बदलते ज़माने, बिखरते लोग नईम ने अम्माँ की सीट बेल्ट बाँधी और कम्बल उनके पैरों पर डाल दिया- जहाज़ परवाज़ करने ही वाला था । एनाउन्समेन्...
बदलते ज़माने, बिखरते लोग
नईम ने अम्माँ की सीट बेल्ट बाँधी और कम्बल उनके पैरों पर डाल दिया- जहाज़ परवाज़ करने ही वाला था। एनाउन्समेन्ट हो रहा था। लोग बाग जल्दी-जल्दी अपनी जगह पर बैठने की कोशिश कर रहे थे। उसने झुककर अम्मा से पूछा- “आप ठीक हैं ना अम्माँ?”
अम्माँ ने उसकी तरफ़ झुककर कहा- “हाँ बेटा”, फिर पूछा - “बेटा बच्चे तो साथ हैं ना?”
नईम गड़बड़ा गया- फिर एकदम से ख़ुद पर काबू पाते हुए बोला, “जी अम्माँ सब साथ हैं।”
“बेटा”, उन्होंने मद्धिम स्वर में पूछा- “हम पाकिस्तान जा रहे हैं ना?”
नईम ने अम्माँ का हाथ अपने हाथों में लेकर थपथपाया। “जी अम्माँ, हम पाकिस्तान जा रहे हैं।”
अम्माँ ने सीट पर टेक लगाते हुए ठण्डी आह भरी, “हाँ, बेटा वही तो हमारी पनाहगाह (शरणस्थली) है। अपनी ज़मीन तो हम से छीन ली गई है। पाकिस्तान ही हमारा शान्ति गृह है। ईश्वर उसको दुश्मनों से सुरक्षित रखे। खुदा जाने तुम्हारे अब्बा कहाँ होंगे? मैं तीन बच्चों के साथ एक नये मुल्क में उनको कैसे ढूँढूगी? ऐ अल्लाह तू हमें रास्ता दिखा।” उन्होंने आहिस्ता-आहिस्ता कोई दुआ पढ़ना शुरू कर दिया। जहाज़ अब उड़ रहा था। नईम को इत्मिनान था कि उसने डॉक्टर की दी हुई दवा जहाज़ पर बैठने से पहले दे दी थी। अब वो सो जायेंगी। डॉक्टर ने कहा था- अगर वो रास्ते में बेचैनी महसूस करें तो एक ख़ुराक और दे दीजियेगा। वो रिलैक्स रहेंगी और सो जायेंगी- ख़ुदा करे, ये अट्ठारह घंटे की लम्बी यात्रा कुशल मंगल से गुज़र जाये। इस तरह यात्रा के मध्य अम्माँ ज़्यादातर सोती रहीं, अगर कभी आँखें खोलतीं तो नईम उनको जूस या पानी पिला देता, भोजन से उन्होंने इन्कार कर दिया था। उसने जबरदस्ती उन्हें बिस्कुल खिलाये थे- एक बार जूस का गिलास थामे उन्होंने अपने चारों और नज़र डाली और पूछा-
“नईम बेटा, क्या ये सब शरणार्थी हैं?”
“जी अम्माँ”। नईम ने कहा था।
“अल्लाह, तू इस सवारी की रक्षा कर, सुनते हैं कि रास्ते में अमृतसर में सिख ट्रेनों पर हमला करते हैं- बम फेंकते हैं।” अम्माँ ने फिर कहा।
“वो ऐसा नहीं कर सकेंगे, हमारी सुरक्षा के लिये फौज़ चल रही है।” नईम ने कहा था।
“शुक्र है अल्लाह का।” अम्माँ ने निश्चिंत होकर आँखें बन्द कर लीं और फिर थोड़ी देर बाद सो गइर्ं। जहाज़ के दूसरे यात्री भी लाइट बन्द कर के ऊंघ रहे थे। ज़्यादातर लोग टी.वी. देखने में व्यस्त थे। इक्का-दुक्का किताब पढ़ रहे थे। चारों तरफ़ देखने के बाद उसने अम्माँ की तरफ� देखा, तो उसका दिल टुकड़े-टुकड़े होने लगा। उसकी बहन ने उसे फोन पर बताया था कि अम्माँ ने वर्तमान से नाता तोड़ लिया है- और अब अधिकतर भूतकाल (माज़ी) में रहती हैं- मगर अम्माँ को देखकर उसको जो दुख हो रहा था वो बयान करने लायक नहीं था। शर्मिन्दगी का एहसास उसे अपने घेरे में ले रहा था। हर तरफ जैसे धुँआ ही धुँआ था, और ये काला धुँआ उसके दिल में उतरता जा रहा था। उसकी सारी सोचने की शक्तियाँ छीन रहा था। अम्माँ! उसकी अम्माँ जो इस वक़्त एक कमज़ोर सहमी हुई घायल चिड़िया की भाँति लग रही थीं- हमेशा कितनी स्वस्थ और अजेय हस्ती हुआ करती थीं। अम्माँ ही ने तो पिछले पैंतालीस बरसों में आये कठिन समय को कितनी आसानी से गुज़ार दिया था। वे सारी मेहनतें और वो काम किये जो उन्होंने कभी नहीं किये थे, न ही करना जानती थीं, एक शब्द भी शिकायत का ज़ुबान पर लाये बिना करती रहीं।
अम्माँ उन बुरे वक़्तों में अब्बा की राइटहैंड बनी रहीं, उनको सहारा दिया और हर ठोकर पर उनकी हिम्मत बँधाई -अम्माँ ही ने बच्चों की शिक्षा पर ज़ोर दिया, वर्ना अब्बा तो कारोबार में लगाने के हक़ में थे। अम्माँ ने कहा- नहीं, कारोबार छिन सकता है, बर्बाद हो सकता है, शिक्षा नहीं। उन्होंने घर का माहौल हमेशा पुरसुकून रखा, और मुश्किलों की घड़ी भी चुपचाप गुज़ार ली कि बच्चों की शिक्षा में रुकावट न आये और वे दिमागी तौर पर परेशान न हों। और आज जब हम इस क़ाबिल हैं कि उनको आराम और सारी दुनियावी खुशियाँ उपलब्ध कर सकें जो उनसे छीन ली गई थी। तो वो हर चीज़, हर खुशी, हर ग़म से लापरवाह हो गई थीं, हे ईश्वर! वो मेरी हिम्मत वाली और ममता से भरपूर अम्माँ कहाँ गईं? अम्माँ जो सारे मोहल्ले की मददगार थीं, हर एक के भले-बुरे में काम आने वाली, उन्हें सही मशविरा देतीं। वे इतनी क्रिएटिव थीं कि एक ही समय में कई-कई काम निपटा देतीं। आटा गूँध रही हैं तो किसी बच्ची को उर्दू पढ़ा रही हैं, किसी को कुरआन पढ़ा रही हैं तो साथ ही तरकारी भी काट रही हैं। अब उन्होंने अपने दिमाग़ की खिड़की को क्यों बंद कर लिया है और माज़ी (भूतकाल) में चली गई हैं। क्या हम इसके ज़िम्मेदार हैं? उसे अपने अन्दर से आवाज़ आती हुई महसूस हुई। हाँ! नईम अहमद अली तुम सब इसके ज़िम्मेदार हो- तुम सब! तुम सब अपने-अपने बेहतर भविष्य के लिये अपने माँ-बाप को छोड़कर चल दिये- फिर अपने भविष्य को बनाकर अपने बच्चों का भविष्य और बेहतर बनाने के लिये गारा, मिट्टी इर्ंट तलाश करने लगे- तुम अपने आगे ही आगे देखते रहे। कभी पीछे भी पलट के देख लिया होता? कभी ये तो सोचा होता कि जिस तरह तुम अपने बच्चों की ज़रा ज़रा सी बात पर घबरा जाते हो, और उनकी जुदाई का ख़्याल तुम्हें डरा देता है, कभी उनका भी ख़्याल किया होता, जो यही भावनायें दिल में छिपाये ख़ामोश बैठे हैं। शिकायत भी नहीं करते वो जो अपने सारे चैन-आराम तुम्हें सौंप कर और अपनी आवश्यकताओं और अपनी ज़ान को परे ढकेल कर तुम्हारे भविष्य को अपने खू़ने-जिगर से निर्माण करते वो ज़ात जो तुम्हारी और तुम्हारे भाई की जुदाई से तड़प-तड़पकर रही और कभी शिकायत का एक शब्द भी ज़ुबान पर नहीं लाया। कभी ये नहीं कहा कि बेटा, मैं बूढ़ी और कमज़ोर हूँ। मुझे उम्र के इन कमज़ोर पलों में तुम्हारे पास की, तुम्हारे साथ के ताक�त की ज़रूरत है। तुम लोगों की दूरी मुझे सदा बेचैन रखती है। उसे याद आया कि अम्माँ उसके दो हफ़्तों के विज़िट पर हमेशा हँस कर कहतीं- “तेरा आना न था ज़ालिम तम्हीद जाने की”- आने से पहले ही जाने की चर्चा शुरू हो जाती थी। अम्माँ कितनी मुद्दत से अपने तीनों बेटों से जुदा हैं। उसने हिसाब लगाया- नसीम भाई को तो पचास वर्ष हो गये अमेरिका गये हुए। उसे खुद बीस वर्ष हो रहे थे। बड़े बेटे की ग्रेज्यूएशन होने वाली थी और वो अमेरिका में पैदा हुआ था। उसकी तो एम.बी.बी.एस. करते ही शादी हो गई थी। नसीम भाई ने अमेरिका आकर शादी की थी और सलीम तो एम.एससी. करते ही इस्लामाबाद चला गया था। अच्छा ख़ासा सेटल था, और अम्माँ अब्बा को भी सुकून था कि एक बेटा तो मुल्क में है। मगर वतन में मारधाड़ से वो ऐसा बददिल हुआ कि एकदम नौकरी छोड़ आस्ट्रेलिया माइग्रेट कर गया। अम्माँ के सब बेटे सात समुद्र पार चले गये। और बेटियाँ कब साथ रहती हैं? ज़ाहिदा ब्याह कर सऊदी अरब गई, हामिदा कराची ही में थी। अब वो भी वहाँ से जाने वाली हैं और जाना न जाना उसके वश में थोड़े ही है। उसके पति का सारा परिवार कैनेडा चला गया। अब वो भी जा रहा है- और क्यों न जाये, उसके भाई तो पैरेन्ट्स को साथ लेकर गये थे-और हमने क्या किया? हमने अपने बूढ़े माता-पिता को अकेला छोड़ दिया। बहुत बड़ी गलती हुई- हममें से एक को तो उनके पास रहना चाहिये था। मुझे रहना चाहिये था, ये कोई बड़ी कुर्बानी नहीं थी। मुझे वापस आ जाना चाहिये था। शायद हम अब भी वापस जा सकें। मगर... मगर.... जब चिड़िया चुग गई खेत...
ओह.... ऐ ख़ुदा! हमने ये क्या किया?अपने माता-पिता को अपनी इच्छाओं पर कुरबान कर दिया। नईम अली अहमद के दिल में शर्मिन्दगी का एक तूफ़ान उठ रहा था और वाशिंगटन एअरपोर्ट पर अम्माँ को व्हीलचेयर पर बैठा कर जब वो उन्हें जहाज़ से विज़िटर लाउन्ज में लाये तो एहसासे जुर्म से (अपराध-बोध से) पसीने-पसीने हो रहे थे।
“मैं समझी थी कि ख़ाला जान हम सबको देखकर, हमारा घर देखकर बहुत खुश होंगी... मगर वो तो बस ख़ामोश हो कर रह गईं।” नईम की बीवी शम्सा ने कहा।
“तुम्हें पहचाना था उन्होंने?”
“हाँ, मुझे पहचान लिया था और अम्मी को याद करके बहुत रोई थी कि मेरी बहन मुझे छोड़कर चली गई... लेकिन वो बच्चों को नईम और नसीम कहती हैं और ‘सारा' को ‘हामिदा'- वो उदास स्वर में बोली-
“किसी को नहीं पहचाना?”
“मैं सोच रहा हूँ कि राज को फोन कर दूँ अगर वो चन्द घंटे निकाल सके...।”
“हाँ-राज भैया सॉयक्लाजी के माहिर हैं, शायद कुछ उपाय कर सकें। आप चेकअप करवा लें ख़ाला जान का।”
“अरे दादी अम्माँ, आपने सूटकेस अलमारी से क्यों निकलवा लिया? क्या कुछ रखना है?” जुनैद ने हैरान होकर पूछा। वो दादी को देखने उनके कमरे में आया था। घर में हर एक की ड्यूटी लगी थी। जो भी घर पर होता वो उनके पास जाकर बैठता,उनसे बातें करता, उनकी खैर-ख़बर रखता। नईम जब घर पर होता तो अधिकतर समय माँ के साथ गुज़ारता, उन्हें ड्राइव के लिये ले जाता या लॉन पर वो दोनों मियाँ बीवी, अम्माँ का हाथ-पकड़ कर टहलते।
“बेटा नईम, हम नये घर जा रहे हैं ना, इसीलिये मैंने तैयारी कर ली है।” जुनैद ने सूटकेस उठाया तो वो ख़ाली ख़ाली लगा।
“दादी अम्मा। मैं जुनैद हूँ, आपके बेटे नईम का बेटा, आपका पोता- सब मुझे जूनी कहते हैं।” जुनैद ने कहा।
“अच्छा! नईम के यहाँ बेटा भी हो गया और किसी ने मुझे बताया ही नहीं।”
“दादी अम्माँ, आप ही ने तो मेरा नाम रखा है जुनैद अली अहमद”- वो हैरान होकर बोला।
“हम आज नये घर जा रहे हैं- तुम्हारे अब्बा ने बनवाया है।” वो इसे ख़ाली-ख़ाली नज़रों से देख रही थीं।
राजप्रसाद नईम के क्लासफ़ेलो थे और न्यूजर्सी में रहते थे। उनका वहाँ क्लीनिक था। नईम का फ़ोन मिला तो अम्माँ की हालत सुनकर पहली फुरसत में देखने आ गये। नईम उसे अम्माँ के पास लाया।
“आदाब ऑन्टी!” राज ने सलाम किया।
“अच्छे रहो बेटा!” अम्मा ने बगैर उसकी तरफ� देखे कहा।
“ये राज हैं अम्माँ, मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं।” नईम बोला।
“अच्छा !” उनके चेहरे पर एकदम से रंग आ गया- “तुम अमृत भैया के बेटे हो - कैसे हैं तुम्हारे पिताजी माताजी?”
“पिताजी, माताजी?” वो कुछ देर ख़ामोश रहा फिर संभल कर बोला, “जी, वो सब ठीक हैं- आप को बहुत पूछा है।”
राज ने अम्माँ के साथ कोई एक घंटा गुज़ारा, उनसे बातें कीं - शारीरिक तकलीफ़ों की बातें कीं- अम्माँ ठीक ठाक दो तीन बातों का जवाब देतीं और फिर माज़ी (भूतकाल) में लौट जातीं और ऐसे लोगों के सम्बन्धित बातें करने लगतीं जिनका कोई वजूद ही नहीं था और फिर बड़े जोश से बतातीं।
“आज हम नये घर में जा रहे हैं।” बाद में नईम ने उससे उनकी हालत के बारे में बात की तो उसने कहा, “आंटी की दिमाग़ी अवस्था के कई कारण हो सकते हैं, उम्र का तकाज़ा भी हो सकता है।”
“मगर अम्माँ तो अभी सत्तर की भी नहीं हुईं- तुम्हारा क्या ख़्याल है? अलज़ाइमर तो नहीं है।” उसने परेशान स्वर में कहा।
“मेरे ख़याल में अलज़ाइमर के चिन्ह नहीं हैं- कभी कभी इन्सानी दिमाग़ भी ख़ुद का स्विच ऑफ कर लेता है- इन्हें पुरानी बातें याद हैं- मेमोरी तो है मगर पास्ट मेमोरी। हाल से इनकी दिलचस्पी नहीं है। इनकी ज़िन्दगी में इतनी उथल-पुथल हुई है, इतने परिवर्तन आये हैं और फिर फैमिली की जो फ्रीगमिन टेन्शन हुई है। हमारी ज़िन्दगी में इससे हमारी पहली नस्ल को बहुत नुकसान उठाना पड़ा है। जज़्बाती भी और शारीरिक भी- नईम तुम बता रहे थे कि तुम सहारनपुर के रहने वाले हो। फिर पार्टीशन के समय मैं खुद ही शायद सालभर का था और तुम्हारी भी यही उम्र रही होगी- मगर सहारनपुर में तो कोई फ�साद नहीं हुआ था। फिर.... फिर तुम लोग पाकिस्तान चले गये थे।” राज ने एक ही साँस में बात ख़त्म करके फिर से पूछा।
“नहीं भई... फ़साद भी नहीं था और हम पाकिस्तान गये भी नहीं थे, बस हम लोगों को घर से निकालकर लाहौर जाने वाली टे्रन में बिठा दिया गया था।” नईम ने कहा।
राज ने हैरत से पूछा- “वो क्यों? कैसे?”
“बात ये है कि मेरे अब्बा शहर में मुस्लिम लीग के सेक्रेट्री थे और इलेक्शन में उन्होंने बहुत काम किया था- अम्माँ अब्बा बताते थे कि उन्होंने बहुत से मुसलमानों के वोट मुस्लिम लीग को दिलवाये थे। यही अब्बा की वह ग़लती थी जिसने उन्हें बदनाम भी किया और जलावतन भी। वहाँ एक इंस्पेक्टर था जो मुसलिमों का सख़्त विरोधी था। अब्बा बताते थे कि आज़ादी के दो हफ़्ते बाद तीन चार पुलिस वाले आये और जबरदस्ती अब्बा को थाने ले गये और उन्हें बग़ैर कुछ कहे सुने हवालात में बंद कर दिया- अब्बा का बड़ा बिज़नेस था जो दादा से उन्हें विरासत में मिला था। उनकी चाँदी के बरतनों की दुकानें थीं जहाँ राजे महाराजे और नवाब आते थे। किसी को पता ही नहीं चला कि अब्बा के साथ क्या हुआ? सारे शहर में उनको तलाश किया जा रहा था। अम्माँ हलकान थीं। फिर एक महीने जेल में रखने के बाद उस इंस्पेक्टर ने अब्बा को लाहौर जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया कि जाओ अपने पाकिस्तान” नईम ने ठण्डी सांस ली। राज साँस रोके सब सुन रहा था। नईम ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “दो दिन बाद कस्टोडियन वाले आ गये कि हमें खबर मिली है कि घर के मालिक पाकिस्तान चले गये हैं अब ये मकान और सारी जायदाद कस्टोडियन के अधिकार में है। उन्होंने दो दिन की मोहलत दी अम्मा को घर छोड़ने की।”
राज ने पूछा- “क्या वो ऐसा कर सकते थे? हर चीज़ पर कब्ज़ा कर सकते थे?” नईम ने हाँ में सर हिलाते हुए कहा, “हाँ, वहाँ ऐसे बहुत से वाक़ियात हुए थे अगर बड़ा चला गया है तो बाक़ी भाई और घर वाले सब बेघर हो गये। अम्मी ने कुछ सन्दूक अमृतराय के यहाँ रखवा दिये और चन्द जोड़े कपड़े और तीन बच्चों को लेकर अपने एक रिश्तेदार के यहाँ चली गईं। बारह बेडरूम थे दादा की हवेली में और अब्बा अकेले वारिस थे। उनके रिश्तेदार ने अम्मी को बच्चों समेत और एक नौकर के साथ देहली जाकर हवाई जहाज पर लाहौर के लिये बिठा दिया। उस वक़्त हालात इतने खराब न थे। लाहौर में अब्बा के एक दोस्त थे उनको तार दे दिया- वो बेचारे एअरपोर्ट पर उन सबको लेने आये थे।”
राज ने अफ़सोस से सर हिलाया- नईम ने बात जारी रखते हुए कहा, “उन्हीं दोस्त ने रावलपिंडी में अब्बा को तलाश किया तो मालूम हुआ कि वो कराची जा चुके हैं फिर कराची में लोगों से पूछताछ कर अब्बा को खबर करवाई कि उनकी फैमिली आ गई है, वो फिर लाहौर आये और हमें कराची ले गये। मुझे तो वो कराची का पहला घर याद नहीं। उस वक़्त मैं चन्द महीनों का था। क़सीम भाई को याद है वो पाँच बरस के थे, उनसे छोटी बहन थी उस पर इन सब बातों का ऐसा असर पड़ा कि बीमार हो गई और चन्द दिनों में दुनिया से कूच कर गई। क़सीम भाई बताते हैं कि कराची में हमारा पहला पड़ाव पटेल पाड़े की एक पुरानी इमारत में था। एक बड़ा सा कमरा उस में एक कोने में खाना पकता था। एक कोने में नाली थी और छोटी सी दीवार थी तीन तरफ। एक बाथरूम था और संडास शेयर करते थे।
“अम्मी को शुरू-शुरू में कराची बिल्कुल पसंद नहीं आया। लाहौर उन्हें अच्छा लगा था- उन्होंने अब्बा से कहा था कि लाहौर में मर्द इतने सुन्दर होते हैं लम्बे-चौड़े ख़ुशशक्ल, मगर बोलते पता नहीं क्या हैं कि समझ में बिल्कुल नहीं आता।”
“उन्होंने पंजाबी कभी सुनी नहीं होगी।” राज हँस कर बोला।
“नहीं। और यहाँ एअरपोर्ट पर भी यही कह रही थीं, ‘वो अदा हो गया।' पूछने लगीं, बेटा हम पाकिस्तान पहुँच गये, अब तो वो इंस्पेक्टर हमारे पीछे पुलिस नहीं भेज सकता और ये कि ये लोग कितने लम्बे चौड़े और शानदार हैं। मगर ये पंजाबी मेरी समझ में नहीं आती हालाँकि अब वे बहुत अच्छी तरह से समझती हैं, और पंजाबी गानों की तो आशिक़ हैं।” नईम ने बताया।
“नईम, तुमने अभी बताया कि ऑन्टी ने पहले पहल पंजाबी सुनी तो वह उनकी समझ में नहीं आई। हालाँकि पंजाबी मुल्क का एक बड़ा वर्ग बोलता और समझता है। हमारी और तुम्हारी मदर जिस ज़माने की हैं- वो हजारों समस्याओं के बावजूद आज के दौर से बहुत शांतिपूर्ण और सुरक्षित था। लोग नई चीजे़ं कम देखते थे अख़बार भी कम लोग पढ़ते, रेडियो किसी-किसी के यहाँ होता था। और अख़बार में भी मारधाड़ और प्रलयों के दृश्यों, इतनी ख़बरें नहीं होती होंगी जितनी आजकल होती हैं। उन जैसी औरतों की ज़िंदगी का केन्द्र उनका घर पति और बच्चों के बच्चे होते थे। वे कभी तन्हा ज़िन्दगी नहीं गुज़ारती थीं। हमेशा भरे पूरे परिवार में रहने वाली तुम्हारी मदर को एक तंग अंधेरी खोली में रहना पड़ा तो उनपर न जाने कितनी क़यामतें गुज़र गई होंगी और सिर्फ एक सियासी पार्टी से सम्बन्ध रखने की सज़ा तुम्हारे परिवार को मिली, तुमसे तुम्हारी जायदाद भी छिन गई।” राज ने जैसे एक ही सांस में सब कह देने की कोशिश की।
“हाँ, अब्बा कहते थे कि उन्होंने कभी सोचा भी न था कि मुस्लिम लीग को सपोर्ट करके वो कोई ग़लती कर रहे थे, न उनका पाकिस्तान जाने का कोई इरादा था। जिस तरह कुछ मुसलमान कांग्रेस को सपोर्ट कर रहे थे, अब्बा ने मुस्लिम लीग की तरफ�दारी की और उसके लिये काम किया क्योंकि वो पाकिस्तान की माँग को मुसलमानों का उचित अधिकार समझते थे।” नईम ने रुक कर खिड़की के बाहर देखा और बोला।
“हम सबने बहुत कष्ट उठाये, यूँ समझ लो कि तकलीफों में ही आँखें खोलीं अम्मा-अब्बा पर वास्तव में बहुत कठिन समय गुज़रा। हम लोग पटेल पाड़े से रणछोर लाइन में दो कमरों के फ्लेट में जो अब्बा को एलाट हुआ था, गये, उसमें एक छोटा किचन था और बाथरूम टायलेट शेयर करना होता था। कमरे दो थे और आगे थोड़ी सी जगह थी, जहाँ खाना वगै़रह खाते थे। फिर अब्बा ने दस्तगीर में एक नई बस्ती में तीन कमरों का मकान बुक करा लिया और दस वर्ष बाद हम लोग उस मकान में आ गये। शुरू-शुरू में ये बस्ती नई-नई और साफ़-सुथरी थी। धीरे-धीरे सूरत बदलती गई। खराब मटेरियल से बनाई गई बिल्डिंगों में जिस तरह झरझरा कर चीजे़ं टूटती फूटती हैं- फर्श से प्लास्टर उखड़ जाता है। खिड़की, दरवाजे बन्द नहीं होते मगर हम लोगों ने डब्बों की तरह बने हुए कमरों में बचपन काट दिया, और जवान हो गये। अब्बा को दुकान एलाट हो गई थी बन्दर रोड पर और सिंध में कुछ ज़मीनें जो उन्होंने बेच कर पैसा हमारी शिक्षा में लगा दिया, अम्माँ इस घर में जज़बाती तौर पर सैटेल हो गइर्ं। पास-पड़ोस के लोगों से क्या पूरे मोहल्ले से सम्बन्ध थे। मगर हम जब अमरीका आ गये और नौकरी करने लगे तो हमने एक बड़ी गलती की बल्कि ये ख़ुदग़र्जी थी- सलीम भी उस वक़्त जॉब कर रहा था। अच्छे पैसे मिलते थे हमने नार्थ नाज़िमआबाद में एक प्लाट खरीदा और चार कमरों का एक अच्छा सा घर बनवाया। हमने ये नहीं सोचा कि अम्माँ अब्बा की क्या प्रतिक्रिया होगी। हमने ये नहीं सोचा कि जब हम मिलने जायें, तो एक अच्छा साफ-सुथरा मकान हो, और हर कमरे के साथ बाथरूम और नई स्टाईल किचन- अम्माँ ने साफ इन्कार कर दिया कि वो अपना घर नहीं छोड़ेंगी। मगर अब्बा ने समझाया कि भाग्यवान, बच्चे अपने बच्चों को लेकर आते हैं तो उनके रहने का कोई ढंग का ठिकाना तो हो।” हमारे लिये अम्माँ नये घर में शिफ्ट तो हो गइर्ं। मगर हमने उनका दिल तोड़ दिया था। हम जो दो तीन बरस में चक्कर लगाते थे, पन्द्रह दिन को नसीम भाई की अमेरिकन पत्नी कभी गई ही नहीं। वो कई-कई वर्ष न जाते, और अम्माँ अब्बा बेचारे इतने बड़े घर में अकेले दहलते रहते। हालात खराब थे, कोई अपने घर में सुरक्षित नहीं था फिर दो बूढ़े आदमी नौकरों के साथ, जिन पर विश्वास नहीं किया जा सकता था- अब्बा की मृत्यु के बाद अम्माँ बिल्कुल ख़ामोश हो गइर्ं। पुराने घर में, ऐसे रहते थे लोग कि अपने आँगन में से पुकार कर दूसरे घरवालों को आवाज़ दी जा सकती थी। रात या दिन, कोई भी वक़्त हो, लोग-बाग मौजूद मिलते। बाहर का कोई काम हो, मोहल्ले का कोई न कोई लड़का करने के लिये तैयार और यहाँ ख़ाली सूना घर और पड़ोसी उस वक़्त तक नहीं सुनते जब तक उसके घर की घंटी न बजाई जाये- हमने अपनी बहन हामिदा से कहा कि वो आकर अम्माँ के साथ रह ले और अपना घर किराये पर उठा दे- कई साल वो अम्माँ के साथ रही। और अब फिर अम्माँ का मसला था। क्योंकि हामिदा को भी विदेश जाना था। वो अफ�सोस भरे स्वर में कह रहा था ‘अजीब बात है- डूब मरने की बात है कि वे माँ-बाप जिन्होंने अपने ख़ूने-जिगर से हमें शक्ति और स्फूर्ति बख़्शी- अब वे हमारी ताक�त और ज़िन्दगी के केन्द्र थे और हम कमज़ोर और मजबूर थे और आज वो कमज़ोर और मजबूर हैं, तो हमारे लिये समस्या बन गये हैं। हम उनकी ख़ुशियों के रक्षक थे तो उनकी ताक�त क्यों नहीं बनते, क्यों नहीं बन सकते। उन्हें प्राब्लम क्यों समझते हैं हम?' नईम साँस लेने रुका।
“हाँ! तुम ठीक कहते हो- हमें अपने बड़ों के बारे में भी सोचना चाहिये। मगर अच्छी नौकरी, पैसा और आवश्यकताएँ इनकी भी तो उपेक्षा नहीं की जा सकती। ये भी तो वास्तविकताएँ हैं।” राज ने कहा- “ये भी ज़िन्दगी की सच्चाई है कि हमें अपना घर छोड़ना पड़ता है, ये क्या आसान होता है? दूसरे देश, दूसरे कल्चर में एडजस्ट होना, दूसरी जु़बान बोलना, मुश्किल ये है कि हमारे बुज़ुर्ग इसमें एडजस्ट नहीं हो पाते। अब मेरी माताजी हैं वो पिताजी की डेथ के बाद लंदन मेरे भाई के पास रहीं फिर मेरे पास आइर्ं फिर मेरी बहन के पास मुंबई गइर्ं। मगर कहीं भी उनका दिल नहीं लगा- और अब वो मेरठ में अकेले रहती हैं कि मुझे अब अपना कोना अच्छा लगता है। हमारे पैरेन्ट्स उस तरह नहीं रह सकते, जिस तरह हमने ज़िन्दगी से समझौता किया है। हमारी ज़िन्दगी कोई आसान रही है क्या?” वो पलभर को रुका फिर बोलने लगा, “हमने तो जलावतनी में रहना सीख लिया है, मगर हमारे पैरेन्ट्स को देश-शहर और अपना घर बदलना पड़े तो वे बिखर जाते हैं।”
तभी जुनैद की आवाज़ ने बातचीत में स्टाप लगा दिया। वो कह रहा था, “डैडी, डैडी दादी अम्माँ सूटकेस लिये हॉल में बैठी हैं कि अब नये घर जाना है।” राज और नईम ने एक दूसरे को देखा- फिर नईम ने बेटे से कहा-“जुनैद, तुम्हें मालूम है कि वे बीमार हैं।”
नईम ने हँस कर कहा- “डैडी वो बीमार कहाँ हैं, अच्छी ख़ासी तो हैं, और राज अंकल, दादी अम्माँ ख़ाली सूटकेस लेकर दूसरे घर जाने के लिये तैयार होती हैं।”
नईम ने तेज़ आवाज़ में कहा- “जुनैद, बकवास मत करो”, फिर होंठों में बड़बड़ाने लगा, “ये कमबख़्त क्या जाने इज़्ज़त आदर- इनका लालन-पालन जिस संस्कृति में हुआ है, उसकी डिक्शनरी में तो माता-पिता के सम्बन्ध से शब्द हैं ही नहीं- हे ईश्वर! ये हमारी नस्ल किस राह पर जायेगी? उसके दिल में दर्द की एक लहर सी उठी और पूरे बदन में फैल गई। एकदम से उनका जी हुआ कि वो उठकर अम्माँ का हाथ पकड़े और चलना शुरू कर दे, और उस वक़्त तक पैदल चलता रहे जब तक कराची न आ जाये और वो “दस्तगीर में अपने बचपन वाले घर में न पहुँच जाये।”
बच्चे माँ के साथ दादी अम्माँ को ड्राइव पर ले गये थे, वापसी पर जुनैद दादी का हाथ पकड़े हुए घर में दाखिल हुआ और सीधा उसके पास लाउंज में आया और बोला- “डैडी-डैडी, दादी आप को पूछ रही हैं।”
नईम ने माँ से पूछा, “जी, अम्माँ सब खैरियत तो है ना?”
अम्माँ ने कहा, “हाँ, बेटा मगर ये तुम मुझे कहाँ ले आये हो? लाहौर तो इतना भरा पूरा, इंसानों वाला शहर था, ये तो बिल्कुल उजाड़ सी जगह है।”
नईम हैरानी से माँ का चेहरा ताक रहा था- क्या अम्माँ वापस माज़ी से हाल (वर्तमान) में आ गई हैं?
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