सफ़िया सिद्दीक़ी बेउनवान ज़िन्दगी रख़शंदा मन ही मन अपने कहे शब्द दोहरा रही थी और शर्मिन्दा हो रही थी। आज के अख़बार की हेडलाइन देखते ...
सफ़िया सिद्दीक़ी
बेउनवान ज़िन्दगी
रख़शंदा मन ही मन अपने कहे शब्द दोहरा रही थी और शर्मिन्दा हो रही थी। आज के अख़बार की हेडलाइन देखते हुए उसे अपनी कही बातें याद आ रही थीं उसने असग़र से कहा था, “तुमने जर्नलिज़्म में मास्टर किया है, और वह भी फ़र्स्ट क्लास तुम इस छोटे से प्रोविंशल अख़बार में क्या कर रहे हो?”
असग़र ने हँस कर कहा था- “अपने पिताश्री के अख़बार के बारे में तुम्हारे ख़यालात बहुत महान हैं।”
रख़शंदा चिढ़कर बोली थी, “तुम जानते हो मैं क्या कह रही हूँ तुम लाहौर या कराची के किसी राष्ट्रीय दैनिक में भी काम कर सकते थे, फिर पिन्डी के इस छोटे से गुमनाम अख़बार में काम करना, जिसे आरम्भ हुए दो साल ही हुए हैं, और जो सिर्फ़ डैडी का शौक़ है- वो अमेरिका में कमाई हुई और बड़ी मेहनत से कमाई हुई दौलत ख़र्च करना चाहते हैं- वो जवानी में अपनी ज़िम्मेदारियों की वजह से अपना ये शौक पूरा नहीं कर पाये....।”
असग़र ने उसकी बात काटते हुए कहा, “क्या अब उनको अपना सपना पूरा करने में तुम्हें आपत्ति है? उन्होंने अपने परिवार के लिये सारी सुख सुविधायें जुटा दी हैं, अब उन्हें अपना शौक... और मेरा शौक पूरा करने दो। रही किसी बड़े दैनिक में काम करने की बात”, उसने टेबल पर बिखरे क़लम (पेन) को समेटकर डिब्बे में सहेज कर रखते हुए कहा- “मुझे बेग साहब का जोश और जज़्बा ही तो यहाँ लाया है। और तुम देखना एक दिन यही अख़बार राष्ट्रीय अहमियत प्राप्त कर लेगा। हमारा ये अख़बार बड़े-बड़े लोगों की खबरें छापने के बजाय छोटे-छोटे लोगों के बारे में सही और सच्ची ख़बरें प्रकाशित करने पर पत्रकारिता का मील का पत्थर साबित होगा।”
वो सोच रही थी- इतने कम समय में अख़बार को पूरे देश में प्रसिद्ध करा ही दिया है। लोग इसके हवाले से ख़बरें छापते हैं और अब.... उसने अख़बार की सुर्खी पर नज़र डाली... गाँव की मस्जिद के इमाम की बहू पर सामूहिक बलात्कार- लड़की की हालत नाजुक- ख़बर का विवरण उसे मालूम था- असग़र ने उसे स्वयं बताया था, उसके शब्द रख़शंदा के दिमाग़ में गूंजने लगे- घटना की सुबह को ही इस ख़बर का प्रकाशित हो जाना कोई ऐसी वैसी बात नहीं थी।
मेरे एक दोस्त का भाई लन्दन से शादी करने गाँव आया था- ख़ूब धूमधाम से शादी हो रही थी। मेरे दोस्त ने मुझे दावत दी थी, और अनुरोध किया था कि मैं ज़रूर दावत में शामिल होऊँ और अगर मुमकिन हो तो अपने कैमरामेन को भी साथ लाऊँ, ताकि अच्छी-अच्छी तस्वीरें ली जा सके। मैंने अपने बड़े भाई से उनकी कार माँगी एक रात के लिये और हमीद यानी कैमरामेन को साथ लिया और आफ़िस से छूटने के बाद हम बन संवर कर शादी में शामिल होने के लिये रवाना हो गये। मग़रिब की नमाज़ के बाद निकाह होना था। हम निकाह के समय पहुँच गये थे। फिर दूल्हा तो अन्दर चला गया और लड़कों ने भांगड़ा नाचना शुरू कर दिया। एक तरफ� खाने का इन्तिज़ाम था, हम उसी तरफ� बढ़ गये और कोल्ड-ड्रिंक पीने लगे। चन्द मिनट ही गुज़रे होंगे कि, कुछ लड़के दौड़ते हुए हमारे पास आये और कहने लगे - “साहब जी आप के पास कार है- आप इमामदीन चाचा की मदद करें। कुछ लोग उनकी बहू को उठाकर ले गये हैं। हम उन्हें ढूँढ़ रहे हैं। मगर वो कार पर थे, जाने कहाँ ले गये होंगे उसे”- वे बेचारे हाँप रहे थे लगता था कि बहुत दौड़ते रहे थे। हम दोनों गाड़ी की तरफ़ भागे। पास ही एक बूढ़े दाढ़ी वाले आदमी को देखकर उसकी हालत से अन्दाज़ा लगा लिया कि वही इमामदीन हैं। मैंने उसे पकड़कर गाड़ी में बिठाया, वो लोग भी बैठ गये। हमीद मेरे साथ था मैंने कार स्टार्ट की और उनसे पूछा कि किधर चलूँ? उन्हें कुछ पता नहीं था। आसपास वो देख ही चुके थे एक आदमी- “पुत्तर वो गड्डी में ले गये हैं तो दूर ही ले गये होंगे, खेतों की तरफ़ चल.... हम खेतों में ढूँढ़ते हुए आगे निकले तो बाग़ आ गये। वहाँ गाड़ी के पहियों के निशान भी नज़र आ रहे थे हमने गाड़ी की हेडलाइट जलाकर देखना शुरू किया तो एक पेड़ के नीचे कपड़ों का एक बन्डल सा नज़र आया। एक आदमी उतर कर उसकी तरफ़ भागने ही वाला था कि मैंने उसे रोक दिया और कहा चाचा इमामदीन को जाने दे- वो रुक गया और चाचा इमामदीन उस तरफ़ गया और जब चादर उतार कर उस पर डाल दिया तो हम समझ गये कि वही उसकी बहू है- मैंने हमीद से कहा- कैमरा निकाल ले। इस तरह हम आगे बढ़े। इमामदीन फूट-फूटकर रो रहा था। सामने लड़की बेहोश पड़ी थी- मैंने उसकी नब्ज़ टटोली जो चल रही थी। मैंने इमामदीन से पूछकर उसकी तस्वीर उतार ली, ताकि पुलिस को उसकी हालत का सबूत दिया जा सके। फिर हम उसको उठाकर कार में लाये और अस्पताल ले जाने के लिये शहर की ओर तेजी से चल पड़े। हाँ उसके पास मैंने तीन चीज़ें देखीं जिन्हें चुटकी से पकड़कर प्लास्टिक की थैली में रख लिया। “तुम्हारे पास प्लास्टिक की थैली कहाँ से आई, तुम तो शादी में आये थे?” उसने पूछा था मैंने जवाब दिया- “मैं हर वक़्त तैयार रहता हूँ- क्या ख़बर कब किस चीज़ की ज़रूरत पड़ जाये । हाँ उन तीन चीज़ों में एक कीमती मफ़लर था। एक वैसी ही कीमती टाई थी और तीसरी चीज़ एक गर्म टोपी थी.... ये चीजें मैंने पुलिस के हवाले कर दी- मगर इनका क्या बनेगा, किस काम आयेंगे ये सबूत ज़ाहिर है किसी बड़े आदमी के बेटे की हरकत मालूम होती है। किसी चौधरी या ज़मींदार का बेटा- अब भला उनको क्या सज़ा होगी।” उसने बड़े उदास लहजे में कहा था, “किसकी हिम्मत है कि उनपर हाथ डाल सके?”
रख़शंदा ने असग़र को बताया- “मैं अस्पताल गई थी- रेशमाँ (बहू) को होश आ गया है- मगर वो बहुत कमज़ोर है। बिल्कुल ख़ामोश, पुलिस वाले बयान लेना चाहते थे, मैंने उनसे कहा- इस वक़्त वो भयभीत है। उसकी समझ में नहीं आ रहा होगा कि क्या हो गया उसके साथ- अभी इंतजार करें। हाँ- डॉक्टर बता रही थी कि वह.... वो गर्भ से थी- उस का गर्भपात हो गया है और वो बहुत ही कमज़ोर है, खून बहुत निकल गया है।”
“इन कम्बख्तों को सरेआम फांसी पर लटकाना चाहिये, मगर उन्हें कुछ भी नहीं होगा और वो इसी तरह दनदनाते फिरेंगे- किसी ग़रीब की इज़्ज़त से इस तरह”.... उसकी आवाज़ रुँध गई और वो ख़ामोश हो गया- रख़शंदा ने उसका कंधा थपथपाया।
“हम तुम कर भी क्या सकते हैं- जब कानून भी कमज़ोर को सुरक्षा नहीं दे सकता।” मैंने सोचा था- बल्कि मेरा संकल्प था कि मैं समाज को सारी गन्दगियों से साफ करने की कोशिश करूँगा, गरीबों की आवाज़ बनूँगा और उनकी समस्याओं को हल करने में मदद करूँगा। मगर....मैं तो बहुत कमज़ोर निकला- तुम्हें याद है वो अमेरिकन डिटेक्टिव सीरीज़... मैंने बहुत देखी थी बचपन में ‘स्टार्स की एन्ड हिच म्यामी वाइस-कोलंबो', आदि-आदि और मैं बचपन से ही ‘प्रायवेट इन वेस्टीगेटर' बनने का सपना देख रहा था- मगर अब्बा ने समझाया कि हमारे देश में शरीफ़ लोग ये काम नहीं कर सकते, तो मैंने ‘इन्वेस्टिव जर्नलिस्ट' बनने का इरादा किया मगर... क्या फायदा ऐसी छानबीन का जिसका कोई परिणाम न निकले, मुजरिम पकड़ा न जाये, न ही उसे सज़ा दी जाये- हम क्या कर सकते हैं, जब कानून ही हमारा साथ न दे... मुझे चाचा इमामदीन के पास जाना चाहिये, ख़ुदा जाने, रेशमां का शौहर रशीदा आया या नहीं? हाँ उसकी तो कोई चर्चा ही नहीं हुई वो कहाँ था इस बीच?”
“वो शहर में किसी मोटर मैकेनिक के यहाँ काम करता है, हर सप्ताह दो दिनों के लिये आता है। गाँव में जल्दी शादी कर देते हैं दोनों अभी बच्चे हैं- रशीदा अभी उन्नीस वर्ष का होगा- तुम तो हो न आफिस में, मैं ज़रा गाँव जा रहा हूँ।” असग़र ने रख़शंदा से कहा- “बहुत डिप्रेशन होता है रेशमाँ की हालत देखकर- और ये सोच कर कि बदमाशों का कुछ भी नहीं बिगडे़गा।” रख़शंदा ने अफ्सों से कहा।
“तुम क्यों आ गई फिर इस अख़बार में? तुमने साहित्य पढ़ा था किसी स्कूल में पढ़ातीं, ख़बरें तो बस ऐसी ही होती हैं।” असग़र ने चुटकी ली। “पढ़ाने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं, और तुम तो जानते हो, मैं अपने होने वाले पति का इंतज़ार कर रही हूँ- वो अमेरिका से स्पेशलाइज़ कर के आ जाये, तो ख़ुदा जाने हमारा रहना कहाँ हो? तो मैं कोई कैरियर कैसे शुरू कर सकती हूँ- फिर एक डॉक्टर की बीवी को काम नहीं करना चाहिये।” रख़शंदा ने उसे जवाब दिया।
“क्यों?” असग़र ने पूछा।
“भई, दोनों कैसे व्यस्त रह सकते हैं- और फिर एक हार्ट सर्जन की व्यस्तता का क्या कहना?” रख़शंदा ने कहा।
“अच्छा, तो श्रीमान जी लोगों के दिल चीरेंगे वैसे तुम्हारा दिल तो पहले ही चीर चुके हैं- अच्छा अब मैं चला- ख़ुदा हाफिज़।” असग़र ने उठते हुए कहा।
“ख़ुदा हाफिज़- इमामदीन चाचा को मेरा सलाम कहना- पता नहीं उनकी बीवी का क्या हाल होगा?” रख़शंदा ने कहा।
“क्या हाल होगा? अरे वो भी बदहाल होंगी, इमामदीन को देखा था अस्पताल में?” असगर ने पूछा।
“बेचारे ग़रीब लोग हमारे मुल्क के”, ये कहता हुआ असग़र कमरे से बाहर चला गया।
चौधरी साहब दो दिन बाद दुबई से सुबह-सुबह वापस आये तो अपने बेटे और उसके दोस्तों को घर में पाकर बहुत खुश हुए- लेकिन जब उनकी नज़र पुराने अख़बारों पर पड़ी जो उनकी अनुपस्थिति में उनकी आज्ञा से संभालकर रखे जाते थे। उन्होंने जब अख़बार पढ़ा तो उनका ख़ून खौल गया- उन्होंने अपने बेटे को बुलाया और उस पर बरस पड़े- वो इंकार करता रहा, मगर उनको अपने लाड़ले की करतूत मालूम थी। वो अभी डाँट-डपट में लगे थे कि बेटे का एक दोस्त आहिस्ता से कमरे में आया- उसे देखकर वो रुक गये दोस्त ने कहा, “अंकल वो हमारा दोस्त ‘बॉबी' सुबह जोगिंग को गया था अभी तक वापस नहीं आया”- उसने घड़ी देखते हुए कहा- “सात बजे का गया अब दस बज रहे हैं अभी तक नहीं आया।”
सुनकर चौधरी साहब भी चिंतित हो गये- “सात बजे का गया दस बज गये, नहीं आया... जाओ, जाओ जाकर देखों उसे- कुछ अन्दाज़ा है वो किधर गया होगा?”
“अंकल वो कह रहा था कि लेक (झील) तक जायेगा- उसे वो स्थान बहुत पसंद है- वो अक्सर वहीं जॉगिंग के लिये जाता है।” दोस्त ने बताया।
“जाओ तुम लोग उसे तलाश करो। मैं नौकरों से भी कहता हूँ- उसे ढूँढ़ने के लिये।” चौधरी ने कहा। अभी वो कह ही रहे थे कि एक आदमी दौड़ता हुआ आया- “बड़े साब, छोटे साब के दोस्त झील के किनारे पड़े मिले हैं।”
“तो उन्हें उठाकर लाये क्यों नहीं?” उन्होंने डपटकर कहा। “ला रहे हैं बड़े साब, खटिया पर डालकर ला रहे हैं।” -वह बोला।
“कुछ मालूम हुआ रशीदा के बारे में? वो अब तक बीवी को देखने नहीं आया- वो बेचारी शैदा-शैदा चिल्लाती रहती है और कोई शब्द नहीं कहती”- रख़शंदा ने असग़र से पूछा!
“नहीं, कोई पता नहीं चला, कल चौधरी साहब भी उसके घर गये थे- इस घटना पर अफसोस प्रकट करने और वे भी रशीदा के बारे में बहुत दिलचस्पी ले रहे हैं- कि वह कहाँ है? अब तक घर क्यों नहीं आया? और ये कि रेशमाँ पर बलात्कार करने वालों को पकड़वा कर उन्हें सज़ा जरूर दिलवायेंगे।” असग़र ने बताया।
“रशीदा अब तक घर क्यों नहीं आया- आश्चर्य की बात है- मगर वो जहाँ भी होगा गुस्से में पागल होगा।” रख़शंदा ने कहा।
“बिल्कुल शायद इसी कारण वो इतने चिन्तित थे-जवान आदमी है कुछ भी कर सकता है- हाँ तुमने सुना चौधरी साहब के साहबज़ादे (पुत्र) का एक दोस्त जॉगिंग करते-करते एक दम से गिर गया और ख़त्म हो गया-जवान लड़का था।” असग़र ने बताया।
“सुना तो था, क्या हुआ था? तुम पुलिस के पास गये तो होंगे? लाश की फ़ोटो ली थी-अख़बार में भी छपी है।” रख़शंदा ने पूछा।
“हाँ लड़के के माँ-बाप आ गये थे- मुझे एक अजीब बात महसूस हुई- जब हमीद फ़ोटो ले रहा था तो मैं भी उसके पास ही खड़ा था- मैंने देखा कि लड़के की गर्दन के घेरे में गहरे लाल निशान थे जो काले पड़ते जा रहे थे।” असग़र ने बताया।
“तुम कहना क्या चाहते हो?” रख़शंदा ने जिज्ञासा से पूछा।
“यही कि मुझे वो रस्सी का निशान लग रहा था, जैसे किसी ने गले में रस्सी डाल कर गला घोंट दिया हो”- असग़र ने कहा।
“और डाक्टर ने क्या कहा?” रख़शंदा ने पूछा।
“वही हमेशा का घिसा पिटा जवाब - हार्टअटैक - ये लोग विस्तार में कहाँ जाते हैं। जो काम जल्दी से जल्दी हो जाये वही अच्छा है- फिर हमारे यहाँ पुलिस भी कब जाँच पड़ताल करती है?” असग़र ने कहा।
“बस उसे एक आदमी चाहिये, जिसको मार-मार कर उधेड़ सकें और अपराधी ठहरा कर फाँसी पर चढ़ा दें। उनको इससे क्या मतलब कि वो बिल्कुल निर्दोष है। या वास्तविक अपराध किसने किया है?”
“तुमने अपने शक का इज़हार किया? किसी से या पुलिस वालों से?” रख़शंदा ने पूछा।
“अरे तौबा करो! मेरी भला वो मानते!! फर्ज़ करो वो मान भी लेते, तो इमामदीन को शक की बिना पर पकड़ लेते- ये भी नहीं देखते कि उसमें इतना दम भी नहीं है, कि वो किसी के गले में रस्सी डाल कर उसका गला घोंट दे- या फिर उस रशीदे पर सारा इल्ज़ाम आ जाता। उन लोगों में कॉमनसेंस तो होता नहीं कि कुछ छानबीन करें- तुम रेशमाँ को देखने गई थी?” असग़र ने पूछा।
“हाँ, आज वो थोड़ा बात कर रही थी- उसने पुलिस को बताया कि वो किसी को नहीं पहचानती उन्होंने उसकी आँखें अपने मफ़लर से बंद कर दी थीं और ये कि वो किसी दूसरी भाषा में बात कर रहे थे।” रख़शंदा ने कहा।
“अंग्रेजी में बोल रहे होंगे, बाग़ में पहुँचने के बाद उसको कुछ पता नहीं था- क्यों कि वह डर से बेहोश हो गई थी- दरिन्दे थे दरिन्दे।” असग़र ने गुस्से से कहा।
“आज तीसरा दिन है और रशीदे का कुछ पता नहीं- उसका बड़ा भाई भी दुबई से आ गया- उसने भी अख़बार में खबर पढ़ी थी- बड़ी अजीब बात है”- असग़र रख़शंदा से कह रहा था। “जहाँ काम करता है उन लोगों को भी कुछ नहीं मालूम वो काम पर भी नहीं आया उसी दिन से गायब है।”
“रशीदे का बड़ा भाई भी अस्पताल आया था रेशमाँ को देखने, जिसका रो-रो कर बुरा हाल था।” रख़शंदा असग़र को बता रही थी।
“मैं रोज़ आफ़िस जाते वक़्त अस्पताल हो आती हूँ- रेशमाँ के लिये अम्मी खाना साथ कर देती हैं- मगर वो तो अभी तक ठीक नहीं हो पाई है और हो भी कैसे सकती है, इतनी बड़ी घटना घट गई उसके साथ- काफी समय लगेगा उसे नार्मल होने में। हमारे यहाँ तो कॉउन्सलिंग वग़ैरह भी नहीं होती है कि सुनकर रो धो कर इंसान ग़ुस्से और दिल की भड़ास निकाल लें।”
“अच्छा! ... तो ये होती है कॉउन्सलिंग? मैं तो समझता था कोई ट्रीटमेन्ट होता है- दवाएँ वग़ैरह दी जाती हैं।” असग़र ने कहा।
“ट्रीटमेन्ट ही तो होता है एक इंसान से अपना सारा दुख दर्द कह देना” रख़शंदा बोली।
“मगर वो तो दीदी-मौसी या बुआ भी कर सकती हैं किसी और के पास जाने कि क्या ज़रूरत है?” असग़र ने पूछा।
“मौसी, बुआ दुख दर्द नहीं सुनेगी- बस समझाने बैठ जायेंगी-और आपका प्वाइंट ऑफ व्यू सुने या समझेंगी ही नहीं। कॉउन्सलर एक बिल्कुल ग़ैर आदमी या औरत होते हैं- वो समझाते नहीं, बस आपके दुख दर्द सुनते हैं। पूछना होगा तो पूछेंगे- आप ऐसा क्यों महसूस करती हैं या क्या आपको मालूम है कि आपके ये जज़बात क्यों हैं? इसी तरह इन्सान अपने अन्दर के कोने-कोने में छुपे हुए पुराने शिकवे शिकायत या कमजोरियाँ या कि जाने वाली ज्यादतियाँ ढूँढ लेता है, और एक-एक करके उनको रद करके रद्दी की टोकरी में डालकर उन्हें भुलाने में सफल हो जाता है।”
“और हल्का-फुल्का हो जाता है- मगर रेशमाँ को अधिक समय लगेगा।” रख़शंदा ने लम्बी साँस लेकर कहा।
“तुम्हें इतनी डिटेल कैसे मालूम?” असग़र ने पूछा।
“जनाब, मैंने एक सब्जेक्ट लिया था ऑनर्स में।” रख़शंदा बोली।
“ओ-हो फिर तो तुम रेशमा की मदद कर सकती हो।” असग़र ने कहा।
“अगर वो तैयार हुई तो... मजबूर नहीं किया जा सकता....” तभी फ़ोन की घंटी ज़ोरों से बज उठी- असग़र ने रिसीवर उठाया और जल्दी से अपनी जैकेट उठाते हुए बोला, “मैं जा रहा हूँ एक कार एक्सीडेंट हो गया है - मुझे उसे कवर करना है।”
दो दिन बाद कार के एक्सीडेन्ट की फ़ोटो देखते हुए असग़र रख़शंदा से कह रहा था, “मुझे कुछ ऐसा महसूस होता है कि ये एक्सीडेंट नहीं था लड़के इतनी तेज़ गति से जा भी नहीं रहे थे और वहाँ तो कोई होता भी नहीं है ख़ाली सड़क होती है।”
“तुम्हें कैसे पता चला कि वे तेज रफ़्तार से नहीं जा रहे थे।” रख़शंदा ने पूछा।
“मैंने कार के स्पीडोमीटर को चेक किया था। स्पीड पचास से ज्यादा नहीं थी”-असग़र ने बताया।
“पुलिस क्या कहती है?” रख़शंदा ने पूछा।
“क्या कहेगी, यही कि तेज़ गति से जा रहे थे- इसीलिये क़ाबू से बाहर हो गई और पेड़ से टकरा कर उलट गई।” असग़र ने बताया।
“और तुम समझते हो किसी ने कुछ गड़बड़ की थी?” रख़शंदा ने पूछा।
“हाँ-ज़रूर ब्रेक फेल करने में कितनी देर लगती है? बस एक स्क्रू निकाल दो और गाड़ी काबू से बाहर- लड़के घबरा गये होंगे और इसी हालत में ये घटना घट गई।” असग़र ने बताया।
“कितने लड़के थे?” रख़शंदा ने पूछा।
“दो, एक चौधरी साहब का बेटा और दूसरा उसका दोस्त।”
“चोटें बहुत आई हैं क्या?” रख़शंदा ने पूछा।
“कुछ ज़्यादा ही-” असग़र की आवाज़ पर रख़शंदा चौंक गई-” पूछा, “क्या मतलब कुछ ज्यादा ही क्या?”
“यही कि दोनों में से कोई नहीं बचा।” असग़र ने ठन्डे स्वर में जवाब दिया।
“कोई नहीं बचा! रियली?” वो हैरानी से बोली।
“कोई नहीं, अजीब बात है ना, तीनों अपनी करनी का फल पा गये। मगर ये मानव का इंसाफ है।” असग़र ने बताया।
“परन्तु मानव को अपने हाथ में इंसाफ नहीं लेना चाहिये।” रख़शंदा ने कहा।
“तुम क्या बात कर रही हो? ये सब सुन्दर शब्द उन देशों के लिये हैं जहाँ सब इंसान बराबर हैं- सबको इन्साफ़ मिलता है- जब इंसाफ़ नहीं मिलता तो लोग स्वयं अपनी अदालत बनाकर अपना इंसाफ़ बाँटने लगते हैं। हमारे देश में चोरी डाका क्यों इतना बढ़ रहा है? क्यों क़त्ल और ग़ारतगीरी में वृद्धि हो रही है। अब वो लोग जिन पर अत्याचार हुआ है- वे दूसरों पर जु़ल्म करके अपना बदला ले रहे हैं... उन्हें क्या चिंता कि निर्दोष निशाना बन रहे हैं, वो भी तो निर्दोष थे- भला ऐसे में हम जैसे सपने देखने वालों की क्या जगह है? असग़र ने कहा।
“मगर तुम सपने देखना न छोड़ना असग़र- शायद कभी अच्छी ताबीर भी मिल जाये तुमको, डैडी को ख़्वाब देखते रहना चाहिये-क्योंकि हमें ज़िन्दा रहने के लिये ख़्वाबों की ज़रुरत है”। रख़शंदा ने उसे मशविरा दिया।
रख़शंदा फोन पर असग़र को बता रही थी- “अभी-अभी अस्पताल से फोन आया था, रेशमाँ की हालत नाज़्ाुक है, डॉक्टर कह रही थी कि उसे कोई बीमारी नहीं है, वो हार्ट ब्रोकेन है कि इतने दिन गुज़र गये उसका पति उसे देखने नहीं आया- क्या वो उसे अब छोड़ देगा- उसे क्या पता कि वो किस काम में लगा था, और उसे बताया भी नहीं जा सकता।”
“वो... रशीदे का पता चल गया है, मैं इमामदीन चाचा के घर गया था। उनका बड़ा बेटा माँ-बाप को लेकर अपने चचा के पास हसन अब्दाल जा रहा है। रशीदे भी वहाँ पहुँचा है मगर इस हाल में कि दोनों टाँगे सूजी हुई हैं, जैसे वो मीलों पैदल चलता रहा हो, और वो बुखार में भी तप रहा था। वो सड़क पर पड़ा हुआ किसी को मिला था- जो उसे पहचान कर उसके चचा के पास ले गया।”
“कितना फ्रस्टे्रशन होता है कि एक घर बर्बाद हुआ जा रहा है, और हम कुछ नहीं कर सकते। मैंने एस.एच.ओ. से पूछा कि आप किसी से पूछताछ नहीं करेंगे? तो कहने लगा साहब किससे करें? हमको पता है कि लड़के पीते पिलाते हैं नशा करते हैं और ऐसी हालत ही में वो इस तरह की वारदात करते हैं- मगर ये लोग पावर वाले होते हैं- हम तो उनके बच्चों से ये भी नहीं पूछ सकते कि उस दिन शाम को आप कहाँ थे, क्या कर रहे थे- वो पुलिस वाला भी अपनी नौकरी को दाँव पर नहीं लगाना चाहता... मगर हमें तो कुछ करना चाहिये, कुछ तो करना चाहिये, चुप नहीं रहना चाहिये।” असग़र ने विवशता से कहा।
“मगर तुम क्या कर सकते हो? ये लोग वाक़ई पावरफुल लोग हैं- और किसी अच्छे हवाले से नहीं, ये सब माफ़िया हैं, किसी ने उनके ख़िलाफ़ एक शब्द कहा या लिखा तो उसको रास्ते से हटाना उनके बायें हाथ का भी नहीं बाँयी उंगली का खेल है- तुम्हें हकीम सईद याद हैं? और डॉक्टर गुलाम मुस्तफ़ा मलिक, क्या महान हस्तियाँ थीं कितने दीनी और दुनियावी काम करते थे मगर ईश्वर जाने किस की आँखों में खटकने लगे... हम तुम तो कुछ भी नहीं हैं। और जब हमारे देश में इन बड़ी-बड़ी हस्तियों के क़ातिल नहीं पकड़े गये तो फिर।” रख़शंदा ने कहा।
“अच्छा चलन हो गया है हमारे वतन का जिससे कोई भी रुकावट हो या कोई नापसंद हो, बस उसका काम तमाम।” असग़र ने क्रोध से कहा।
“इंसानी जिंदगी की कोई कीमत ही नहीं है” असग़र बड़बड़ाया।
“रेशमाँ ने नींद की गोलियाँ खाकर अपनी जान दे दी”, रखशंदा ने रोते हुए बताया।
“डॉक्टर कह रही थी कि रेशमा को यकीन हो गया था कि उसका पति अब उसकी शक्ल नहीं देखेगा अब वो उसे छोड़ देगा, फिर वो क्या करेगी ज़िन्दा रहकर? हाय बेचारी कितनी दुखी थी। काश उसने मुझसे बात की होतीं।”
“मगर एकदम से उसे इतनी नींद की गोलियाँ मिलीं कैसे?” असग़र ने हैरान होकर पूछा।
“इसी बात से अस्पताल वाले भी हैरान हैं- शायद ऐसा हो कि उसे डेली, जो नींद की गोलियाँ दी जाती थीं वो उन्हें जमा करती रही और फिर... अब तुम इस ख़बर की क्या सुर्ख़ी लगाओगे?” रख़शंदा ने पूछा।
“जिन की ज़िन्दगियाँ बेउनवान होती हैं, उनकी मौत की ख़बर का क्या उनवान होगा, तुम ही बताओ?” असग़र ने दुखी होकर कहा।
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