खुदा का रंग एक किस्सा बयान करना चाहता हूँ लेकिन डर यह है कि फैलते-फैलते इस सीमा तक न फैल जाए कि उसे समेटना मेरे लिए कठिन हो जाए, बावजूद...
खुदा का रंग
एक किस्सा बयान करना चाहता हूँ लेकिन डर यह है कि फैलते-फैलते इस सीमा तक न फैल जाए कि उसे समेटना मेरे लिए कठिन हो जाए, बावजूद इस शंका के मेरी कोशिश यही रहेगी कि मैं कोई ऐसी राह इख्तियार करूँ कि पढ़ने वाला या सुनने वाला किस प्रकार की उलझन में गिरफ़्तार न हो।
(किस्सा बयान करने से पहले ज़रूरी समझता हूँ कि उसके साथ संबंधित पृष्ठभूमि को सीधे-सादे शब्दों में स्पष्ट कर दूँ।)
पश्चिमी दुनिया का एक अत्यंत अमीर देश, जिसके नाम के साथ शताब्दियों पुराना इतिहास जुड़ा हुआ है। कुछ यूँ कि उसकी क़ब्ज़ा की हुई ज़मीनों पर सूरत कभी डूबा नहीं करता था बल्कि उसे देश के व्यापारी वर्ग ओर बुद्धिजीवी लोगों ने जब चाहा, जिस तरह चाहा, नई ज़मीन के हर भूखंड पर सूरज की किरणें इस तरह बिखेर दीं कि जन्मजात निवासी उन पर मुग्ध हो गए। उस अमीर देश का एक औद्योगिक शहर मानचेस्टर है जहाँ किसी ज़माने में भारी मात्रा में कपड़ा बुना जाया करता था और वह उसकी कॉलोनियों में हाथों-हाथ बिका करता था। उस कपड़े के रंग, चमक-दमक और नमूने लाजवाब हुआ करते थे फिर उसकी सबसे स्पष्ट खूबी यह थी कि धुलने पर वह अपने रंग नहीं छोड़ा करता था। उस शहर का एक इलाक़ा जो मास साइड के नाम से मशहूर है, मैं वहाँ एक किराएदार की हैसियत से एक अश्वेत परिवार के यहाँ रहता था। वह परिवार केरीबियन (Caribbean) का रहने वाला था और वहाँ के एक द्वीप ऐंटीगुआ (Antigua) से तीन दशक पहले बेहतर ज़िन्दगी की आशा में यहाँ आन बसा था। धार्मिक लोग थे वह- बहुत ही नेक और संयमी। हर संडे की सुबह गिरजाघर ज़रूर जाया करते थे चाहे बरसात हो या हिमपात, लेकिन पति-पत्नी सुबह की सभा में सम्मिलित होना अपना परम कर्त्तव्य समझा करते थे और घर लौटने पर उनके चेहरे आत्मिक संतोष से उज्ज्वल हुआ करते थे। दोनों पेंशन ले रहे थे। उम्र ज़्यादा होने के कारण ज़्यादातर अपना समय घर पर ही गुज़ारा करते थे। घर की औरत जाईस एक अनुभवी नर्स थी। रिटायर होने पर उसने खुद को घरेलू काम-काज में कुछ यूँ व्यस्त कर लिया कि अपने मर्द जार्ज के लिए, उसकी फ़रमाइश और उसकी खुशी के लिए तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बनाया करती थी और वह मज़े ले-लेकर उन्हें हज़म किया करता था। असल में दोनों ज़िन्दगी की अहम ज़िम्मेदारियों से निपट कर संतुष्ट हो चुके थे। तीनों बेटियाँ अपने पति और बाल-बच्चों के साथ अपने-अपने घर में आबाद, खुशहाल ज़िन्दगी बसर कर रही थीं। कभी-कभी अपने माता-पिता को देखने बच्चों के साथ चली आया करती थीं। उस समय घर भरा-भरा लगा करता और हर कोने में शोर उठा करता था। तब जार्ज और जाईस अपने नवास-नवासियों में घिरे तमाम दुनिया को भूले हुए खुद को खुशकिस्मत समझा करते थे। ख़ास तौर पर जार्ज, जब किसी बच्चे की कोई अदा या हरक़त या रवैये में अपने व्यक्तित्व का कोई अक्स देख लेता तो गर्व से इतना ऊँचा ठहाका लगाया करता कि मैं अपने कमरे में अध्ययन में डूबा, किसी किताब पर झुका हुआ काँप उठा करता था, लेकिन चूँकि मैं उसके मिज़ाज और आदत से परिचित हो चुका था, मुस्करा कर दोबारा किताब पर झुक जाया करता था।
जार्ज और जाईस सही मानो में हर चिंता से मुक्ति पा चुके थे अलावा रोजर के। वह सबसे छोटा था तीन बहनों का इकलौता भाई और उन सबका चेहता। गहरा सियाह रंग, लंबा-चौड़ा, मज़बूत पुट्ठे, मोटे होंठ, उभरे हुए गालों में धंसी हुई चपटी नाक, असंतुलित चौड़ा मुहाना और लंबी सूत्री की तरह मरोड़ी-तरोड़ी बालों की लटें जो हरदम उसके कंधों पर झूला करती थीं। अजीब हुलिया बना रखा था। उसे देख कर निःसंदेह डर लगा करता था। यही हाल थोड़ा-बहुत उसके बाप का था। वही क़द-काठी, वही नाक-नक़्शा, लेकिन समय की गर्द में घिसे हुए और मंझे हुए दोनों को देख कर अक्सर शक़ गुज़रता कि एक ही व्यक्ति की जवानी और बुढ़ापे की परछाइयाँ, एक ही घर में एक ही समय पर चल-फिर रही हैं। अगर उनमें कोई फ़क्र है तो वह उम्रों के साथ बालों का है वरना कुछ भी नहीं। जार्ज के सालिम खिचड़ी बाल निहायत ही छोटे और गोल-गोल थे एक-दूसरे में घुसे हुए। लगता था उसने महीने-सी हमवार टोपी पहन रखी है जो जन्म-दिन से उसके सिर पर मौजूद है लेकिन उस समय उसका रंग ज़रूर गहरा काला रहा होगा जबकि रोजर के कंधों पर मरोड़ी-तरोड़ी लटें झूला करतीं जो प्रायः मुझे अपने देश के साधू-संत और फ़क़ीरों की याद दिलाया करती थीं। एक लिहाज़ से मैं खुश भी था कि अपने देश से दूर रह कर भी कोई चीज़ तो ऐसी है जो मुझे उससे जोड़ा करती है।
उन दिनों मुझे कमरे की बहुत ज़रूरत थी। मैं प्रिंटिग टैक्नोलोजी का एडवांस कोर्स करने वहाँ चला आया था। माता-पिता अमीर थे, यूनिवर्सिटी में दाख़िला आसानी से मिल गया था और मैं जान-पहचान के किसी व्यक्ति के यहाँ मास साइड के एक काउंसिल फ़्लैट में ठहरा हुआ था लेकिन मुझे वहाँ कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था जिनको बताना यहांँ मुनासिब न होगा क्योंकि इस समय जो पृष्ठभूमि मैं पेश कर रहा हूँ इससे उसका कोई संबंध नहीं है।
जार्ज बेन्जमिन ने दरवाज़ा खोला। मैं उसका डील-डौल और भयानक चेहरा, जो किस जंगली गोरिल्ले से मिलता-जुलता था, देख कर कँपकँपा उठा था। मैं उल्टे पाँव लौट जाना चाहता था और मेरी दायीं एड़ी घूम भी गई थी लेकिन वह मेरे सामने आ चुका था और एक चौबीस वर्षीय एशियाई जवान को अपने दर पर देख कर सावधान, गंभीर और चकित हो चुका था। मैंने बुझे मन से अपने आने का मक़सद बयान किया तो वह मुझे कमरा दिखाने की ख़ातिर सीढ़ियों से ऊपर ले गया। बातचीत के दौरान मैंने उसे अत्यन्त शिष्ट, निष्पक्ष और इंसानी सतह पर साँस लेता हुआ पाया। मुझे अपनी सोच पर बहुत पछतावा हुआ कि हम किसी को जाने बिना केवल उसकी शक्ल-सूरत देख कर उसके बारे में कितनी ग़लत कल्पना कर बैठते हैं। कमरा साफ़-सुथरा था, मुझे पसन्द आया और मैं हैरान भी था कि यह लोग उच्च स्तर की रसिकता रखते हुए, सौन्दर्यबोध के कितने क़रीब हैं। शर्तें तय होने पर वह बोल उठा- “तुम पहले एशियन स्टूडेंट हो जो मेरे यहाँ लाजर बन कर रहोगे... वरना हर एशियन अपनी कम्पयुनिटों के लोगों में रहना चाहता है।”
मैं चूँकि इस देश में नया-नया आया था। इन बातों का बिल्कुल जानकार न था और न ही मुझे समाज की ऊँच-नीच या अंतर्विरोधों का कोई ज्ञान था पर मैंने इतना ज़रूर कहा, “मैं समझ सकता हूँ वह ऐसा क्यों करते हैं। अपने रंग के साथ आदमी का संबंध जन्म-मरण का जो होता है... लेकिन मैं किसी भी सफ़ेद, काले और साँवले व्यक्ति के यहाँ ठहरने में कोई हर्ज, कोई फ़क़र् महसूस नहीं करूँगा... मुझे तो अपने कोर्स की किताबों से मतलब रखना है और एक रोज़ डिग्री लेकर लौट जाना है।”
“ओ बॉय ओ बॉय... मैं खुश हूँ तुम यूँ देखते हो और ऐसी सोच रखते हो वरना वास्तविकता बहुत अलग है... दिल से कहता हूँ हम सब सफ़ेद आदमी को Racist ठहराते हैं लेकिन उससे बड़े Racist तो हम खुद हैं यानी मेरी और तुम्हारी कम्पयुनिटी के लोग।”
भला मैं उसे क्या जवाब दे सकता था। चकित उसे देखता रहा।
“तुम नहीं समझोगे, नहीं समझोगे... नए-नए इस कन्ट्री में आए हो ना?”
इतने में प्रकृति ने मेरी ख़ामोशी और अज्ञानता का भ्रम रख लिया। घर की मालकिन जाईस दृश्य पर प्रकट हो चुकी थी। गहरा सियाह रंग लेकिन क़बूल-सूरत, चेहरे पर शराफ़त और आँखों में नर्माहट। बात-चीत के दरमियान मैंने उसे अत्यन्त दयावान और मेहरबान पाया।
उनका एकमात्र बेटा रोजर पढ़ा-लिखा था। इस संसार को मुझसे चार वर्ष पहले से देख रहा था। कमाल का दिमाग़ रखता था। यूनिवर्सिटी से समाजशास्त्र की डिग्री मर्तबे के साथ हासिल कर चुका था। समाज की रग-रग की जानकारी रखने के बावजूद वर्तमान मामलों पर इतनी गहरी नज़र रखता था कि कभी-कभी मैं उसकी सूझ-बूझ और बुद्धि पर रश्क करते हुए ऊपर वाले से शिकायत किया करता था कि उसने मुझे उस जैसा श्रेष्ठ दिमाग़ क्यों नहीं बख़्शा। वह अपने माता-पिता से बहुत कम ही बात किया करता था। अलबत्ता जब कभी वह उनसे बातें करता तो आँखें नीची किए, सिर झुकाए उन्हें उचित आदर दिया करता था पर मैंने कभी उसे अपने माता-पिता के साथ इबादतगाह की ज़ियारत करने जाते न देखा था। उसके परिवार के सभी सदस्य धर्म के पाबन्द थे। सबसे मुख्य बात जो मैं वाक़ई अपने अन्दर से उसके संबंध में जानने का इच्छुक था वह उसकी नौकरी थी। मैंने कभी उसे काम पर जाते हुए न देखा था। उसका रोज़मर्रा का नित्य नियम कुछ यूँ था- सुबह देर से उठना, घंटों अख़बार पढ़ते रहना, फिर अपने मूड के अनुसार बाहर निकल जाना और दिन भर सड़क नापने के बाद रात देर से घर लौटना, लेकिन मैंने कभी उसके माता-पिता को उसे डाँटते, गुस्सा करते या नाराज़ होते नहीं देखा था बल्कि जिस प्रकार की ज़िन्दगी वह जी रहा था संभवतः वह उससे संतुष्ट थे।
(यहाँ पृष्ठभूमि ख़त्म हो जाती है। मैंने उसके साथ संबंधित तमाम मुख्य और अनावश्यक चरित्र बयान कर दिए हैं- अब मैं आने वाली सभी घटनाओं और उनसे पैदा होने वाले हालात और नतीजे कहानी की शैली में बयान करूँगा।)
एक सुबह मैं। यूनिवर्सिटी जाने की तैयारी कर रहा था कि अचानक मेरे दरवाज़े पर दस्तक हुई। दरवाज़ा खोला तो मुझे अपने आँखों पर विश्वास न आया। रोजर शानदार सूट पहने लंबी लटें सँवारे हाथ में फ़ाइल थामे दो गज़ के फ़ासले पर खड़ा था। मैं पहली बार उसे इस लिबास में देख रहा था। फिर मुझे यह भी एहसास था कि वह पहली बार मेरे दरवाज़े पर हाज़िर हुआ है, वह बदसूरत होते हुए भी मुझे स्मार्ट दिखाई दे रहा था।
“क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ?”
मेरी गर्दन के इशारे पर वह अन्दर चला आया, छूटते ही बोला-
“जानता हूँ तुम जल्दी में हो, तुम्हें यूनिवर्सिटी पहुँचना है... मैं ज़्यादा समय नहीं लूँगा... पाँच पौंड हैं तुम्हारे पास?”
उन दिनों पाँच पौंड की रक़म बहुत बड़ी हुआ करती थी लेकिन इंकार करना मेरे वश में न था और न ही मैंने मुनासिब समझा इसलिए कि वह पहली बार मेरे दर पर आया था और पहली बार मुझसे रक़म तलब कर रहा था। मैंने साइड टेबिल की दरवाजे़ खोल कर पाँच पौंड का एक नोट निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिया। उसे जल्दी से जेब में डाल कर और एक नज़र दरवाजे़ से बाहर देख कर कुछ इस अंदाज़ से बोला जैसे अपनी माँग पर लज्जित हो-
“इसका ज़िक्र मेरे Parents से न करना... प्लीज़... वरना वह मेरी वजह से परेशान होंगे और दुख उन्हें अलग होगा।”
“मैं समझ गया... किस ओर जा रहे हो तुम?”
“टाउन सेन्टर।”
“मुझे भी उसी तरफ़ जाना है।”
हम इकट्ठे घर से निकले। बाहर नवंबर महीने की उदास करने वाली फ़िज़ा मैं फैली हुई थी। ज़र्द पत्ते पेड़ों की शाख़ों को छोड़ कर फुटपाथ पर फैल रहे थे। आकाश तले सलेटी रंग के बादल एक चादर की सूरत में तने हुए नज़र की सीमा तक दिखाई दे रहे थे। मौसम ठंडा था और वैसा ही वातावरण। हम ख़ामोश, कुछ सोचते हुए बस स्टाप की ओर बढ़ने लगे लेकन मेरी नज़रें रोज़ाना की तरह मास साइड के हर हिस्से से गुज़र रही थीं। अश्वेत लोग हर ओर चलते-फिरते दिखाई दे रहे थे। कहीं-कहीं इक्का-दुक्का सफ़ेद या साँवला व्यक्ति अपने अस्तित्व का एहसास दिला रहा था पर कालों की संख्या इतनी थी कि अगर मैं सुबह से शाम तक वहाँ किसी सड़क के किनारे खड़ा उन्हें गिनना शुरू कर देता तो मुझे सही संख्या की जानकारी न हो पाती। कभी-कभी मुझे ख़याल आया करता कि सदियों पुराना सफ़ेद लोगों का यह देश, जो दुनिया के हर महाद्वीप पर शासक रह चुका है, आज उसके एक शहर के एक इलाक़े में काले लोग ग़ैर-सरकारी रूप से शासक हैं। वह जो चाहते हैं बिना किसी रोक-टोक के कर डालते हैं चाहे वह असामाजिक, अनैतिक, अवैध क्यों न हो?
जाने कब से हम बस-स्टाप पर पहुँच चुके थे, मुझे कोई ज्ञान न था। मेरे निरीक्षण और मेरे विचारों की धारा चल रही थी। रोजर बेन्जमिन अपनी फ़ाइल उतनी ही बार बन्द कर चुका था जितनी बार उसे खोल कर वह उसमें रखे हुए काग़ज़ात को ध्यानपूर्वक देख कर उन्हें ऊपर-नीचे रख चुका था। मुझे उसके इस काम पर हँसी आ रही थी। अनायास मैं उससे पूछ बैठा था-
“अपने इलाक़े में तुम्हारी बिरादरी के लोग काफ़ी दिखाई देते हैं... सफ़ेद और साँवले लोग बहुत कम ही दिखाई देते हैं?”
“हाँ”- उसने अपने ज़ेहन पर ज़ोर डाल कर फिर दूर देख कर कहा, “किसी ज़माने में उनकी संख्या भी काफ़ी थी।”
“फिर वह यहाँ से चले क्यों गए...?”
“इस सिलसिले में मैं क्या कह सकता हूँ। हर कोई आज़ाद है, जहाँ चाहे रहे। ”
“लेकिन कोई कारण तो होगा?”
मुझे ध्यान से देख कर जब उसे विश्वास हो गया कि मैं कारण जान कर रहूँगा तो वह बहुत धीमे सुरों में बोला- “मैं यही कह सकता हूँ कि जब लोग दूसरों को किसी कारण नापसन्द करने लगते हैं तो अलग होने में ही अपने ख़ैरियत समझते हैं।”
बस आ गई थी। सवार होकर हम कंधे से कंधा मिला कर बैठ गए। ख़ामोश, खुद में ज़िन्दा खुद में डूबे हुए। रोजर खिड़की से बाहर की दुनिया को देख रहा था जबकि मैं कभी उसे और कभी बस के अन्दर की दुनिया को। एक बार फिर मैं अप्रत्याशित रूप से उससे पूछ बैठा, “इंटरव्यू देने जा रहे हो...?”
“हाँ कुछ ऐसा ही है... एक नई संस्था में जा रहा हूँ, बात बन गई तो कुछ समस्याएँ कुछ दिनों के लिए सुलझ जाएँगी।”
“तुम्हें नौकरी ज़रूर मिलेगी... यह मेरे दिल की आवाज़ है... तुम्हारे माम-डैड बहुत खुश होंगे।”
उसने मुझे एक नज़र बहुत ध्यान से देख कर गर्दन को यूँ झटका दिया कि उसके इर्द-गिर्द फैली हुई तमाम लटें मेरे चेहरे से टकरा कर फिर अपनी जगह पे बहाल हो गईं। फ़ाइल को घुटनों में दबा कर कुछ ऊँचे सुरों में बोल उठा, “दो वर्ष पहले मैं नौकरी की तलाश में हताश होकर भूल चुका हूँ कि नौकरी नाम की भी कोई चीज़ होती है।”
“लेकिन तुम तो पढ़े-लिखे व्यक्ति हो... डिग्री-होल्डर हो... वह भी तुमने Distinction के साथ प्राप्त की थी। तुम्हारे डैड ने मुझे बताया था कि स्थानीय समाचार पत्रों में तुम्हारे फ़ोटो प्रकाशित हुए थे।”
अचानक बस ने बहुत ख़तरनाक बल्कि भयानक रूप से मोड़ काटा। तमाम मुसाफ़िर ऊपर-नीचे होकर क्राईस्ट का नाम होंठों पर ले आए। कई अपने सीने पर क्रॉस का निशान बनाते दिखाई दिए पर रोजर निडर होकर ख़ामोश नज़रों से मुझे देखता रहा। परिणामस्वरूप पाटदार आवाज़ में बोल उठा-
“इस सिलसिले में फिर कभी बात करेंगे... बहुत-सी बातें ऐसी होती हैं जिनके पीछे कटु सच्चाइयाँ छुपी होती हैं।”
यूनिवर्सिटी में मेरा उठना-बैठना हर राष्ट्र के विद्यार्थियों के साथ था। उनमें सफ़ेद, काले, साँवले और ज़र्द, चारों शारीरिक रंग शामिल थे। कभी-कभार ऐसा लगता था कि मैं संयुक्त राष्ट्र में दुनिया भर के राष्ट्रों के दरमियान बैठा हुआ हूँ और वह मेरे इर्द-गिर्द फैले हुए मेरी राष्ट्रीयता जानने के इच्छुक हैं। मैं स्वभाव से मिलनसार हूँ। हरएक के साथ दिनों में नहीं बल्कि घंटों में घुल-मिल जाना मेरे लिए बहुत आसान था। उनके पूछने पर कि मैं इंडिया से हूँ या पाकिस्तान से? और अपनी बिरादरी के लोगों में कहाँ निवासी हूँ...? मेरे बताने पर कि मैं कौन हूँ, क्या हूँ, और कहाँ रह रहा हूँ मास साइड का नाम उन पर अच्छा प्रभाव नहीं छोड़ा करता था। बल्कि यह जान कर कि मैं एक ब्लैक फ़ैमिली का लाजर हूँ, वह अविश्वसनीय नज़रों से मुझे देखा करते थे, यहाँ तक कि उनकी आँखों के बल्व दिन के उजाले में भी रोशन होकर कहा करते थे कि मैं ग़लत इलाक़े में ग़लत लोगों के दरमियान ठहरा हुआ हूँ। वह जगह अत्यन्त ख़तरनाक है, वहाँ ज़्यादातर लोग असभ्य और अपराधी प्रकार के हैं। हत्या, चोरी, राहज़नी, बलात्कार की घटनाएँ साधारण रूप से होती रहती हैं। मेरी गर्ल फ्रेंड भी बार-बार मुझसे कह चुकी थी कि मेरी बेहतरी इसी में है कि मैं तुरंत से पहले किसी दूसरी जगह पर स्थानांतरित हो जाऊँ। वह इस सिलसिले में मुझसे नाराज़ भी हो जाया करती थी लेकिन जहाँ तक मेरा संबंध था मुझे किसी बात कोई परवाह न थी। मैं बेन्जमिन फ़ैमली के साथ रह कर सचमुच खुश था। वहाँ न तो मुझे कोई तकलीफ़ थी न ही कोई प्राब्लम, बल्कि घर की मालकिन जाईस इतनी महान औरत थी कि मेरे वहाँ सेटिल होने तक बिना नाग़ा वह मेरी ज़रूरतों के बारे में बड़ी गंभीरता से पूछा करती थी मुझे यहाँ कोई कष्ट तो नहीं है। अकेला होने पर मैं कभी-कभार महसूस किया करता था कि सभ्यता, धर्म और रंग ज़रूर अलग-अलग हुआ करते हैं पर मातृक प्रकृति एक-सी हुआ करती है।
वीकऐंड ने दबे पाँव क़दम रख दिए थे। मुझे इसका उत्सुकता से इंतज़ार रहा करता था क्योंकि मैं लंबी तान कर सोने वालों में से था फिर इस बहाने मुझे आराम करने का मौक़ा भी मिल जाया करता था। सुबह बिस्तर से उठा तो घड़ी की सुइयाँ दस के अंक से आगे बढ़ चुकी थीं। केतली का बटन दबा कर चाय का पानी गर्म करना चाहा तो केतली ने साथ देने से साफ़ इंकार कर दिया। मेरी मुसीबत यह थी कि सुबह के समय अगर चाय के दो कप नसीब न हों तो मेरी आँखें खुला नहीं करती थीं। और न ही ज़ेहन चैतन्य हुआ करता था बल्कि लगता था कि चलते-फिरते सो रहा हूँ। अंत में मरता क्या न करता के अनुसार मैं बेन्जमिन फ़ैमली के किचन में चला गया। वहाँ रोजर पहले से मौजूद था। वह एक कोने में कुर्सी पर बैठा मेज़ पर अख़बार फैलाए चाय पी रहा था। जिस ढंग से वह अख़बार पढ़ रहा था उससे तो यही लगता था कि एक-एक पंक्ति को चबा कर अपने अन्दर उतार रहा है। कुशल-मंगल के बाद मैं अपने काम में जुट गया।
अपनी एक आँख खोल लेने पर मैंने दूसरा कप तैयार किया और रोजर की फ़रमाइश पर उसे भी एक कप पेश किया। मेरा शक्रिया अदा करने के बाद वह कप उठा कर खड़ा हो गया और बोला, “चलते हो मेरे कमरे में?” उसके कमरे में घुसते ही ऐसा लगा कि मैं किसी कबाड़ख़ाने में चला आया हूँ। जितना साफ़-सुथरा मकान उसके माता-पिता ने रखा था, रोजर का कमरा उसके बिल्कुल विपरीत था। लगभग हर कोने में अख़बारों की थिपियाँ लगी थीं, उनके साथ किताबों के अंबार भी मौजूद थे। मेज़ पर कम्प्यूटर के इर्द-गिर्द अनगिनत पत्रिकाएँ बेतरतीबी से फैली हुई थीं। तीन-चार काग़ज़ों से भरे लकड़ी के खोखे आड़े-तिरछे अंदाज़ में एक-दूसरे पर धरे थे। बिस्तर से कुछ फ़ासले पर हाई-फ़ाई यूनिट के पीछे रेगे संगीत का विश्व प्रसिद्ध गायक बॉब मारली का रंगीन पोस्टर लगा था। फ़ायर प्लेस से कुछ हाथ ऊपर इथोपिया देश के महाजारा हेलसिलासी की तस्वीर लगी थी। उसे देख कर मैं समझ नहीं पा रहा था कि उसका यहाँ क्या काम हो सकता है? चाय की चुस्कियाँ लेते हुए मैं निरंतर तस्वीर को घूरे जा रहा था। परिणामस्वरूप मैं मज़ाक़ में उससे पूछ बैठा- “कहीं एम्परर हेलसिलासी के साथ तुम्हारे परिवार का दूर या नज़दीक का कोई रिश्ता तो नहीं था?”
वह पहले तो मुस्कराया फिर इतना ज़ोरदार ठहाका लगाया कि कमरे के दरो-दीवार काँपते हुए महसूस हुए। मैं देखने को तो उसे भोलेपन से देख कर मुस्कराए जा रहा था लेकिन उसका ठहाका पहले की तरह चल रहा था। अचानक मुझे कुछ-कुछ याद आने लगा, कहीं मैंने पढ़ रखा था कि अफ्रीका, अमरीका और वेस्टइंडीज़ के बहुत से अश्वेत क़बीले और समुदाय ऐसे हैं जो हेलसिलासी पर ईमान लाकर उसे अपना भगवान स्वीकार कर चुके हैं। उसकी वंशावली किंग सलोमन और हाउस आफ़ जुडा से जोड़ते हैं- इस बीच रोजर अपने ठहाके पर क़ाबू पा चुका था। बोला-
“एक तरह से तुमने ठीक कहा, हेलसिलासी से मेरा रिश्ता बहुत गहरा है। वह मेरा रास्टाफ़ेरिया है यानी मेरा खु़दा।”
“लेकिन तुम लोग तो कैथोलिक हो?”
“कैथेलिक मेरे माँ-बाप हैं, मैं नहीं... मैं रास्टाफ़ेरियन हूँ... फिर एक तरह से देखा जाए तो काले आदमी का खुदा सफ़ेद कैसे हो सकता है?... ज़रा सोचो तो?”
“बिल्कुल।”
“यह तुम कैसे कह सकते हो?”
“खुदा के बेटे यीसू मसीह का रंग क्या था?”
“सफ़ेद।”
“तो फिर उसके बाप का रंग क्या होगा?... सफ़ेद या कोई और...?”
उसके तर्क में दम था, जान थी, चिंतन के लिए निमंत्रण था पर मैं इस विषय पर उससे उलझना नहीं चाहता था क्योंकि मेरी जानकारी उसके स्वीकार किए हुए धर्म और उसके भगवान के बारे में नाममात्र को ही थी। मैं चुपके से चाय पीता रहा पर उसके तर्क पर चिंतन करते हुए बहुत अन्दर से महसूस कर रहा था कि यूँ तो खुदा को किसी ने देख रखा नहीं। अगर हज़रत मूसा, हज़रत मुहम्मद साहब गुरु नानक जी और भगवान गौतम ने खुदा के जलवे का नज़ारा किया भी था तो किसी ने उसके रंग का कहीं ज़िक्र नहीं किया था फिर हिन्दू देवमाला के अनुसार तो ईश्वर की अपनी कोई शक्ल, अपना कोई रूप है ही नहीं पर वह हर जगह मौजूद ज़रूर है, लोगों के अन्दर भी और बाहर भी।
चाय हौले-हौले ठंडी हो रही थी पर हम बराबर घूँट भरते जा रहे थे। मेरे दिमाग़ में यह सवाल अटका हुआ था कि उसने मुझे अपने कमरे में क्यों निमंत्रित किया है...? कहीं वह उधार ली हुई रक़म लौटाना तो नहीं चाहता? उसने अंतिम घूँट भर कर कप लकड़ी के खोखे पर रखा और कहने लगा-
“मैं बहुत खुश हूँ... विश्वास करो बहुत खुश हूँ... तुमने एक वैस्ट इंडियन फ़ैमिली के साथ रहकर तमाम Barriers तोड़ डाले हैं...मैं दिल से तुम्हारी इज़्ज़त करता हूँ।”
“मेरे नज़दीक यह कोई बड़ी बात नहीं है।” मैंने भी प्याला ख़ाली करके कहा, “मैं तुम्हारे डैड से कह चुका हूँ मैं किसी भी सफ़ेद, काले और साँवले व्यक्ति के यहाँ ठहरने में कोई हर्ज़ या फ़क़्र महसूस नहीं करूँगा... मुझे तो अपनी पढ़ाई से मतलब रखना है और एक रोज़ डिग्री लेकर लौट जाना है।”
“तुम्हारे सिलसिले में यही बेहतर रहेगा... वरना यह सोसाइटी, जहाँ मैं साँस लेता हूँ, बड़ा विचित्र स्वभाव रखती है। यहाँ किसी काले या रंगदार आदमी को नौकरी इतनी जल्द नहीं मिला करती... और वह कोशिश करते-करते इतना थक जाता है कि कई बार अपने खुदा पर से भी भरोसा खो बैठता है... जानते हो बाद में उसके लिए क्या बचा रहता है?”
“क्या?”
“आत्म-हत्या या मानसिक रोगों का हस्पताल... अगर वह उनसे बच निकले तो खुद को ज़िन्दा रखने की ख़ातिर अवैध धन्धे, अनैतिक काम।” उसकी बातों में कटाक्ष था, कटुता थी मगर सच्चाई की धार भी मौजूद थी। यहाँ निवास करने पर मैंने भी क़रीब-क़रीब यही देखा और सुना और महसूस किया था। रंगदार पेशावर लोगों को सम्मान वाली नौकरी प्राप्त करने के लिए लंबी मुद्दत तक संघर्ष करना पड़ता है तब कहीं उनके लिए दरवाज़े खुला करते हैं। मैं इस सिलसिले में उससे कुछ कहना चाहता था लेकिन उसके चेहरे की बदलती हुई हालत को देख कर मैं ख़ामोश रहा। उसकी आँखें सुर्ख़ हो चुकी थीं, चेहरे पर खिंचाव उभर आया था और मुट्ठियाँ भिंच गई थीं।
“विश्वास करो चार वर्ष तक इस शहर की कोई संस्था ऐसी न थी जहाँ मैंने अपना भाग्य आज़माया न हो... इंटरव्यू लेने वालों को मेरी डिग्री अवश्य पसन्द थी, मेरी बोलचाल भी पसंद थी पर मेरा रंग पसंद न था पसंद होता भी कैसे? काले लोग सफ़ेद क़ौमों के गुलाम जो रहे हैं, फिर सफ़ेद आदमी उसे अपने बराबर कैसे बिठा सकता है? बराबर का दर्ज़ा कैसे दे सकता है... ज़रा सोचो तो?”
भला मैं क्या सोच सकता था। मैं तो उसकी ज़िन्दगी के हालात जान कर उसके भीतर को महसूस कर रहा था जो सोसाइटी के हाथों घायल हुआ था।
“हर इंटरव्यू देने पर मैं यीसू मसीह और उसके बाप के आगे घुटने टेक कर अपनी कामयाबी के लिए दुआ माँगा करता था लेकिन मेरी दुआ कभी क़बूल न हुई।”
उसकी आवाज़ में शिकायत थी, अफ़सोस था लेकिन शीघ्र ही वह गुस्से में बिफर उठा, “मेरी दुआ क़बूल होती भी कैसे? ज़रा सोचो तो? सफ़ेद लोगों का खुदा काले आदमी की परवाह ही कब करता है। वह तो उसे कॉकरोंच समझता है कॉकरोंच।”
“तुम्हें इस तरह से नहीं सोचना चाहिए।” मैंने उसका गुस्सा महसूस करते हुए और उसे समझाते हुए कहा, “खुदा तो एक है और वह सबका है... उसका संबंध तो दुनिया के हर व्यक्ति, रंग जाति, धर्म और विश्वास से है।”
“यह तुम्हारा ख़याल है... यथार्थ बहुत अलग है। अगर ईश्वर एक होता तो वह श्वेत राष्ट्रों को अश्वेत लोगों को दास बनाने की इजाज़त कभी न देता... पर वह ख़ामोश रहा, जानते हो क्यों?”
“क्यों?”
“ताकि उसकी पूजा करने वाले राष्ट्र आर्थिक रूप से इतने मज़बूत हो जाएँ कि आगे चल कर वह पाँचों महाद्वीपों पर अपना झंडा गाड़ दें और सदियों तक अपनी वरिष्ठता का सबूत पेश करें।”
उसके रवैयों से उसकी शिकायतें, विद्रोह और धर्म परिवर्तन मेरे नज़दीक बहुत हद तक साफ़ हो चुका था। एक नज़र उसे ख़लूस से देख कर मैंने कहा-
“रोजर मैं... तुमसे हर दर्जा हमदर्दी रखता हूँ। इतिहास साक्षी है कि तुम लोगों के साथ ऐसे अत्याचार हुए कि उन्हें जान कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं... लेकिन तुम ईमानदारी से जवाब देना, धर्म परिवर्तन का कारण नौकरी तो नहीं थी? या सफ़ेद लोगों से नफ़रत?”
“नहीं, बिल्कुल नहीं।” उसने उस ही अंदाज़ से जवाब दिया, “जिन दिनों मैं यूनिवर्सिटी में था तब भी इन ही रेखाओं पर मग़ज़पच्ची किया करता था।”
मैं ख़ामोश उसे सुनता रहा उसके लहजे़ में तेज़ी थी।
“सफ़ेद राष्ट्रों का काले लोगों को ज़बरदस्ती पकड़ कर उन्हें गुलामी की जंजीरें पहनाना, फिर पाँव में ज़ंजीर बाँध कर उन्हें सरे-बाज़ार नीलाम करके अपनी जेबें मोटी करना... कुछ समय गुज़र जाने पर सियाह निवासियों की आज़ाद ज़मीनों को चालाकी से हथिया कर उनकी पूर्ण सभ्यता, धर्म और भाषा को सोचे-समझे अंदाज़ से नष्ट कर डालना... फिर अपनी सभ्यता, धर्म और भाषा उनके मुँह में डाल देना और डालकर हर क़दम पर गाड-फ़ादर, बिग ब्रदर की तरह आँख रखना... मैं अक्सर इन बातों पर चिंतन करता हुआ आकाश की ओर देखा करता था कि मेरी अपनी पहचान क्या है? मैं कौन हूँ? मेरा ख़ुदा कौन है? वह सफ़ेद है या कोई और...?”
मुझे तारीख का थोड़ा-बहुत ज्ञान ज़रूर था पर उसकी कुछ बातों में अलग प्रकार के पहलू छिपे हुए थे जो पहली बार सुनने में आ रहे थे और मैं कुछ हैरान भी था।
“जानता हूँ तुम्हारा विषय अलग है... पर जो व्यक्ति यहाँ एडवांस डिग्री लेने आया है वह दुनियावी इतिहास से कुछ तो परिचित होगा। वह ज़रूर जानता होगा कि सन् 1834 में गुलामों के व्यापार को मानवता के ख़िलाफ़ घोषित करके समाप्त कर दिया गया और गुलाम आज़ाद कर दिए गए थे। उस समय मेरे पूर्वज खुशी में दीवाने सोच रहे थे कि अब वह अपनी मर्ज़ी से जियेंगे, उन पर कोई पाबन्दी लागू न होगी। किसी के बदन पर उसके मास्टर का नाम खोदा न जाएगा और वह किसी के मुहताज न होंगे... पर आज 1983 चल रहा है, डेढ़ सदी गुज़र जाने पर भी काला आदमी सफ़ेद राष्ट्रों के चंगुल से निकल नहीं पाया। वह आज भी आर्थिक रूप से उनका गुलाम है... मार्क्स ने कितना सच कहा था- आदमी को ज़िन्दा रहने की ख़ातिर हर क़दम पर इकोनोमिक्स का सहारा लेना पड़ता है।”
“हाँ यह बात तो है?”
“विश्वास करो, आज दुनिया की पूरी दौलत सफ़ेद क़ौमों की पकड़ में है। ग़रीब देश उनके दर पर सज़दा करते हैं, लाखों भूखे-प्यासे बच्चे ज़िन्दगी को जाने बिना ही दम तोड़ देते हैं।”
“जानता हूँ... एहसास है मुझे इन बातों का।” अचानक मेरे अन्दर कुछ हरकत हुई। प्रकृति का बुलावा महसूस करते ही मैंने ख़ाली प्याले उठाए और तुरंत इजाज़त चाही लेकिन उसकी आवाज़ ने मेरे उठे हुए क़दम रोक डाले।
“विकास... अपने पैसे लेते जाओ।”
उसने कुर्सी पर फैली हुई मैली-सी जैकिट उठाई, नोटों का पुलन्दा निकाला और पाँच पौंड का एक नोट मेरी तरफ़ बढ़ा कर बोला-
“तुम्हारा शुक्रिया... बहुत-बहुत शुक्रिया... कल ही गार्डियन अख़बार ने अपने सण्डे एडीशन के लिए मेरे दो Article रख लिए हैं।”
एक पल के लिए मुझे उसका पूरा कबाड़खाना घूमता हुआ नज़र आया। मैं सोच ही नहीं सकता था कि वह इस मैदान से भी होकर गुज़र सकता है। मेरी अक्ल वाक़ई दंग रह गई थी।
“पिछले ढाई वर्ष से मैं फ्री लांसिंग कर रहा हूँ उसी के सहारे ज़िन्दा हूँ... वरना मेरा लार्ड हेलसिलासी बेहतर जानता है, मैं कब का ख़त्म हो चुका होता।”
प्राकृतिक दबाव के कारण मेरा वहाँ और रुकना असंभव हो गया था।
रोजर के विचारों के कुछ पहलुओं ने मुझ पर गहरा असर छोड़ा था। मैं अकेले में सोचा करता था कि राष्ट्र एक-दूसरे पर अत्याचार क्यों करते हैं...? उन्हें उससे क्या हासिल होता है... क्या वह अपनी श्रेष्ठता जताने के लिए यह खेल खेला करते हैं या अपनी सलामती की ख़ातिर...? प्रश्न काफ़ी टेढे़ थे, अपने साथ कई जटिलताएँ लिए हुए। मैं खूब जानता था कि उनके उत्तर इतने आसान नहीं है कि वह बैठे-बिठाए आराम से मिल जाएँ। उनके लिए तो मुझ जैसे व्यक्ति को गहरे पानी में उतरना होगा। मैं समय-समय पर उन पर चिंतन करता रहता था। कुछ के जवाब मुझे धीरे-धीरे मिलना शुरू हो गए थे फिर यह एहसास भी निरंतर हुआ जा रहा था कि अतीत में राज्य यूँ ही वजूद में नहीं आए थे बल्कि नियम था कि उस बुनियाद को दृढ़ करने के लिए रोटी के तीन टुकड़े अपने वास्ते सुरक्षित कर लिए जाएँ और एक टुकड़ा जनता की ओर उछाल दिया जाए कि वह ज़िन्दा रहे, सांस ले सके ताकि अगली सुबह वे एक बार फिर मज़दूरी और रोटी के दायरे में घिरे हुए दौलत पैदा करें। अगर कोई मेहनत करने से इंकार कर दे तो उसके हाथ काट दिए जाएँ और कोई विरोध करे तो उसे ज़बान से वंचित कर दिया जाए।
रोजर से कभी-कभी मुलाक़ात घर या पब में हुआ करती थी। यूनिवर्सिटी से लौटने पर कई बार मानसिक थकान दूर करने की ख़ातिर मैं उस पब का हिस्सा बन जाया करता जहाँ रोजर हर शाम जाया करता था। मैं एक छोटी-सी बियर लेकर रोजर के क़रीब कुर्सी खिसका कर बैठ जाया करता था। वह अपने हमरंग और सफ़ेद दोस्तों में घिरा हुआ मुझे देख कर इतना खुश हुआ करता कि आहिस्ता से हाथ बढ़ाकर कभी मेरे कंधे पर और कभी मेरे घुटने पर रख दिया करता था। उसके यार-दोस्त यही समझा करते कि मैं रोजर का कोई ख़ास आदमी हूँ। उन लोगों के बीच विभिन्न विषयों पर इतनी गंभीर, इतनी अर्थपूर्ण बातचीत हुआ करती कि मेरी जानकारी अपने आप बढ़ती जाती थी लेकिन मेरा उठना-बैठना ज़्यादातर यूनिवर्सिटी के दोस्तों के साथ था, विशेष रूप से एडी के साथ। वह मेरी अंग्रेज़वंश की गर्ल फ्रेंड थी। गोरी-चिट्टी, मध्यम काठी, सूरत बस वाजिबी-सी। उसमें कोई आकर्षण ऐसा न था कि आदमी देखते ही मुग्ध हो जाए लेकिन दिमाग़ तेज़ तर्रार और नज़र खुली हुई। बुद्धिजीवी भी उससे बात करके एक बार ज़रूर सोचे कि प्रतिद्वंद्वी सख़्तजान है और वह सोच-समझ कर सवाल पूछे।
वह यूनिवर्सिटी में डिज़ाइनिंग का कोर्स कर रही थी जिसका संबंध मेरे विषय के साथ ख़ासा गहरा था। प्रारम्भिक दिनों की दोस्ती पसन्द में बदलते ही हमारे बीच भी वही हुआ जो प्रायः एक जवान मर्द और औरत के बीच हुआ करता है। हम इकट्ठे सिर जोड़ कर भविष्य के सपने देखने लगे। एडी का ज़बरदस्त आग्रह था कि डिग्री हासिल करने पर मैं यहाँ स्थायी रूप से रह जाऊँ ताकि हम बड़े पैमाने पर अपना व्यापार शुरू कर सकें, आराम से ज़िन्दगी गुज़ारें और मरने तक साथ रहें लेकिन मैं उसके इश्क़ में इतना दीवाना नहीं हुआ था कि उम्र भर के लिए अपने माँ-बाप बहन-भाई और यार-दोस्तों को छोड़ कर संन्यास इख्तियार कर लेता। यूँ भी इस समय की सोसाइटी की समझ ज्यों-ज्यों आती जा रही थी त्यों-त्यों मेरा मन अपने देश के ज़्यादा क़रीब हुआ जा रहा था, बल्कि उसका तक़ाज़ा था कि डिग्री मिलते ही पहली फ़्लाइट पकड़ कर अपने घर की दहलीज़ फलांग जाऊँ और पलट कर इस ओर न देखूँ लेकिन मैंने एडी को इस भावना का कभी एहसास न होने दिया- इसलिए कि वह शिद्दत से मुझे चाहने लगी थी और मैं नहीं चाहता था कि वह किसी सदमे से दो-चार हो और इसके बाद मैं रही-सही ज़िन्दगी एक पापी की तरह बसर करूँ। उसे मेरी हर बात पसन्द थी सिवाए इसके कि मैं मास साइड में निवासी एक ब्लैक फ़ैमिली का लाजर हूँ। दो-तीन बार वह मुझे शहर के अति धनवान इलाक़े प्रिस्टन में, जहाँ वह अपने दौलतमन्द माता-पिता के साथ रहती थी, ले गई इसलिए कि मैं वहाँ किसी इंग्लिश फ़ैमिली का लाजर बन कर रहूँ। वह इलाक़ा निस्संदेह शानदार था। साफ़-सुथरा, खुला, आलीशान मकान, हर किसी के आगे-पीछे फूलों से आरास्ता बाग़-बाग़ीचे, जगह इतनी शांतिमय कि वहाँ चीख़ता-चिंघाड़ता जानवर भी आकर ख़ामोश हो जाए लेकिन मैं हर बार एडी को घुमा-फिरा कर जवाब दिया करता था।
“इतनी जल्दी भी क्या है... डिग्री मिलने में अभी देर है... फिर देखेंगे हालात क्या सूरत इख्तियार करते हैं और यह परिन्दा किन आसमानों में गुम होना चाहेगा।”
लेकिन उसका जवाब एक ही हुआ करता था नपा-तुला, इश्क़ में गिरफ्तार होने के पहले दिन से-
“तुम्हारा भविष्य यहाँ है... यूरोप तुम्हारे लिए बाँहें फैलाए बैठा है।”
“जानता हूँ, समय आने पर सही क़दम उठाऊँगा... चिंता न करो।”
“मगर तुम्हें जल्दी फ़ैसला करना होगा।”
भला मैं क्या फ़ैसला कर सकता था। घर से दूर परदेस में बिल्कुल अकेला, हालात से लड़ता हुआ, फूँक-फूँक कर क़दम रखता हुआ व्यक्ति था मैं।
एक शाम हम पिकेडली के इलाक़े में एक ग्रीक रेस्टूरां में बैठे खाना खा रहे थे। बाहर आकाश से हौले-हौले उतरती फुआर रेस्टूरां के बाहरी शीशों पर फैल कर मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रही थी और मैं नन्हीं-नन्हीं बूँदों को लकीरों में ढलता देख रहा था। एडी ने मेरे ग्लास में वाइन डाल कर कहा-
“विकास... हमारे पड़ोस में एक कमरा ख़ाली हुआ है... वह घर अत्यन्त साफ़-सुथरा है... मैं चाहूँगी तुम फ़ौरन वहाँ शिफ़्ट कर जाओ।”
मैंने हमेशा की तरह कोई नया वाक्य सोच कर उसे टालना चाहा, फिर ख़याल आया कि यह सिलसिला एक लंबे समय से चल रहा है। कई बार मैं अंतरात्मा के विरुद्ध झूठ भी बोल चुका हूँ। बेहतर होगा कि आज सच्चाई को क़रीब से देखा जाए।
“तुम बार-बार मुझे मास साइड का इलाक़ा छोड़ने पर मजबूर करती हो... कोई विशेष कारण है इसका।”
“हाँ है, और तुम भी जानते हो।”
उसने इतनी तेज़ी से जवाब दिया कि मैं चौंक उठा लेकिन शीघ्र ही उसे अपने लहज़े की शिद्दत का एहसास हो गया। बहुत प्यार से मुझे देख कर शिष्टता से बोली, “वह पूरा इलाक़ा ख़तरनाक हुआ जा रहा है... अब तो मीडिया भी मास साइड को NO GO AREA क़रार दे चुका है... मैं तुम्हारे बारे में हरदम चिंतित रहती हूँ।”
एक नज़र उसे बहुत ही क़रीब से देखने पर वाक़ई वह मुझे चिंतित दिखाई दी और ज़िन्दगी में पहली बार मैंने अपने अन्दर लड़खड़ाहट-सी महसूस की।
“मैं समझ सकता हूँ तुम मेरे लिए क्यों चिंता करती हो... मगर जब मैंने काले लोगों के बारे में तुमसे कुछ पूछना चाहा है, जानना चाहा है, तुम्हारा रवैया बड़ा अलग रहा है... बल्कि तुमने हर बात को हवा में उड़ा दिया है।”
वह क्षण भर के लिए गहरी सोच में डूब गई फिर अपना हाथ मेरे हाथ पर रख कर बोली-
“अगर तुम इस ख़याल में हो कि मैं नस्लपरस्त हूँ, काले लोगों को नफ़रत की निग़ाह से देखती हूँ तो तुम ग़लती पर हो...”
“तो...?”
“तुम्हें यहाँ आए ज़्यादा देर नहीं हुई... दुनिया का यह हिस्सा तुम्हारे लिए बिल्कुल नया है। नई-नई सच्चाइयाँ तुम्हारे सामने आ रही हैं... कुछ से तुम परिचित हो कुछ से नहीं।”
मैंने हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा। ख़ामोशी से सुनता रहा कि वह अपना दिल खोल पाए।
“तुम जानते ही अफ्रीक़ा डार्क कांटीनेन्ट था काले लोगों का... सफ़ेद राष्ट्रों ने जब इस डार्क कांटीनेन्ट पर क़दम रखा तो वहाँ के लोग समुदायों में बँटे हुए थे... अज्ञानी, अनपढ़, जंगली, जादू-टोनों के पाले हुए... दुनिया की किसी सभ्यता ने उन्हें छुआ तक न था। सभी जंगली थे, दरिंदे थे, एक-दूसरे के खून के प्यासे... कई समुदाय नंगे घूमा करते थे और कई नरभक्षी थे... कुछ तो आज भी खून पीने में संकोच नहीं करते... सफ़ेद क़ौमों ने उन्हें हर तरह की रोशनी दी, शिक्षा, खेती-बाड़ी, धर्म, भाषा, संस्कृति, संक्षेप में उन्हें जीने का ढंग सिखाया।”
“इन तमाम बातों के अलावा इतिहास हमें कुछ और भी बताता है कि श्वेत राष्ट्रों ने उन्हें कुछ और भी दिया?”
“वह क्या है?”
“ग़ुलामी।”
मेरी चोट ने उस पर इतना गहरा असर किया कि उसके चेहरे का रंग बदल गया। वह इतनी बेचैन हो गई कि कुर्सी पर पहलू बदलने लगी लेकिन औरत तेज़ थी। जल्द ही खुद पर क़ाबू पाकर बोल उठी, “अगर हम सियाह लोगों को गुलाम न बनाते तो जानते हो उनका अंत क्या होता?”
“क्या...?”
“वह ज़िन्दगी भर कुछ सीख न पाते... संसार की कोई सभ्यता उनके क़रीब से होकर न गुज़रती... आज भी वे हाथ में नेज़ा उठाए केवल अपने गुप्तांग को ढाँपे हुए हू-हा करते जंगलों में जानवरों के पीछे भागते-दौड़ते नज़र आते।”
इससे पहले कि मैं कुछ कहता, उसने अपनी बात को जारी रखा, “आज काला आदमी जहाँ तक पहुँचा है और जहाँ तक उसने उन्नति की है वह सब सफ़ेद राष्ट्रों के कारण है... मगर इतना ज़रूर कहूँगी कि काले लोगों के स्वभाव में तोड़-फोड़ और खून-ख़राबे का तत्त्व बहुत ज़्यादा मौजूद है... निसंदेह यह उन्हें अपने पूर्वजों की ओर से दान में मिला है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है।”
“लेकिन मैं तो कई कालों से मिल चुका हूँ चंद के साथ मेरा उठना-बैठना भी है। मैंने उनमें कोई बुराई नहीं पाई... बल्कि वह मुझे शिष्ट लगे हैं।”
“मैं कब कह रही हूँ कि वे सब के सब बुरे हैं... अच्छे-बुरे लोग तो हर जाति, हर बिरादरी में मौजूद होते हैं... मैं जो कह रही हूँ वह बिल्कुल अलग है।”
“लेकिन तुम्हारी बात मुझ तक पहुँच नहीं रही या संभव है मैं समझ नहीं पा रहा।”
“यही महसूस कर रही हूँ मैं भी।”
उसने बोतल उठा कर दोनों ग्लास वाइन से भरे और हल्का-सा घूँट भर कर बोली, “जिन दिनों चाइनीज़, इजिप्शियन और इंडस सभ्यताएँ अपनी ऊँचाई पर थीं यूरोप अँधेरे में डुबा हुआ था। श्वेत जातियाँ गुफाओं में रहा करती थीं, जंगलों में भटक कर हर उल्टा-सीधा जानवर खा कर ज़िन्दा रहा करती थीं लेकिन आज वही श्वेत जातियाँ अपनी सोच, दिमाग़, लगन, मेहनत और उदार-दृष्टि से कहाँ की कहाँ पहुँच चुकी हैं, वे ज़िन्दगी के हर हिस्से पर छाई हुई हैं और उनकी पकड़ इतनी मज़बूत है कि कोई ताक़त उन्हें छू नहीं सकती।”
“क्या तुम यह अपने अन्दर से महसूस करती हो?”
“बिल्कुल।” उसने बेबाक होकर जवाब दिया फिर जे़हन पर ज़ोर डाल कर अपने ख़याल को आगे बढ़ाया- “मुझे यह कहने में ज़रा भी लज्जा नहीं कि हम पश्चिम वाले दूसरी बड़ी जंग के बाद ऊपर से नीचे तक तबाह हो चुके थे... हम कहीं के नहीं रहे थे... हमारी कई कॉलोनियाँ हमसे छूट गई थीं, हमारी इकोनोमी नष्ट हो चुकी थी।”
यह कह कर वह इसलिए चुप हो गई कि मैं अवश्य बोलूँगा लेकिन जब उसे विश्वास हो गया कि मैं कुछ न बोलूँगा तो वह बोली, “अंतिम बड़ी जंग को गुज़रे हुए अभी चालीस वर्ष भी नहीं हुए हैं... लेकिन आज एक नज़र पश्चिम पर डाल कर देखो... श्वेत राष्ट्रों को क़रीब से देखो... क्या नहीं है उनके पास... कोई कमी महसूस होती है तुम्हें?”
अचानक ऐसा लगा कि वह सफ़ेद राष्ट्रों की प्रतिनिधि बनी मेरे सामने बैठी हुई है। अपने आप के सफ़ेद होने पर उसे गर्व है और यह सफ़ेद रंग उसकी नज़र में सर्वोत्तम हैं मैंने सीधे उससे जानना चाहा, “क्या तुमको गर्व है कि तुम सफ़ेद हो...?”
“क्यों नहीं... इसमें बुराई भी क्या है... मेरे बुजुर्गों ने दुनिया को नए से नए ज्ञान की रोशनी दी है... दुनिया को अंधेरे से निकालकर आधुनिक बनाया है... बिजली से लेकर हवाई जहाज़ तक दिए हैं... कम्प्यूटर के साथ न्यूक्लिअर एनर्जी दी है और जाने क्या-क्या देंगे। ”
एक बार फिर ऐसा लगा कि वह जिन लोगों का प्रतिनिधित्व कर रही थी और जो दृष्टिकोण पेश कर रही थी वह केवल उसका नहीं लगभग हर सफ़ेद आदमी का है। बोली, “मुझे ग़लत मत समझना मगर सच्चाई यह है कि मानवता के विकास में जो हाथ सफ़ेद क़ौमों का रहा है वह दूसरों का नहीं रहा।”
“इसीलिए खु़दा ने खुश होकर तुम लोगों को दौलत से मालामाल किया है?”
“क्या मालूम यही सच हो... पर इतना ज़रूर कहूँगी कि खु़दा ने हमारे हर आविष्कार को सराहा है।”
“इसीलिए पश्चिम वालों पर ज़्यादा मेहरबान है...?”
“क्या मालूम तुम्हारी यह बात भी सच हो... पर इतना अवश्य कहूँगी कि आज हम जहाँ खड़े हैं वह सब हमारी अक़्ल, सोच और मेहनत का नतीजा है।”
वह मेरा हर सवाल, जिसकी तह में व्यंग्य छुपा हुआ था, ज़रूर महसूस कर रही थी पर उखड़ने के बजाए वह बड़ी सावधानी से जवाब देते हुए उल्टा मुझे पर वार किए जा रही थी। मैं पैंतरा बदलने पर मज़बूर हो चुका था।
“यहाँ रह कर जब मैं पश्चिम और तीसरी दुनिया के लोगों की जीवन शैली और उनके अंतर को महसूस करता हूँ तो मुझे तीसरी दुनिया में भूख, गुरबत, बेरोज़गारी, लूट-खसोट, बिखराव, निरक्षरता, मानव अधिकारों का रोदन, अशान्ति और असुरक्षा दिखाई देती है... इस समय जाने क्यों मैं महसूस करता हूँ कि उनके सभी खुदा विवश, अपाहिज बल्कि मुर्दा हो चुके हैं।”
वह ध्यान से मेरी हर बात सुन रही थी कि उसकी आँखें मेरे चेहरे से अलग नहीं हो पा रही थीं। “और यहाँ चारों तरफ़ खुशहाली, संतोष, इत्मीनान, साक्षरता, अनुशासन, सभ्य सोसाइटी, मुद्रा-स्फीति, अमीरी और सुरक्षा दिखाई देती है... जानती हो इस समय मैं तुम्हारे खुदा के बारे में क्या महसूस करता हूँ?”
“क्या?”
“तुम्हारा खुदा बड़ा जानदार है और उसका रंग भी तुम्हारी तरह सफ़ेद है।”
“क्या?”
“हाँ सफ़ेद।”
वह चकित, खुद को भूली हुई, विस्फारित आँखों से मुझे देखती जा रही थी। उसकी समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था कि मेरी यह गवेषणा क्या मानी रखता है, उसके पीछे कौन-सा जज़्बा काम कर रहा है और वह कहाँ तक सच्चाई रखता है। पर जब वह मेरे जज़्बे से होकर मेरे ज़ेहन तक पहुँच गई तो उसका चेहरा आश्चर्य से पाक हो गया बल्कि उसकी पूरी शख्सियत तमतमा उठी कुछ यूँ कि उसने ज़िन्दगी का अहम राज़ जान लिया हो, पा लिया हो और वह इस पल हिमालय की चोटी पे खड़ी सारी दुनिया को बौना समझ रही हो। अपने आप उसकी गर्दन कुछ ऊपर को उठ गई।
“क्या मालूम जो तुमने कहा है, वही सच हो... मगर दुनिया जानती है खुदा के बेटे क्रॉइस्ट का रंग सफ़ेद ज़रूर था।”
“और उसकी माँ मेरी का भी...?”
“हाँ दुनिया यह भी जानती है।” लेकिन इतना कह कर वह अचानक इतनी गंभीर हो गई कि बिल्कुल ही अलग औरत दिखाई दी। हम दोनों की आँखें टकराईं कुछ यूँ कि अलग-अलग दुनिया खुद में टकरा रही हो। इसी कैफ़ियत में बोल उठी- “मगर तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो...? आख़िर तुम कहना क्या चाहते हो...?”
“यही कि तुम्हारा खुद दुनिया के तमाम खुदाओं से ताक़तवर है।”
देखते ही देखते उसका चेहरा गंभीरता की गहरी लकीरों से आज़ाद होता चला गया। दोनों हाथों से उसने मेरा हाथ थाम लिया। कुर्सी से उठ कर अपने होंठ मेरे हाथ की पीठ पर रख दिए। चूम कर बार-बार उसे अपनी आँखों से लगाया। फिर अत्यन्त प्यार से मुझे देख कर और दोबारा मेरा हाथ चूम कर बोली- “जब ही तो बार-बार कहती हूँ हमारे पास रहो... हमारा खुदा हमेशा तुम पर मेहरबान रहेगा।”
लेकिन उसका कहा मेरे कानों में पहुँचने से पहले ही कहीं हवा में रह गया था। मेरी नज़र में तो तीसरी दुनिया की भूख, ग़रीबी और अशान्ति घूम रही थी और मेरे दिमाग़ में उन देशों की छीनी हुई दौलत सवालिया निशान बन चुकी थी।
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