क़ैसर तमकीन एक कहानी गंगा जमुनी शुक्रिया इस मजहरे कमालाते खुदावन्दी (ईश्वर के चमत्कारों) का जिसके वजूद सरापा महमूद ने बज्मे तारीक (अं...
क़ैसर तमकीन
एक कहानी गंगा जमुनी
शुक्रिया इस मजहरे कमालाते खुदावन्दी (ईश्वर के चमत्कारों) का जिसके वजूद सरापा महमूद ने बज्मे तारीक (अंधेरी महफ़िल) इमकान में वहदत है औ-शरीअत की ताबनाकी को...
“प्रीतम आन मिलो...”
“लाहोल विला कुव्वत। अबे कम्बख्त कौन है? प्रीतम-प्रीतम लगाए हुए है।”
“या आन मिलो...”
“अबे चुप उल्लू के पट्ठे। अभी आन मिलता हूँ तेरी अम्मां से...” मिर्जा बीमार बख्त अब के वाकई ज़ोर से गुस्से में चिल्लाए मगर जव़ाब में बिलकुल घर के दरवाज़े के सामने ही किसी ने गोया उनको महज चिढ़ाने के लिए तान लगाई। “या। आन मिलो...”
अब मिर्जा बीमार बख्त से बिल्कुल जब्त न हो सका। चाँदी की मोठ वाली दो गज लंबी लाठी उठाई, पैरों में गरगाबियाँ डालीं और बाहर की तरफ़ चले। बीवी ने रास्ता रोका और बेटी ने हाथ पकड़ कर अपनी तरफ़ घसीटने की क़ोशिश की मगर मिर्जा का गुस्सा अपने शबाब पर था। दोनों को एक तरफ़ धकेल कर लाठी ठोंकते यह जा और वह जा।
बाहर निकल कर उन्होंने शररबार (अंगारों सी) निगाहों से इधर-उधर देखा और बड़ी बानगी से लाठी ठोंकी।
चाँदी वाली गली में हस्बेमामूल सुबह का शोर शराबा दोपहर से गले मिल रहा था। कलई गर बर्तनों पर रांगे के चमकते हुए छल्लों से कलई करने में मस्रूफ़ थे। नीची नीची छतों वाली नीम तारीक (आधी अंधरी) दुकानों में पतंग बनाने वाले अपने फ़न को आख़िरी सँभाला देने में कोशां थे। गली के बाहर मुहल्ले की लखौरी ईंटों की दीवारों पर खूंटियाँ और चर्खियाँ लगा कर कनकव्वों के लिए माँझे और डोर बढ़ी जा रही थी। म्यूनिसिपल्टी के मोटी धार के बम्बे पर हाफ़िज बशीर की बेवा तरकारियों का ढेर लगाए शलजम धो रही थी। बाँके लाल के किराना स्टोर पर उधार आटा और दाल माँगने वाली सैदानियाँ बुर्के ओढ़े नकाब उलटे, भारी भारी कूल्हों पर रीं रीं करते और नाक बहाते बच्चे टिकाए तरह-तरह के बहाने बना रही थीं। उनमें से बाज के हाथों महीन तार जैसे चाँदी के छल्ले एक आध सोने की बाली, नाम की कील या किसी नन्हीं बच्ची की छोटी सी चूड़ी भी थी जिसे रहन रख कर वह जो मिला आटा या धान मिले काकुन जैसे चावल ले जाने की फ़िक्र में थी। वह चाँदी सोने के छल्ले महज नाम के लिए रहन रखे जाते क्योंकि गर एक बार कोई जेवरनुमा चीज़ बाँकेलाल की किराना स्टोर पहुँच जाती तो फिर उसको वापस छुड़ाने का कोई सवाल ही न उठता। बुर्के वालियाँ खु�शामद करके आटा दाल घर ले जातीं। जहाँ गीली लकड़ियाँ फूंकते-फूंकते उनकी आँखें सुर्ख हो जातीं। फिर भी वह खाना पकाने में जुटी रहतीं। क्योंकि चिराग जलने के फौरन बाद ही रोज़ी कमाने वाले मजाज़ी ख़ुदा चीख कर सारा मुहल्ला सर पर उठा लेते।
गली चाँव-चाँव में नबी बख़्श जरकोब चाँदी का वर्क कूटे जा रहा था जिससे एक मख्सूस ज़िन्दगी आमेज आहन्ग (हलचल) पैदा होता रहता। इिफ़्तखार कसगर, आरिफ कलईगर और अब्दुल्ला शीरीना फ़रोश (मिठाई वाला) की दुकानों के आगे बढ़कर उस गली का रूप बदल जाता। वहाँ से बड़ी खुली-खुली और दो तीन दरों की दुकानों का सिलसिला शुरू हो जाता, जिसमें चिकन कामदानी बनाने वाले, अंग्रेज़ी दवाएँ बेचने वाले और तांबे पीतल के बर्तनों का कारोबार करने वाले मोलतोल में उलझे रहते। इसके बाद गली का सिरा शहर की बड़ी सड़क के चौराहे पर कुछ इस तरह मिल जाता कि मंज़र बदलने का एहसास भी न होता।
चौराहे पर मोटरों, तांगों, इक्कों, रिक्शेवालों व साइकिल सवारों के हुजूम में पता नहीं चलता कि इसी सड़क के मुतवाजी एक नीमरौशन सीली हुई ठंडी-ठंडी चाँदी वाली गली भी है जिसके वस्त में आलिमे दौरा (वर्तमान के बुद्धिजीवी)और फ़ाजिले अजल मिर्जा बीमार बख़्त का दौलत क़दा भी है जहाँ वह अहदे हाज़िर का कोई तारीखी सहीफ़ा रकम फ़र्मा ने में मस्रूफ़ और अन्दर घर में उनकी बेग़म और बेटी कामदानी के पुराने दुपट्टों से तार खींच-खींच कर चूल्हा ग़र्म करने की किसी नज़र जद्दो ज़हद में मुब्तिला हैं।
मिर्ज़ा बीमार बख़्त ने इधर-उधर देखा। उनको प्रीतिम को आन मिलने की दावत देने वाला तो कोई न दिखाई दिया, हाँ इिफ़्�तखार कसगर और नबी बख्श जरकोब की दुकानों से परे वह बड़ा सा लंगूरी बंदर खौखियाता नज़र आया, जिसके बारे में पूरी गली में तरह-तरह के कि�स्से मशहूर थे। बन्दर का मुँह खाकी रंग का था उसकी दुम बेतहाशा लंबी थी। यह बंदर गली के खुनावरों के लड़कों ने पाला था और उसका ख़ास काम मियाँ लोगों की पगड़ी उछालना था। अभी दो तीन दिन पहले उसने मौलवी हकी की बड़ी दुर्गत बनाई थी। मौलवी हकी अपनी घनी दाढ़ी और मूँछों के बीच में एक पाइप खोंसे रहते। वह महकमा ए-इत्तलाआत (संचार विभाग) में अखबारात पढ़ने उनकी तराशें निकाल कर अपने तब्सिरों के साथ मुतल्लिका (संबंधित) शोबों (विभागों) और अफ़सरों को भेजने पर मामूर थे। उनकी हैसियत ‘अपर डिवीजिन' क्लर्क की थी मगर वह अपने को आदबे इस्लामी का दानिश्वर (ज्ञानी) भी कहलाने पर मुसर रहते। चुनांचे अपनी बेपनाह मौलवियत के बावजूद एक पाइप मुँह में डाले रहते। यह पाइप आम तौर पर बुझा रहता क्योंकि कसीर-उल-अयाली की बिना पर (बच्चे ज़्यादा होने के कारण) वह महीने में तम्बाकू का सिर्फ़ एक ही डिब्बा टैड़ी मुल्ला की दुकान से हासिल करने की इस्तिताअत (सामर्थ्य) रखते थे। इस डिब्बे को वह बहुत किफ़ायत से महीना भर चलाने की कोशिश करते। वह साइकिल हाथ में पकड़े-पकड़े गली तै करते और सुनारों के इलाके में दाखिल होते ही उस पर सवार हो जाते क्योंकि यहाँ गली की चौड़ान में इजाफ़ा हो जाता था। यहाँ से सेक्रेट्रेट तक वह साइकिल पर जाते और पाइप मुँह में लटका रहता। लंगूरी बंदर ने कई बार दूर ही दूर से मौलवी हकी को चिढ़ाया और धमकाया मगर वह अपनी आबरू बचा कर निकल जाने में कामयाब हो गए। हाल ही में बन्दर ने मौलवी हकी की नकल में लाल गाजर मुँह में लगा ली। सुनारों के लड़के खूब हँसे और तरह-तरह की आवाज़ भी करना शुरू कर दिए जिनका मतलब तो मौलवी हक़ी खूब समझते थे मगर बज़ाहिर कोई ऐसी बात नहीं थी जिस की बिना पर वह ऐतराज कर सकते।
मौलवी हकी ने पाइप मुँह में लगाया और साइकिल पर सवार होने को थे कि बन्दर ने उछल कर उन पर हमला किया और मालूम नहीं किस महारत और चालाकी से उनका पाइप छीन कर खड़ा हो गया। मौलवी हकी ने कुछ कहना चाहा मगर बन्दर ने अपनी दुम इस तरह घुमाई कि मौलवी हकी के हाथ से साइकिल छूट गई। वह घबरा कर एक तरफ़ हो गए और साइकिल की तीलियाँ टूट गईं। दो-एक कलईगर, कनकव्वे बनाने वाले और कसगर लपक कर आए और मौलवी हकी को दिलासा देने लगे “अजी छोड़िए भी मौलवी साहब। यह लीजिए साइकिए सँभालिए। हाँ जी अपनी राह लीजिए, कहाँ बेफुजूल झगड़ा टण्टा कीजिएगा।”
मौलवी हकी अपना बायाँ घुटना झाड़ते गम-ओ-गुस्से से साइकिल पकड़ कर पैदल ही दफ्तर की तरफ़ चल दिए।
यह सारा कि�स्सा मिर्ज़ा बीमार बख्त के घर में कई औरतों का मौजू (विषय) रहा था उनको यह मालूम था कि इस लंगूर की वजह से शरीफ़ों का इस गली से गुज़रना ही मुश्किल हो गया था। यह बंदर रोज ही किसी मियाँ भाई की गत बना डालता। खासतौर पर बुर्केवालियों पर इस तरह झपटता कि अच्छे-अच्छे घरानों की सैय्यदजादियाँ बेपर्दा होकर चिल्लाने और गिड़गिड़ाने के सिवा कुछ न कर पातीं। उस दिन जब किसी बेफ़िक्रे ने ‘प्रीतम आन मिलो' का राग अलापा तो मिर्ज़ा खफ़ा हो कर बाहर निकल आए। गली में उनको कोई प्रीतम को दावत देने वाला न दिखाई दिया। हाँ, लंगूरी बंदर उनको देख कर ज़रूर खोखियाने लगा। वैसे मिर्ज़ा का हुलिया भी ऐसा था कि हर शख्स की नज़र उन पर पड़ रही थी। बन्दर ने जब कुछ धमकी दीं तो मिर्ज़ा अकड़ कर वहीं जम गए। बंदर ने उनका चैलेन्ज कुबूल कर लिया था और घुमाकर अपनी दुम सोंटे की तरह मारी। मिर्ज़ा बीमार बख़्त उछल कर एक तरफ़ हुए और साथ ही अपनी जवानी को ज़माने का हाथ दिखाते हुए घुमा कर जो लाठी मारी तो बंदर का दिमाग़ शल हो गया। वह बेहोश हो कर गिर पड़ा उसकी नाक से ख़ून बहने लगा।
“हाय राम गजब होए गवा।” कई लोगों ने सनसनीखेज लहज़ें में आवाजें़ लगाईं। लाला गोपीचंद धोती सँभालते आगे बढ़े मगर तब तक मिर्ज़ा बीमार बख़्त ने दो हाथ और जड़ दिए। बंदर का भेजा फट गया और वहीं तड़प कर मर गया।
“हाय रे। दय्या रे। क्या कर दिया मिर्ज़ा जी।” गली की खटिक औरतें सन्नाटे में आ गईं।”
“बाप रे बाप। हत्या हो गई। हनुमान हत्या हो गई।” सर्राफ के शैतान लड़के वहशतजदा लहजों में बिलबिलाए। पूरी गली में सनसनी फैल गयी। “अरे मिर्ज़ा जी! जनाब मिर्ज़ा साहब क्या गजब कर दिया।” इिफ़्तखार कसगर, आरिफ कलईगर और भोलू मिर्ज़ा को एक तरफ़ खींचने लगे मगर तब तक मिर्ज़ा बीमार बख़्त गुस्से से बेकाबू हो चुके थे। फहश (गन्दी) गालियाँ बकने लगे। “अब अगर कोई मादर... हरामीपन करेगा तो साले के चूतड़ों में यही लट्ठ न घूसेंड़ दूँ तो मैं भी अस्ल मुगल बच्चा नहीं।”
यह मुगलिया आन-बान देखकर मानीलाल के लड़कों ने हर-हर महादेव का नारा लगाया। जवाब में मजमें ने “जय हनुमान जी की जय। जय भारत माता की जय।” के नारे लगाए। सर्राफे के लड़कों ने दाढ़ी वालों, चौगोशियार टोपी पहनने वालों और तहमद पाजामा पहने हुए लोगों की घूँसों लातों और मुक्क़ों से तवाजेह शुरू कर दी। बाज दिलेर जवानों ने पलंग की पटि्टयों और पायों से भी मियाँ लोगों को धुनकना शुरू कर दिया। तब तक पूरी गली में धड़ाधड़ दुकानें बन्द होने लगीं।
अली जानी कबर्लाई के ताजिए, जरी और अलम- ओ-तुगैरा बाहर रखे हुए थे, वह सबको जल्दी-जल्दी समेट कर दुकान बन्द कर रहा था, रतन सिंह सलूजा और मानी लाल के लड़कों ने जरी ताजिए, अलम और दुगरों पर जूते और गोबर फेंकना शुरू कर दिया। अली जानी का जोशे ईमान जलाल पर आ गया उसने ‘या अली' का नारा लगा कर दुर्गा तम्बोली के नौजवान बेटे के सीने में करोली उतार दी। सोला सतरह बरस के खूबरू लड़के का ख़ून देखकर सेवादल के नवयुवकों को जोश आ गया बिल्कुल जादूई तरीके पर हर तरफ़ से चाकू छुरियाँ निकल आईं जो हाल ही में प्रदेश कांग्रेस के प्रधान सीताराम गन्थे ने नौजवानों को पाकिस्तानी जासूसों का मुक़ाबला करने के लिए बाँटी थीं।
छूरी के इस्तेमाल से फसाद अच्छी तरह रंग पर आ गया। पन्नालाल के पुल पर बनी हुई पुलिस चौकी पर तैनात पी.ए.सी. के बहादुर जवान एक ही रेले में घुस आए और उन्होंने मियाँ जी लोगों के पाजामें और पतलूने उतार-उतार कर इस बुरी तरह उनकी मरम्मत की कि सब के हुलिए बिगड़ गए, बहुत सों की तो हालत ऐसी थी कि खुद उनकी माएँ भी उनको न पहचान सकतीं।
पी.ए.सी. के बहादुर नौजवानों को देख कर मानी लाल के लड़कों, खरे बाबू के चेलों और गन्थे जी के नवयुवकों ने इत्मीनान की साँस ली और मिट्टी के तेल के डिब्बे ला लाकर मियाँ लोगों के मकानों और दुकानों पर छिड़कने लगे। चार बजते-बजते चाँदी वाली गली का एक हिस्सा जल कर राख हो चुका था। तब तक अकाशवाणी ने अपनी कौमी (राष्ट्रीय) खबरों में ऐलान कर दिया था कि खानपुर शहर में पाकिस्तानी घुसपैठियों ने गड़बड़ की जिससे दो घुसपैठिए मारे गए।
दूसरे दिन उसी जली झुलसी गली में बड़ा सा लाल कपड़ा बिछा था जिस पर लंगूर की लाश थी। उसके आस-पास खरे खोटे सिक्कों का ढेर था। लाश के सरहाने धूप जल रही थी। हनुमान जी के पुजारी दूर-दूर से आकर कपड़े पर पैसे डाल रहे थे। जहूर तम्बाकू वाले ने पूरा सौ का नोट एहतियात से सरहाने रख दिया और दोनों हाथ जोड़कर अदब से वहाँ से हट गया।
इफ़्तेखार कसगर और आरिफ कलई गर की जली हुई दुकानों के सामने चारपाइयाँ पड़ी थीं जिन पर पी.ए.सी. के बहादुर जवान बैठे थे। उनकी पगड़ियाँ और लोहे के टोप चारपाइयों के सरहाने धरे थे और वह खुद इस तरह बैठे थे कि दोनों टाँगों के बीच में संगीन लगी बन्दूकें या लाठियाँ खड़ी थीं। पी.ए.सी. के बहादुर जवान मूँछें मरोड़ कर पीतल के चमकते गिलासों में दूध और बदाम में घुटी हुई भांग पी रहे थे जो प्रदेश कांग्रेस के प्रधान के घर से बराबर भेजी जा रही थी।
“दो घुसपैठिए मारे गए...? तहसीन बाजी उर्फ सुरय्या शहला नाज को न फसाद का डर था और न आग लगाने का खौफ़। जिस दिन हनुमान हत्या हुई तो उनको अपने शौहर के बारे में भी कोई फ़िक्र न थी जो मज़े से हिन्दी साहित्य गोष्ठी के कार्यालय में बैठे उर्दू की लबी बदले जाने के बारे में किसी ‘नवीन विचारधारा की चर्चा' में मस्रूफ थे।
तहसीन बाजी उर्फ सुरय्या शहलनाज बीवी के हुजरे में थीं। यह हुजरा मौखमचंद्र खेम जी की कोठी का हिस्सा था जिसकी खिड़कियाँ सड़क और गली दोनों तरफ़ खुलती थीं। इस के बावजूद मोखमचन्द्र खेम जी की कोठी पर कभी कोई आँच आने का खतरा ही न था। यक्का तांगा यूनियन के परेशान हाल नेता श्रीमाली जी का कहना था कि भगवान खुद अगर अपने हाथ से दुनिया को बिगड़ना चाहें तब भी मौखमचन्द्र खेम जी की कोठी के बारे में तनिक सोच विचार ज़रूर करेंगे।
मौखमचन्द्र खेम जी की कोठी का बालाई हिस्सा हवाई जहाज की शक्ल का था। दूर से देखने पर लगता था जैसे सचमुच छत पर कोई जम्बो जेट खड़ा है। उसके नीचे कई हिस्से थे। एक हिस्सा बीवी का हुजरा कहलाता था। उसकी वजह यह थी कि मौखमचन्द्र खेम जी जब रेलवे वर्कशाप में मजदूरी करते थे तो एक बार वह मशीनों के बीच में ऐसे फँस गए कि ज़िन्दा निकलना नामुमकिन था। मालूम नहीं कैसे उनके मुँह से निकला- “या बीवी सय्यदा पाक मदद कीजिओ।”
खुदा का करना ऐसा हुआ कि बिजली ही फेल हुई जिससे सारा कारख़ाना ठप हो गया और इस तरह मौखम चन्द्र खेम जी बच निकले, ज़रा सी ख़राश भी न आई। मौखमचन्द्र खेम जी ने कोठी में एक हिस्सा अलग कर दिया जिसमें अलग और ताजिए रखे जाते, मोहर्रम में मजलिसें होतीं और एक खरा सय्यद घराना ज़रूर उस हिस्से की देख भाल के लिए कोठी में रहता। मौखमचन्द्र खेम जी की औलाद को भी बड़ा एतकाद था, इसलिए उनके देहान्त के बाद लड़कों ने हुजरा न सिर्फ यह बरकरार रखा बल्कि उस में रहने वाले घराने के तमाम अखराजात अदा करने की जिम्मेदारी भी ली। आजकल उस हिस्से में तहसीन बाजी उर्फ सुरय्या शहला नाज मकीम थीं (रहती थी)। जिनके नान नफ़का छोड़कर पानदान और मेवा खोरी के लिए सौ रुपये महीना वजीफा मौखमचन्द्र खेम जी के सर्फे ख़ास से मिलता था।
तो जब आकशवाणी ने ऐलान किया कि घुसपैठिए पाकिस्तानी मारे गये तो तहसीन बाजी उर्फ सरय्या नाज अपनी गंगा जमनी तहजीब और कौमी यकजहती के बावजूद ज़रा सोच में पड़ गईं। फसाद का तमाशा देखते हुए उन्होंने खुद गिना था, ग्यारह मुर्दे तो सिर्फ एक ट्रक में डाले गए थे। वह सब पाकिस्तानी घुसपैठिए थे क्योंकि सबके निचले बदन नंगे थे और एक मुर्दे की नंगी टाँगों पर पतला मटियाला गू जमा हुआ था। उस घुसपैठिए पर जामे शहादत पीते वक़्त शायद अल्लाह का खौफ़ तारी हो गया था। फसाद के शोर, हंगामे और मारामारी में किसी का भी ध्यान बीवी के हुजरे की तरफ़ नहीं गया। वहाँ तहसीन बाजी उर्फ सुरय्या शहला नाज गिन रही थीं। एक दो तीन ग्यारह तक की गिनती तो उनको याद थी उसके बाद कितने जख्मी हुए और कहाँ गए उसके बारे में उनको कुछ भी नहीं मालूम हो सका।
तहसीन बाजी उर्फ सुरैया शहला नाज सोच रही थीं कि जब वह फसाद के बारे में कहानी लिखेंगी तो कैसे? ग्यारह पाकिस्तानी घुपैठियों की लाशें तो उन्होंने खुद गिनी थीं। उसके मुक़ाबले में देश सेवकों में से किसी एक की भी अर्थी नहीं उठी थी। सिर्फ दुर्गा तम्बोली का बेटा शहीद जख़्मी हुआ था मगर अब अस्पताल में खतरे से बाहर था। जब तक घुसपैठियों के हाथों देश सेवकों की बिपता भी न बयान की जाए कहानी में तवाजन और तरक्की पसन्दी पैदा नहीं होगी।
सोचते-सोचते तहसीन बाजी उर्फ सुरैया शहला नाज ने फैसला किया कि इतने बड़े फसाद पर कहानी लिखने से काम नहीं चलेगा इसके बारे में तो तफसील से नावल, लिखना चाहिए उसमें फिर ‘बैलेन्स' अच्छी तरह पैदा कर दिया जाएगा।
स्वतंत्र देश के संपादक ने उस असना में फसाद पर तब्सिरा करते हुए चाँदी वाली गली के सुनारों की कड़ी आलोचना की कि उन लड़कों ने बीच गली में लंगूरी बंदर पाल कर शरीफों की आमादो रफ़त दुश्वार कर दी। संपादक जी यानि श्री अखिलेश मिश्र ने लिखा कि हनुमान जी तो सच्चाई के लिए और सच्चों की मदद करने के लिए पैदा हुए थे इस तरह की गुण्डागर्दी से तो उनका अपमान होता है।
श्री अखिलेश मिश्र के तब्सिरे की बड़ी चर्चा रही। डाक्टर शमशेर सलजोकी डी. लिट बहुत खुश हुए। उन्होंने श्री अखिलेश सर के पुत्र श्री कमलेश सर को अरबी ज़बान-ओ-अदब में सौ में एक सौ दस एजाजी नम्बन दिए उसके अलावा उनको एक तलाई (सोने की) तमगा भी अता किया, जिसके बाद काहिरा के हिन्दुस्तानी सफ़ारतख़ाने में श्री कमलेश की नौकरी पक्की हो गई।
चाँदी वाली गली में मियाँ लोगों के अंधेरे पुराने, सीले और भुरभुरी मिट्टी की तरह गिरते और रेजा-रेजा होते मकान जब जल चुके, मलबा साफ़ किया जा चुका और वहाँ बस्ती बसाने का ठेका हुक्मचन्द मूलीचन्द को मिल चुका तो कैलाशचन्द खिजां और प्यारेलाल अमजद ने तहसीन बाजी उर्फ सुरैया शहला नाज के तआवुन (सौजन्य) से एक बज्मे मुशायरा का एहतमाम किया जिसकी सदारत फ़ाजिले देवबन्द जनाब गंगाप्रसाद मदनी ने की। बे पायां ‘समन्दरी' ने मरहूम लंगूर की मौत पर बहुत अन्दोहनाक (करूणापूर्ण) और हसरतनात मर्सिया पढ़ा। मुफती सिब्गतुल्ला हजाजी ने कहा कि चूँकि जदीद तहकीक़ात और एन्थ्रोपोलॉजी से साबित हो चुका है कि हनुमान जी नस्ले इन्सानी के मैरिसे आला (पूर्वज) थे इसलिए मैं ने आज तक जो कुआर्न करीम पढ़ा है उसका सवाब मरहूम बन्दर की रूह को बख़्शता हूँ।
पूरी महफ़िल जज्बा-ए-इत्तिहाद (मिल-जुलकर करने की भावना) और कौमी यकजहती और रवादारी के जज्बे से सरशार हो गई। पाकिस्तान से आए मेहमान शायरों ने हसरत व अफसोस का इज़हार करते हुए कहा कि अफसोस हमारे मुल्क में इस तरह की वसी-उल-कलबी (सहृदयता) और कौमी रवादारी की कोई सवाल ही नहीं रह गया है।
“वहाँ तो इस्लाम बैठा हुआ है।” संजीदा नियाजी ने जो भारत में सियासी पनाहगजीन (शरणार्थी) की हैसियत से रह रही थी, तल्खी और हिकारत से कहा और सरदार हरमीत सिंह ताबां की अता करदा (दी हुई) व्हेस्की की बोतल मुँह से लगा दी।
वह लोग मालूम नहीं कौन थे, कहाँ से आए थे और वहाँ मालूम नहीं क्यों जमा हुए थे। ज़्यादातर औरतें थीं जो बेतकान बातें किए जा रही थीं। बहुत से बच्चे भी थे जो लड़ रहे थे, चिल्ला रहे थे, और एक अजीब तूफ़ान बदतमीजी मचा हुआ था। इस हंगामों में आसिया किसी मेले में खोए हुए बच्चे की तरह भटक रही थी, तब ही इदरीस चचा की नई बहू ने उसको बुला कर मुहब्बत से उसका नाम पूछा और फिर पूछा, भाई बहन भी हैं?”
उसने नीम वहशत के आलम में कहा “एक भाई था।”
इदरीस चचा की बहू हैरत और इश्तियाक से बोली, “था क्या? क्या मानी। क्या हुआ?”
आसिया ने मासूमियत से जवाब दिया “कहीं दूर चला गया।”
आसिया की उम्र तो ज़्यादा से ज़्यादा ग्यारह बरस थी मगर हस्सास वह गजब की थी। सब दिनों की तरह उसको फिर यह ख़्याल काटने लगा कि वह कमज़ोर हो गई है। उसमें कोई ऐब पैदा हो गया है, कोई कमी है जब से उसका भैय्या के न होने से लोगों की दिलचस्पी खुद आसिया में भी खत्म हो गई थी।
लोग बहुत दूर क्यों चले जाते हैं। बहुत दूर धकेल दिए जाते हैं मगर वह जाते कहाँ हैं? यह बात आसिया को समझ में न आ सकी। उस दिन जब इदरीस चचा की नई बहू ने सवाल किया “अरे, भाई कोई नहीं है” तो वह झल्लाकर पैर पटखती हुई अपने कमरे में चली गई।
उसको बुरी तरह रोना आ रहा था। भैय्या तुम कहाँ चले गए। मैं तुमको सब तरफ़ ढूँढ़ती हूँ, हर कोने में जाकर देखती हूँ, पलंगों और मसहरियों के नीचे झाँकती हूँ। अलमारियाँ खोल कर देखती हूँ कि शायद तुम यहाँ छिपे हो।”
”भैय्या मुझे तुम्हारे कमरे में जाते डर लगता है, वहाँ अब तुम्हारी कोई भी चीज़ नहीं है। मैं जब उधर जाने लगती हूँ तो अम्मी मुझे रोक लेती हैं। वह मुझको उधर जाने ही नहीं देतीं। मैं ज़िद करके तुम्हें सताने के लिए तुम्हारे कमरे में जाती हूँ। मेरे भैय्या तुम अपना कमरा छोड़ गए। तुम्हारा पलंग, तुम्हारी अलमारी, तुम्हारे कपड़े, खिलौने कुछ भी तो वहाँ नहीं हैं। भैय्या तुम्हारा कमरा क्यों खाली पड़ा है?
“हाँ भैय्या, तुम्हारा टामस दी इंजन जो चचा अब्बू लंदन से लाए थे, अम्मी ने उठाकर ड्राइवर साहब के बेटे आजम को दे दिया। तुम्हारे कपड़े पता नहीं कहाँ भिजवा दिये। तुम्हारा फुटबॉल, तुम्हारा क्रिकेट का बल्ला, सब चीज़ें अम्मी ने अलताफ चोट्टे को दे दी। मैं लड़ती रही, रोती रही और कहती रही कि भैय्या आएगा तो बहुत खफ़ा होगा, मगर अम्मी अपनी आँखों पर काली ऐनक लगाए सब चीज़ें उठा उठा कर एक बारे में डालती रहीं फिर पता नहीं उन्होंने कहाँ भिजवा दिया।
“प्यारे भैय्या! तुम तो कह गए थे कि आकर तेरी चोटी खीचूँगा, फिर क्यों नहीं आए?
“भैय्या! मामूँ जान तुमको सफेद चादर में लपेटे हुए गोद में उठा रहे थे, मैं चिल्लाई भैय्या कहाँ जा रहा है किसी ने कुछ नहीं बताया, सब मुझे को अलग घसीट ले गए।
“हाँ भैय्या! छोटे पप्पा अपनी मोटर में बिठालकर मुझको चिड़िया घर घुमाने ले गए! बड़ा मज़ा आया। मैंने कहा, हम भैय्या के साथ ज़रूर यहाँ आएंगे। भैय्या बिल्कुल नहीं डरेगा।
“छोटे पप्पा मुझको बड़े बाज़ार भी ले गए। ढेर सारी मिठाइयाँ दीं। मैंने जल्दी-जल्दी हड़प की। फिर चोरी चोरी सँभाल कर तुम्हारे लिए रखने लगी। मैं सोच रही थी कि तुमको बताऊँगी, खूब चिढ़ाऊँगी कि तुम नहीं थे तो मैंने खूब सैर सपाटा किया। बड़ा मज़ा आया घूमने में। फिर मैं कई दिन तक घर नहीं गई, किसी ने जाने ही नहीं दिया, तुमसे मिलने के लिए तड़प रही थी। तुमको सताने और तुमसे लड़ने के लिए बेचैन थी।
“भैय्या! जब मैं दौड़ी-दौड़ी घर में आई तो तुम यहाँ नहीं थे। अम्मी बस चुप-चुप थीं। मैं तुम्हारे कमरे की तरफ़ जाने लगती तो अम्मी मुझको घसीट कर गले लगा लेतीं। अब्बू मुझको देखते ही दूसरी तरफ़ मुँह फेर लेते। पता नहीं दोनों को क्या हो गया है। क्या तुमने कुछ कर दिया है भैय्या?
“मेरे भैय्या! तुम्हारे बगैर कुछ अच्छा नहीं लगता। मेरे प्यारे भैय्या तुम हम से क्यों रूठ गए। मैं कसम खाती हूँ भैय्या अब कभी तुम से नहीं लडूँगी। मेरे प्यारे भैय्या, माफ़ कर दो, अब तो घर आ जाओ।
“तुम ने कच्ची इमलियाँ तोड़ तोड़ कर खाई थीं और खाँसी हो गई थी तो मैंने तो अम्मी को बताया। तुमने मेरे बाल नोच लिए थे। मेरे भैय्या, अच्छे से भैय्या अब मैं वादा करती हूँ, कभी तुम्हारी शिकायत अम्मी से नहीं करूँगी! अब तो न रूठो। अब तो मान जाओ।
“कल सुबह मैंने देखा भैय्या आ गया। मैं जल्दी से चिल्लाती हुई दौड़ी, “अम्मी, भैय्या आ गया।”
“भैय्या तुम नहीं आए मैं तो ख्वाब देख रही थी मैं सोते-सोते पलंग से गिर पड़ी थी।”
दूसरी सुबह आसिया का सर और माथा सूजा हुआ था नाक से बराबर खू�न की धारें निकल रही थीं। उसका पूरा बदन ऐसा हलका था जैसे शुरू बरसात का भटका हुआ बादल, उसको नींद आ रही थी तभी उसने देखा। उसका भैय्या दरवाजे़ पर खड़ा कच्ची-कच्ची इमलियाँ उसको दिखाकर खा रहा था।
भैय्या, भैय्या वो चिल्लाई और न जाने कहाँ दूर बहुत दूर निकल गई, उसका भैय्या उसे बुला ले गया था।
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