल हो सकते हैं? नहीं- डार्लिंग उनका बदल दुनिया की कोई नेमत नहीं बच्चों के लिये भौतिक से ज़्यादा जज़्बाती सुरक्षा अहम् है- ज़रूरतों का क्या है? वो तो यहाँ की सरकार भी पूरी कर देती है।”
धड़धड़, परदेस की सिख़्तयों में बीतने वाले चालीस दर्दनाक वर्षों की रेल उनके वजूद पर से गुज़रती चली गई।
“क्या पता था नफरत ही नहीं, कभी-कभी मुहब्बत की ख़ुशगुमानी भी आदमी को मार देती है- नादान माँ-बाप के अक्लमंद बेटे, उम्र की किस मंज़िल पर लाकर अकेला किया तूने? अपने बचपन का हिसाब किताब सहेज कर रखने वाले हमें बता इस अधूरी माँ के नफ़े नुकसान का हिसाब किस के पास है?”
सदमे ने उनके अंग सुन्न कर दिये- यूँ महसूस हो रहा था जैसे ज़िन्दगी तेजधूप में रखी कच्ची बर्फ़ थी जो वक़्त की गरमी से भाप बनकर नज़रों के आगे से ग़ायब हो गई। सामने सिर्फ मृगतृष्णा (सराब) थी। नज़र का धोका, जिस में वो अकेली नहीं उनकी पूरी नस्ल साथ थी।
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