मुक्तक माधुर्य डॉ. हीरालाल प्रजापति [1] कम से कम में भी ज़्यादा लुत्फ़ उठाकर निकले ॥ अपने चादर से कभी पाँव न बाहर निकले ॥ चाँद सूरज क...
मुक्तक माधुर्य
डॉ. हीरालाल प्रजापति
[1] कम से कम में भी ज़्यादा लुत्फ़ उठाकर निकले ॥
अपने चादर से कभी पाँव न बाहर निकले ॥
चाँद सूरज की तमन्नाएँ न पालीं हमने ,
जुगनुओं से बख़ूबी काम चलाकर निकले ॥
[2] पेटू को तीखी चटनी ओ' अचार का चस्का ॥
अक्सर ही डॉक्टर को हो बीमार का चस्का ॥
जैसे कि जुआरी को जुआ खेलने की लत ,
दिन-रात मुझको है तेरे दीदार का चस्का ॥
[3] जब तलक थे तेरे दिल के बादशा हम ॥
थे यूं लगता था खुदाई के खुदा हम ॥
तेरी नज़रों से गिरे दिल से फिंके तो ,
चलते फिरते हो गए मुर्दा मुदा हम ॥
[4] किसी सूरत में इश्क़-ओ-आशिक़ी लिल्लाह मत करना ॥
अगर हो जाये फिर अंजाम की परवाह मत करना ॥
यकीनन जिसको चाहोगे उसे तुम पाओगे इक दिन ,
वलेकिन एहतियातन खुद से ऊँची चाह मत करना ॥
[5] तैर न पाये तो जलयान ही बना डाला ॥
उड़ न पाये तो वायुयान ही बना डाला ॥
कोई तेरा न जब विकल्प मिल सका हमने ,
आत्महत्याओं का सामान ही बना डाला ॥
[6] हम जो होते हैं वो दुनिया को कब दिखाते हैं ॥
मिर्च होते हैं मगर गुड़ शहद बताते हैं ॥
क्योंकि कब झाँकती है रूह किसी की दुनिया,
इसलिए जिस्म ही भरपूर सब सजाते हैं ॥
[7] जिस राह मैं चला न करता दूसरा धारण ॥
लेते सबक ज़रूर मेरा देख निवारण ॥
होता है वर्ल्ड कप क्रिकेट मैच का जैसे ,
होना था मेरे हश्र का जीवंत प्रसारण ॥
[8] गहराई से झाँको तो अच्छाई भी मिलेगी ॥
ऊपर से नीचा नीचे ऊंचाई भी मिलेगी ॥
इंसाँ हूँ मैं तो तुमको मेरे सफर में कानन,
मरुथल,पहाड़,समतल,नद,खाई भी मिलेगी ॥
[9] रात हो दिन हो फकत ऐश-ओ-आराम करें ॥
गर लगे भूख न लोगों को तो क्यों काम करें ॥
फिर भी कुछ हैं जो फकत जीते नहीं जीने को ,
दूसरों के लिए जीने का इंतजाम करें ॥
[10] हम उनसे तेज़ और ज़्यादा लगाएँ दौड़ लेकिन वो ,
अरब का खुद को घोड़ा और गधा-खच्चर हमें कहते ॥
खुशी हमको भी उनकी कामयाबी पर ज़रूर होती ,
हसद क्यों होता उनसे वो न गर कमतर हमें कहते ॥
[11] दिल में उनके सिवा न दूसरा सवार रहा ॥
उनके काबिल न थे फिर भी उन्हीं से प्यार रहा ॥
वो न आएंगे खूब जानते थे हम लेकिन ,
एक उनका ही मरते दम तक इंतज़ार रहा ॥
[12] बूढ़ा जवान बच्चा बीमार या सेहतमंद ,
आ जाये जिसकी कुछ हो बचता न बचाने से ॥
जिसके भी जनाजे में जुटती हो भीड़ भारी ,
वो शख़्स अलहदा ही होता है जमाने से ॥
[13] दुश्मन भी हमसे बनके हमेशा सगा मिला ॥
हमको कभी वफा न मिली बस दगा मिला ॥
जिस दिल को भी चुराने चले शब-ए-स्याह हम,
उस रोज़ आधी रात को भी वो जगा मिला ॥
[14] घर खुला रखना है और चोरों से बचाना भी ॥
छेद गुब्बारों में करना है फिर फुलाना भी ॥
ये किस तरह का हुक्म तूने सुनाया अहमक़ ,
हकलों को गाना है अधबहरों को सुनाना भी ॥
[15] लिए उड़ानों की हसरतें जंगलों में पैदल सफर करें ॥
हुकूमतों की लिए तमन्ना गुलामियों में बसर करें ॥
न जाने खुद की खताएँ हैं या नसीब की चालबाज़ियाँ ,
कि हम तमन्नाई क़हक़हों के हमेशा रोना मगर करें ॥
[16] कहने को जमाने में मेरे दोस्त हैं हज़ार ॥
दो चार ही निकलेंगे शायद उनमें गमगुसार ॥
मतलब को कुछ तो गुड़ में मक्खियों से चिपकते ,
हो जाते हैं तक्लीफ़ोमुसीबत में कुछ फरार ॥
[17] बेवफा हो गई फिर भी तो लुभाती है मुझे ॥
कैसे कह दूँ न तेरी याद रुलाती है मुझे ॥
तुझसे नफरत करूँ,बदला लूँ ,खूब चाहूँ मगर
तेरी सूरत पे मुहब्बत चली आती है मुझे ॥
[18] मेरी आँखों को सुकूँ-चैन-ओ-करार मिले ॥
मौत से पहले अगर आपका दीदार मिले ॥
तड़पते दिल को भी मिल जाये राहत-ओ-आराम ,
बोसा होठों का गले बाजुओं का हार मिले ॥
[19] तू सिर से पाँव तक बेशक निहायत खूबसूरत है ॥
ये तेरा जिस्म संगेमरमरी कुदरत की मूरत है ॥
फ़क़त न नौजवानों की जईफ़ों की भी अनगिनती ,
तू सचमुच मलिका-ए-दिल है मोहब्बत है ज़रूरत है ॥
[20]आव देखा न ताव उनका झट चुनाव किया ॥
बाद मुद्दत के मगर प्रेम का प्रस्ताव किया ॥
तब तलक उनके कहीं और लड़ चुके थे नयन ,
अपना खत खुद ही फाड़ राह में फैलाव किया ॥
[21] ख्वाबों से खुद को भरसक हम दूर कर रहे हैं ॥
दिल पर हम अपने काबू भरपूर कर रहे हैं ॥
क्या चाहते हैं हम खुद हमको पता नहीं है ,
जो कुछ भी मिल रहा है मंजूर कर रहे हैं ॥
[22] बहुत बुरा हो फिर भी उसको बहुत भला ही कहती है ॥
अपना गंदा बच्चा भी माँ दूध धुला ही कहती है ॥
नहलाते नहलाते अपने कौए से बच्चे को माँ ,
हंस कभी कहती तो कभी लक-दक बगुला ही कहती है ॥
[23] चट्टानों से दिखते हो पर हो राखड़ ॥
तुम सूरज से डरने वाले चमगादड़ ॥
बनते हो रहनुमा फरिश्ते और खुदा ,
ऊपर प्रेमिल अंदर से मुक्का झापड़ ॥
[24] उम्र भर इश्क लगा सख्त नागवार मुझे ॥
कौमें आशिक से ही जैसे थी कोई खार मुझे ॥
कितना अहमक़ हूँ या बदकिस्मती है ये मेरी ,
वक़्ते- रुखसत हुआ है इक हसीं से प्यार मुझे ॥
[25] पाँव में फटते ज्यों आ जाती हैं जुराबें नई ॥
खत्म होते ही ढलतीं प्यालों में शराबें नई ॥
कोई पन्ने भी पलटता नहीं है उनके मगर ,
उनकी छप छप के चली आती हैं किताबें नई ॥
[26] भूख जिसकी भी लगे उसको मैं खाकर के रहूँ ॥
चाहता हूँ जो उसे हर हाल पाकर के रहूँ ॥
अब इसे ज़िद कहिए कहिए ख़ब्त या मंजिल की धुन ,
पाँव कट जाएँ तो सिर को मैं चलाकर के रहूँ ॥
[27] छूने से तेरा बिल्कुल छुईमुई सा सिमट जाना ॥
इसरार पे पेड़ों की बेलों सा लिपट जाना ॥
ये जानलेवा तेरी इक इक अदा पे मुझको ,
शम्मा पे पतंगों सा लगता है निपट जाना ॥
[28] हथ तोड़ दे , मत हथ छोड़ मगर ॥
मुंह फोड़ दे , मत मुंह मोड़ मगर ॥
बिन तेरे मेरी दुनिया दोज़ख ,
जाँ ले ले तू मत दिल तोड़ मगर ॥
[29] जबकि जी भर के सताया है रुलाया है मुझे ॥
फिर भी लगता है मोहब्बत ने बनाया है मुझे ॥
उसको पाने को ही सिफर से हुआ था मैं हज़ार ,
उसके न मिलने ने मिट्टी में मिलाया है मुझे ॥
[30] हँसके सिर आँखों पे उठाई ही क्यों जाती है ?
जब बुरी है तो फिर बनाई ही क्यों जाती है ?
इतनी नापाक है गंदी है फिर बताओ शराब ,
पीयी जाती है और पिलाई ही क्यों जाती है ?
[31] कभी कभी लगता है कभी भी आए न रात ॥
और कभी लगता है कभी न होए प्रभात ॥
सब मन की पगलाहट माथे की झक है ,
कभी लगे अच्छी मैयत तो कभी बरात ॥
[32] लाख खूंख्वार हो शैतान हो वली समझे ॥
दोस्त वो है जो अपने दोस्त को सही समझे ॥
दोस्त का चिथड़ा चिथड़ा दूध भी तहे दिल से ,
रबड़ी छैना बिरज का मथुरा का दही समझे ॥
[33] बचपन में ही इश्क ने उसको यों जकड़ा ॥
है चौदह का मगर तीस से लगे बड़ा ॥
जिससे दोनों हाथ से लोटा उठता न था ,
वो प्याले सा एक हाथ से उठाता घड़ा ॥
[34] एहसास मर चुके हैं मेरे अब तो इस कदर ॥
बर्फीली हवाओं का न अब लू का हो असर ॥
लगता नहीं किसी भी जगह उसके बिना दिल ,
जंगल हों मरुस्थल हों कि न्यूयार्क से शहर ॥
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