शाहिदा अहमद की कहानी - काँच का खिलौना

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काँच का खिलौना जैसे ही दीवारगीर घड़ी की सूइयों ने पाँच बजने का एलान किया असद की कम्‍प्‍यूटर के की-बोर्ड पर चलती उँगलियाँ अकस्‍मात अपनी जगह...

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काँच का खिलौना

जैसे ही दीवारगीर घड़ी की सूइयों ने पाँच बजने का एलान किया असद की कम्‍प्‍यूटर के की-बोर्ड पर चलती उँगलियाँ अकस्‍मात अपनी जगह ठहर गईं  काम को जहाँ का तहाँ छोड़ कर वो फुर्ती के साथ ब्रीफकेस सँभाल कर सीट से उठ खड़ा हुआ। आज उसपर और दिनों की तरह बेज़ारी या उक्‍ताहट सवार नहीं थी- सुबह से वर्तमान परिस्‍थितियों की शारीरिक अंगों को झिंझोड़ती ख़बरों और आत्‍मा के भीतर बेज़ारी उँडेलती रिपार्टों ने कमज़ोर अवश्‍य कर रखा था। लेकिन दाऊद से मुलाकात की उम्‍मीद तमाम एहसासों पर भारी पड़ी।

दाऊद उसका बेटा था जो पिछले कई वर्षों से हफ़्‍ते के पाँच दिन अपनी माँ के पास, और वीकएन्‍ड के दो दिन उसके साथ गुज़ार रहा था। इस दो दिन की मुलाकात से असद को हफ़्‍ते भर के लिये ताकत का ईंधन मिल जाता था। वो ज़िन्‍दगी की तमाम तकलीफें दुख भूल जाता। यहाँ तक कि वो कष्‍टदायक दिन भी, जब इसी शहर कोपनहेगन में मेहनत-मज़दूरी का नपसंदीदा और कठोर काम करना वक़्‍त की मज़बूरी था- तेज़ बफ़र्बारी के मौसम में तन पर उचित गर्म कपड़े तक नहीं हुआ करते थे। लेकिन दूर वतन में इज़्‍ज़त और रुतबे वाले पिताजी समझते कि उन का अक़्‍लमंद बेटा अपनी योग्‍यता और डिग्रियों के बूते स्‍केन्‍डेनीवियाँ में उनका सिर ऊँचा कर रहा है।

वो यूँ तो एक दुबला-पतला सा साँवले रंग का मामूली से नीचे डीलडौल वाला व्‍यक्‍ति था लेकिन हिम्‍मत और हौसलामंदी ने उसके ज़ाहिरी व्‍यक्‍तित्‍व के मामूलीपन को हमेशा अपने अधीन रखा। यही वजह थी कि वो आज डेनिश-मीडिया का एक जाना माना नाम था। ज़ाहिरी शानो शौकत के बनावटी सिंगार या अपनी पर्सनाल्‍टी की कैद में रहता तो आज भी किसी होटल में प्‍लेटें धो रहा होता, या किसी फैक्‍ट्री में पुरजे़ ढालने में जुटा होता।

हर शुक्रवार की शाम जब हफ़्‍ते के काम की भारी थकन, गीली रेत की तरह उसके अन्‍दर जम कर बैठ चुकी होती तो बेटे से मुलाकात की उमंग एक नई शक्‍ति के साथ अंगड़ाई लेती, और वो ज़िन्‍दगी की हर समस्‍या भूलकर उसमें गुम हो जाता। गर्मियों के मौसम में बाप-बेटे लागेलसीने की किनारे की रेत पर छोटी-छोटी कलरफुल नेकर पहने, धूप से बचाव की तिनकों वाली टोपियाँ ओढ़े, एक-दूसरे में मगन कभी नार्वे जाने वाले सुन्‍दर समुद्री जहाज़ों को सामने से गुज़रते देख आनन्‍द उठाते, कभी नर्म-नर्म कुनकुनी धूप में जंगले के दूसरी तरफ़ वर्षों से गोल चिकने काले पत्‍थर पर बैठी जलपरी की मूर्ति के पास पानी में अठखेलियाँ करते फिरते सर्दियों में चमड़े के घुटनों तक ऊँचे जूते चढ़ाये, सर पर ‘एनारोक्‍स के हुड के अलावा ऊनी मफ़लर लपेटे सिटीटू की दुकानें झाँकते फिरते।

जब इस विंडो शर्पिग से जी भर जाता तो बाप-बेटे सड़क के किनारे किसी भी पार्क या खुली जगह, बिखरी हुई बर्फ़ समेट कर ‘स्‍नोमेन बनाने खड़े हो जाते, या फिर ताक-ताक एक-दूसरे पर बर्फ के गोले मारने के खेल में जुट जाते।

हर तरह के मौसम में थक-थकाकर घर पलटने पर वो ‘दाऊत' के लिये अपने हाथों से खाना तैयार करता और दाऊत लपक-लपक कर उसकी मदद करने की कोशिश में काम बढ़ाता रहता। रात देर तक दोनों आमने-सामने कालीन पर आड़े तिरछे पड़े एक दूसरे को किस्‍से कहानियाँ सुनाया करते, ऐसे में दाऊत अक्‍सर अपने और अपनी ‘डेनिश' माँ के गुलाबी रंग से उसकी साँवली रंगत की तुलना करते हुए पूछता है-

“फार (पिताजी) सर्दी, गरमी हर मौसम में तुम ‘टीन' क्‍यों रहते हो?”

“क्‍योंकि मेरी माँ ने मुझे इसी तरह पैदा किया है।” वो सर खुजाते हुए खिसियाहट के साथ कहता लेकिन इस जवाब से दाऊद की तसल्‍ली नहीं होती और वो बात आगे बढ़ाते हुए कहता है।

“तुम्‍हारी मोर (माँ) के पेट में सूरज था जो तुम टीन पैदा हुए और हमेशा टीन हो।”

उसके इन मासूम सवालों का असद के पास कभी कोई संतोषपूर्ण जवाब नहीं होता, वो अपने तौर पर उसे वक़्‍त से पहले रंग और नस्‍ल के अंतर की उलझनों में उलझाने में विश्‍वास नहीं रखने वाला था। अपनी पत्‍नी ‘फीनी' से अलगाव के बावजूद उसे इस बात पर विश्‍वास था कि वो बच्‍चे का मस्‍तिष्‍क उसके प्रति ख़राब नहीं करेगी- ऐसा सोचते समय उसके होंटों पर ईर्ष्‍या भरी मुस्‍कुराहट होती-

“नादान उम्र इसलिये सुन्‍दर होती क्‍योंकि इस उम्र में लोग बेख़बर होते हैं।” ऐसा उसका सोचना था।

बेटे की छोटी-छोटी शरारतें, अक़्‍लमंदी भरी बातें उसमें इस तरह शिगूफे खिलाती कि वो अपने चारों तरफ़फैली तन्‍हाइयों की धूप को भूल जाता है।

आज भी आफिस से निकलकर लपकता झपकता ‘फेनी' के घर पहुँचा मगर डोरबेल के जवाब में उछलते कूदते दाऊत के बजाये ‘फेनी' का नया इन्‍टोलक्‍चुअल दोस्‍त दरवाजे़ पर आया और पूछने लगा।

“वाडेतरतो (तुम्‍हारा क्‍या नाम) कौन हो तुम?”

असद का नाम सुनकर एक आलोचनात्‍मक दृष्‍टि डालकर तीखे अन्‍दाज़ में मुस्‍कुराया-

“हूँ ऽऽऽ... उसकी हूँ काफी लंबी थी फेनी अक्‍सर तुम्‍हारी चर्चा करती है।”

“दाऊद कहाँ है?” असद के लहजे़ में दुनिया भर की रुखाई सिमट आई, वो तो फेनी के साथ मोरमोर (नानी) के पास गया है- वो बहुत बीमार है ना इसलिये।

“कब वापस आयेगा?” उसके तनमन पर वो सारी थकन उतर आई जो दाऊद से मुलाकात की लगन में बेअसर हो गई थी।

“शायद कल सुबह।” उसने जवाब दिया- “अच्‍छा-फावेल (ख़ुदा हाफ़िज) असद ने थके स्‍वर में कहा।”

“फावेलं”

फेनी को दोस्‍त दरवाज़े के पीछे गायब हो गया- और वो पल जिन्‍हें अपने अन्‍दर भरने के लिये वो इस कदर बेचैन था, अपने अर्थ खोकर उकताहट भरी निराशा में तब्‍दील हो गये। वक़्‍त थम गया- अब उसके पास करने को कुछ नहीं था। वो आमाबोलिबोर्ड पर स्‍केन्‍डेनीविया होटल के सामने वाली झील के तरफ़ चल दिया, जहाँ छोटी-बड़ी बत्तखें शोर मचाया करती थीं। बाप-बेटे दोनों अक्‍सर बड़े शौक से घन्‍टों समुन्‍दरी खाड़ी को काट कर आगे बढ़ती हुई सड़क के बीच में से खुल जानेवाले पुल के किनारे खड़े होकर नार्वे, स्‍वीडन और जर्मनी से आने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियों के माल वाहक जहाज़ नोर्डह्यून और सोह्यून को छोटी-छोटी बंदरगाहों की तरफ़-सरफ़करते देखा करते।

मगर यहाँ पहुँच कर बेचैनी और बढ़ गई दिल बहलने के बजाय पहले से भी अधिक बोझिल हो गया। गरम शाम का को रोशन सूरज ‘पाइन' के गहरे हरे पेड़ों के पीछे बैठता जा रहा था- लेकिन प्रकाश अब भी चारों ओर फैला हुआ था उसने सोचा, किसी दोस्‍त के पास जाया जाये या किसी को घर पर बुला ले, मगर उसका दिल अपने बेटे के लिये रिज़र्व समय में किसी को हिस्‍सेदार बनाने पर तैयार नहीं हुआ-वो अकेला ही “लांगे लसीने” चला आया। पेड़ों और फुलवारी में घिरे एक अलग से कोने में शहजादी मेरी के बुत पर पिछड़ती धूप का सुनहरापन छन-छन कर पड़ रहा था- उसके बग़ल में ख़डा नंगे बच्‍चे का स्‍टैचू असद को अपने बेटे की तरह मासूम और दिलकश लगा शायद संसार के सारे बच्‍चों में ये मानूसियत और भोलापन ही एक समान होता हैं- मगर उम्र की एक मंज़िल पर दृष्‍टि इतनी सीमित और विज़न इतना सुकड़ जाता है कि सिर्फ़ अपने बच्‍चे के अतिरिक्‍त कुछ दिखाई नहीं देता- शायद इसलिये कि हम स्‍वार्थी है- खुद को पूजने वाले हैं और ये बीमारी हमारे खून में मिली होती है उसने सोचा शहज़ादी मेरी की, शून्‍य में गुम हो जाने वाली को कीमती इच्‍छा या अनमोल सपना खोजती आँखें, और चेहरे पर, बोलती गम्‍भीर ख़ामोश उसके अन्‍दर फलसफा उतारने लगी- काँसे में ढली डेनिश शहज़ादी के बुत के नीचे पक्‍के चबूतरे पर सर के ठीक सामने पीतल के ताबीज़ पर स्‍थानीय भाषा में खुदा हुआ था।

“वो हमारी ज़बान बोलती है और हमारे दिलों में रहती है थी।”

उसकी सोच उसकी छटी हिस (सिक्‍स्‍थसेंस) से उलझने लगी- बुत पर नज़रें जमाये ईश्‍वर जाने वो किससे सम्‍बोधित हुआ।

“जो हमारी भाषा बोलता और हमारे दिलों में रहता हो, उसके मुख पर इतना रंजीदा मौसम क्‍यों कर आ ठहरा ये कैसी उदासियाँ हैं जो इस वक़्‍त लाँगे-लेसीनिया में बसेरा डाले पड़ी है।”

पक्‍के रास्‍तों और हरे भर हिस्‍सों से आगे दृष्‍टि की सीमा तक समुद्री पानी को चादर के किनारे टिकी काली चट्‌टान पे अपने प्रियतम की राह ताकती जलपरी पूर्णतया इंतज़ार बनी बैठी थी, जो ज़मानों पहले उसके दिल में अपनी मुहब्‍बत का कभी न बुझने वाला जादुई चिराग़ रोशन करके ‘स्‍वीडेन' की तरफ़ बहने वाले गहरे पानी के किनारे आबाद बस्‍तियों में कहीं खो गया- बेचारी जलपरी तब से अब तक पानी के इस रास्‍ते पर नज़र जमाये इस वाक्‍य की व्‍याख्‍या बनी बैठी थी कि बहुत सी मोहब्‍बतें हमारी इबादतों की तरह कज़ा हो जाती हैं। (छूटकर फिर से पूरा करना)

शाम ढल कर रात उतर आई। शहज़ादी मेरी और जलपरी के बुत अन्‍ध्‍ोरे में खोने लगे चाँद की छाया रात में कान से गिरी बाली की तरह शांत पानी पर चमकने लगी- पार्क के कोने वाले होटल में आर्केस्‍ट्रा पर उभरती वायलन की दर्दीली धुन ने उसके अन्‍दर चुटकियाँ भरती तन्‍हाई को भय के करीब कर दिया- फ्रिन्‍च विन्‍डोज़ के साफ़ शीशों के दूसरी तरफ़मद्धिम-मद्धिम रोमानी रोशनी में कोमल फूलों के गुल्‍दस्‍तों से सजी टेबलों के इर्द-गिर्द बैठे खुशख़याल और सुन्‍दर जोड़े मुहब्‍बत भरी बातों में व्‍यस्‍त दिखाई दे रहे थे। घास का वह हिस्‍सा जिस पर वो बैठा था, शबनम से भीग गया था उससे कहीं अधिक भीगापन उसके अन्‍दर उतर चुका था।

मुहब्‍बत क्‍या है? क्‍यों पैदा होती है, और क्‍यों खत्‍म हो जाने पर भी एक दिली लगाव बनी रहकर दुखी किये रखती है। उसके अन्‍दर एक हूक सी उठी और ज़िन्‍दगी की किताब के पन्‍नों पर ‘फ़ेनी' के साथ होने वाली पहली मुलाक़ात शब्‍दों की तरह जुड़ती चली गई।

उस दिन वो अपने डेनिश दोस्‍तों की महफिल में इस बहस में उलझा हुआ था, “आख़िर क्‍या कारण है 1949 के बाद डेनिश पब्‍लिशरों ने हिन्‍दुस्‍तानी साहित्‍य की तरफ़ ध्‍यान देना छोड़ दिया- क्‍यों उनकी दिलचस्‍पी केवल भारतीय अध्‍यात्‍मवाद और जाति की पहचान जैसे विषयों की ओर मुड़ गई।”

“आश्‍चर्य है, बिल्‍कुल सामने की बात तुम्‍हारी समझ में नहीं आ रही- ये कोई ज़िन्‍दगी और मौत जैसा अक़्‍ल से भी बढ़कर विषय है?”

उसने चौंक कर गरदन घुमाई-एक अपरिचित दिलकश सूरत पूरे यक�ीन के साथ संबोधित थी।

“ज़ाहिर है गिरह कितनी ही छोटी क्‍यों न हो, जब तक खुल न जाये गिरह ही रहती है। ज़रूरी नहीं कि जे़हन की हर उलझन ज़िन्‍दगी और मौत के हल हो जाने वाले मसले जैसी ही हो।”

अहद के टुकड़ा तोड़ जवाब पर वो खुले दिल से मुस्‍कराई।

“हाँ- ये तो है, इस बात पर मैं तुमसे पूरी तरह सहमत हूँ वाकई गाँठ छोटी हो या बड़ी, खुलने तक गाँठ ही रहती है।”

“क्‍या ये मुमकिन है कि वो सामने की बात जो मुझे नज़र नहीं आ रही उस तक मेरा मार्गदर्शन कर सको।” असद अभी तक अपने सवाल की गिरह में उलझा हुआ था।

“हाँ-हाँ क्‍यों नहीं, देखो ना, सीधी सी बात है कारोबारी दिमाग़ कारोबारी प्रधानता के केन्‍द्र पर घूमता रहता है- डेनिश लोगों की युवा पीढ़ी हिप्‍पीइज़्‍म के आन्‍दोलन से उक्‍ता कर आध्‍यात्‍मिक परख की तलाश में भटक रहा है इस विषय पर लिट्रेचर उनकी ज़रूरत है- अतः उनकी इस ज़रूरत से हमारे पल्‍बिशर अपनी ज़रूरत पूरी कर रहे हैं- इसलिये अब हिन्‍दुस्‍तानी साहित्‍य का क्‍या मतलब?”

“क्‍या मतलब?” दिलकश सूरत का जबाव था।

“कमला की लेडी हो- एक पल में सारी उलझन दूर कर दी बहरहाल धन्‍यवाद”। असद की आँखों में तारीफ़ के जुगनू टिमटिमाने लगे।

“मगर तुम्‍हारे जवाब से सवाल ये पैदा होता है कि पहले उस युवा पीढ़ी के हिप्‍पीज़्‍म की ओर मुड़ने के क्‍या कारण थे- और अब उससे उकता कर आध्‍यात्‍म की तलाश में भटकने के क्‍या कारण हैं।”

“क्‍या तुम जैसे बुद्धिमान व्‍यक्‍ति को भी सामने को चीज़ देखने का लिये दूसरों की दृष्‍टि की इतनी ज़रूरत होती है? डेनिश लेडी ने पूछा। असद अन्‍दर ही अन्‍दर खिसिया कर रह गया, उसे अच्‍छी तरह से पता था सामने बैठी प्रति योगी इतनी भोली हरगिज़ नहीं थी, जितनी मासूमियत से उसने सवाल किया था- असद के लाजवाब होकर कसमसाने पर उसने बात आगे बढ़ाई।”

“ये इंसानी मनोविज्ञान की गुत्‍थी है माई डियर ना मालूम जिसके बारे में फ्रायड का कहना है कि आदमी अपना दुश्‍मन ख़ुद होता है, शायद अपनी इस दुश्‍मनी का एहसास ही हमारी तमामतर बेचैनी और बेकरारी का कारण है तुम क्‍या कहते हो?”

“मुझे इस बारे में सिर्फ ये कहना है कि मेरा नाम असद है।”

“और मैं फ़ेनी।”

वो खिलखिला कर हँसती हुई ज़रा सा आगे झुक आई गहरे कटाव के गरेबान से झाँकती खुलेपन पर असद ने सटपटा कर आँखें चुरा लीं।

“लाहौल वला कुव्‍वतः, हम एशियाई भी बस, सिवाय मेरे किसी और पर इस खुलेपन का रत्ती बराबर असर नहीं हुआ”। उसने खुद को डपटा, फिर उसकी हैरत की सीमा न रही, जब सुन्‍दर और रोशन दिमाग़ फेनी, जिस ने पहली नज़र में ही उसे अत्‍यधिक प्रभावित कर दिया था- चन्‍द मुलाक़ातों में उस पर जी जान से मर मिटी, असद ने कई बार अपने व्‍यक्‍तित्‍व की उस खूबी को जानना चाहा, जिसकी तपिश से उस जैसी औरत पिघल कर मोम हो गई।

“हुस्‍न का स्‍पष्‍टीकरण इसके अतिरिक्‍त और क्‍या हो सकता है शहज़ादे, कि ये देखने वाले की आँख में होता है।”

“बड़ा उलझा हुआ मामला है- समझ में नहीं आता, तुम यकीन करो तुम्‍हारे विज़न पर या अपनी कम्‍यूनिटी की आम राय पर कि मैं एक बदसूरत व्‍यक्‍ति हूँ।” असद के मुँह से स्‍पष्‍टवादिता झलक रही थी।

“तुम्‍हारी सुन्‍दरता, तुम्‍हारी ज़हीन आँखों, जागृत दिगाम और ज्ञान की प्‍यास में छिपी हुई है। सीप में छिपे मोती को देखने के लिए पारखी नज़र की ज़रूरत होती है।” फेनी का जवाब था।

“इसका मतलब है तुम्‍हारे पास वो निगाह है।” असद ने जिज्ञासा से पूछा।

“हाय रे इंसान की कमज़ोरियाँ, अब तुम बार-बार अपनी तारीफ़ सुनना चाहते हो मगर ये मुझसे नहीं होगा, क्‍योंकि सिर्फ सुन्‍दरता की तारीफ़ करना मुहब्‍बत की तौहीन है।” उसने फिर कहा।

“मुहब्‍बत!” असद का दिल अनायास धड़कने लगा।

“हाँ मुहब्‍बत, इसमें अचंभे की क्‍या बात है?” उसने असद की आँखों में आँखें मिला निःसंकोच स्‍वीकार करते हुए चाहते से कहा।

“दिल जिस मर्द पर आ जाये वही सुन्‍दरता और पुरुषत्‍व के यूनानी देवता के जिस्‍म में ढल जाता है शहज़ादे हर जिस्‍म की अलग केमिस्‍ट्री की तरह हर दिमाग़ के मनोविज्ञान में भी अंतर होता है, मेरा मनोविज्ञान कहता है कि सुन्‍दरता मानव के कार्य में होती है, उसके ज्ञान और दूरदर्शिता में होती है गोरे, काले रंग, छोटे बड़े क�द तीखे और भद्दे ख़ाको में नहीं”।

फ़ेनी के फूँके हुए जादू भरे मंत्र से, गुमान ही नहीं बल्‍कि यक�ीन हो गया कि वो वाकई अपोलो है।

दोनों मुहब्‍बत की मस्‍ती में गुम ‘साक्‍सो ग्रामिया टीकोस की लोक किताबो, ईश्‍वर और इंसान, अच्‍छे-बुरे या साइंस और धर्म के मेल-जोल को शब्‍दों के गीतों में नापने और धरती की नेमतों और कष्‍टों को इंसानी स्‍वभाव के तराज़ू में तौलने लगे सुबह से शाम और रात से सुबह हो जाती है। हंसों के जोड़े को समय गुज़रने का पता ही न चलता तन से ज़्‍यादा दोनों एक दूसरे की अक़्‍लमंदी और विद्वता के गुलाम थे अजीब सी मुहब्‍बत थी उनकी जिसमें चाहत का इज़हार कम विज्ञान, फ़लसफ़ा अधिक नाज़ो अंदाज़ से बघारा जाता ऐसे में अचानक पाकिस्‍तान से पिता जी ने शादी का सवाल खड़ा कर दिया उत्‍तर में असद ने साफ़-साफ़ सब लिख भेजा।

“एक छोटे से कस्‍बे के शहर की घरेलू कम अक़्‍ल नारी मेरी पिता जी के दबाव से बचने के लिये दोनों ने जल्‍दी से शादी कर ली, शादी के सिर्फ़ एक साल के अन्‍दर ‘फ़ेनी' इतनी अच्‍छी उर्दू बोलने और समझने लगी जितनी वो वर्षों की प्रैक्‍टिस के बाद भी डेनिश सीख न सका असद की संगत में अब वो डेनिश क्‍लासीकी साहित्‍यकारों, साहित्‍य के प्रति रूजहान के अलावा ग़ालिब और इकबाल को भी किसी हद तक जानने लगी, एन. एम. राशिद.मीराजा और फैज़ के नाम अजबी न रहे-ज़िन्‍दगी बहुत सुन्‍दर और पूर्ण महसूस होने लगी। दाऊद की आगमन ने इसे नये अर्थ दे दिया मगर जैसे ही असद की ज़िन्‍दगी का शून्‍य भरने लगी, फ़ेनी में कहीं अन्‍दर ही अन्‍दर बेवज़नी की दीमक ने जगह बनाना शुरू कर दिया। घर के काम काज, पति की फ़रमाइशों और बच्‍चे का देख भाल के बाद ‘समय' को अपने ढंग से इस्‍तेमाल करने की गुंजाइश बहुत कम निकलती समय की कै�द और ज़िम्‍मेदारियों से बेपरवाह ज़िन्‍दगी का ख़याल मुश्‍किल हो गया।

किताब, शोध और बुद्धिमान दोस्‍तों की संगत, सब प्राथमिकताएँ बदल गईं आये दिन अनिश्‍चित समयों की लम्‍बी बेबी सिटिंग एक महँगा सौदा था शौक की तरह पूरी करने के लिये आर्थिक हालात इस फिज़ूल ख़र्ची के लायक� नहीं थे ज़िन्‍दगी में आने वाली इस कमी को पूरा करने के लिये वो घर पर अक्‍सर इल्‍मी और साहित्‍यिक चर्चाओं, या शेरे अदब की महफ़िलें सजाने लगीं, मगर यहाँ भी एक एशियाई मर्द के घर में पत्‍नी के तौर पर इन अप्रिय ज़िम्‍मेदारियों ने उसके शौक के रास्‍ते रोक लिये, जिनकी वो अभ्‍यस्‍त नहीं थी। असद की इच्‍छा पर मेहमानों के लिये मिर्च मसालों वाले खाना पकाना, महफिल के बीच से उठकर चाय या काफ़ी बना बनाकर लाना, दाऊद के रोने की आवाज़ पर आधी बात ज़बान पर और आधी दिल में रखे उसके बिस्‍तर तक जाना मानसिक एकाग्रता ग़ायब हो जाये तो कैसा आनन्‍द कहाँ का आनन्‍द, किसी अवसर पर मदद के लिये असद की तरफ़ देखती तो असद द्वारा काइयेपन का प्रदर्शन करना, और नज़रें चुराना वो क्‍या महसुस करने लगी थी? उसके अन्‍दर टूट फूट की कौन सी क्रिया शुरू हो चुकी थी- असद इस पूरी क्रिया से अंजान रहा, और बहुत कुछ फ़ेनी के अन्‍दर लावे की तरह पकने लगा उसने उस ओर ध्‍यान देने की ज़रूरत ही नहीं समझी।

यद्यपि वो समानता के फ़लसफे का समर्थक था, लेकिन नेचुरल स्‍वार्थ की हमेशा यही माँग रही कि आफ़िस से घर आये तो घर साफ़ मिले, बीवी बनी सँवरी ताजा दम मिले, बच्‍चा हँसता मुस्‍कराता मिले, मेहमान आये हो तो टेबल पर पश्‍चिमी ढंग से खाना परोसा जाये। फ़ेनी की अक़्‍लमंदी और इन्‍टेलिक्‍चुअल सोच के विकास को उसने स्‍वयं ही दूसरा दर्जा दे दिया था वो मंतर जो फ़ेनी ने उसके कानों में फूँका था सर चढ़कर बोल रहा था। वह स्‍वयं को सचमुच का अपोलो देवता और फ़ेनी को आरती उतारने, बन्‍दगी करने वाली दासी समझकर बरतने लगा था जिसके कारण एक दिन आफ़िस से घर आया तो फ़ेनी ने अपने विशेष ठहरे हुए अन्‍दाज़ में उसे सूचित किया।

“मेरा तुम्‍हारा और साथ अब सम्‍भव नहीं रहा इसलिये तुमसे अलगाव ज़रूरी हो गया है शहज़ादे।”

“क्‍या!” असद ने अविश्‍वास से उसे देखा।

“हाँ, तुम्‍हें एक अक़्‍लमन्‍द साथी की नहीं बल्‍कि शत-प्रतिशत एक रिवायती पत्‍नी की ज़रूरत है”।

“तुम ऐसा कैसे सोच सकती हो? क्‍या तुम्‍हें मुझ से मुहब्‍बत नहीं रही या मैंने किसी पल तुम से बेवफ़ाई की है?” असद ने सफ़ाई दी।

“ऐसा कुछ नहीं है, न मैंने तुमसे मुहब्‍बत करना छोड़ा है, और न ही तुमने मुझसे कभी बेवफ़ाई की है मगर वफ़ा और मुहब्‍बत की कीमत के रूप में मुझे स्‍वयं को गिरवी रखना स्‍वीकार नहीं। अच्‍छा होता अगर हम ज़िन्‍दगी भर एक दूसरे के महबूब रहते, तुम अपने घरवालों का पसंद की हुई देहाती लड़की से शादी कर लेते, वह सुबह शाम खुशी-खुशी तुम्‍हारे लिये मिर्च मसालों वाले भेजन बना कर तुम्‍हें खिलाती, तुम्‍हारे लिये गाती, गुन-गुनाती, बदबूदार मोज़े, मैली बनियान धोती, गन्‍दे कालीन साफ़ करती, बाथरूम चमकाती कपड़े इस्‍त्री करती और नाराज़ होने के बावजूद तुम्‍हारी इन सारी ज़रूरत तुम्‍हारी इच्‍छा के अनुसार पूरा करके अपने औरतपन का सुबूत देती। इसके लिये ये सब करना सम्‍भव होता, क्‍योंकि उसे जन्‍म से ही इसके लिये तराश ख़राश कर तैयार किया गया होता। उसकी टे्रनिंग में पति के बेडरुम का साथी बनकर संतुष्‍ट रहना शमिल होता इससे आगे की किसी इच्‍छा को शायद बेचारी उचित नाम देने से भी अंजान होती।”

इस तरह असद के न चाहने के बावजूद दोनों के रास्‍ते अलग हो गये। न वो आपस में लड़े-झगड़े न एक दूसरे पर कीचड़ उछाला, न ही किसी पर कोई इल्‍ज़ाम लगाया मगर इसके बाद हुआ यह कि ज़िन्‍दगी के तमाम खुशनुमा रंग फीके पड़ गये। एक बेनाम सी हालत असद के दिल को अन्‍दर ही अन्‍दर चाटने लगी। वो हँसता भी, मुस्‍कुराता भी लम्‍बी-लम्‍बी ईल्‍मी और फ़िलासफिकल तर्क वितर्क करता लेकिन उसके अन्‍दर एक स्‍थाई सन्‍नाटा कुन्‍डली मार के बैठ गया, साधू सन्‍तों जैसी चुप्‍पी ने धूनी रमा ली।

दाऊत अब भी पहले की तरह उसके जीवन में शामिल रहा। दोनों उसके बँटवारे के लिये कोर्ट-कचहरी नहीं गये, न ही चिल्‍ड्रन कस्‍टडी की अदालत में जाने की नौबत आई। आपसी रज़ामंदी से बिना किसी लड़ाई-झगड़े के बेटे की जिम्‍मेदारी आपस में बाँट ली अब वो सप्‍ताह के पाँच दिन माँ के पास, और छुट्‌टी के दो दिन बाप के साथ गुज़ार रहा था। दोनों ने उसे शहर के बेहतरीन स्‍कूल में दाख़िल कर रखा था।

असद अपनी ख़ुशी से उसके तमाम तालीमीख़र्चे उठाये हुए था बच्‍चे की ओपन इविनिंग में दोनों रेग्‍यूलरली इकट्ठे शामिल होते। दोनों पूरी लगन दिलचस्‍पी एवं ईमानदारी के साथ अपनी ज़िम्‍मेदारियाँ निभा रहे थे दोनों अपने बेटे को भविष्‍य का एक सुलझा हुआ पूर्ण इंसान देखने के इच्‍छुक थे। दोनों अपने ग़ैर ज़िम्‍मेदारी या जज़्‍बाती कार्य से बेटे के व्‍यक्‍तित्‍व को सुरक्षित रखने की इच्‍छा रखते थे, दोनों ही की कोशिश थी नाकाम पति-पत्‍नी की तरह नाकाम माँ-बाप साबित न हो बेटे पर घर की टूट-फू�ट का कम से कम प्रभाव हो।

फ़ेनी से जुदाई की घटना ने असद को अजीबो ग़रीब तजुरबे का सामना कराया। वो ज़िन्‍दगी का अकथनीय पल था जब वो पहली बार स्‍वयं को भूल कर इस ख़याल से बिलख बिलखकर रो दिया।

“अब क्‍यों कर दाऊद पहले जैसे खुशहाल बच्‍चे की तरह हर छुट्‌टी के दिन मेरे साथ अठखेलियाँ कर सकेगा? हम किस तरह पार्क की झील में बत्तखों के भोजन झपटने का खेल उसी शौक� से देख सकेंगे? क्‍या ये सब ख्‍़वाब होकर रह जायेगा, हम बाप-बेटे की दोस्‍ती, हमारा एक दूसरे पर विश्‍वास।”

इन ख़यालों ने उस नश्‍तर की तरह काटा मगर ग़नीमत हुई कि ऐसा कुछ नहीं हुआ बहुत कुछ मिटकर भी बहुत कुछ बचा रहा अलगाव के बाद जब वीकएण्‍ड पर दाऊद के साथ सैर को निकला तो उसके सवालों की कल्‍पना कर-कर के वो अन्‍दर ही अन्‍दर डर से काँप रहा था कि अब हम सब एक साथ क्‍यों नहीं रहते?

“आफ़िस से आने के बाद हमारे पास आने के बजाये कहाँ चले जाते हो?”

“तुम और फेनी अब भी मेरे फादर और मदर हो तो मेरे साथ एक होकर क्‍यों नहीं रहते?”

मगर दाऊद ऐसे सवालों के बजाये वो बाप से सूरज की तरह जलते चेहरे की परेशानी अनुभव करके कुछ पल चुप चाप उसकी आँखों में आँखें डाले पलक झपकाये बिना देखता रहा फिर बेताब होकर अपनी छोटी-छोटी बाँहों के घेरे में जकड़कर उसे चूमते हुए बोला-

“फारयाई एल्‍सकरवाई डैड, मुझे आप से प्‍यार है।”

तब असद का दिल चाहा कि ऊँची आवाज़ में रोते हुए अपने भाग्‍य से सवाल करे-

“स्‍वयं को ख़ुशनसीब कहूँ या बदनसीब? दाऊद की तरह प्‍यार तो फ़ेनी को भी मुझ से अब तक है फिर मुहब्‍बत का ये कौन सा प्रकार है जो मेरे मुक�द्‌दर में लिखा गया है?”

यह ठीक है, मुझ से वक़्‍ती तौर पर एक स्‍वार्थी आदमी बन कर फेनी को समझने में ग़ल्‍ती हुई। फेनी का ये सवाल भी सही है कि “उसकी दिमाग़ी उड़ान और इल्‍मी योग्‍यता को मिर्च मसालों वाले एशियाई खानों की टेबल पर चुनवाने की दिशा में मोड़ना ही उद्देश्‍य था, उसकी योग्‍यता इस हद तक सीमित देखना चाहते थे तो फिर पिता की पसंद की देहाती लड़की को अपनाने में क्‍या बुराई थी? मगर फ़ेनी ये बातें घर तोड़े बिना भी उसे बता सकती थी क्‍यों स्‍वयं को मनवाने की कोशिश किये बग़ैर ख़ामोशी से सोचती रही, अन्‍दर ही अन्‍दर कुढ़ती रही, और निश्‍चय करके अलग होने का प्रस्‍ताव रख दिया, लाख समझाने और शर्मिन्‍दगी प्रकट करने के बावजूद वो अपने फैसले को बदल नहीं सकी।”

“कहीं मुहब्‍बत ऐसे भी की जाती है?”

कोशिश के बावजूद असद को अपने इस सवाल का जवाब नहीं मिल सका। ऐसे उलझे हुए रेशम को सुलझाने वाली उसकी ज़िन्‍दगी से जा चुकी थी। अब तो ले दे कर दाऊद से जुड़ी ख़ुशउम्‍मीदी का ईंधन ही ज़िन्‍दगी की कमाई थी वो हैरत से सोचता।

“लोग कहते हैं औलाद माताओं को ज़्‍यादा प्‍यारी होती है, मगर कितनी? मेरे जीवन की सबसे बड़ी दौलत मेरा बेटा है क्‍या उसकी माँ के दिल में उसके लिये मुझ से ज़्‍यादा चाहत है?”

फिर वही सवाल मगर जवाब देने वाला कोई नहीं। रात पूरी भग चुकी थी, असद के पास गिनने के लिये ज़्‍यादा सोच के मोती नहीं बचे थे हर तरफ़ फैले हुए ‘ह' के वातावरण शहज़ादी मेरी, किंग फ्रेडिक, और जलपरी के बुत रात का हिस्‍सा बन चुके थे सिर्फ पाईन के पेड़ों को छूकर गुज़रने वाली समुद्री हवा की सरसराहट और पानी का शोर ज़िन्‍दा था कोने वाले रेस्‍तराँ (होटल) की बत्तियाँ बुझ गई थीं, ज़िन्‍दगी दम तोड़ चुकी थी दूर-दूर तक सन्‍नाटा ही सन्‍नाटा था। उसे लगा उसका दिल सीना तोड़ कर बाहर आ गया है।

अगले दिन तबीअत की बेज़ारी से उकता कर वो नाश्‍ते पानी के चक्‍कर में पड़े बग़ैर सुबह से ही वाइन पीने के काम में जुट गया। टेलीफोन के झंझट से बचने के लिये जवाबी लगा कर घर की ख़ामोश दीवारों में अपनी कम्‍पनी से आनन्‍दित होना अच्‍छा महसूस हो रहा था- फिर अपनी फिर अपनी ही आवाज़ में अपना झूठ सुनने में मज़ा आने लगा। हर घंटी पर रिकार्ड किया मैसेज तोते की तरह पाठ को रटने लगता।

“आपकी काल फौरन रिसीव न करने के लिये क्षमा चाहता हूँ कृपया लम्‍बी बीप के बाद अपना नाम और टेलीफोन नम्‍बन बता दीजिये।”

पहली फुरसत में आप को काल करूँगा।

“हा-हा-हा”। वो फेफड़ों की पूरी ताक�त से हँसा।”

“साइंस तेरी जय हो।” उसने ऊँची आवाज़ में नारा लगाया- “वाह जी वाह कमाल की चीज़ है, बन्‍दे से खु़द अपने मुँह से झूठ बुलवाती है साली।”

निहार मुँह पी जाने वाली वाइन का नशा व्‍हिस्‍की जैसा असर दिखा रहा था- कितनी ही अपरिचित कॉल रिकार्ड होने के बाद दोपहर के वक़्‍त दाऊद की मीठी आवाज़ रिसीवर में गूंजी-

“फार हम मोर-मोर के पास से वापस आ गये हैं मेरा सन्‍देश मिलते ही मुझे लेने आजा ओ, याये सावनादाई (तुम कैसे हो, मुझे बहुत याद आये)”

“अभी आया मेरी जान”। बेटे की पक्षी जैसे चहक ने असद की तमाम सुस्‍ती पल भर में उड़न छू कर दी वाइन का भरा ग्‍लास और अधखुली बोतल, जहाँ की तहाँ छोड़ कर, वो कमान से निकले तीर की तरह उसे लेने जा पहुँचा कहाँ का नशा, कैसा आलस्‍य।

“फार (पिताजी) तुम बहुत अच्‍छे हो”। वो शोख़ी से मुस्‍कुराया।

“इस खु़शामद का क्‍या मकसद”। उसने बेटे को कसकर बाँहों में लेते हुए पूछा- “आज आप मुझे ‘ट्‌यूली' ले चलेंगे और पीज़्‍ज़ा का लन्‍च करायेंगे हैं ना?” उसकी आँखों में शरारत नाच रही थी।

“तो इसलिये हो रही थी बाप की तारीफ़ बेईमान”। असद ने बनावटी गुस्‍से से घूरा और फिर दोनों खिलखिला कर हँस पड़े। न अपने पसंदीदा रेस्‍टोरेन्‍ट में पीज़्‍ज़ा का लंच उड़ानें, ट्‌यूली पार्क में झूलों के साथ इंसाफ़ करने, और फिर पकड़ा पकड़ी जैसे थका देने वाले खेल के बाद बाप बेटा हर दिन, रात को होने वाली पारंपरिक आतिशबाजी की जगह के पास ही पड़ी बेंचों में से एक पर बैठकर सुस्‍ताने लगे। सामने कई बुज़र्ग लोग हरी घास की ज़मीन पर बैठे धूप सेंकने का मज़ा ले रहे थे- जापानी पगोडे की स्‍टाइल में बनी होटल की सीढ़ियों पर कहकहे लगाते बच्‍चे उछल कूद में व्‍यस्‍त थे- पक्‍की सड़कों पर अनगिनत लोगों का आना-जाना लगा था मगर असद दाऊद के सिवा कुछ नज़र नहीं आ रहा था। उसे निगाहों के घेरे में समेटे वो पूरी कायनात अपने सामने देख रहा था, शायद उसकी आँखों में उतरे मुहब्‍बत के जुगनू गरमी के मौसम की इस चमकीली धूप से भी ज़्‍यादा रोशन थे। तभी दाऊद ने अपने घुटनों पर रखे असद के हाथ को उठाकर होंट से चूमते हुए धीरे से कहा-

“फार याय एलस्‍कर वाई (डैडी मुझे आप से मुहब्‍बत है) उससे भी ज़्‍यादा जितनी तुम्‍हें मुझसे है मोर कहती है तुम बहुत ग्रेट आदमी हो मुझे उस से भी बहुत प्‍यार है।”

“वो स्‍वयं भी बहुत अच्‍छी, बहुत प्‍यारी है और तुम तो हो ही हम दोनों की जान।” असद ने प्‍यार से उसके बाल बिखेर दिये।

“तुम्‍हे पता है फार, तुम मेरे आडियल हो।”

“सच!”

“बिल्‍कुल सच, तुम जैसा प्‍यारा फार तो पूरी दुनिया में कोई नहीं हो सकता और न, ही मोर जैसी दूसरी मोर।”

दाऊद की जगमगाती हुई ज़हीन आँखों में माँ-बाप की चाहत, लबालब छलकते जाम से सोम रस की तरह छलकी पड़ रही थी। असद ने डेन्‍डीलाइन की हलकी-फुलकी बेवज़न पंखड़ियों की तरह हवा में झूलते हुए सोचा।

“मौत और ज़िन्‍दगी की तरह ग़म और खु़शी के बीच भी पलक झपकने का गैप है। ग़रीब से ग़रीब और दुखी से दुखी इंसान की हथेली पर खिंची लकीरों में भी समृद्धि की कोई न कोई कली ज़रूर कहीं न कहीं केमोफ़्‍लाज किये पड़ी रहती है- लम्‍हें की पकड़ में आते ही जिसके खिलने में देर नहीं लगती।”

खु़शी का एहसास उस पर मौसम की पहली बरसात की तरह बरसने लगा। सफलता की ऊँची मस्‍ती में चूर पेंगो में झूलते हुए उसने दिल ही दिल में ख़ुद बात की।

“कितना सुखदाई अंजाम है- कितना कीमती इनआम मिल रहा है हमें हमारी कोशिशों का। वाकई किसी ने सच कहा है इल्‍म और अक़्‍ल का इस्‍तेमाल बड़े-बड़े नुकसानों का रास्‍ता रोक सकता है। हमने अपने बिखराव, अपनी जज़्‍बाती टूट-फूट को अपने अन्‍दर दफ़्‍न करके एक नसल को सुरक्षित कर लिया। हम नाकाम रह कर भी नाकाम नहीं - हमारी कोताहियों (लापरवाही) का प्रभाव हमारी विरासत तक नहीं पहुँचा। मैं अपने बेटे की नज़र में आयडियल, बाप और फेनी आयडियल माँ है। उसका संपूर्ण और बेदाग़ व्‍यक्‍तित्‍व हमारी चाहत से भरपूर है।”

(कृतज्ञता) शुक्रगुज़ारी के एहसास से असद की आँखो में आँसू आ गये। उसने बेटे को खींचकर सीने से चिमटा लिया। बाप के जज़्‍बा न को समझते हुए दाऊद ने नए सिरे से अपना विश्‍वास देने की कोशिश की।

“हाँ फार तुम जैसा प्‍यारा फार पूरी दुनिया में दूसरा हो नहीं सकता। मैं भी तुम्‍हारे और मोर की तरह खूब पढूँगा-लिखूँगा और बड़ा होने पर तुम जैसा ग्रेट आदमी और आयडियल वीकएन्‍ड फार बनूँगा।”

उसने घबराकर अपने बेटे की तरफ़देखा वो उसे अपनी मुहब्‍बत भरी नज़रों के मासूम घेरे में लिये आसमानी किताब जैसी ये कौन-सी सच्‍चाई बयान कर रहा था। अचानक पलक झपकने में ये ऊँचाई, पाताल में (पस्‍ती) कैसे बदल गई। फिजा की तमामतर ताज़गी को कार्बन डाई-आक्‍साइड के घनत्‍व ने किस तरह निगल लिया? उसका हाथ अकस्‍मात अपने दिल पर पहुँच कर रुक गया। नज़र के सामने दाऊद की शक्‍ल में भविष्‍य के संपूर्ण इंसान की जगह एक चटका हुआ। काँच का खिलौना खड़ा था आशा के सूरज को बर्फ की धूल ने ढाँप लिया।

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रचनाकार: शाहिदा अहमद की कहानी - काँच का खिलौना
शाहिदा अहमद की कहानी - काँच का खिलौना
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